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परिशिष्ट (२)
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क्यों न रहने दिया और सैमिटिक के एक और '' इस अक्षर को ब्राह्मी
का 'क' क्यों न बनाया गया, इत्यादि ।
(३) इस सिद्धान्त में यह बात भी स्पष्ट नहीं की गई कि प्रारम्भ में नहीं, तो बाद में लिखने की दिशा क्यों बदली गई। वर्णमाला के स्वभाव में यह बात देखी जाती है कि यह जिधर से जिधर को श्राषिsare के काल में लिखी जाती थी बाद में भी उधर से हो उधर को लिखी जाती रही। दिशा बदलना नए आविष्कार से कम कठिन काम नहीं है । उदाहरणार्थ दशम- लव लगाने की रीति भारतमें आविष्कृत हुई थी । प्रारम्भ में यह बाई से दाई ओर को लगाया जाता था। जब इसे सैमाइट वर्ग के देशों ने ग्रहण कर लिया तब भी इसके लगाने की रीति बाई से दाई ओर को हो रही । इसी प्रकार खरोष्ठी के लिखने की रोति भी आज तक नहीं बदली है, [ यह दाई' से बाईं ओर को लिखी जाती है ] ।
( ४ ) बहर ने सन्दिग्ध साध्य को सिद्ध पक्ष मान कर प्रयत्न किया । उसने यह मान लिया था कि ग्रीक लिपि फ़ोनिशियन ( Phoenic:an ) लिपि से निकली है । परन्तु श्राज तो इस सिद्धान्त पर भी संदेह हो रहा है ।
(५) यदि यह मानें कि एक जाति ने अपनी वर्णमाला दूसरी जाति की वर्णमाला से निकाली है तो यह मानना पहले पड़ेगा कि उन दोनों
१ ब्राह्मी की उत्पत्ति सैमिटिक वर्णमाला से नहीं हुई, इस विचार की पोषक कुछ और युक्तिया ये हैं:
(क) एक ही ध्वनि के व्यंजक वर्ण दोनों वर्ण लिपियों में परस्पर नहीं मिलते हैं । (ख) भिन्न भिन्न वर्णों की प्रतिनिधिभूत ध्वनियों मे परस्पर भेद हैं । जैसे ब्राह्मी ग किन्तु सैमिटिक गिमेल (gimel ) । (ग) सैमिटिक वर्णमाला में मध्यवर्ती (medial ) स्वरों के लिए कोई चिन्ह नहीं है और न उसमें इस्व-दीर्घ का ही भेद न गीकृत है
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