Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
View full book text
________________
प्रकार से पाया जाता है
भावाणं सामण्ण विसेसयाणं सरूवमेत्तं जं।
वण्णणहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि॥ (483) निर्विकल्परूप से जीव के द्वारा जो सामान्य विशेषात्मक पदार्थों की स्व-पर. सत्ता का अवभासन होता है उसको दर्शन कहते हैं। .
पदार्थों में सामान्य विशेष दोनों ही धर्म रहते हैं; किंतु इनके केवल सामान्य धर्म की अपेक्षा से जो स्व-पर सत्ता का अवभासन होता है उसको 'दर्शन' कहते हैं। इसका शब्दों द्वारा प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। इसके चार भेद हैं चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन का स्वरूप
चक्खूण जं पयासइ दिस्सइ तं चक्खुदंसणं वेति। . .
सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खूत्ति॥ (484) जो पदार्थ चक्षुरिन्द्रय का विषय है उसका देखना, अथवा वह जिसके द्वारा देखा जाय, अथवा उसके देखने वाले को 'चक्षुदर्शन' कहते हैं। और चक्षु के सिवाय दूसरी चार इन्द्रियों के अथवा मन के द्वारा जो अपने-अपने विषयभूत पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है उसको ‘अचक्षुदर्शन' कहते हैं। अवधिदर्शन का स्वरूप
परमाणु आदियाइं अंतिमखंधं ति मुत्तिदंव्वाइं।
तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सइ ताई पचक्खं॥ (485) अवधिज्ञान होने के पूर्व समय में अवधि के विषय भूत परमाणु से लेकर महास्कन्धपर्यन्त मूर्तद्रव्य को जो सामान्य रूप से देखता है उसको ‘अवधिदर्शन' कहते हैं। इस अवधि दर्शन के अनन्तर प्रत्यक्ष अवधि ज्ञान होता है। केवल दर्शन का स्वरूप
बहुविहबहुप्पयारा उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि।
लोगालोगवितिमिरो जो केवलदंसणुज्जोओ॥ (485) तीव्र-मंद-मध्यम आदि अनेक अवस्थाओं की अपेक्षा तथा चन्द्र, सूर्य आदि
126
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org