Book Title: Sanskrit Sahitya ka Itihas
Author(s): Hansraj Agrawal, Lakshman Swarup
Publisher: Rajhans Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य HERS इतिहास Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D0004reaps आकाशमा I A संस्कृत-साहित्य का इतिहास arror (संशोधित तथा संवर्धित) .. . लेखकहंसराज अग्रवाल एम. ए., पी. ई. एस., फ़ल्लर एरिज़बिश्नर और गोल्ड मेडलिस्ट, मैम्बर बोर्ड श्राव स्टडीज़ इन संस्कृत, ऐडिडमैम्बर अोरियण्टल फैक्ल्टी पंजाब युनिवर्सिटी, अध्यक्ष संस्कृत हिन्दी विभाग, गवर्नमेंट कालेज, लुध्याना डा. लक्ष्मणस्वरूप एम. ए., डी. फिल. (आक्सन) श्राफिसर डि. एकेडेमि (फ्रांस). प्रोफेसर श्राव् संस्कृत, पंजाब युनिवर्सिटी लाहौर द्वारा लिखित पूर्व शब्द सहित । प्रकाशक राजहंस प्रकाशन सदर बाजार, दिल्ली तृतीयावृत्ति [१६५० विद्यार्थी संस्करण ४॥) लायब्ररी संस्करण |) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 पहला संस्करण दूसरा संस्करण तीसरा संस्करण : १६४२ १६४७ १६५० Printed by Amar Chand as the Rajhaus Press, Sadar Bazar Delhi, and published by Rajhans Prakashan Sadar Bazar, Delhi. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o समर्पण हिन्दी साहित्य के अनन्य प्रमी, राष्ट्र-भाषा के निःस्वार्थ भक्त, देवनागरी लिपि के परम उपासक, हिन्दो साहित्य-सम्मेलन के भूतपूर्व प्रधान, अलाहाबाद युनिवर्सिटी के भूतपूर्व वाईस-चान्सलर, विद्वानों के परम पूज्य ,श्रीयुत पंडितप्रवर डाक्टर “अमरनाथ भा' के कर कमलों में सादर समर्पित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ นี้ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व-शब्द सस्कृत-साहित्य विशाल और अनेकांगी है। जितने काल तक इसके साहित्य का निर्माण होता रहा है उतने काल तक जगत् में किसी अन्य साहित्य का नहीं। मौलिक मूल्य में यह किसी से दूसरे नम्बर पर नहीं है। इतिहास को लेकर ही संस्कृत-साहित्य त्रुटि-पूर्ण समझा जाता है। राजनीतिक इतिहास के सम्बन्ध से तो यह तथाकथित त्रुटि चित कुल भी सिद्ध नहीं होती। राजत गिणी के ख्यात. नामा लेखक कल्हण ने लिखा है कि मैंने राजानो का इतिहास लिखन के लिए अपने से पहले के ग्यारह इतिहास-ग्रन्थ देखे हैं और मैंने राजकीय लेख-संग्रहालयों में अनेक ऐसे इतिहास-ग्रन्थ देखे हैं जिन्हें कीडों ने खा डाला है, अतः अपाट्य होने के कारण वे पूर्णतया उपयोग में नहीं लाए जा सके हैं । कल्हण के इस कथन से बिल्कुल स्पष्ट है कि संस्कृत में इतिहास-ग्रन्थ लिखे जाते थे। परन्तु यदि साहित्य के इतिहास को लेकर देखें तो कहना पडेगा कि कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिलता है जिससे यह दिखाया जा सके कि कभी किसी भी भारतीय भाषा में संस्कृत का इतिहास लिखा गया था। यह कला अाधुनिक उपज है और हमारे देश में इसका प्रचार करने वाले यूरोप निवासी भारत-भाषा-शास्त्री हैं। संस्कृत-साहित्य के इतिहास अधिकतर यूरोप और अमेरिकन विद्वानों ने ही लिखे हैं । परन्तु यह बात तो नितान्त स्पष्ट है कि विदेशी लोग चाहे कितने बहुज्ञ हों, वे सभ्यता, संस्कृति, दर्शन, कला और जीवन-दृष्टि कीदृष्टि से अत्यन्त भिन्न जाति के साहित्य की अन्तरात्मा की पूर्ण अभिप्रशंसा करने या गहरी था Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास लेने में असमर्थ हो रहेंगे। किमी जाति का साहित्य उसकी रूढि-परम्परा की, परिवेष्टनों की, भौगोलिक स्थितियों की, जलवायु से सम्बद्ध अवस्थाओं की और राजनैतिक संस्थाओं की संयुक्त प्रसूति होता है। अतः किमी जाति के साहित्य को ठीक-ठीक ब्याख्या करना किसी भी विदेशो के लिए दुस्साध्य कार्य है। अब समय है कि स्वयं भारतीय अपने साहित्य के इतिहास-ग्रन्थ लिखते और उसके (अर्थात् साहित्य के अन्दर छुपी हुई श्रात्मा के स्वरूप का दर्शन स्वयं कराते । यही एक कारण है कि मैं श्रीयुत हसराज अग्रवाल एम० ए० द्वारा लिखित संस्कृत साहित्य के इस इतिहास का स्वागत करता हूँ। श्रीयुत अग्रवाल एक यशस्वी विद्वान् है। उसने फुल्ला छात्रवृत्ति प्राप्त की थी और उसे विश्वविद्यालय के स्वर्ण पदकों से सम्मानित होने का सौभाग्य प्राप्त है । यह आते हुए समय की शुभ सूचना है कि भारतीयों ने अपने साहित्य के इतिहास में अभिरूचि दिखलानी प्रारम्भ कर दी है। मेरा विचार है कि संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखने वाले बहुत थोड़े भारतीय हैं, और पञ्जाब में तो श्रीयुत अग्रवाल से पहला कोई है ही नहीं । इन दिनों बी० ए० के छात्रों की आवश्यकता पूर्ण करने वाला, और संस्कृत साहित्य के अध्ययन में उनकी सहायता करने वाला कोई ग्रन्थ नहीं है, क्योंकि संस्कृत के उपलभ्यमान इतिहास बन्यों में से अधिक ग्रन्थ उनकी योग्यता से बाहर के हैं। यह ग्रन्थ बी० ए० श्रेणी के ही छात्रों की आवश्यकता को पूर्ण करने के विशेष प्रयोजन से लिखा गया हैं। लेखक ने बड़ा परिश्रम करके यह इतिहास लिखा है और मुझे विश्वास है कि यह जिनके लिये लिखा गया है उनकी श्रावश्यकताओं को बड़ी अच्छी तरह पूर्ण करेगा। लक्ष्मण स्वरूप ( एम० ए०, डी० फिल०, आफिसर डी एकेडमी) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण का प्रामुख संस्कृत-साहित्य का महत्व बहुत बड़ा है (देखो पृष्ठ १-१) । हिन्दी भाषा का संस्कृन से घनिष्ठ सम्बन्ध है, वही सम्बन्ध है जो कि एक लड़की का अपनी माता से होता है (देखो पृष्ठ ११-१५ )। सस्कृत-साहित्य से सम्बद्ध इतिहास का हिन्दी में अभाव कुछ खलता ला था अतः मैं यह प्रयास संस्कृत-साहित्य से अनुराग रखने वाले हिन्दी प्रेमियों की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस ग्रन्थ को लिखते समय मेरा विशेष लक्ष्य इस विषय को सस्कृत साहित्य के प्रेमियों के लिए अधिक सुगम और अधिक आकर्षक बनाने को ओर रहा है । इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मैने विशेषतया विश्लेषण शैली का सहारा लिया है। उदाहरणार्थ, मैंने यह अधिक अच्छा समझा है कि कविकुलगुरु कालिदास का वर्णन महाकाव्य प्रणेता के या नाटककार के या संगीत-काव्य कर्ता के रूप में तीन भिन्न-भिन्न स्थानों पर न दे कर एक ही स्थान पर दे दिया जाए । जहां-जहां सम्भव हुआ है आधुनिक से अाधुनिक अनुसन्धानों के फलों का समावेश कर दिया है । पाश्चात्य दृष्टि कोण का अन्धाधुन्ध अनुकरण न कर के मैने पूर्वीय दृष्टिकोण का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा है। __मैं उन भिन्न-भिन्न प्रामाणिक लेखकों का अत्यन्त कृतज्ञ हूं--जिनमे से कुछ उल्लेखनीय ये है,- मैकडॉनल, कीथ, विंटरनिट्ज, पीटरसन, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास टामस, हौपकिन्स, र प्सन, पार्जिटर, और ऐजरटन-~-जिनकी कृतियों को मैने इस ग्रन्थ के लिखते समय बार-बार देखा है और पाद-टिप्पगियों में प्रमाणतया जिनका उल्लेख किया है। अपने पूज्य अध्यापक डा. लक्ष्मणस्वरूप एम.ए., डी० फिल., आफिसर डि ऐकेडेमि फ्रांस, संस्कृत प्रोफ़ैसर पञ्जाब यूनिवर्सिटी लाहौर को मैं विशेषतः धन्यवाद देता हूं, जिनके चरण कमलों में बैठकर मेंने वह बहुत कुछ सीखा जो इस ग्रन्थ में भरा हुआ है । इस ग्रन्थ के लिए पूर्व शब्द लिखने मे उन्हों ने जो कष्ट सहन किया है, मैं उसके लिए भी उनका बड़ा ऋणीहूँ । इस पुस्तक के लिखने में मुझे अपने परम मित्र श्रीयुत श्रतिकान्त शर्मा शास्त्री, एम० ए० लाहित्याचार्य से विशेष सहायता मिली है। उनके अनथक प्रयत्नों के बिना इस पुस्तक को हिन्दी जगत् के सम्मुख इतनी जल्दी प्रस्तुत करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होता, अत: मैं उनका भी बड़ा प्रभारी हूँ। श्राशा है कि हिन्दी जगत् इस अभाव-पूर्ति का समुचित प्रादर करेगा। विद्वानों का सेवक हंसराज अग्रवाल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय संस्करण के सम्बन्ध में जहां मुझे अपने सुविज्ञ तथा कृपालु पाठकों का विशेष रूप से धन्यवाद करना है कि उन्हों ने इस पुस्तक का आशातीत आदर कर के मुझे अत्यन्त अनुगृहीत किया है, वहां मुझे इस बात की भी क्षमा मांगनी है कि प्रेम को अनेक कठिनाइयों तथा मुद्रण की नाना असुबिधाओं के कारण प्रकाशक प्रयत्न करने पर भी उनकी प्रेम भरी मांग को पूरा करने में असमर्थ रहे। इस संस्करण को भी छपते छपते तेरह मास से ऊपर लग गए । तो भी मैं राजहंस प्रेस के संचालकों का धन्यवाद करता हूँ कि वे इस पुस्तक को इस सुन्दर रूप से निकालने में समर्थ हुए । मैं श्राशा रखता हूँ कि भविष्य में पाठकों को इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। भास के ग्रन्थों में पृष्ठ ७२ पर उसके १४ वे नाटक 'यज्ञफलम्। का वर्णन किया गया है। विशेष खोज से पता चला है कि वास्तव में यह एक कृत्रिमता ( forgery) है और कि यह नाटक महाकवि भास का नहीं है। कौटल्य के अर्थशास्त्र का सस्कृत साहित्य में विशेष महत्व है। पहले संस्करण में उसे परिशिष्ट में रखा गया था। इस संस्करण में उसपर मूल पुस्तक में अलग अध्याय दिया गया है । स्थान स्थान पर और भी आवश्यक सुधार किए गए हैं। श्राशा है कि विद्वान् पाठक इसे उपयोगी पायेंगे। विनीतः हंसराज अग्रवाल Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अध्याय १ ६. संस्कृत साहित्य का महत्व २. यूरोप के ऊपर संस्कृत साहित्य का प्रभाव ३. संस्कृत में ऐतिहासिक तत्त्व का प्रभाव ४. संस्कृत और आधुनिक भाषाएं ५. क्या संस्कृत बोल-चाल की भाषा थी? ... ६. श्रेण्य संस्कृत की विशेषताएं अध्याय २ रामायण और महाभारत ७. ऐतिहासिक महाकाव्यों की उत्पत्ति ८ (क) रामायण. (ख) इसका महत्व, (ग) इसके संस्करण, (घ) इसका वर्णनीय विषय, (ङ) इसके उपाख्यान, (च) इस को विशुद्धता, (छ) इसका काल, (ज) शैली । २५ १, (क) महाभारत-इसके विस्तार की कक्षाएं: (ख) इसका महत्त्व, (ग) (१) इसके साधारण संस्करण, (२) इसके आलोचनापूर्ण संस्करण, (३) इसकी दीकाए, (घ) इसका वर्णनीय, विषय, (ङ) इसके उपाख्यान, (च) इसने वर्तमान रूप कैसे प्राप्त किया ? (क) इसका काल, (ज) शैली। ३५ ३० दोनों ऐतिहासिक महाकाव्यों का अन्योन्य सम्बन्ध (क) परिमाण, (ख) रचयितृत्व, (ग) मुख्य ग्रन्थभाग, (घ) दोनों महाकाव्यों का विकास, (ड) पारस्परिक सम्बन्ध, (च) रचनास्थान, (ब) पारस्परिक समय-साम्य Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संस्कृत साहित्य का इतिहास अध्याय ३ पुराण ११ (क) पुराणों की उत्पत्ति (ख) पुरणों का उपचय (ग) पुराणों का विषय (घ) पुराणों में इतिहास (ङ) पुराणों का काल अध्याय ४ भास १२. संस्कृत साहित्य में भास का स्थान १३. क्या इन नाटकों का रचयिता एक ही व्यक्ति है १४. तब इन का रचयिता कौन है ? १५. भास के अन्य ग्रन्थ १६. भास की शैली १७. काल अध्याय ५ अर्थ - शास्त्र १८. (क) अर्थ शास्त्र का महत्व (ख) रचयिता ... (ग) ग्रन्थ और रचनाकाल (घ) शैली 04 sa ... ... 6. ... ... १२ १३ ३३ ५५ ५६ ६४ ६६ ७० ७२ ७३ ७४ ६ १ ८२ ८१ ८६ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १०७ १२० अध्याय ६ कालिदास 16, ईसा पूर्व की प्रथम शताब्दी में संस्कृत का पुनरुज्जीवन २०, कालिदास २१. ग्रन्थों के मौलिक भाग २२. नाटकों के नाना संस्करण २३. काल २४. कालिदास के विचार २५. कालिदास की शैली अध्याय ७ अश्वघोष २६. अश्वघोष का परिचय । २७. अश्वघोष की नाट्यकला २८. अश्वघोष के महाकाव्य २६. अश्वघोष के अन्य अन्य ३०. अश्वघोष की शैली अध्याय ८ महाकाव्य ३१. सामान्य परिचय ३२. भारवि V ३३. भटि ३४. माघ / । ११२ १४६ ३१. रत्नाकर कृत हरविजय ३६, श्री Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ३७. वत्स भट्टि ३८. सेतु बन्थ संस्कृत साहित्य का इतिहास अध्याय ६ काव्य-निर्माता ३६. कुमारदास का जानकी हरण ४०. वाक्पत्ति का गउडवह ४१, कविराज कृत राघव पाण्डवीयम् ४२. हरदत्तसूरिं कृत राघव नैषधीयम् ४३. चिदम्बर कृत यादवीय राघव पाण्डवीय ... : ४४. हलायुध कृत कविरहम्य ४५. मेण्ठ ४६. मातृगुप्त ४७. भौमक कृत रावणार्जुनीयम् ४८. शिवस्वामि कृत कफनाभ्युदय ४६. कादम्बरी कथा सार* २०. रोमेन्द्र २१. मयङ्ख कृत श्रीकण्ठ चरित ५२. रामचन्द्र कृत रसिकररञ्जन ३३. कतिपय जैन ग्रन्थ २४. ईसा की हटी शताब्दी में संस्कृत के पुनरुत्थान का वाद ५५. संगीत ( खण्ड ) काव्य की श्राविर्भाव १६. श्रृंगार तिलक : : A : *** ... अध्याय १० संगीत काव्य और सूक्ति सन्दर्भ 443 * १४८ १४६ १२१ १५२ ६३२ १५२ १५३ ११३ १३ १५३ १५३ 4** ** १३४ ११४ १५४ ** ३५६ १६१ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ विषय-सूची ५७, घटकपर ५८. हाल की सतसई ( सप्त शती) ५६, भत हरि ० १६८ ० ० ० १७३ । ६१. मयूर ६०. मातङ्ग दिवाकर ६३. मोह मुहर ६४. शिल्हण का शान्ति शतक ६५. बिल्हण की चौर पञ्चाशिका ६६. जयदेव ६७. शीला भष्टारिका ६८. सूक्ति सन्दर्भ ६६. औपदेशिक ( नीति परक ) काव्य अध्याय ११ ऐतिहासिक काव्य ७०. भारत में इतिहास का प्रारम्भ . . ७१. बाण का हर्ष चरित्र ७२. पद्मगुप्त का नवसाइसाई चरित ७३. बिल्हण ७४, कल्हण की राजतरमिणी ७५, छोटे छोटे ग्रन्थ अध्याय १२ गद्य काव्य ( कहानी ) और चम्पू ७६. गद्य काव्य का आविर्भाव ७७. दण्डी १७७ १८० ११२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दु : संस्कृत साहित्य का इतिहास ७८. दशकुमारचरितम् ७६. सुबन्धु की वासवदत्ता ८०. बाण की कादम्बरी ८१. चम्फू ग्रन्थ अध्याय १३ लोकप्रिय कथा ग्रन्थ ८२. गुणाढ्य की बृहत्कथा ८३. बुद्धस्वामी का श्लोक संग्रह ८४. चोमेन्द्र की बृहत्कथामन्जरी ८५. सोमदेव का कथासरित्सागर ८६. बैतालपञ्चविंशतिका ८७. शुकसप्तति म सिंहासनद्वात्रिंशिका ८. बौद्ध साहित्य १०. जैन साहित्य : अध्याय १४ पदेशिक जन्तु कथा ६१. औपदेशिक जन्तु कथा का स्वरूप ६२. औपदेशिक जन्तुकथा का उद्भव ६३. असली पञ्चतन्त्र ६४. पञ्चतन्त्र की वर्ण्य वस्तु ६५. पञ्चतन्त्र की शैली. ६६. तन्त्राख्यायिका · .