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संस्कृत साहित्य का इतिहास
रूपक का विकास-मानो एक सजीव शरीर था, जिसके रूप में बारबार परिवर्तन हुए, जिसने जो मिला उसी को हड़प कर लिया और फिर भी अपना स्वरूप प्रक्ष एण रक्खा । डा० बेलवलकर का कथन है:"इसके सर के सब जटिल उपादानों को ज्याद्या करने के लिए किसी एक सिद्धान्त से काम नहीं चल सकत।। रूपक के विविध-विध रूप
और रंग हैं। उनमें से कभी एक को और कभी दूसरे को लेकर प्रति. भात्रों का जो संग्राम हुआ है, उसने हमारे प्रश्न को और भी कठिन बना दिया है। हमें श्राशा भी यही थी, क्योंकि, रूपक का तात्पर्य कोकानुकृति से है; और, जीवन के समान ही, यदि यह दुर्विश्लेषणीय रहे, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।
(१०५) रूपक का यनानी उद्भव । कुछ विद्वान् समझते हैं कि शायद संस्कृत रूपक का जन्म यूनानी रूपक से हुआ होगा। उनकी धारणा है कि यूनानी रूपक का इतिहास भारतीय रूपक के इतिहास से बहुत अधिक पुराना है; और महान् सिकन्दर के अाक्रमण के पश्चात् भारतीय समुद्रतट पर कुछ यूनानी सोग बस गये थे. जो फुर्सत के वक्त जी बहलाने के लिए अपने देश के नाटक खेला करते होंगे। उनके इन नाटकों से भारतीय नाटकों की उत्पत्ति और बुद्धि पर उसी प्रकार बड़ा प्रभाव पड़ा होगा, जिस प्रकार उनकी ज्योतिष और गणित विद्या का बड़ा प्रभाव भारतीय ज्योतिष और गणित विद्या पर पड़ा है। वैचर ( Weber ) और विडिश (Windisch) ने दोनों देशों के रूपकों में सादृश्य दिखाते हुए इस सिद्धान्त की बेल को मद चढ़ाने का पुष्कल प्रयास किया है। उन्हों ने यवन और यवनिका शब्दों पर बड़ा जोर दिया है । संस्कृत रूपकों में यवनियों को राजाओं की अङ्गरविकाओं के रूप में पेश किया गया है। परन्तु यूनानी रूपकों में यह बात नहीं पाई जाती है। यवनिका शब्द सूचित करता है कि भारतीय रंगशालाओं के पर्ने विदेशी वस्त्र या रंग