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श्रय संस्कृत की विशेषताएँ
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अभिरुचि देखी जाती हैं। यही कारण है कि स्वर्ग और पृथिवी के निवाशियों के परस्पर मिलने जुलने की कथाओं की कमी नहीं है ।
सीमा से बढ़ जाने वाली अतिशयोक्ति का उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है । इसके इतने उदाहरण है कि पूर्वीय अतिशयोकि जगप्रसिद्ध हो चुकी है। बारा की कादम्बरी में उज्जयिनी के बारे में कहा गया है कि वह त्रिभुवनलख मभूता, मानों दूसरी पृथिवी, निरन्तर होते रहने बाले अध्ययन की ध्वनि के कारण धुले हुए पापों वाली' है । (वैदिक काक्ष के बाद की शैली में विरक्त या साधु बन जाने का सीमा से अधिक वर्णन, पौराणिक कथाओंों का रङ्ग-बिरङ्गा कलापूर्ण उल्लेख, घटाटोप वर्णनों के दल के दन, महाकाव्यों का भारी भरकम डीलडौल, एक प्रकार का अनुपम संक्षिप्त शैली वाखा गद्य, अभ्यास-वश प्रयुक्त किये गये लम्बे-लम्बे समास' ऐसी बात है, जो श्र ेय संस्कृत में पाई जाने वाली इस विशेषता को प्रकट करती है ।
(ग) प्रतिपाद्य विषय-यदि वैदिक साहित्य वास्तव में धर्मपरक I तो लगभग सारे का सारा श्रेय संस्कृत साहित्य लौकिक विषय-परक है । श्रय संस्कृत काल में वैदिक समय के अग्नि, वायु, वरुण इत्यादि पुराने देवता गौण बन गये है और उनके मुकाबिले पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव मुख्य उपास्य हो गये है। इसके अतिरिक्त गणेश, कु.वेर, सरस्वती और लक्ष्मी इत्यादि अनेक नये देवताथों की कल्पना कर जी गई है। (घ) श्री एय संस्कृत - काल की भाषा पाणिनि के कठोर नियमों से बँधी हुई है। इसके अतिरिक्क, कविता को नियत्रित करने वाले अलंकार
१. उज्जयिनी का वर्णन एक शैली में लगभग ४१-४१ व वाली ४१ पंक्तियों में किया गया है। दण्डी के दशकुमारचरित्र में भी पुष्पापुरी का वर्णन प्रायः ऐसा ही है । २. देखिए मैकडानल कृत संस्कृत-साहित्य का इतिहास ( इग्लिश )