६७. सरल ग्रन्थ ८. पूर्णभङ्गनिष्पादित पञ्चतन्त्र ... :: :: : *** १६ १६६ २०० २०३ २१३ २१५ २२० २२२ २२३ २२५ २२७ २२८ २२६ २३४ २३६ २३७ २३६ २४५ २४८ २५३ २५४ २५१ དྷ J Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची २५६ २९६ २६० २७४ ३७७ २८२ २८२ ११. दक्षिणीय पञ्चतन्त्र १००, नेपाली संस्करण १०१. हितोपदेश १०२. बृहत्कथा संस्करण अथवा उतर-पश्चिमीय .. संस्करण १०३. पह्नवी संस्करण और कथा की पश्चिम यात्रा ... अध्याय १५ रूपक ५०४, रूपक का उद्भव १०५, रूपक का यूनानी उन्नव १०६. संस्कृत रूपक की विशेषताएं १०७. कतिपय महिमशाली रूपक १०८, शूजक १० है, हर्ष के नाम से प्रचलित तीन रूपक ११०, मुद्राराक्षस १११. बेणीसंहार ११२. भवभूति च ११३. राजशेखर ११४. दिङ नागरचित कुन्दमाता ११५. मुरारि ११६. कृष्णमिश्र ११७. रूपक-कला का हास परिशिष्ट-बर्ग 1. पाश्चात्य जगत में संस्कृत का प्रचार कैसे हुआ ? २. भारतीय धर्ग-माला का उद्भव . ३ मामो के अर्थ ज्ञाम का इतिहास २६३ m ३१८ ३२८ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 लेखक के अन्य ग्रन्थ मौलिक १. आदर्श कथा मञ्जरी - भारतीय सभ्यता को समुज्ज्वल करने वाली मूल लिखित कुछ एक अतीव रोचक कहानियां जिनसे कि निबन्ध लिखने के लिए भी पर्याप्त सामग्री मिल सकती है। २. महाराजा रणजीतसिंह - प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर लिखित महाराजा रणजीतसिंह का जीवन चरित्र 3. Practical Guide to Sanskrit Translation (indispensable for college students) 4. A Study of Sanskrit Grammar for college students (written on modern scientific method) 5. A Short History of Sanskrit Literature (in English ) ६. हमारी सभ्यता और विज्ञान कला ७. हमारी विभूतियां - भारत के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञों, farareकों, वैज्ञानिकों की जीवनियां 9 = संस्कृत साहित्य का इतिहास-संस्कृत में 9. Sanskrit Readers संग्रह १. उत्कृष्ट कहानियां २. दिव्य बलिदान --चुने हुए एकांकियों का संग्रह अप्राप्य ४. गद्य पीयूष गद्यात्मक संग्रह ५. साहित्य प्रवेश -- गद्यपद्यात्मक संग्रह इत्यादि श्रप्राप्य प्रैस में प्रैस मे प्रैस में २८-० २-४-० भैंस में १-८० २-४-० २. हमारे महामानव - भारत के महानुभावों की जीवनियां २-८० ३-०-० ३-१२-० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास अध्याय १ उपक्रमणिका (१) संस्कृत-साहित्य का महत्त्व निस्सन्देह संस्कृत-साहित्य का महत्व बहुत बड़ा है। इसकी बड़ी उन, एक बहुत बड़े भूखण्ड पर इसका फैला हुआ होना, इसका परिभाण, इसकी अर्थसम्पत्ति, इसकी रचना-चारुता, संस्कृति के इतिहास की दृष्टि से इसका मूल्य ऐसी बातें है जिनके कारण इस महान् , मौलिक और पुरातन साहित्य के ऊपर हमारा अनुराग बिलकुल उचित सिद्ध होता है । कुछ बातें और भी हैं, जिनके कारण संस्कृत साहित्य के अध्ययन में हमारी अभिरुचि और भी बढ़ जाती है। उनमें से कुछ विशेष नीचे दी जाती हैं-- १. देखिए विंटरनिटज कत भारतीय साहित्य का इतिहास (इंगलिश) प्रथम भा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत-साहित्य का इतिहास (१) संस्कृत-साहित्य का अध्ययन ऐतिहासिकों के बड़े काम का है। यह विस्तृत भारतवर्ष के निवासियों के बुद्धि-जगत् के तीन हजार से भी अधिक वर्षों का इतिहास ही नहीं है प्रत्युत उत्तर में तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, दक्षिण में लंका, पूर्व में मनाया प्रायद्वीप, सुमात्रा, जावा, बाली, बोनियो तथा प्रशांत महालागर के दूसरे द्वीप; और पश्चिम में अफगानिस्तान, तुर्किस्तान इत्यादि देशों के बौद्धिक जगत् पर इसका बहुत बड़ा प्रभाव भी पड़ा है। (२) आधुनिक शताब्दियों में इसने यूरोप पर युगप्रवर्तक प्रभाव डाला है।" (३) संस्कृत भारोपाय शाखा की सब से पुरानी भाषा है । अतएव इसके साहित्य में इस शाखा के सबसे पुराने साहित्यिक स्मारक उपलब्ध होते है। धार्मिक विचारों के क्रमिक विकास का जैसा विस्पष्ट चित्र यह साहित्य उपस्थित करता है, वैसा जगत् का कोई दूसरा साहित्यिक स्मारक नहीं। (४) 'साहित्य' शब्द के व्यापक से व्यापक अर्थ में---महाकाव्य, काव्य, गीति-काव्य, नाटक, गद्य-श्राख्यायिका, नौपदेशिक कथा, लोकप्रिय कथा, विज्ञान-प्रन्थ इत्यादि जो कुछ भी श्री सकता है, वह सब कुछ संस्कृत-साहित्य में मौजूद है । हमें भारत में राजनीति, अायुर्वेद, फलित ज्योतिष, गणित-ज्योतिष, अङ्कगणित और ज्यामिति का ही बहुतसा और कुछ पुराना साहित्य मिलता हो यह बात नहीं है, बल्कि भारत मे संगीत, नृत्य, नाटक, जाडू, देव-विद्या, यहाँ तक कि अलंकार-विद्या १.अधिक आनने के लिए आगामी द्वितीय खण्ड देखिए । २.संस्कृत से मिलती-जुलती भाषामो का एक वर्ग बनाया गया है, जिसे भारोपीय शाखा का नाम दिया गया है क्योकि इसमें द्राविड भाषाश्रो को छोड़ कर भारतीय--पार्यों की सारी भाषाएं और यूरोप की सारी भाषाएं श्रा गई हैं । ३. मैकडानल कृत संस्कत-साहित्य का इतिहास ( इंग्लिश ) पृष्ठ ६। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का महत्त्व के भी पृथक्-पृथक् अन्य पाये जाते हैं, जो वैज्ञानिक शैली से लिखे माये है। (२) संस्कृत-साहित्य केवल विषय-व्यापकता के लिए ही नहीं,रचना. सौष्ठव के लिए भी प्रसिद्ध है। सूत्र-रचना से भारतीय लोग जगत् की सब जातियों में प्रसिद्ध हैं। भारतीयो द्वारा किये हुए पशु-कथाओं पक्षि-कथानों, अपसरा-कथाओ तथा गधमत्र श्राख्यायिकाओं के संग्रहों का भूमण्डल के साहित्य के इतिहास में बड़ा महत्त्व है " । प्रभु ईसा के जन्म से कई शताब्दी पूर्व भारत में व्याकरण के अध्ययन का प्रचार था; और व्याकरण व विद्या है, जिसमें पुरातन काल की कोई जाति भारतीयों की कक्षा में नहीं बैठ सकती। कोश-रचना की विद्या भी भारत में बहुत पुरानी है। (६) धर्म एवं दर्शन के विकास के परिचय के लिए संस्कृत साहित्य का अध्ययन प्रायः अनिवार्य है। मकवानल ने लिखा है--"भारोपीय वंश की केवल भारत-निवासिनी शाखा ही ऐसी है, जिसने वैदिक धर्म नामक एक बड़े जातीय धर्म और बौद्ध-धर्म नामक एक बडे सार्वभौम धर्म की रचना की । अन्य शाखाओं ने इस क्षेत्र में मौलिकता न दिखलाकर बहुत पहले से एक विदेशीय धर्म को अपनाया। इसके अतिरिक्त भारतीयों ने स्वतन्त्रता से अनेक दर्शन-सम्प्रदायों को विकसित किया, जिनसे उनकी ऊँची चिन्तन-शक्ति का प्रमाण मिलता है।" (७) संस्कृत साहित्य की एक और विशेषता इसकी मौलिकता है। ईसा के पूर्व चतुर्थ शताब्दी में यूनानियों का अाक्रमण होने से बहुत पहले आर्य-सभ्यता परिपूर्ण हो चुकी थी और बाद में होने वाली विदेशियों की विजयों का इस पर सर्वथा कोई प्रभाव नहीं पड़ा। १ विंटरनिट्ज कृत भारतीय साहित्य का इतिहास (इंग्लिश) प्रथम भाग । २. विंटरनिटज कत भारतीय साहित्य का इतिहास (इंग्लिश), प्रथम भाग। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास (८) विद्यमान संस्कृत साहित्य परिमाण में यूनान और रोम दोनों के मिलाकर एक किये हुए साहित्य के बराबर है। यदि हम इसमें वे ग्रंथ जिनके नाम समसामयिक या उत्तरवर्ती ग्रंथकारों के दिये हुए उद्धरणों से मालूम होते हैं तथा वे ग्रंथ जो सदा के लिए नष्ट हो चुके हैं, इसमें सम्मिलित कर लें, तो संस्कृत-साहित्य का परिमाण बहुत ही अधिक हो जायगा। (8) "मौलिकता और सौंदर्य इन दो गुणों की दृष्टि से संस्कृत-- साहित्य समस्त प्राचीन साहित्यों में केवल यूनान के साहित्य से दूसरे दरजे पर है । मानवीय प्रकृति के विकास के अध्ययन के स्रोत के रूप में तो यह यूनानी साहित्य से बढ़कर है"। (मैकडानल) (१०) आर्य सभ्यता की धारा अविछिन्न रूप से बहती रही है। हिन्दुओं की भक्ति-भरी प्रार्थनाएँ, गायत्री का अप, सोलह संस्कार जो एक हिन्दू के जीवन को माता के गर्भ में आने से लेकर मृत्यु पर्यन्त विशेष रूप देते हैं,अरणियों से यज्ञ की अग्नि निकालना तथा अन्य अनेक सामाजिक और धामिक प्रथाएँ आज भी बिलकुल वैसी है, जैसी हजारों वर्ष पहले थीं। शास्त्रीय वाद-विवादों में, पत्र-पत्रिकाओं में तथा निजी चिट्ठी-पत्रियों में विद्वान् पंडितों द्वारा संस्कृत का प्रयोग, मुद्रण-यन्त्र का आविष्कार हो चुकने पर भी हस्तलिखित पुस्तकों की मकल उतारना, वेदों का तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों का पराठस्थ करना ताकि यदि ग्रंथ नष्ट भी हो जाये तो फिर अक्षरश: उनका निर्माण किया जा सके-सब ऐसी बात है, जो भारतीय जीवन के साधारण रूप को स्पष्ट करती हैं। अतः संस्कृत-साहित्य का अध्ययन केवल भारतीयों की भूतकालीन सभ्यता के ज्ञान के लिए ही नहीं, बल्कि हिन्दुओं की प्राधुनिक सभ्यता को समझने के लिए भी आवश्यक है। (११) केवल इतना ही नहीं, यूरोपीय संस्कृति और विचारों के क्रमिक विकास को समझने के लिए भी संस्कृत साहित्य के अध्यन की श्रावश्यकता है। विटरनिट्ज वहता है-'दि हम अपनी ही Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूरोप पर संस्कृत-साहित्य का प्रभाव संस्कृति के प्रारम्भिक दिनों की अवस्था को जानने की इच्छा रखते हो, यदि हम सब से पुरानी भारोपीय संस्कृति को समझना चाहते हैं, तो हम भारत की शरण लेनी होगी, जहाँ एक भारोपीय जाति का सबसे पुराना सदिय सुरक्षित है। (२) यूरोप पर संस्कृत-साहित्य का प्रभाव अठारहवीं शताब्दी की अन्तिम दशाब्दियों में जब यूरोप-निवासी सस्कृत से परिचित हुए, तब उसने वहां एक नये युग का प्रारम्भ कर दिया क्योंकि इसने भारतीय और यूरोपीय दोनों जातियों के इतिहासपूर्व के सम्बन्धों पर प्राश्चर्यजनक नया प्रकाश डाला। इसने यूरोप में तुलनात्मक भाषाविज्ञान की नींव डाली, तुलनात्मक पौराणिक कथाविद्या में कई परिवर्तन करा दिए, पश्चिमीय विचारों को प्रभावित किया, और भारतीय पुरातत्व के अन्वेषण में स्थिर अभिरुचि उत्पन्न कर दी। (क) तुलनात्मक भापाविज्ञान संस्कृत का पता लगने से पहले हिब, अरबी तथा अन्य भिन्न-भिन्न भाषाओं के भाषी कहा करते थे कि उनकी अपनी भाषा असली भाषा है और शेष सब भाषाएँ उसीसे निकली हैं। यह देखा गया कि यूनानी और लैटिन भाषाएँ अरबी और हिब्रू से सम्बद्ध नहीं कही जा सकती और न यूनानी और लैटिन मौलिक भाषाएँ हैं। संस्कृत के इस परिचय ने छुपे हुए सस्थ को प्रकाशित कर दिया। कुछ विद्वानों ने यह परिणाम निकालने की शीघ्रता की कि संस्कृत मौलिक भाषा है और इससे संबन्ध रखने वाली अन्य भाषाएँ इससे निकली हैं। किन्तु धीरे-धीरे चे इस परिणाम पर पहुँचे कि संस्कृत इन भाषाओं की माता नहीं प्रत्युत बड़ी बहन है । तब से लेका तुलनात्मक भाषाविज्ञान ठोस विषय का निरूपण करने वाला विज्ञार बन गया। बाद में रास्क ने और रास्क के पीछे निम ने भालुम किया कि व्यूटानिक भाषाएँ भी इसी वर्ग से सम्बन्ध रखती हैं, जिसे आसार के लिए भारोपीय वर्ग कहते हैं। अम्ब्रियन, ऑस्कन,अश्वानियन, लिथू Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ संस्कृत साहित्य का इतिहास एनियन, आर्मीनियन, फ्राइजियम और टोखारिश इत्यादि नाना भाषाएँ इसी वर्ग से सम्बद्ध बताई गई है और हिटाइट तथा सुमेरियम जैसी अन्य अनेक भाषाएँ भी भविष्य में इसी वर्ग से सम्बद्ध सिद्ध की जाने की आशा है । (ख) तुलनात्मक पौराणिक कथा-विज्ञान -- तुलनात्मक भाषाविज्ञान की सहायता से तुलनात्मक पौराणिक कथा-विज्ञान में भी काफी आगे बढ़ना सम्भव हो गया है । यह मालूम हुआ है कि संस्कृत के देव, भाग, यज, श्रद्धा तथा अन्य कर्मकाण्डगत शब्दों के लिए भारोपीयवर्ग की भिन्न-भिन्न भाषाओं