Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
View full book text
________________
पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्ददेव ने कहा है. पुढवी य उदगमगणी वाउ वणण जीवसंसिदा काया। देति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं॥(110)
(पृ.282) पृथ्वीकाय, अप्काय, तेज:काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ऐसे यह पुद्गल परिणाम बंधवशात् [बंध के कारण] जीव सहित हैं। अवान्तर जातिरूप भेद करने पर वे अनेक होने पर भी सभी (पुद्गल परिणाम), स्पर्शनेन्द्रियावरण के क्षयोपशम वाले जीवों को बहिरंग स्पर्शनेन्द्रिय की रचनाभूत हुए कर्मफल चेतना प्रधानपने के कारण अत्यन्त मोह सहित ही स्पर्शोपलब्धि (ज्ञान) संप्राप्त कराते हैं।
ति स्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा।
मणपरिणाम विरहिदा जीवा एइंदिया णेया॥(111) उनमें तीन जीव स्थावर शरीर के संयोग वाले हैं, वायु-कायिक और अग्निकायिक जीव त्रस हैं, वे सब मनपरिणाम रहित एकेन्द्रिय जीव जानना ।
तत्र स्थावरनाम कर्मोदयाद्भिन्नमनंत ज्ञानादिगुण समूहादभिन्नत्वं यदात्मत्तत्वं तदनुभूति रहितेन जीवेन यदुपार्जितं स्थावर-नामकर्म तदुदयाधीनत्वात् यद्यप्यग्निवातकायिकानां व्यवहारेण चलनमस्ति तथापि निश्चयेन स्थावरा। जीव ने जो स्थावर नामकर्म बांधा है उसके उदय के आधीन होने से यद्यपि अग्नि और वायुकायिक जीवों को व्यवहार नय से चलनापना है तथापि निश्चयनय से स्थावर ही है। - एदे, जीवणिकाया पंचविधापुढविकाइयादीया।
माणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया॥ (112) पृथ्वीकायिक आदि जीव, स्पर्शनेन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम के कारण तथा शेष इन्द्रियों के आवरण का उदय तथा मन के आवरण का उदय होने से मनरहित एकेन्द्रिय हैं। एकेन्द्रियों को चैतन्य का अस्तित्व होने सम्बन्धी
131 www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Personal & Private Use Only