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संस्कृत साहित्य का इतिहास
ज्यादा हो चुका था, (यह बात लिपिकला के आविष्कार के बाद ही हुई थी पहले नहीं), जुए के पासो तथा पशुओं के ऊपर संख्या के अंग डालने के उल्लेख मिलते हैं। इन सब बातों से प्रमाणित होता है कि भारतीयों को लिपिकला का अभ्यास बहुत प्राचीन समय से था।
मौखिक अध्यापन की रीति से हमारे मत का प्रत्याख्यान नहीं हो सकता, कारण, वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण को शिक्षा के लिए ऐसा होना अपरिहार्य था।
(३) ब्राह्मी के अथ-ज्ञान का इतिहास ।, फीरोजशाह तुग़लक की आज्ञा से अशोक का तोपरा वाले शिलालेख का स्तम्भ देहली ले जाया गया था। फीरोजशाह ने इस लेख का अर्थ जानने के लिए जितने प्रयत्न हो सकते थे किए; किन्तु उसे निराश ही रहना पड़ा ! सब से पहले १७८५ ई. चार्लस विल्किस ने दो शिला. लेख पढे --एक बंगालो राजा नारायणपाल (१२०० ई.) का और दूसरा राधाकान्त शर्मा द्वारा लिखित ५३०० ई० का चौहान काला । इसी सन् में जे० ऐच है रिङ्गटन (J. H. Herrington) ने गुप्तवंश तक की पुरानी नागार्जुन की और बराबर की गुफानों का मौखरि नृप अवन्तिवर्मा का एक शिलालेख पढा। इससे गुप्त राजवंश द्वारा प्रयुक्त वर्णमाला का श्राधे के करीब पता लग गया ।
अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ राजस्थान के लिए सामग्री सञ्चय करते हुए कर्नल टॉड (Col. Todd.) ने १८१८ से १८२३ ई० तक कई शिलालेखों का पत लगाया । ये शिलालेख ५ वी से १२ वीं शताब्दी तक के हैं और इनके अर्थ का ज्ञान एक विद्वान् पण्डित ज्ञानचन्द्र की सहायता से हुआ था।
१८३४ ई० में कप्तान ऐ० ट्रायर (Captain A. Trayer) ने प्रयाम बाले शिलालेख का कुछ भाग पढ़ा और डा. मिल (Dr Mill) ने इस के बाकी हिस्से को भी पद डाला।