में इन्हीं से मिलते जुलते शब्द पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ देवताओं का भी पता लगा है, जो भारोपीय का से सम्बन्ध रखते हैं। उदाहरणार्थ- संस्कृत में >> पृथिवी मातर लेटिन में अश्विनौ पर्जन्य: " टैरा मेटर यौस-क्यूरि पकु निजा 33 लिथुएनियन में वरुणास् "" यूनानी में औरेणॉस देखने की विशेष बात यह कि उल्लिखित भारोपीय देवताओं के रूप free- free भाषाओं में प्राय: समान ही हैं 1 (ग) यूरोपीय विचारों पर प्रभाव - भारतीय लोगों के सबसे गम्भीर और सब से उत्तम विचार उपनिषदों में देखने को मिलते हैं । दाराशिकोह ने अठारहवीं शताब्दी के मध्य के आस पास उनका अनुवाद फारसी में करवाया था। बाद ( १७७५ ई० ) में क्वे टिल डुपैरन ने उस फारसी अनुवाद का अनुवाद लैटिन में किया। शापनहार ने इसी फारसी अनुवाद के अनुवाद को पढ़कर उपनिषदों के तत्व तक पहुँचकर कहा था - 'उपनिषदों ने मुझे जीवन में सान्वना दी, यही मुझे मृत्यु में सांत्वना देंगे ।" शापनहार के दार्शनिक विचारों पर उपनिपदों का बड़ा प्रभाव पड़ा । जर्मन और भारतीय विचारों में तो और भी अधिक आश्चर्यजनक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का प्रभाव जमानता है। ले रोल्ड वानश्राडर का कथन है कि भारतीय लोग पुराने काल के रमणीयताबाद के विश्वासी (Romanticists) है और जर्मन लोग श्राधुनिक काल के। सूक्ष्म-चिन्तन की ओर मुकाव, प्रकृति-देवी को पूजा की ओर मन की प्रवृत्ति, जगत् को दुःखात्मक समझने का भाव, ऐसी बातें हैं, जो जर्मन और भारतीयों में बहुत ही मिलती-जुलती हैं। इसके अतिरिक, जर्मन और संस्कृत दोनों ही काव्यों में रसमयता तथा प्रकृति के प्रति श्रास्मीयता के भाव पाए जाते हैं, जो हिब्र और यूनानी कायों में भी नहीं पाये जाते । (घ) शिलालेखसम्बन्धी अन्वेषण-~-यह कहने में अत्युक्ति नहीं होगी कि संस्कृति-ज्ञान के बिना प्राचीन भारत विषयक हमारा ज्ञान बहुत ही कम होता। शिलालेखों के ज्ञान तथा भारतीय पुरातत्व के अनुसन्धान में हम आज जितने बड़े हुए हैं, उसका मूल प्रायः पश्चिमीय विद्वानों की कृतियां है, किन्तु उन कृतियों का मूल भी तो संस्कृत का अध्ययन ही है। (क) सामान्य-(१) पाणिनि की अष्टाध्यायी पढ़कर यूरोप के विद्वानों के मन में अपनी भाषाओं के व्याकरण को यथासम्भव पूर्ण करने का विचार पैदा हुआ। (२) सिद्धहस्त नाटककार कालिदास का 'अभिज्ञानशकुन्तला' नाटक यूरोप में बड़े चाव के साथ पढ़ा गया और गेटे ने 'फास्ट' की भूमिका उसी ढंग से लिखी। संस्कृत ग्रन्थों के जर्मन अनुवाद ने जर्मन साहित्य पर बहुत प्रभाव डाला है। ऐफ श्लगब ने संस्कृत कविता का अनुवाद जर्मन कविता में किया है। (३) महायान सम्प्रदाय के प्रामाणिक ग्रन्थ संस्कृत में ही है । उनके यूरोपियन भाषाओं के अनुवाद ने यूरोप में बौद्धों को बहुत प्रभावित किया है। (४) यूरोर के विद्वानों ने वैदिक और लौकिक दोनों प्रकार के सम्पूर्ण संस्कृत-वाङ्मय की छानबीन दो मे भी कम शताब्दियों में कर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 15 संस्कृत-साहित्य का इतिहास बाली है। वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण, गोतिकाव्य, सर्वसाधारण में प्रचलित कथाएँ एवं भौपदेशिक कहानियां, इन सबके ग्रंथों के यहां तक कि वैज्ञानिक साहित्य के ग्रंथों के भी, यूरोप की भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं, उन पर टीकाएं लिखी जाचुकी हैं और उनकी अनेक हस्तलिखित प्रतियों को मिला कर भिन्न-भिन्न पाठयुक्त ( Critical ) संस्करण निकल चुके हैं। अतः उन ग्रन्थों का पश्चिम पर कोई कम प्रभाव नहीं हो सकता । ( ३ ) संस्कृत में ऐतिहासिक तत्व का प्रभाव यद्यपि संस्कृत भाषा के विद्वानों ने इस दिशा में सूक्ष्म अनुसन्धान और महान् परिश्रम किया है, तथापि संस्कृत-साहित्य का इतिहास अभी तक अन्धकार में छुपा हुआ है। भास और कालिदास जैसे सुप्रसिद्ध कवियों के जीवनकाल के निर्धारण में विद्वानों के मतों में शताब्दियों का नहीं बल्कि पाँच-छः शताब्दियों का भेद है । 'भारतीय साहित्य के इति हास में दी गई सारी की सारी तिथियाँ काग़ज़ में लगाई हुई उन दिनों के समान है, जो फिर निकाल दी जाती हैं" । जहाँ अन्य शाखाओं में संस्कृत-साहित्य ने कमाल कर दिखाया, वहाँ इतिहास-क्षेत्र में इसमें बहुत कम सामग्री पाई जाती है। इतिहास विषयक साहित्यिक ग्रन्थ संख्या में कम हों, इतनी ही बात नहीं है, उनमें कभी-कभी कल्पना की भी मिaraट देखी जाती है । संस्कृत का सब से बड़ा इतिaासकार कल्हण तक यूनानी होरोडोटस की भी तुलना नहीं कर सकता । इसके कारण --संस्कृत में इतिहास का यह अभाव क्यों है ? इसका पूरा पूरा सन्तोष करने वाला उत्तर देना तो कठिन है । हाँ, निम्नलिखित कुछ बातें अवश्य ध्यान में रखनी योग्य है--- १. देखो डब्ल्यू० डी० हिटने कृत 'संस्कृत ग्रामर' की भूमिका, लीपजिग, १८७६ । उसने पचास साल से भी अधिक पहले जो सम्मति दी थी वह श्राज भी वैसी की वैसी ठीक उतरती है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत में ऐतिहासिक तत्व का अभाव (1) पश्चिम में इतिहास का जो अर्थ जिया जाता है, भारतीय लोग इतिहास का यह अर्थ नहीं लेते थे । श्रार्य लोगों का ध्यान सारतीय संस्कृति और सभ्यता की रक्षा की ओर लगा हुआ था। संस्कृति और सभ्यता को उद्धति में सहायता करने वाले को छोडकर किलो अन्य राजा का महापुरुष का था अपना इतिहास लिखने में श्रार्य लोगों की श्रभिरुचि नहीं थी । भारतीयों के बौद्धिक और प्राध्यात्मिक जीवन के विकास की एक-एक मंजिल का जैसा सावधानतापूर्ण उल्लेख संस्कृतसाहित्य में मिलता है, वैसा जगत् के किसी अन्य साहित्य में नहीं । १ (२) भारतीय मनोविज्ञान की और परिस्थितियों की विशेषताएँ-कर्म का और भाग्य का सिद्धान्त, दैनिक हस्ताक्षेपों में मन्त्रयन्त्र में तथा जादू में विश्वास, वैज्ञानिक मनोवृति का अभाव -- ऐसी बातें हैं, जो एक बड़ी सीमा तक इतिहास के अभाव का कारण हैं जैन और बौद्ध भी ऐसे हो विश्वास रखते थे । । यहाँ तक कि (३) १२०० ई० तक भारत में राजनीतिक घटनाओं की गति से भी शायद कोई सर्वप्रिय बनने वाली बात पैदा नहीं हुई । (४) भारतीयों में राष्ट्रीयता ( Nationality ) के भावों का न होना भी इसका एक बड़ा कारण है। सिकन्दर की विजयों का प्रभाव चिरस्थायी नहीं हुआ और विदेशी आक्रमणों ने भी भारतीयों में राष्ट्रोंयता के भावों को जन्म नहीं दिया। मुसलमानों को अपने श्राक्रमणों में कदाचित् इसीलिए सफलता मिली कि भारतीय राजा-महाराजा विदेशी आक्रमणकारियों को उतनी घृणा की दृष्टि से नहीं देखते थे, जितनी घृणा की दृष्टि से वे एक दूसरे को देखते थे । ( २ ) भारत के साधारण कोग समय की या देश की दृष्टि से दूर हुए राजाओं के इतिहास और प्रशस्ति-काव्यों में अभिरुचि नहीं रखते थे । यही कारण है कि श्र यश की कामना रखने वाले कवियों ने १. इस युक्ति के आधार पर हम कह सकते हैं कि भारतीयों में ऐतिहासिक बुद्धि की भाव नहीं था प्रत्युत वे इतिहास का अर्थ ही और लेते थे। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्कृत साहित्य का इतिहास अपनी कृतियों के विषय समकालीन वीरों के जीवनों में से कम और रामायण तथा महाभारत में से अधिक चुने (६) एक और कारण यह है कि भारतीय जोग विशेष की अपेश साधारण को अधिक पसन्द करते हैं। यहाँ as fo जब दो विरोधी पक्षों पर ऊहापोह किया जाता है, तब भी व्याख्याकारों के जीवन के सम्बन्ध में कोई बात न कहकर केवख विवादसम्बन्धिनी युक्तियों ही प्रस्तुत की जाती हैं । जब दर्शनों के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की व्याख्या की जाती है, तब भी ऐतिहासिक काल को गौगा रक्खा जाता है । (७) पुराने साहित्य के अधिक ग्रन्थ दमें कुटुम्ब-ग्रन्थों के या सम्प्रदाय-ग्रन्थों के या मठ-गुरु-मन्थों के रूप में मिले हैं, जिनके रचविताओं तक के नामों का भी उल्लेख नहीं मिलता । (८) बाद के साहित्य में जब रचयिताओं के नाम मिलते हैं, सब वे नाम भी कुटुम्ब (या गोत्र ) के रूप में मिलते है। फिर, यह पता कि कोई कवि विक्रमादित्य के या भोज के राज्य-काल में हुआ, ऐतिहासिक दृष्टि से हमारे लिए केवल इतना ही सहायक हो सकता है, जितना यह पता कि यह घटना एक जॉर्ज के या एक एडवर्ड के राज्य काल में हुई । ( 8 ) यदि किसी रचयिता का नाम दिया भी गया है तो उसके माता-पिता का नाम नहीं दिया गया। एक ही नाम के अनेक रचयिता हो सकते हैं । (१०) कभी-कभी एक ही नाम भिन्न-भिन्न रूपों में पाया जाता १. यह तुलना करके देखिए कि 'नैषध' पर तो अनेक टीकाएं हैं, परन्तु 'नवसाहसांकचरित' जो ऐतिहासिक रचना है, विस्मृति के गर्भ मे जा पड़ा है । २. यह मनोवृत्ति भारत में अब तक पाई जाती है । किसी ग्रन्थ का लेखक गुप्त प्रसिद्ध है तो किसी का शर्मा, किसी का राय तो किसी का चक्रवर्ती | नाम के प्रारम्भिक भाग में इतना महत्त्व नहीं समझा जाता, जितना इन सरनामो मे । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत और आधुनिक भाषाएं ११ है। भारतीयों में नामों के पर्याय तथा संक्षिप्त रूप म्यवहार में जाने की बड़ी प्रवृत्ति पाई जाती है। किन्तु यह परिणाम नहीं निकालना चाहिए कि भारतीयों में ऐतिहासिक बुद्धि का अभाव था। इतिहास के क्षेत्र में पुराणों और अनेक अन्यों के अतिरिक्त निश्चित तिथियों से युक्त अनेक शिलालेख विद्यमान हैं। ज्योतिष के ग्रन्थकारों ने अन्य समाप्ति तक की निश्चित तिथियाँ दी हैं । (४) संस्कृत और आधुनिक भाषाएँ संस्कृत शब्द सब से पहले पाणिनि की अष्टाध्यायी में देखने को मिलता है। यह सब से पहले ऐतिहासिक महाकाग्य रामायण में भी प्राया है। इसका ग्युत्पत्ति-जन्य अर्थ है---'एकत्र रक्खा हुना या चिकनाचुपड़ा किया हुश्रा या परिमार्जित' । इसके मुकाबिले पर प्राकृत का अर्थ है-'स्वाभाविक, अकृत्रिम'। यही कारण है कि प्राकृत शमन से भारत की बोलचाल की भाषा समझी जाती है, जो भाषा के मुख्य साहित्यिक रूप से पृथक है। वैदिक काल में प्रार्य-भाषा का नाम वैदिक भाषा था। भाजकल की माषाभों का तुलनात्मक अध्ययन सिद्ध करता है कि ये सब किसी एक ही स्त्रोत से निकली हुई भिन्न-भिन्न धाराएँ हैं। अत: अपनी भाषा के इतिहास के लिए हमें विद्यमान सब से पुराने नमूने तक पहुँच कर, जो ऋग्वेद में मिलता है, नीचे की ओर इसके इतिहास-चिह्नों का पता लगाना होगा । और क्योंकि सम्पूर्ण ऋग्वेद पद्य-पद्ध है, अत. यह १. मेरे एक शास्त्री मित्र ने मुझे अमृतसर से पत्र लिखा, जिसके किनारे पर लिखा 'तुधासरसः। दूसरी बार लिखा 'पीयूषतडागात्' । दोनों ही नाम अमृतसर के पर्याय हैं । २ इस प्रकरण में अधिक जानने के लिए ७० से ७४ तक के खण्ड देखने चाहिए। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्कृत साहित्य का इतिहास अपनी कृतियों के विषय समकालीन वीरों के जीवनों में से कम और रामायण तथा महाभारत में से अधिक सुने । (६) एक और कारण यह है कि भारतीय air विशेष की अपेक्षा साधारण को अधिक पसन्द करते हैं। यह तक कि जब दो विरोधी vat पर ऊहापोह किया जाता है, तब भी serrari के जीवन के सम्बन्ध में कोई बात न कहकर केवल विवादसम्बन्धिनी युक्तियाँ ही प्रस्तुत की जाती हैं। जब दर्शनों के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की व्याख्या की जाती है, तब भी ऐतिहासिक काल को गौण रक्खा जाता है । ( 3 ) पुराने साहित्य के अधिक ग्रन्थ हमें कुटुम्बमन्थों के या सम्प्रदाय-अन्यों के या मरु-गुरुग्रन्थों के रूप में मिले हैं, जिनके रचविाओं तक के नामों का भी उल्लेख नहीं मिलता 1 $' (८) बाद के साहित्य में जब रचयिताओं के नाम मिलते हैं, तब a नाम भी कुटुम्ब (या गोत्र) के रूप में मिलते हैं। फिर यह पता कि कोई कवि विक्रमादित्य के या भोज के राज्य-कारत में हुआ, ऐतिहासिक दृष्टि से हमारे लिए केवल इतना ही सहायक हो सकता है, जितना य पता कि यह घटना एक जॉर्ज के या एक एडवर्ड के राज्य-काल में हुई । (३) यदि किसी रचयिता का नाम दिया भी गया है तो उसके माता-पिता का नाम नहीं दिया गया। एक ही नाम के अनेक रचयिता हो सकते हैं । ( 10 ) कभी-कभी एक ही नाम भिन्न-भिन्न रूपों में पाया जाता १. यह तुलना करके देखिए कि 'नैषध' पर तो अनेक टीकाएं हैं, परन्तु 'नवसाहसां चरित' जो ऐतिहासिक रचना है, विस्मृति के गर्भ में जा पड़ा है । २. यह मनोवृत्ति भारत में अब तक पाई जाती है । किसी ग्रन्थ का लेखक गुप्त प्रसिद्ध है तो किसी का शर्मा, किसी का राय तो किसी का. arai | नाम के प्रारम्भिक भाग में इतना महत्त्व नहीं समझा जाता, जितना इन सरनामों में ! Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत और आधुनिक भाषाएँ ११ है । भारतीयों में नामों के पर्याय तथा संक्षिप्त रूप व्यवहार में दाने की बड़ी प्रवृत्ति पाई जाती है । किन्तु यह परिणाम नहीं निकालना चाहिए कि भारतीयों में ऐतिहासिक बुद्धि का अभाव था । इतिहास के क्षेत्र में पुराणों और अनेक ग्रन्थों के अतिरिक्त निश्चित तिथियों से युक्त अनेक शिलालेख विद्यमान हैं। ज्योतिष के ग्रन्थकारों ने अन्य समाप्ति तक की निश्चित तिथियाँ दी हैं। (४) संस्कृत और आधुनिक भाषाएँ संस्कृत शब्द सब से पहले पाणिनि को अष्टाध्यायी में देखने को मिलता है । यह सब से पहले ऐतिहासिक महाकाव्य रामायण में भी भाया है। इसका व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ है- 'एकत्र रक्खा हुआ या चिकना - चुपड़ा किया हुधा या परिमार्जित'। इसके सुकाबिले पर प्राकृत का अर्थ है - 'स्वाभाविक, अकृत्रिम' । यही कारण है कि प्राकृत शब्द से भारत की बोलचाल की भाषा समझी जाती है, जो भाषा के मुख्य साहित्यिक रूप से पृथक है । वैदिक काल में श्रार्थ - भाषा का नाम वैदिक भाषा था । श्राजका की भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन सिद्ध करता है कि ये सब किसी एक ही स्रोत से निकली हुई भिन्न-भिन्न धाराएं हैं। अतः अपनी भाषा के इतिहास के लिए हमें विद्यमान सब से पुराने नमूने तक पहुँच कर जो ऋग्वेद में मिलता है, नीचे की ओर इसके इतिहास- चिह्नों का पता लगाना होगा | और क्योंकि सम्पूर्ण ऋग्वेद पथ-बद्ध है, अत यह १. मेरे एक शास्त्री मित्र ने मुझे अमृतसर से पत्र लिखा, जिसके किनारे पर लिखा 'सुधासरस:' । दूसरी बार लिखा 'पीयूषतडागात्' । दोनों ही नाम अमृतसर के पर्याय हैं । २. इस प्रकरण में अधिक जानने के लिए ७० से ७४ तक के खराड देखने चाहिएं । P Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संस्कृत-साहित्य का इतिहास आनना होगा कि इसमें उस काल की बोलचाल की भाषा का सच्चा रूप नहीं मिल सकता । हाँ, इसमें भी कोई सन्देह नहीं हो सकता कि ऋग्वेद की भाषा उस समय की बोलचाल की भाषा से अधिक भिन्न भाषा नहीं है। धागे दी हुई सारिणी भारतीय भाषाओं के विकास को सूचित करती है, जो उन्हें नाना अवस्थाओं में से निकल कर प्राप्त हुआ। आर्य भाषाओं के विकास को सूचित करने वाली सारिणी बोलचाल बाली वैदिक बोलियाँ बाद की संहिता writer trafe aास्क मध्यकालीन संस्कृत रामायण, महाभारत और पाणिनी खेद "कान्यायन और पतञ्जलि लिति ष लिखित पत्र आवा D O लिखि चाली पाली अशोक के शासन लेख नवकों की प्राकृत भाषाएँ अ भषएँ ु ान भावाएँ 4 w Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत और आधुनिक भाषाएं १३ ऊपर की सारिणी से यह बात विस्पष्ट दिखाई देगी कि ज्यों ज्यों भाषा विकसित होती जाती है, त्यों त्यो साहित्य की और बोलचाल की भाषा में भेद बढ़ता जाता है। डा० भण्डारकर ने वैदिक काल के उत्तरकालीन साहित्यिक काल को मध्य (Middle) संस्कृत और श्रेण्य (Classical) संस्कृत इन होभागों में बाँटा है। मध्य संस्कृत से उनका अभिप्राय ब्राह्मणों और रामायण-महाभारत के मध्य का काल है । उसमें मुख्य वैयाकरण पाणिनि है। श्रेण्य संस्कृत काल पाणिनि से बाद का काल है। इसके मुख्य वैयाकरण कात्यायन और परालि हैं। सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा की भिन्न भिन्न अवस्था को पाली ( जो अशोक के शासनलेखों की भाषा), नाटकों की प्राकृत भाषाएँ, अपश, भाषाएँ और वर्तमान भाषाएँ प्रकट करती हैं। नाटको की प्राकृत भाषाएँ भी तत्काजीन बोलचाल की भाषाओं को सही रूप में प्रकट नहीं करती है। प्रारम्भिक अवस्था में तो प्राकृत भाषाएँ बोलचाल की भाषाओं को ही प्रकट करती थीं, इसमें कोई सन्देह नहीं, परन्तु धीरे-धीरे साहित्यिक वैदिक और साहित्यिक संस्कृत के समान वे व्याकरण के रद नियमों में बैंध गई और केवल साहित्यिक उपभाषाएँ (Dialects) बनकर रह गई। उस समय की बोलचाल की भाषाओं को प्रकट करने वाली अपभ्रंश भाषाएँ है, जो अपने नम्बर पर, साहित्यिक उपभाषाएँ (Dialects) बन गई, और उसके बाद बोलचाल की भाषाओं को प्रकट करने वाली वर्तमान भारत की प्रार्य-भाषाएँ हुईं। एक काल से दूसरे काल में सरकना धीरे-धीरे हुआ। उदाहरणार्थ, चन्दबरदाई कृत 'पृथिवीराज रासो' की भाषा शौरसेनी अपभ्रश से बहुत मिलती जुलती है, किन्तु अाजकल की हिन्दी से बहुत भिन्न है। नीचे एक तालिका दी जाती है, जो अाधुनिक भारतीय प्रायः भाषाओं के विकास को विस्पष्ट करती है। १. किसी एक श्रेणी से सम्बन्ध रखने वाली। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेशाची IM आय भाषाओं के विकास को सूचित करनेवाली सारिणी प्राकृत भाषाएँ लहुँदा ( पंजाब की पश्चिमी सीमा में बोली जाती है ) शौरसेनी महाराष्ट्री 1 } | शौरसेन श्रवन्ती गौर्जरी महाराष्ट्री * ( श्रज्ञात) बाद अपभ्रंश अपभ्रंश अपभ्रंश अप अपभ्रंश 1 1 1 सिन्धी | राजस्थानी गुजराती मराठी बिहारी उड़िया बंगाली श्रासामी पूर्वी दिन्दी काश्मीरी पश्चिमी हिन्दी मागधी } मागध अपनश ចុះអ * यह 'शिन' से मिलती जुलती किसी विशाच भाषा को प्रकट करती है। श्रद्ध मागधी आद मागव श्रपत्र श १४ संस्कृत-साहित्य का इतिहास Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या संस्कृत बोलचाल की भाषा थी ? १५ पिछली तालिका में दी हुई भाषाएँ, जिन्होंने १००० ई० के आसपास से विकसित होना शुरू किया, अब वैभक्ति अर्थात् विभक्तियों के आधार पर पृथक्-पृथक् अर्थ प्रकट करने वाली ( Inflexional ) भाषाएँ नहीं रहीं। ये अब अंग्रेजी के समान वैश्लेषरिक अर्थात् विभसियों के स्थान पर शब्द का प्रयोग करके पृथक्-पृथक् अर्थ को प्रकट करने वाली भाषाएँ बन गई हैं । महाशय बीज का कथन है--- 'संश्लेषण का कुसुम कुड्मल रूप से प्रकट हुआ और फिर स्फुटित हो गया और जब पूरा स्फुटित हो चुका, तब श्रम्य कुसुमों के समान मुरझाने लगा । इसकी पंखुड़ियाँ अर्थात् प्रत्यय या विभक्तियों एक-एक करके झड़ गई और यथासमय इसके नीचे से वैश्लेषणिक रचना का फल ऊपर थाकर बढ़ा और पकगया ।' आर्य भाषाओं की श्रेष्ठता का प्रमाण इस बात से मिलता க जब कोई श्रार्य-भाषा और कोई भारत की अनार्य भाषा श्रपस में मिलती हैं, तब अनार्य भाषा श्रभिभूत हो जाती है । श्राज-कल हम देख सकते हैं कि उन प्रांतों में, जहाँ दो जातियों के देशों की सीमाएँ मिलती हैं, भाषा के स्वरूप का यह परिवर्तन जारी है, जिसकी उन्नति की सब मंजिलें हम साफ़-साफ़ देख सकते हैं । द्राविड़ शाखा की अनार्य भाषा - तैलगु, कनारी, मलयालम और तामिल ये दक्षिणी भारत में ही प्रचलित हैं । भारतीय भाषाओं के समग्र इतिहास में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता, जिससे किसी श्रनार्य भाषा द्वारा श्रार्य भाषा का स्थान छीन लेने की बात पाई जाये । ५ क्या संस्कृत बोलचाल की भाषा थी ? 'संस्कृत कहाँ तक बोलचाल की भाषा थी ?' इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रोफेसर ई० जे० राप्सन कहते हैं- "संस्कृत भी वैसी ही बोलचाल की भाषा थी, जैसी साहित्यिक अंग्रेजी है, जिसे कि हम बोलते हैं । संस्कृत उत्तर-पश्चिमी भारत की बोलचाल की भाषा थी, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास जिसके विकास का पता सम्पूर्ण साहित्य दे रहा है और जिसकी ध्वन्यास्मक विशेषताएँ उत्तर पश्चिमी भारत के शिलालेखों में बहुत सीमा तक सुरक्षित है । मूलरूप में यह ब्राह्मण-धर्म की भाषा थी, जो उसी उत्तरपश्चिमी भाग से प्रचलित हुआ था। श्राह्मण-धर्म के प्रसार के साथ इसका भी प्रसार हुश्रा और जब भारत के अन्य दो बड़े धर्म-जैन और बौद्ध धर्म--फैलने लगे, तब कुछ समय के लिए इसका प्रसार रुक गया । जा भारत में उक दोनों धर्मों का हास हुअा, तब इसने निर्विन उहति करना प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे यह सारे भारतवर्ष में फैल गई । प्रारम्भ में एक जिले की, फिर एक वर्ण तथा धर्म की, अन्त में यह सारे भारतवर्ष में एक धर्म, राजनीति और संस्कृति की भाषा बन गई। समय पाकर खो यह एक विशाल राष्ट्रीय भाषा बन गई और केवल तभी यह पद च्युत हुई, जब मुसलमानों ने हिन्दू राष्ट्रीयता को ताह किया। निम्नलिखित बातों से यह सिद्ध होगा कि संस्कृत कभी भारत की बोलचाल की भाषा यो:-- (5) बहुत काल तक मध्य संस्कृत तथा श्रेण्य संस्कृत, जो वैदिक भाषा की ही कुलजा है, शिक्षित श्रेणी को बोलचाल की भाषा बनी रही और इन्होंने सर्वसाधारण की बोलियों अर्थात् पाली एवं नाटकों की प्राकतों पर भी प्रभाव डाला। १. यह बात अधोलिखित उदाहरण से विस्पष्ट हो जायगी। नाटकीय प्राकृत में हमें ऋद्धि' और 'सुदरिसन' शब्द मिलते हैं । पाली में उन्हीं से मिलते जुलते 'इद्धि (सं० ऋद्धि,) और 'सुदस्सन' (स० सुदर्शन) शब्द मिलते हैं । यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि 'ऋद्धि' और 'सुदरिसन' शब्द पाली के 'इडि' और 'सुदरसन' से विकसित हुए हैं,प्रत्युत यही मनाना होगा कि पूर्वोक्त दोनों शब्द संस्कृत भाषा से ही निकले हैं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या संस्कृत बोलचाल की भाषा थी ? १७ (२) यास्क से प्रारम्भ करके सभी पुराने व्याकरण श्रेय संस्कृत को "भाषा" नाम से पुकारते हैं (३) पाणिनि के ऐसे अनेक नियम है, जो केवल जीवित-भाषा के में ही सार्थक हो सकते है । (४) पतञ्जलि ( ई० पूर्व द्वितीय शताब्दी ) संस्कृत को लोक व्यवहृत कहता है और अपने शब्दों को कहना है कि ये लोक में प्रचलित है । (५) इस बात के प्रमाण विद्यमान है कि संस्कृत में बोलचाल की भाषा में पाई जाने वाली देशमूखक विभिन्नताएँ थीं । ग्राहक और पाणिनि 'प्राच्यों' और 'उदीच्यो' की विभिन्नता का उल्लेख" करते हैं । कात्यायन स्थानिक भेदों की ओर संकेत करता है और पतञ्जलि ऐसे विशेष- विशेष शब्द चुनकर दिखलाता है, जो केवल एक-एक जिले में ही बोले जाते है | (६) कहानियों में सुना जाता है कि भिक्षुओं ने बुद्ध के सामने विचार रक्खा था कि आप अपनी बोलचाल की भाषा संस्कृत को बना लें । इसमें भी यही परिणाम निकलता है कि संस्कृत बुद्ध के समय में बोलचाल की भाषा थी । (७) प्रसिद्ध बौद्धकवि अश्वघोष (ई द्वितीय शताब्दी) ने अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए अपने ग्रंथ संस्कृत में लिखे । इससे यह अनुमान करना सुगम है कि संस्कृत प्राकृत की अपेक्षा साधारण जनता को अपनी और अधिक खींचती थी तथा संस्कृत ने कुछ समय के लिए खोये हुए अपने पद को पुत्र प्राप्त कर लिया था । ( ८ ) ई० दूसरी शताब्दी के बाद में मिलने वाले शिलालेख क्रमश: संस्कृत में अधिक मिल रहे हैं और ई० छठी शताब्दी से लेकर १ 'भाषा' शब्द 'भाष' से, जिसका अर्थ बोलना चालना है, निकला है । २. उदाहरणार्थ, 'दूर से सम्बोधन करने में वाक्य का अंतिम स्वर प्लुत हो जाता है' । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ संस्कृत साहित्य का इतिहास केवल जैन शिलालेखों को छोड़कर, सारे के सारे शिलालेख संस्कृत में ही मिलते हैं । यह बात तो सभी मानेंगे कि शिक्षालेख प्रायः उली भाषा में लिखे जाते हैं, जिसे सर्वसाधारण पद और समझ सकते हैं । (१) उत्तरभारत के बौद्धों के ग्रंथ प्रायः संस्कृत में ही बले आ रहे है । इससे सूचित होता है कि बौद्ध लोग तक जीवित भाषा संस्कृत की उनके विरोध में सफल नहीं हो सके । (१०) नसांग विस्पष्ट शब्दों से कहता है कि ई० सातवीं शताब्दी में बौद्ध लोग धर्मशास्त्रीय मौखिक वाद-विवाद में संस्कृत का ही व्यवहार करते थे। जैनों ने प्राकृत को बिलकुल छोड़ तो नहीं दिया था, पर वे भी संस्कृत का व्यवहार करने लगे थे । (११) संस्कृत नाटकों में पात्रों की बोलचाल के योग्य नाना प्राकृतों का भी प्रयोग रहता है । नायक एवं उच्चपद के अधिकारी पात्र, जिनमें तपस्विनियाँ भी सम्मिलित है संस्कृत बोलती हैं, किन्तु स्त्रियाँ और निम्नस्थिति के पात्र प्राकृत ही बोलते है । इससे सिद्ध होता है कि जो संस्कृत नहीं बोलते थे, वे भी संस्कृत समझते अवश्य थे । इसके अतिरिक्त पर्याप्त प्रमाणों से यह संकेत मिलता है कि संस्कृत नाटक खेले भी जाते ये और इसका यही अर्थ है कि नाटक दर्शक संस्कृत के बार्तालाप को समते और उसके सौंदर्य का रसानुभव भी करते थे । (१२) साहित्य में ऐसे भी उल्लेख पाये जाते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि रामायण और महाभारत जनता के सामने मूलमात्र पढ़कर सुनाये जाते थे। तब तो जनता वस्तुतः संस्कृत के श्लोकों का अर्थ समझ खेती होगी । इस प्रकार हम देखते है कि हिमालय और विन्ध्य के बीच फैले हुए सम्पूर्ण आर्यावर्त में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी । इसका व्यवहार ब्राह्मणा' ही नहीं, अन्य लोग भी करते थे । पतअति ने एक कथा लिखी १. पतञ्जलि के 'शिष्ट' शब्द पर ध्यान दीजिए । