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श्रीमद् राजचंद्र __१७वें वर्षसे पहले
प्रथम शतक
शार्दूलविकोरितवृत्त *ग्रंथारभ प्रसंग रंग भरवा, कोडे कर कामना; बोधू धर्मद मर्म भर्म हरवा, छे अन्यथा काम ना; भाखं मोक्ष सुबोध धर्म धनना, जोडे कथु कामना; एमां तत्व विचार सत्त्व सुखदा, प्रेरो प्रभु कामना ॥१॥
। छप्पय नाभिनंदन नाय, विश्ववंदन विज्ञानी; भव बंधनना फंव, करण खंडन सुखदानी; ग्रंथ पंथ आद्यंत, खंत प्रेरक भगवंता;
अखडित अरिहंत तंतहारक जयवंता; श्री मरणहरण तारणतरण, विश्वोद्धारण अघ हरे; ते ऋषभदेव परमेशपद, रायचद वंदन करे ॥२॥
प्रभुप्रार्थना - दोहा जळहळ ज्योति स्वरुप तु, केवळ कृपानिधान । प्रेम पुनित तुज प्रेरजे, भयभंजन भगवान ॥३॥
* भावार्थ-१. अथके आरभरूप प्रसगको सुन्दर एव मनोहर बनानेकी उल्लासपूर्ण कामना करता हूँ। इस ग्रथमें भ्रम-अज्ञानको दूर करनेके लिये धर्मका वोष करानेवाले मर्मको प्रकाशित करना चाहता हूँ, अन्य कोई प्रयोजन नही है। इसमे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थोंके सुवोध-सम्यग्ज्ञानका वर्णन करना चाहता हूँ। वोवराग प्रभो ! आप मुझे सुखद तत्त्वविचारकी शकि प्रदान करें।
२ नाभिनदन, नाथ, विश्ववद्य, विज्ञानी-विशिष्ट ज्ञानी, भवबघनके फदेका खडन करनेवाले, सुखदानी, ग्रथके पथमें आदिसे अन्त तक उत्साहित करनेवाले भगवान, अखडित, अरिहत, कर्मसततिके नाशक, विजयी, मरणहरण, तरनतारन, विश्वोद्धारक प्रभु पापको दूर करें । उन श्री ऋषभदेव परमेश्वरके चरणोमें रायचद वदन करते हैं।
३ हे भयभजन भगवान ! तू प्रकाशमान, ज्योतिस्वरूप और सर्वथा कृपानिधान है। तेरा पुनित प्रेम मुझे प्रेरित करे।