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओष्य संस्कृत की विशेषताएँ १६ - है, जिस में कोई सारथि किसी वैयाकरण से 'सूत' शब्द की व्युत्पति पर विवाद करता है । लोकवार्ता है कि राजा भोज ने एक लकड़हारे के सिर पर बोझ देखकर पर दुःख - कातर हो उससे संस्कृत में पूछा कि तुम्हें यह बोझ कष्ट तो नहीं पहुँचा रहा और 'बाधति' क्रिया-पद का प्रयोग किया । इस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया- महाराज ! मुझे इस बोक से उतना कष्ट नहीं हो रहा, जितना 'बाधते' के स्थान पर, आपके बोले हुए 'माघति' पद से हो रहा है। सातवीं शताब्दी में, तो जैसा । ऊपर का जा चुका है, बौद्ध और जैन भी संस्कृत बोलने लगे थे । थाजकल भी बड़े-बड़े पंडित आपस में तथा विशेष करके शास्त्र- चर्चा में, संस्कत ही बोलते है । सक्षेप यह कि संस्कृत की प्रारंभ से लेकर अब तक प्रायः वही अवस्था रही है और अब भी है, जो यहूदियों में दिव् की या मध्य काल में लेंटिन की थी । [६] श्र ेय संस्कृत की विशेषताए भारतीय साहित्य का इतिहास दो प्रधान कालों में विभक्त हो सकता है - - ( १ ) पाणिनि से पहला अर्थात् वैदिक काल जिसमें वेद, ब्राह्मण, श्रारण्यक उपनिषद् और सूत्रग्रन्थ सम्मिलित हैं, तथा ( २ ) पाणिनि से पिछला अर्थात् श्रेय संस्कृतकाल जिसमें रामायण, महाभारत, पुराण, महाकाव्य, नाटक, गीतिकाव्य, गद्याख्यायिका, लोक प्रिय कहानियाँ, श्रौपदेशिक कथाएँ, नीति-सूक्तियाँ तथा शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, राजनीति, ज्योतिष और गणित इत्यादि के ऊपर वैज्ञानिक साहित्य सम्मिलित है। दूसरे काल का साहित्य पहले काल के साहित्य से बाह्याकृति, श्रन्तरात्मा प्रतिपाय अर्थ एवं शैली इन सभी दृष्टियों से भिन्न है । इनमें से कुछ का दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है: ★ (क) बाह्याकृति -- सम्पूर्ण ऋग्वेद की रचना पथ में हुई है। धीरे वी गद्य की शैली का विकास हुआ । यजुर्वेद और ब्राह्मणों में गद्य का अच्छ विकास देखने को मिलता है । उपनिषत् तक पहुँचते-पहुँचते गद्य क प्रभाव बहुत मन्द पड़ गया, क्योंकि उपनिषदों में गद्य का प्रयोग ww Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास अपेक्षाकृत कम देखा जाता है, श्रीएय संस्कृत में तो गध प्रायः सत-समा ही दिखाई देता है। राजनियम और आयुर्वेद जैसे विषयों का प्रतिपादन भी पद्य में ही मिलता है। गध का प्रयोग केवल व्याकरण और दर्शनों में ही किया गया है; पर वह भी दुर्दोष और चक्करदार शैली के साथ । साहित्यिक गद्य करपनाय आख्यायिकाओं, सर्वप्रिय कहानियों, औषदेशिक कथानों तथा नाटकों में अवश्य पाया जाता है, किन्तु यह गद्य लम्बे-लम्बे समासा से भरा हुश्रा है और ब्राह्मणों के गद्य से मेल नहीं खाता। पद्य में भी श्रेण्य संस्कृत के छन्द, जिनका आधार यद्यपि वैदिक छन्द ही है तथापि, वैदिक छन्दों से भिन्न हैं। मुख्य छन्द श्लोक (अनुष्टुप) है। श्रेएन संस्कृत के छन्द जितने भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं, उतने वैदिक नहीं । इसके अतिरिक्त, श्रेण्य व्यंस्कृत के छन्द वैदिक छन्दों की अपेक्षा अधिक श्रम से रचे गये हैं, क्योंकि इन छन्दों में प्रत्येक चरण के वर्णों या मात्राओं की संख्या दृढ़ता के साथ अटल रहती है। (ख) अन्तरात्मा-वेदों में वीण रूपमें पाया जाने वाला पुनर्जन्म का सिद्धान्त' उपनिषदों में प्रबल रूप धारण कर लेता है । श्रेय संस्कृत में इस सिद्धान्त का पोषण बहुत ही श्रमपूर्वक किया गया है। उदा. हरणार्थ, धर्म की स्थापना और अधर्म के उच्छेद के लिए विष्णु भगवान् को कभी किसी पशु के और कभी किसी असाधारण गुणशाली पुरुष के रूप में अनेक बार पृथिवी पर जन्म धारण करवाया गया है। एक और विशेषता यह है कि मानव-जगत् की साधारण घटनाओ के वर्णन में भी अपार्थिव अंश को सम्मिलित करने की और अधिक १ इस सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि आत्मा अमर है । जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नये धारण कर लेता है, वैसे ही आत्मा एक जरा-जीर्ण शरीर को छोड़कर दूसरा नया धारण कर लेता है। (देखो गीता २२)। यह सिद्धान्त हिन्दू-सभ्यता का हृदय है। . Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रय संस्कृत की विशेषताएँ २१ अभिरुचि देखी जाती हैं। यही कारण है कि स्वर्ग और पृथिवी के निवाशियों के परस्पर मिलने जुलने की कथाओं की कमी नहीं है । सीमा से बढ़ जाने वाली अतिशयोक्ति का उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है । इसके इतने उदाहरण है कि पूर्वीय अतिशयोकि जगप्रसिद्ध हो चुकी है। बारा की कादम्बरी में उज्जयिनी के बारे में कहा गया है कि वह त्रिभुवनलख मभूता, मानों दूसरी पृथिवी, निरन्तर होते रहने बाले अध्ययन की ध्वनि के कारण धुले हुए पापों वाली' है । (वैदिक काक्ष के बाद की शैली में विरक्त या साधु बन जाने का सीमा से अधिक वर्णन, पौराणिक कथाओंों का रङ्ग-बिरङ्गा कलापूर्ण उल्लेख, घटाटोप वर्णनों के दल के दन, महाकाव्यों का भारी भरकम डीलडौल, एक प्रकार का अनुपम संक्षिप्त शैली वाखा गद्य, अभ्यास-वश प्रयुक्त किये गये लम्बे-लम्बे समास' ऐसी बात है, जो श्र ेय संस्कृत में पाई जाने वाली इस विशेषता को प्रकट करती है । (ग) प्रतिपाद्य विषय-यदि वैदिक साहित्य वास्तव में धर्मपरक I तो लगभग सारे का सारा श्रेय संस्कृत साहित्य लौकिक विषय-परक है । श्रय संस्कृत काल में वैदिक समय के अग्नि, वायु, वरुण इत्यादि पुराने देवता गौण बन गये है और उनके मुकाबिले पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव मुख्य उपास्य हो गये है। इसके अतिरिक्त गणेश, कु.वेर, सरस्वती और लक्ष्मी इत्यादि अनेक नये देवताथों की कल्पना कर जी गई है। (घ) श्री एय संस्कृत - काल की भाषा पाणिनि के कठोर नियमों से बँधी हुई है। इसके अतिरिक्क, कविता को नियत्रित करने वाले अलंकार १. उज्जयिनी का वर्णन एक शैली में लगभग ४१-४१ व वाली ४१ पंक्तियों में किया गया है। दण्डी के दशकुमारचरित्र में भी पुष्पापुरी का वर्णन प्रायः ऐसा ही है । २. देखिए मैकडानल कृत संस्कृत-साहित्य का इतिहास ( इग्लिश ) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सस्कृत साहित्य का इतिहास शास्त्र के नियमों का श्रमपूर्ण निर्माण किया गया है तथा लम्बे-जम्छे समासों का प्रयोग बहुत हो गया है। इस प्रकार के काल में संस्कृतकविता क्रमशः अधिकाधिक कृत्रिम होती चली गई है। इसना होने पर भी संस्कृत-कविता गुणों से खाली नहीं है। इस प्रकार एक प्रसिद्ध विद्वान्, जिपले मेरा परिचय है, कविना को अन्तरारा में इतना घुज गया है कि उसे किसी और वस्तु से अानन्द मिलता ही नहीं (मैकडानल) : संस्कृत कविता के वास्तविक लावण्य का अनुभव संस्कृत के ही ग्रन्धों के पढ़ने से हो सकता है, अनुवाद-ग्रन्थों से नहीं। संस्कृत छन्दों का चमत्कार किसी अन्य भाषा में अनुगद करने से नहीं श्रा सकता । सच तो यह है कि केवल मूजन संस्कृत ग्रन्थों का पढ़ना ही पर्याप्त नहीं है (अनुवाद की तो बात ही क्या) बल्कि संस्कृत के विद्यार्थी को भारत के प्राकृतिक श्यों का, भारतीयों की प्रकृतियों, प्रथाओं और विचार-धारात्रों का भी गहरा ज्ञान होना आवश्यक है। इस पुस्तक में श्रेण्य संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास दिया आयगा। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय २ रामायण और महाभारत ( ७ ) ऐतिहासिक महाकाव्यों की उत्पत्ति श्रानस्ड कहता है "ऐतिहासिक महाकाव्य का विषय कोई गुम्फित बड़ी घटना होनी चाहिए । मुख्य मुख्य पात्र उच्चकुलोत्पन्न तथा उच्चविचारशाली होने चाहिएँ । विषय के सदृश उसके वर्णन का प्रमाण ( Standard ) भी उच्च हो । ऐतिहासिक महाकाव्य का विकास संवाद, स्वगत ( भाषण ) और कथालाप से हुआ है ।" यह बात हमारे ऐतिहासिक महाकाव्य रामायण और महाभारत पर भी पूर्णतया लागू होती है | रामायण में रावण के ऊपर प्राप्त हुई राम की विजय का वर्णन है और महाभारत में कौरवों और पाण्डवों के परस्पर के युद्ध का दोनों ही काव्यों के पात्र राजवंशज हैं और उनका चरित्र बड़े कौशल से चित्रित किया गया है। स्त्रीपात्राों में एक असाधारण व्यक्तित्व पाया जाता है ? । उक्त दोनों महाकाव्य महला उत्पन्न नहीं हो गये | भारत में ऐतिहासिक कविता का मूल ऋग्वेद के संवाद वाले सूक्कों में मिलता है। १. उदाहरणार्थ, महाभारत में द्रौपदी एक कुलोन देवी है, जिसे सदा अपने गौरव का ध्यान है, जो भारी से भारी विपत्ति के काल मे भ अधीर नहीं होती, जिसके सतीत्व में सन्देह का लेश भी नहीं हो सकता, फिर भी मानवीय प्रकृति की सब दुर्बलताएं उसमे हैं । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ हिन्दी साहित्य का इतिहास बाद के वैदिक साहित्य में अर्थात् ब्राह्मणों में इतिहास, माख्यान और पुराणों' का उल्लेख मिलता है। इस बात के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं कि यज्ञों, संस्कारों तथा उत्सवों के अवसर पर इनको कथा आवश्यक थी । यद्यपि इसका तो प्रमाण नहीं मिलता कि तब इतिहास-पुराणकाव्य ग्रन्थ रूप में विद्यमान थे, तो भी इससे इनकार नहीं हो सकता कि ऐतिहासिक एवं पौराणिक नाम से प्रसिद्ध कथावाचक लोग बहुत पुराने समय में भी विद्यमान थे। ऐतिहामिक काव्य रचयिताओं ने, जिनमें बौद्ध और जैन भी सम्मिलित है, बौद्धकाल से बहुत पहले ही संचित हो चुकने वाली कथा-कहानियों अर्थात् इतिहास, ब्राख्यान, पुराण और गाथाओं के श्राव्य कोश से पर्याप्त लामग्री प्राप्त की। महाभारत में 'ge sarai' at उल्लेख पाया जाता है, जो शायद ऐतिहासिक काव्य के ढंग को किन्हीं प्रवीन कविताओं की प्रोर संकेत करता है । अनुमान किया जाता है कि ऐतिहासिक काव्य के ढंग की सैंकड़ों पुरानी कहानियों ने अनेक ऐतिहासिक काव्यों की रचना के लिए पर्याप्त सामग्री दी होगी । इन्हीं काव्यों के आधार पर और इन्हीं की काट-छांट करके हमारे रामायण र महाभारत नामक महाकाव्यों की रचना हुई होगी । यह अनुमान इस बात से और भी पुष्ट होता है कि रामायण और महाभारत में जैसे श्लोक हैं, ऐसे ही अनेक श्लोक अन्य ग्रन्थों में भी पाया जाते हैं । और यह बात तो महाकाव्य में उसके कवि ने स्वयं स्वीकार की है कि वर्तमान ग्रन्थ मौलिक अन्य नहीं है। देखिए -- आचख्युः कवयः केचित् सम्प्रत्याचक्षते ऽपरे । प्राख्यास्यन्ति तथैवान्ये इतिहासमिमं भुवि ॥ अर्थात् इस इतिहास को कुछ कवि इस जगत् में बहुत पहले कह चुके हैं, कुछ कहते हैं तथा कुछ भी कहेंगे । १ बाद के वैदिक ग्रन्थों में पुराण और इतिहास के अध्ययन से देवता प्रसन्न होते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है । वस्तुतः इतिहास पुराण 'पाँचवाँ 'वेद' कहा गया है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4ho २५ रामायण इस श्लोक का लिट् लकार का प्रयोग 'वाचख्युः' ध्यान देने के योग्य | इस प्रयोग से 'बहुत प्राचीन समय में' सूचित होता है । (८) रामायण (क) भारतीय ग्रन्थकार रामायण को आदि काव्य और रामायणरचियता वाल्मीकि को यादि कवि कहते हैं। रामायण में केवल युद्धों और विजयों का ही वर्णन नहीं है, इसमें आलङ्कारिक भाषा में प्रकृति का भी बड़ा रमणीय चित्र अङ्कित किया गया है। इस प्रकार रामायण में सर्व प्रिय ऐतिहासिक काव्य और अलंकृत काव्य दोनों के गुण पाये जाने हैं। कदाचित् जगत् में कोई अन्य पुस्तक इतनी सर्वप्रिय नहीं है, जितनी रामायण । अपनी रचना के दिन से लेकर ही यह भारतीय कवियों और नाटककारों के प्राणों में नवीन स्फूर्ति भरती चलो भाई है महाभारत के तीसरे पर्व में राम की कथा आती है । ब्रह्माण्ड, विष्णु, गरुड़, भागवत, अग्नि इत्यादि पुराणों में भी रामायण के श्राधार पर रची हुई राम के पराक्रम की कथाएँ पाई जाती हैं । भाल, " कालिदास तथा संस्कृत के अन्य अनेक कवियों और नाटककारों की रचना इसी रामायण से उच्छ्वसित हुई है। यहां तक कि बौद्ध कवि अश्वघोष ने भी निस्सङ्कोच इसी से बहुत सा मलाला लिया है। जैन साधु विमलसूरि ( ई० की पहली शताब्दी ) का ग्रन्थ भी इसी के आधार पर लिखा गया है । बौद्ध ग्रन्थों के तिब्बती तथा चीनी अनुवादों में ( ई० की तीसरी शतादी) राम के वीर्यों की कथाएँ, या उनकी ओर संकेत प्राय: हैं । अब से शताब्दियों पहले रामायण भारत में ही नहीं, भारत से बाहर भी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। जावा में लरजङ्गरङ्ग, प्रमबनम और पनातरन में शिवमन्दिरों में तथा देवगढ़ में विष्णुमन्दिर में पत्थर के ऊपर १. देखिए अभिषेक, प्रतिमा तथा यज्ञफलम्, देखिए रघुवंश । २. देखिए उसका प्राकृत काव्य पउमचरिय ( पद्मचरित ) | Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ संस्कृत साहित्य का इतिहास 4 रामायण की कथा के दो सौ से भी अधिक दृश्य खुदे हुए हैं । जावा और माया के अनेक ग्रन्थों में राम के अनेक वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन मिलता है। सियाम, बाली तथा इनके समीप के अन्य द्वीपों में रामायण के मुख्य मुख्य पात्रों की बड़ी हो सुन्दर कलापूर्ण मूर्तियाँ पाई जाती हैं । 1 जब हम भारत की वर्तमान भाषाओं की ओर आते हैं, तब देखते हैं कि ग्यारहवीं शताब्दी में रामायण का अनुवाद दामिल भाषा में हो गया था । प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि तुलसी रामायण ( रामचरित मानम ) उत्तर भारत में कितनी सर्वप्रिय है और भारत के करोडों निवासियों की संस्कृति और विचारधारा पर इसका कितना प्रभाव है मि और हिन्दी को छोड़कर भारतीय अन्य भाषाधों में भी रामायण के अनुवाद या कॉट-छाँटकर तैयार किये हुए रूपान्तर विद्यमान है । रामनवमी, विजयदशमी (दशहरा) और दिवाली त्यौहार भी राम के जीवन से सम्बद्ध हैं, जिन्हें करोडो भारतनिवासी बडे उत्साह से मनाते हैं । रामायण के प्रथम काण्ड में कहा गया है कि ब्रह्मा ने वाल्मीकि मुनि को बुलाकर राम के वीर्यो की प्रशस्ति तैयार करने को कहा और उसे आशा दिलाई कि जब तक इस हद स्थित पृथिवी पर नदियाँ बहती रहेंगी और पर्वत खड़े रहेंगे, तब तक सारे जगत् में रामायण विद्यमान रहेगी। (ख) महत्त्व - ऐतिहासिक एवं अलंकृत काव्य की दृष्टि से ही रामायण महत्वास्पद नहीं है, अपितु यह हिन्दुओं का आधार शास्त्र भी है | रामायण की शिक्षाएँ व्यावहारिक हैं । श्रतः उनका समकमा भी सुगम है। रामायण में हमें जीवन की सूक्ष्म और गम्भीर समस्याएँ साफ-साफ खुल हुए रूप में मिल जाती हैं । पाठक स्वयं जान लेता है कि जीवन में आदर्श भाई, श्रादर्श पति, आदर्श पत्नी, आदर्श सेवक, श्रादर्श पुत्र और आदर्श राजा (राम) को कैसा व्यवहार करना चाहिए । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण दशस्य का प्रतिज्ञापालन एवं पुत्रस्नेह अनुपम है। कौसल्या की कर्तव्यनिष्ठा और सुमित्रा की स्याग-वृत्ति अद्वितीय है। बड़े भाई की पत्नी के प्रति लचमण की श्रद्धा देखकर हम श्राश्चर्य में डूब जाते हैं। राम को मर्यादापुरुषोत्तम कहना उचित ही है। तात्पर्य यह है कि रामाध्या में इमे उच्चतम श्राचार के जीते जागते दृष्टान्त मिलते है । यही कारण है कि न केवल भारत में बल्कि बाहर भी रामायण से भूनकात में लोगों को जीवन मिला, अब मिल रहा है और भागे मिलता रहेगा। रामायण से प्राचीन कालोन श्रार्य-सभ्यता के विषय में बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त होता है। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका अध्ययन महत्वपूर्ण है । इससे हम प्राचीन कालीन भारत की सामाजिक और राजनीतिक अवस्था को अच्छी तरह जान सकते हैं। इसके अतिरिक इससे हमें तत्कालीन भौगोलिक परिस्थिति का भी पर्याप्त परिचय प्राम होता है। (ग) संस्करण हम रामायण को भिन्न-भिन्न संस्करणों में पाते हैं.. (१) बम्बई संस्करण ( बम्बई में प्रकाशित )। इस संस्करण में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण टीका 'राम टीकाकार की 'तिलक' है। संस्कृत में पाई जानेवाली अन्य टीकाएँ शिरोमणि' और 'भूषण हैं। (२)बंगाली संस्करण ( कलकले में प्रकाशित)। अस्यन्त उपयोगी टिप्पणियों के साथ इसका अनुवाद जी० गोरेशियो ने किया था। यह बड़ी-बड़ी पाँच जिल्दों में मिलता है । संस्कृत टीकाकार का नाम 'लोकनाथ' है। (३) उत्तर पश्चिमीय संस्करण (या काश्मीरिक संस्करण) यह लाहौर में प्रकाशित हो रहा है। इसके टीकाकार का नाम है 'कटक' 1(४) दक्षिण भारत संस्करण (मद्रास में प्रकाशित)। इसमें और बम्बई संस्करण में अधिक भेद नहीं है । उपर के तीन संस्करणों में परस्पर पर्या यह कहना कठिन है कि कौन-सा-संस्करण वाल्मीकि के असली ग्रंथ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास से अधिक मिलता जुलता है । श्लेगल' ने बंगाली संस्करण को अधिक पसन्द किया था । बोटलिंग इस परिणाम पर पहुंचा था कि पुराने शब्द बरुबई संस्करण में अधिक मिलते हैं। ऐखिहासिक प्रमाण द्वारा हम कुछ अधिक सिद्ध नहीं कर सकते । इरिवंशपुराण के सर्ग २३७ में रामायण विषयक उल्लेख बंगाली संस्करण से अधिक मिलते जुलते हैं। आठवीं और नौवीं शताब्दी के साहित्य में श्राए रामायण-विषयक वर्णन बम्बई संस्करण से अधिक सम्बन्ध रखते हैं । बारहवीं शताब्दी के क्षेमेन्द्र की रामायणमंजरी से सिद्ध होता है कि उस समय काश्मीरिक संस्करण विद्यमान था। ग्यारहवीं शताब्दी के भोज के रामायण चम्पू का श्राधार बम्बई-संस्करण है। सच तो यह है कि इन संस्करणों ने विभिन्न रूप अब से बहुत काम पहले धारणा कर लिए थे । तब से लेकर वे उसी रूप मे चले पा रहे हैं। केवल एक के श्राधार पर दूसरे में बही परिवर्तन हुा है, जहाँ ऐसा होना अछ असम्भव था । (घ) वर्णनीय विषय----रामायया में लगभग चौबीस हजार श्लोक है। सारा ग्रंथ सात कांडों में विभता है। ___कांड :--(बाल-क्रांड) इसमें राम के नवयौवन, विश्वामित्र के साथ जाने, उसके यज्ञ की रक्षा करने, राक्षसों के मारने और सीता के साथ विवाह हो जाने का वर्णन है। काण्ड २-(अयोध्या कांड)। इसमें राम के राजतिलक की तैयारी, १. 'वाल्मीकि रामायण-टिप्पणियो और अनुवाद के साथ मूल अंथ (३ जिल्द) सन् १८२६ से १८३८ तक। २ बंगाली संस्करण का प्रादुर्भाव बंगाल में हुअा, जो गौडी रीति से पूर्ण श्रेण्य संस्कृत साहित्य का केन्द्र था और जहाँ ऐतिहासिक महाकाव्य की भावना की स्वतन्त्रता का लोप हो चुका था। यही बात काश्मीरिक संस्करण के बारे में भी जाननी चाहिए । अंतर इतना ही है कि बंगाल में गौडी रीलि अधिक प्रचलित थी तो इस और पाञ्चाली। . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण कैकेयी के द्वारा किए जाने वाले विरोध, राम के बन जाने, राम के वियोग में दशरथ के मरने और राम को लौटाने के लिए भरत के चित्रकूट जाने का वर्णन है। काण्ड ३--(अरण्यकाण्ड)। इसमें राम के दण्डक वन में रहने, बिराध इत्यादि राक्षसों के मारने, फिर पञ्चवटी में रहने, राम के पास शूर्पणखा के माने, चौदह हजार निशादों के साथ खर को मारने, रावण द्वारा सीता के चुराये जाने और सीता के वियोग में राम के रोते फिरने का वर्णन है। काण्ड ४--(किष्किन्धाकाण्ड) इसमें राम का सुग्रीव को अपने साथ मिलाने, बाली को मारने, और बन्दरों को साथ लेकर हनुमान का सोता की खोज में जाने का वर्णन है। काण्ड ५---(सुन्दरकाण्ड) । इसमें लंका के सुन्दर द्वीप, रावण के विशाल महल, हनुमान् का सीता को धीरज बंधाने और सीता का पता लेकर हनुमान के वापस लौटने का वर्णन है। काएड ६-(युद्धकाण्ड) । यह सबसे बड़ा कारड है। इसमें रावण पर राम को विजय का वर्णन है। कार -(उत्तरकाएड)। इसमें अयोध्या में बोलने वाले राम के अतिम जीवन, सीता के बारे में लोकापवाद, सीता-निर्दालन, सीना-शोक, वाल्मीकि के आश्रम में कुश-लव के जन्म और अंत तक की सारी कथा का वर्णन है। (ङ) उपाख्यान-रामायण में कई सुन्दर उपाख्यान भी हैं। वे विशेष करके पहले और सातव काण्ड में पाये जाते हैं। प्रसिद्ध-प्रसिद्ध उपाख्यान ये हैं वामन अवतार (33; २६), कार्तिकेय-जन्म (२, २५-३०), गङ्गावत्तरण (३, ३८-४४), समुद्रमंथन (१, ४५), श्लोक-प्रादुर्भाव (१, २) १ इस सपाख्यान का संक्षेप यह है---एक दिन जंगल में भ्रमण करते Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० संस्कृत-साहित्य का इतिहास ययाति - नहुष ( ७, ८), वृत्र- वध (७, ८४-८७), उर्वशी - पुरूरवा (७, मह ३०), शूद्रतापस शम्बूक (७) (च) विशुद्धता -- कई बक्षण ऐसे हैं, जिनसे यह प्रतीत होता है कि रामायण की यथार्थ कथा छठे काण्ड में ही समाप्त हो जाती है 1 सातवाँ काण्ड उन उपाख्यानों से भरा पड़ा है, जिनका मूल कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ, सातवें काण्ड के प्रारम्भिक भाग में राक्षसों की उत्पत्ति, रावण के साथ इन्द्र के युद्ध, हनुमान के यौवनकाल का वर्णन है तथा कुछ एक अन्य कहानियाँ हैं, जिनसे मूल कथा की गति में पर्याप्त बाधा पड़ती है । इसी प्रकार पहले काण्ड में भी ऐसा पर्याप्त अंश है, जो वस्तुत. मौलिक रामायण में सम्मिलित नहीं रहा होगा । इस बारे में निम्नलिखित बातें याद रखने योग्य है- (1) पहले और सातवें काण्ड की भाषा तथा शैली शेष काराडों से निकृष्ट है । (२) पहले और सातवें कायड में परस्पर विरोधी अनेक बातें हैं पहले काण्ड के अनेक कथा- विवरण अन्य काण्डों के कथा- विवरणों क विरुद्ध हैं । उदाहरणार्थ, देखिए लक्ष्मण का विवाद । (३) दूसरे से लेकर छूटे काण्ड तक प्रक्षिप्त अंशों को छोड़कर, राम हुए वाल्मीकि ने एक क्रौञ्च मिथुन को स्वैर विहार करते हुए देखा | उसी समय एक व्याध ने नरक्रौञ्च को तीर से मार डाला। यह देखकर वाल्मीकि से न रहा गया । उनका हृदय करुणा से द्रवित हो गया । उन्होंने तत्काल उस व्याध को शाप दे दिया, जो उनके मुख से अनजाने श्लोक के रूप में निकल पड़ा । तब ब्रह्मा ने उसी 'श्लोक' छन्द में उनसे राम का यशोगान करने के लिए कहा। ऐच० जैकोबी का विचार है कि इस उपाख्यान का आधार शायद यह बात है कि हम परिपक्वावस्था को प्राप्त हुए श्लोक का मूल वाल्मीकि रामायण में ही देख सकते हैं, इस से पहले के किसी ग्रन्थ में नहीं । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 전 24 av रामायण ३१ (207 आदर्श वीर सहाय माना गया है; परंतु पहले और सातवें कांड में से निविष्य का अवतार दिखलाया गया है । (घ) काण्ड में सारी रामायण कथा की दो अनुक्रमणिकाएँ दी गई हैं-- एक पहले लर्ग में और दूसरी तीसरे में। उनमें से एक अनुक्रमणिका में पहले और सातवें कायड का उल्लेख नहीं है । L इन आधारों पर प्रोसेसर जैकोबी ने ' निश्चय किया है कि दूसरे से लेकर छूटे काण्ड तक का भाग रामायण का असली भाग है, जिसके श्रागे पीछे पहले और सातवें काण्ड बाद में जोड़ दिए गए हैं। और असती भाग में भी कहीं कहीं मिलावट कर दी गई है। दूसरे काण्ड के कई प्रारम्भिक सf पहले काण्ड में मिला दिये गये हैं। असली रामायण वाज कर के प्रथम काण्ड के पाँचवें सर्ग से प्रारम्भ होती थी । (x) काल -- ( १ ) महाभारत के सम्बन्ध से - रामायण का (छ) असली भाग महाभारत के असली भाग से पुराना है। रामायण में महाभारत के किसी वोर का उल्लेख नहीं है। हाँ, महाभारत में राम की कहानी का किया है। इसके अतिरिक्त महाभारत के सातवें पर्व में रामायण के छुटे काण्ड से दो श्लोक उद्धव किए गए हैं और महाभारत के तीसरे पर्व के २७७ से २६१ तक के अध्यायों के रामोपाख्यान है, जो रामायण पर आश्रित प्रतीत होता है। सच तो यह है कि रामोपा १. 'रामायण' में जैकोबी कहते हैं--जैसे हमारे अनेक पुराने, पूजनीय गिरजाघरो मे हर एक नई पीढ़ी ने कुछ न कुछ नया भाग बढ़ा दिया है और कुछ पुराने भाग की मरम्मत करवा दी है और फिर भी असली गिरजाघर की रचना को नष्ट नहीं होने दिया है। इसी पकार भाटो की नेक पीढ़ियों ने असली भाग को नष्ट न करते हुए रामायण कुछ बढ़ा दिया है, जिसका एक-एक rara तो अन्वेषक की से छिपा हुआ नहीं है ।' में बहु ख Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ संस्कृत साहित्य का इतिहास ख्यान का रचियता इस बात का विश्वासी प्रतीत होता है कि महाभार राम की कहानी याद है । KÖPLATLA (२) बौद्ध साहित्य के सम्बन्ध से इस बारे में अधोलिखित बातें ध्यान देने योग्य है: -- - पाली जातकों' में दशाथ जातक ( रामोपास्नान ) कुछ प्रद बदलकर कहा गया है । इस जातक में पानी के रूप में रामायण (६, १२८ ) का एक रोक भी पाया जाता है { श्रा--- रामायण के दूसरे काण्ड के सहवें सर्ग में दशरथ ने शिकार के समय में मारे जाने वाले जिय तापस कुमार की कथा सुनाई है, साम जातक में वह कथा शायद अधिक पुराने रूप में पाई जाती है 1 3 इ - कुछ और भी जातक हैं, जिनमें ऐसे प्रकरण आते हैं, जो रामायण की याद दिलाते हैं। हाँ, उन प्रकरणों और रामायण के प्रकरयों में समानता केवल कहीं-कहीं पाई जाती है । ई-प्रोफेसर सिकवेन देवी ने इस विषय का गहरा अध्ययन किया है। उनका कहना है कि बौद्धग्रन्थ सद्धर्ममृत्युस्थान" निस्सन्देह वाल्मीकि का ऋणी है । उह ग्रन्थ का जम्बूद्दीप-वर्णन रामायस के दिग्दर्शन से बिलकुल मिलता है। इसके अतिरिक्त इस अन्य में नदियों समुद्रों, देश और दोषों का उल्लेख विजकुत उसी शैली से किया गया है, जिस शैली से यह रामायण में है । १. साहित्य में ये जातक अपने प्रकार के आप ही है । इनमें पूर्ण बुद्ध बनने से पहले के बुद्ध के जन्म-जन्मान्तरों की कथाए कही गई हैं ! २. विपिटिक में श्राया हुआ एक पाली जातक । ३. विटरनिट्ज कृत भारतीय साहित्य का इतिहास ( इगलिश ) भाग १, पट ५.०९ । ४. मूल गन्ध प्राप्य है । किन्तु इसका एक बड़ा टुकड़ा शांति देव के शिक्षासमुच्चय में सुरक्षित है । ५. यदि कहा जाय कि शायद वाल्मीकि ने ही बौद्धस्मृतियों से कुछ लिया हो, तो यह ठीक नहीं । कारण कि माझा धर्म Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण उ.-.-भाषा के शाधार पर भी ऐच जैकोबी इसी परिवाम पर पहुचे है कि शामायण बौद्ध काल से पहले की है। ऊ-या बौद्ध धर्म की बातें रामायण में सिद्ध की जा सकती है। इस प्रश्न को लेकर मो. विंटरनिटज कहते हैं-"शायद इस प्रश्न का उत्तर नहीं में है। क्योंकि रामायण में जिस एक स्थल पर बुद्ध का माम पाया है, वह अवश्य बाद की मिलावट वै" । (३) यूनानियों के सम्बन्ध से-सारी रामायण में केवल दो पधों में सूचनों (यूनानियों) का आम पाया जाता है। इन्हीं के श्राधार पर प्रो० देबर ने यह सिद्ध करने का यत्न किया है कि रामायण की कथा पर यूनानियों का प्रभाव पड़ा है। किन्तु प्रो. जैकोबी ने इस निश्चय में सन्देह की कोई गुंजायश नहीं छोड़ी कि ये दोनों पछ ३०० ई० के बाद कभी मिजाय भर हैं। (४) बाभ्यन्तरिक साक्ष्य ----- असली रामायण में कोसल की राजधानी अयोध्या कही गई है । बाइ में बौद्धों ने, जैमें ने, यूनानियों ने, यहाँ तक कि पतंजली ने भी अयोध्या नगरी को साकेत के नाम से दिया है। लय की साजधानी, जैसा कि ललम काण्ड में दी के बारे में इतने कपण थे कि उन द्वारा बौद्ध ग्रन्थों से कुछ लेने की सम्भा बना नहीं है। इसके अतिरिक्त, रामायण में उच्चतम सदाचार की शिक्षा है, जिसे वाल्मीकि ने किसी अप्रसिद्ध बौध्दगन्थ से नहीं लिया होगा। हाँ, इसके विपरीत बौद्धो द्वारा बाह्मणो के ग्रन्थों से बहुत कुछ लेने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। १ यदि वाल्मीकि बुध्द के बाद हुआ होता तो वह इस प्रकार के सर्वप्रिय ऐतिहासिक महाकाव्य को प्राकृत में लिखता। २ इस नगर की नींव डालने वाला नप कालाशोक था जिसकी अध्यक्षता में लगभग ३०० ई० पू० वैशाली में बौध्दो की दूसरी सभा हुई थी। मेगस्थनीज़ ( ३.. ई० पू० ) से पहले ही यह भारत की राजधानी बन चुका था। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ संस्कृत-साहित्य का इतिहास गई है, श्रावस्ती के उस स्थान पर स्थापित की गई थी जहाँ बुद्ध के समय में कोसराज प्रसेनजित् राज्य करता था । असती रामायण ( काण्ड २ - ६ ) में श्रावस्ती का उल्लेख कहीं नहीं faar | ससे ज्ञात होता है कि असली रामाय उस समय रची गई जिस समय अयोध्या नगरी विद्यमान थी, इसका नाम साकेत नहीं पड़ा था और श्रावस्ती नगरी प्रसिद्ध नहीं हो पाई थी । श्रा---प्रथम काण्ड ( श्लोक ३५ ) में कहा गया है कि राम उस स्थान से होकर गये, जहाँ पाटलिपुत्र ( श्राजकल का पटना ) स्थित | जहाँ रामायण की प्रसिद्धि पहुच चुकी थी, उसमें पूर्वी भारत के कौशाम्बी, काम्यकुब्ज और काम्पिल्य जैसे कुछ महत्वशाली नगरों के नाम भी पाये जाते हैं। सारी रामायण में पाटलिपुत्र का नाम कहीं भी नहीं आता, यदि रामायण काल में यह नगर विद्यमान होता तो इसका उल्लेख अवश्य होता । ६ -- बालकाक में मिथिला और विशाला को दो भिन्न राजाओं के श्रावीण जोड़िया नगरियाँ बताया गया है। हम जानते हैं कि बुद्ध के समय से पूर्व ही ये दोनों नगरियाँ वैशाली के एक प्रसिद्ध नगर के रूप में परिवर्तित हो चुकी थीं । ई-- इसके अतिरिक्त, हमें पता लगता है कि रामायण के काल में भारतवर्ष छोटे छोटे भागों में बँटा हुआ था, जिसमें छोटे छोटे राजा राज करते थे'। भारत की यह राजनीतिक दशा केवल बुद्ध के पूर्व तक ही रहीं । अन्त में हम कह सकते हैं कि असली रामायया ५०० ई० पूर्व से पहले बन चुकी होगी । [ यह युक्ति दी जाती हैं कि रामायण की भाषा, विशेष करके १ इसके विरुद्ध, महाभारत में हमें जरासन्ध जैसे शक्तिशाली राजाओं का वर्णन मिलता है, जिनका शासन है, अधिक देश तक विस्तृत था । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत ३.६ अरुबई वाले संस्कारया की भाषा, ऐतिहासिक महाकाव्यों की ओर ध्यान न देने वाले वैयाकरण पाणिनि की भाषा से बाद की भाषा के रूप की अवस्था को प्रकट करती है। किन्तु इससे रामायण का कोई पाणिनि के बाद का समय सिद्ध नहीं होता है। पाणिनि ने केवल शिष्टों की परिष्कृत भाषा को ही अपने विचार का क्षेत्र रक्खा था और सर्वप्रिय भाषा की ओर ध्यान नहीं दिया था। दूसरी ओर, यदि रामायण पाणिनि के बाद बनी होती तो यह पाणिनि के व्याकरण के प्रबल प्रभाव से नहीं बच सकती थी। (च) शैली जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, संस्कृत के सभी लेखकों ने नामायण को आदिकाव्य और इसके रचयिता को आदि कवि कहा है। ऐमा होने से यह विस्पष्ट है कि रामायण संस्कृत काव्य की प्रारम्भिक अवस्था को हमारे सामने रखती है। लोक छन्द की उत्पत्ति की कथा, जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है, सूचित करती है कि इस छन्द का प्रादुर्भाव वाल्मीकि से दुआ ! रामायण की भाषा आदि से अन्त तक प्राजल और परिष्कृत है। अलङ्कारों की छटा बार बार देखने को मिलती है । उपमा और रूप के प्रयोग में वाल्मीकि अत्यन्त निपुण हैं । भाषा की सरजता और भाव की विशदता उनकी कविता शैली की विशेषता है। (8) महाभारत (क) वर्तमान महाभारत प्रहाल महाभारत का समुपबृहित रूप है। असल महाभारत वस्तुतः एक ऐतिहासिक अन्य था, म कि प्रौपदेशिक । सम्भवतः व्यास ने इसे 'जय'' का नाम दिया । जैसा कि वर्शित १ मिलाकर देखिए, १८बै पर्व का वाक्य 'जयो नामेतिहासोऽयम्। इसके अतिरिक्त महाभारत का प्रत्येक पर्व वक्ष्यमाण आशीर्वाद से प्रारम्भ होता है नारायणं नमस्कृत्य नरञ्चैव नरोत्तमम् । • देवी सरस्वतीञ्चैव ततो जयमुदीरयेत् ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ संस्कृत-साहित्य का इतिहास वदनाओं के समारोह से प्रतीत होता है। असली ग्रन्थ में भी लम्बे ज वर्णन थे। जैसा कि मैकडानल ने कहा है कि असल महाभारत कदा चित् ८८००१ श्लोकों तक ही परिमित नहीं था । महाभारत के विकास में तीन विशिष्ट कार देखे जाते हैं । श्रादि में एक रक्षोक है मन्वादि भारत केचिदस्तिकादि तथापरे । तथा परिचराद्यन्ये विप्राः सम्यगधीयते ॥ ( कुछ विद्वान् भारत का प्रारम्भ मनु-उपाख्यान से, उपाख्यान से और कुछ परिचर उपाख्यान से मानते हैं । ) कुछ अस्तिक तीनों कालों में से प्रथमकाल में व्यास ने अपने पांच प्रधान शिष्यों में से एक शिष्य वैशम्पायन को महाभारत पढ़ाया । यह असली ग्रन्थ कदाचित् परिचर उपाख्यान से प्रारम्भ होने वाला मन्थ दूसरे काल में यह ग्रन्थ वैशम्पापन ने सर्प-सत्र में जन्मेजय को सुनाया। इस काल के ग्रन्थ में कदाचित् २४००० श्लोक थे । यह प्रन्थ अस्तिक उपाख्यान से प्रारम्भ होता है । arer काल में द्वितीयकालीन विस्तृत ग्रन्थ सौति ने शौनक को सुनाया, जब शौनक द्वादशवर्षीय यज्ञ कर रहे थे, जब कि शौनक ने कुछ प्रश्न किये, और सौति ने उनका उत्तर दिया । आजकल के एक लाख श्लोकों की संख्या इस तीसरे काल में ही प्रायः पूर्ण हुई होगी । मिलाइए श्रस्मिंस्तु मानुषे लोके वैशम्पायन उक्तवान् । एवं शतसहख तु मयोक्तं वै निबोधत ॥ यह ग्रन्थ मनु-उपाख्यान से प्रारम्भ होता है। कदाचित् सौति ने १ कदाचित् यह संख्या श्लोका की नहीं, कूट श्लोको की है, जो भारत में श्राये हैं । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ महाभारत इस ग्रन्थ का नाम महाभारत रक्खा था' | मूलावस्था में महाभारत को 'इतिहास, पुराया या श्राख्यान' की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता था । आजकल यह श्राचारविषयक उपदेशों का विश्वकोष है । यह मनुष्य को 'धर्म, अर्थ, काम और मोच' इन चारों पदार्थों की प्राप्ति कराता है। इसे पंचम वेद भी कहा जाता है । इसे कृष्ण-वेद ( कृष्ण का वेद ) भी कहते हैं । प्रन्थ भर में arma feat की सबसे अधिक प्रधानता होने के कारण इसे ' की स्मृति' भी कहते हैं। सच तो यह है कि वर्तमान महाभारत में पदेशिक अंश ऐतिहासिक वंश की अपेक्षा कम से कम चार गुना है। 3 (ख) महत्व - यद्यपि महाभारत रामायण के समान सर्वप्रिय नहीं sa इसका मह रामायण से किसी प्रकार कम नहीं है। इसका ऐतिहासिक अंश महायुद्ध तथा कौरवों और पाण्डवों के विस्तृत इतिवृत्त का वर्णन करता है। इसके द्वारा हमें सरकालीन सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों का भी पता लगता है। इससे भार्यों की तत्कालीन सभ्यता पर भी प्रकाश पड़ता है । इसका महत्व इस कारण से भी है कि यह हमें केवल शान्ति-विद्या की ही नहीं, रा-विद्या की भी बहुत सी बातें १ मिलाइए, महत्वाद् भारतत्वाच्च महाभारतमुच्यते । पाणिनि को युधिष्ठिर जैसे वीरों का तो पता है किन्तु महाभारत नामक किसी अन्य का नहीं । इससे भी अनुमान होता है कि महाभारत नाम की उत्पत्ति बाद में हुई । २ इन शब्दों को भारतीय प्रायः पर्यायवाची के तौर पर प्रयुक्त करते हैं । ३ वेदो के समान प्रमाण्य-पूर्ण यह क्षत्रियों को उनके सांग्रामिक जीवन के विषय में शिक्षायें देता है । ४ यह क्षत्रियों को कृष्णोपासना का उपदेश करता है, जिससे उन्हें अवश्य सफलता और कल्याण मिलेगा । (सिलवेन लेवी ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास बताता है। इसके प्रोपदेशिक अंश ने, अपने प्रचलित च प्रमाक्षयगुणा द्वारा, इस प्रन्थ का पंचनवेद नाम सार्थक कर दिया है, जिसले इसका महत्व पूर्णतबा सिद्ध होता है। (ग) (१) साधारण संस्करण-महाभारत के हमें दो साधारण संस्करण प्राप्त होते हैं--(१) देव नागरी (या उत्तर-भारत) संस्करण (२) दक्षिण भारत-संस्करण । इन दोनों संस्करणों में परस्पर प्रायः इतना ही भेद है, जितमा रामायण के संस्करणों में | आकार में वे प्राय, बराबर हैं। जो बातें एक में छोड़ दी गई हैं, वे दूसरे में मिल जाती है। इसकी पूर्ण हस्तलिखित प्रतियाँ भारत के अनेक स्थानों के अतिरिक्त यूरोप, लन्दना, पेरिस और अर्जिन में भी पाई जाती हैं। अपूर्ण हस्तलिखित प्रतियों की संख्या तो बहुत है। किन्तु कोई भी हस्तलिखित प्रति चार पाँच सौ वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है । अत: हमारे लिए यह संभव नहीं कि हम असली महाभारत का ठीक-ठीक पुनर्निर्माण कर लें या किसी एक हस्तलिखित प्रति को दूसरी से यथार्थ में उत्कृष्ट सिद्ध कर सकें। (२) आलोचनापूर्ण संस्करण १ --एक संस्करण, जिसमें हहिवंश भी सम्मिलित है, कलकत्ते में (१८३४-३६) चार भागों में छुपा था। इसमें कोई टोका नहीं है। --एक और संस्करण बम्बई में १८६३ में प्रकाशित हुआ था। इसमें हरिवंश सम्मिलित नहीं, किन्तु इसमें नीलकंठ की टीका मुद्रित है। इसके पाठ उपर्यंत कलकत्तासंस्करण के पाठों से अच्छे हैं और यह तब से कई बार छप चुका है।। सूचना- ये दोनो संस्करण अत्तरभारत-संस्करण हैं। अतः इन दोनों में परस्पर अधिक भेद नहीं है। १ यह मानना होगा कि ब्राह्मण-धर्म (वैदिक धर्म ) मे वेदों के बराबर किसी का प्रमाण्य नहीं है। २ कलकत्ते में एक और संस्करण १८७५ में प्रकाशित हुअा था । इसमें नीलकण्ठ की टीका के साथ साथ अजुनमिश्र की टीका भी छपी है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत एक और संस्करण मदरास में ( १८५५-६० ) चार भागों छपा था। इसका मुद्रण दक्षिण भारत-संस्करण के आधार पर कर लिपि में हुआ है। इसमें नीलकंठी टीका के अंश और हरिवंश भी सम्मिलित हैं । महाभारत का सचित्र और बालोचना चर्चित ( Critical ) संस्करण पूना से भाण्डारकर श्रोरियटल रिसर्च इंस्टीच्यूट द्वारा प्रकाशित हो रहा है। इसका श्राधार मुख्यतया उत्तर भारत-संस्करण है । अब तक महाभारत का कोई संस्करण भारत से बाहर प्रकाशित नहीं हुआ है। (३) टीकाएँ-- सब से पुरानी टीका जो श्राजकल मिलती है, सर्वज्ञनारायण को है । यह यदि बहुत ही नयी हो तो भी १४ वीं शताब्दी के बाद के नहीं हो सकती। दूसरी टीका अर्जुन मिश्र की है, जिसके उद्धरण नीलकण्ठ ने अपनी टीका में दिये हैं। यह कलकत्ता के (१८७१) संस्करण में प्रकाशित हुई | सबसे अधिक प्रसिद्ध टीका नीलकण्ठ कौ है टीका बगल के मत से नीलकes १६ वीं शताब्दी में हुए हैं। वे महाराष्ट्र में कूरपुरा के रहने वाले थे । (घ) वर्णनीय विषय अनुमान यह है कि प्यास का - reat अन्य पर्वों और अध्यायों में विभक था । वैशम्पायन ने भी उसी क्रम को स्थिर रक्खा। उसके प्रभ्थ में प्रायः यौ पर्व थे। सौति ने arat १८ पत्र में frबद्ध कर दिया' । बहुत बार मुख्य पर्व और इसके भाग का नाम एक ही पाया जाता है; उदाहरणार्थ, मुख्य सभा १ - उन अठारह पर्वो के नाम ये हैं- (१) आदि (२) सभा (३) वन (४) विराट् (५) उद्योग (६) भीष्म (७) द्रोण (८) कर्ण (६) शल्य (१०) सौप्तिक (११) स्त्री (१२) शान्ति (१३) अनुशास (१४) अश्वमेघ (१५) आमवाती (१६) पसल (१७) महाप्रस्थानिक (१८) स्वर्गारोहण Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास पर्थ में एक छोटा सभापर्व है । 9 इसके अतिरिक्त कुछ परिशिष्ट भाग भी है, जिसे खिलपर्व या हरिवंश कहते हैं । महाभारत में इसकी यही स्थिति है, जो रामायण में उत्तरकाण्ड की । महाभारत में दिये हुए समग्र श्लोकों की संख्या ११,३२६ र्थात् मोटे रूप में एक लाख है । प्रतिपादित वस्तु - घादिपर्व में कौरव पाण्डवों के शैशव, द्रौपदी के विवाह और circa का यदुनाथ कृष्ण के साथ परिचय वर्णित है । दूसरे पर्व में इन्द्रप्रस्थ में रहते हुए पात्रों की समृद्धि का तथा युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन के साथ जुए में होग्दी तक को मिलाकर सब कुछ दार जाने का वर्णन है । अन्त में पाण्डवों ने बारह साल का साधारण और एक साल का प्रज्ञात वनवास स्वीकार कर लिया । वनपर्व में पाण्डवों के बारह वर्ष तक काम क वन में रहने का विराट पर्व में उनके मत्स्यराज विशद् के घर अज्ञातवास के तेरहवें साल का वर्णन है ! क्योंकि कौरवों ने की पूर्ण माँगों का सहानुभूति-भरा कोई उत्तर नहीं दिया वहः उद्योग में पाण्डवों की युद्ध की तैयारी का वर्णन है । अगले पांच पत्रों' में उस सारी संग्राम का विस्तार से वयम है, जिसमें पाण्डवों और कृष्ण को छोड़कर सब मारे गये । ग्यारहवें पर्व में मरे हुथों के अग्नि-संस्कार का वर्णन है। अगले दो पर्वों में राजधर्म पर युधिष्ठिर को दिया गया भीष्म का लम्बा उपदेश है । चौदह पर्व में युधिष्ठिर के राजविक और श्वमेघ यज्ञ का वर्णन है । पन्द्रहवें में धृतराष्ट्र तथा वान्धारी का वन गमन वर्णन, सोलहवें में यादवों का परस्पर कम और व्याध के तोर से श्रीकृष्ण की अचानक मृत्यु वर्णित है। सत्र में दिखाया गया है कि किस प्रकार ७ १ – इससे प्रतीत होता है कि क्रम प्रबन्ध के कर्ता कम-से-कम दो आदमी श्रवश्य है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत पाराव लोग जीवन से असताकर मेरु पर्वत पर चले गये और अपने पीछे अर्जुन के पोते परीक्षित पर प्रजा-पालन का भार रख गये। अन्तिम पत्र में पाएलवों के स्वर्गारोहण की कथा है। हरिवंश में १६ हजार श्लोक है और सारा अन्य तीन भागों में विमत है । प्रथम भाग में श्रीकृष्ण के पूर्वजों का, दूसरे में श्रीकृष्ण के पराक्रमों का, और तीसरे ‘में कलियुग की श्रागामी बुराइयों का वर्णन है। (ङ) उपाख्यान--रामायण की अपेक्षा महाभारत में उपाखभालों की संख्या बहुत अधिक है। कुछ उपाख्यान ऐसे भी हैं, जो दोनों महाकाव्यों में पाये जाते हैं । दनवास की दशा में एडवों को धैर्य । बंधाने के लिए वनपर्व में बहुत सी कथाएँ कही गई हैं। मुख्य मुख्य उपाख्यान ये है-(१) रामोपाख्यान अर्थात् राम की कहानी (२) नली. पाख्यान अर्थात् नल और दमयन्ती की कथा, जो भारत में बहुत ही सर्वप्रिय हो चुकी है। (३) सावित्री सत्यवान...यह उपाख्यान जिसमें भारतीय श्रादर्श-पत्नी का चित्र अङ्कित किया गया है, यह कहानी भी भारत में बहुत प्रेम से सुनी जाती है। (४) शकुन्तलोपाख्यान । यही उपाख्यान कालिदास के प्रसिद्ध शकुन्तला नाटक का आधार है । (१) गंगावतरण । यह ठीक वैसा ही है जैसा हामायण में है । (६) मत्स्योपाख्यान । इसमें एक प्राचीन जनाक्षाव कथा है (6) उशीनर' की कथा, शिवि की कथा, वृषदर्भ की कथा, इत्यादि। (च) महाभारत ने वर्तमान रूप कैसे प्राप्त किया-- अब अगला प्रश्न यह है कि महाभारत ने वर्तमान विशाल श्राकार कैसे धारण किया ? ऊपर कहा जा चुका है कि असली कथांश सारे अन्य का पांचवां भाग है। शेष चार भाग श्रीपदेशिक सामग्री रखते है। यह १ इन राजाश्रो ने बाज़ से कबूतर की जान बचाने के लिए अपनी जान दी थी। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास देशिक सामग्री कई प्रकार से बढ़ाई गई है, जिनमें से मुख्य-मुख्य ये हैं : ४२ -- कुछ ६ कहानियों और वनों की पुनरुक्ति', उपाख्यानों और दृश्यवनों की नकल ने आगामी घटनाओं की भविष्यवाणियां, परिस्थितियों की व्याख्या ४, और काव्य - अलंकारों का उपयोग" । किंतु सब से मुख्य कारण लौति को यह इच्छा है कि महाभारत को एक विस्तृत धर्मशास्त्र, ज्ञान का विशाल भरद्वार और औपाख्यानिक विद्या की गहरी स्थान बनाया जाय । विशेष उदाहरण के लिए कहा जा सकता है कि समग्र शान्तिपर्व बाद की मिलावट प्रतीत होता है । यह सारा पर्व भीष्म के मुख से कहलाया गया है, जिसकी मृत्यु छः महीने के लिए रुक गई थी। सातवें पर्व में 'इतो भीष्म:' ( भीष्म मारा गया), 'व्याजितः समरे प्राणान' ( युद्ध में उससे प्राण छोड़े गए ) इत्यादि ऐसे वाक्य हैं, जिनसे जाना जाता है कि वस्तुत, भीष्म शान्तिपर्व की कथा तक जीवित ही नहीं थे । (छ) काल -- सम्पूर्ण महाभारत को एक साथ जेकर उसके लिए किसी काल का निश्चित करना असम्भव है । जैसा हम ऊपर देख चुके हैं, महाभारत के विकास के सीन मुख्य काल हैं । श्रत: असली महाभारत के काल और आजकल के महाभारत के काल में कई शता यों का अंतर है । ܕ १. जैसे; बनपर्व में यात्राओ का पुनः पुनः वर्णन । २. जैसे वनपर्व में यक्ष प्रश्नोपाख्यांन नहुप उपाख्यान की नकल है । ३. कभी-कभी इसकी प्रति देखी जाती हैं । जैसे, युधिष्ठिर ने भीष्म से प्रश्न किया है कि ब्रांपकी मृत्यु किस प्रकार हो सकती है । ४. जैसे भीम का दुःशासन के रुधिर का पीना | कई बातों की व्याख्या करने के लिए स्वयं व्यास का कई अवसरो पर प्रकट होना । ५. जैसे; युद्ध के, शोक के, एव भाकृतिक दृश्यों के लम्बे-लम्बे वर्णन । ६, जसे, देखिए भूगोल सम्बन्धी जम्बूखण्ड और भूखण्ड का विस्तृत वर्णन । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत श्र-वह काल जिसमें महाभारत ने वर्तमान रूप धारण किया। इस प्रकरण में निम्नलिखित बातें धान में रखने योग्य है:-- (1) ईसा को वो शताब्दी में क्षेमेन्द्र ने भारतमंजरी लिखी। इसमें महाभारत का संक्षेप है । अाजकल महाभारत के जितने संक्षेप मिलते हैं, उनमें सबसे पुराना यही है। प्रो. बुदबर ने इस ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियों की महाभारत के साथ विस्तृत तुलना करके दिखाया है कि क्षेमेन्द्र का असली ग्रंथ आजकल के महाभारत से बहुत भिन्न नहीं है। (२) शंकराचार्य (वीं शताब्दी का उत्तरा) ने कहा है कि उन (स्त्रियों और शूद्रों) के लिए जो वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं है, महाभारत धर्मशिक्षा के लिए स्मृति के स्थान पर है। (३) वेदों के महान् विद्वान् कुमारिल ने (वीं शताब्दी का भारंभ) अपने तंत्रवास्तिक में महाभारत के १८ पर्वो में से कम से कम दस पर्षों में से उद्धरण दिये हैं या उनकी ओर संकेत किया है। (उन दश पर्षों में १२वाँ, १३वों और १६का सम्मिलित है, जो तीनों के तीनों निस्संदेह बाद की मिलावट है।) (४) ७वीं शताब्दी के बाय, सुबन्धु इत्यादि कवियों ने महाभारत के १८ वे पर्व में से ही कथाएँ नहीं की, वे हरिवंश से भी परिचित थे। (१) भारत के दूरदेशीय कम्बोज नामक उपनिवेश के बगमा छटी शताब्दी के एक शिलालेख में उत्कीर्ण है कि वहाँ के एक मंदिर को रामायण और महाभारत की प्रतियाँ भेंट चढ़ाई गई थीं । इतना ही नहीं, दाता ने उनके निरंतर पाठ होते रहने का भी प्रबंध कर दिया था। (६) महाभारत जावा और वाबी द्वीपों में छठी शताब्दी में मौजूद था। तिब्बत की भाषा में इसका अनुवाद छठी शताब्दी से # पहले हो चुका था। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास (७) चौथी और पाँचवीं शताब्दी के भूदान के लेन-पत्रो में महा. भारत को स्मृति ( धर्मशास्त्र) के नाम से उद्धृत किया गया है। (E) सन् ४६२ ई० का एक शिलालेख महाभारत में निश्चित रूप से एक लाख श्लोक बतलाता है और कहता है कि इसके रचयिता पराशर के पुत्र वेदव्यास महामुनि व्यास है। (6) शान्तिपर्व के तीन अध्यायों का अनुवाद सीरियन भाषा में मिबता है। उनके श्राधा पर मो. इटल ने जो लिखा है उससे, विश्वास हो जाता है कि श्लोकबत महाभारत, जिस रूप में अाजकल उपलब्ध होता है, सन् ५००ई० में भी प्रायः ऐसा ही था। चीनी तुर्किस्तान और चीनी साहित्य की जो छानबीन हाल में हुई है, उससे तो यह भी जाना जा सकता है कि सन् १०० ई. में ही नहीं, उससे भी कई शताब्दी पहने महाभारत का यही रूप था। प्राशा की जाती है कि महायान बौद्ध ग्रन्थों के अधिकाधिक अनुसन्धान से इस विषय पर और भी अधिक रोशनी पड़ेगी। (१०) डागन क्राइसस्टन का एक साक्ष्य मिलता है कि एक लास श्लोकों वाला महामार लन् ५० ई. में दक्षिण भारत में सुप्रसिद्ध था। (1) वज्रसूची के रचयिता अश्वघोष (ईसा की प्रथम शवान्दी) ने हरिवंश में से एक श्लोक उदृत किया है। (१२) भास के कुछ नाटक महाभारतगत उपाख्यानो पर अवलम्बित है। इस प्रकार मैकडानल के शब्दों में हम इस प्रकरण को यो समाप्त १ इस बात से प्रो. होल्ट्जमैन के इस वाद का पूर्णतया खण्डन हो जाता है कि महाभारत को धर्मशास्त्र का रूप ६०० ई० के बाद बाह्मणों ने दिया था। २ देखिए, चिन्तामणि विनायक वैद्य की 'महाभारतमीमांसा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामारत कर सकते हैं कि "हमारा यह मानना ठीक है कि यह यहान् ऐतिहासिक महाकाव्य (महाभारत) हमारे संवत्सर (सन् ईसवी) के प्रारम्भ से पहले ही एक औपदेशिक संग्रह-अन्य बन चुका था। [हाँ, कुछ भाग ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रहिह भी हो सकते है। क्योंकि (क) हरिवंश में रोमन शब्द 'दीनार' पाता है और महाभारत के आदिपर्व के प्रथम भाग में तथा अन्तिम पर्व में हरिवंश का पता मिलता है। अत: ऐसे भाग, जिनमें हरिवंश का पता मिलता है, दोनार सिक्के के प्रचार के बाद की मिलावट होने चाहिएँ । (ख) राशियों का वर्णन भी यही सूचित करता है। ग) यूनानियों, सिथियनों और बैक्टीरियनों के बारे में भविष्यवाणियाँ की गई हैं।] श्रा--असली महाभारत के रचना-काल के विषय में निम्नविखित बात ध्यान देने के योग्य है:-- (1) दमन का एक साक्ष्य मिलता है कि पाणिनि को असली महाभारत का पता था। (२) श्राश्वालयन गृह्यसूत्र (ई.पू. ५वीं शताब्दी) में एक 'भारत' और 'महाभारत' का नाम आता है। १ चि० वि० वैद्य के मत से महाभारत ने वर्तमान रूप ईसा से पूर्व ३०० और १०० के बीच प्राप्त किया। ३०० ई. पूर्व को परली सीमा मानने के हेतु ये हैं:- (क) यवनों का उल्लेख बार बार आता है। (ख) आदिपर्व में नग्न क्षपणाक का उल्लेख होना । (ग) महाभारतोक्त समाज की, धर्म की और विद्या की अवस्थाएँ मेगस्थनीज़ की वर्णित अवस्थाओं से मेल खाती हैं । उदाहरणार्थ, मांस-भक्षण की प्रवृत्ति घट रही थी, शिव और विष्णु की उपासना प्रारम्भ हो चुकी थी, व्याकरण, न्याय और वेदान्त बन चुके थे और उनका अध्ययन होने लगा था । . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास (१) बौधायन धर्मसूत्र ( लगभग ४०० ई० पू० ) में महाभारत का उल्लेख पाया जाता है । (४) बौधायन गृह्यसूत्र में महाभारत में से 'विष्णुसइखनाम' का उदय पाया जाता है । ४६ (2) मेगस्थनीज ने अपने ग्रन्थ इंडीका ( भारत ) में faer कि कुछ कहानियाँ हैं, जो केवल महाभारत में पाई जाती है । असली महाभारत में ब्रह्मा को सब से बड़ा देव कहा गया है। पाली-साहित्य के आधार पर यह बात पाँचवीं शताब्दी से पूर्व की अवस्थाओं का परामर्श करती है । (३) ज्योतिष के आधार पर भी कुछ विद्वानों ने परिणाम निकाला है कि अब महाभारत १०० ई० पू० से पहले का है । इ--- ऐतिहासिक काव्य के आविर्भाव के सम्बन्ध में यह बात बहुत कुछ निश्चय के साथ कही जा सकती है कि यह काव्य वैदिक काल से सम्बन्ध रखता है । यजुर्वेद में इतिहासप्रसिद्ध कुरु र पन्चालों का वर्णन मिलता है और काटक संहिता में धृतराष्ट्र विचित्रवार्य का नाम भाया है । (ज) शैली--यदि रामायण मादिकाव्य है तो महाभारत श्रादि 'इतिहास, पुराय या श्राख्यान' हैं । यह मोटा पोar rate are में लिखा गया है । इसमें पुराने के कुछ उपजाति और वंशस्थ वृन्द भी हैं जो अधिक पुराने रूप के भग्नावशेष है । पुराने गद्य में कुछ कहानियाँ भी हैं। इसके अतिरिक्त प्रवेशक वाक्य भी हैं । जैसे, कृष्ण उवाच, भीष्म उवाच जो श्लोकों का भाग नहीं हैं। सारे ग्रन्थमें धर्म का जो स्थूल रूप अंकित है, उसका सार इस पद्य में भा गया मालूम होता है :-- १. कुत्ते के बराबर बड़ी बड़ी दीमके या चींटियाँ (ants) जमीन खोदती है और सुनहरी रेत निकल आती है, इत्यादि । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकान्धों का अन्योन्य सम्बन्ध ४७ यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यस्वस्मिन् तथा वर्तितव्यं स धर्मः । मायाचारो मायथा बाधितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युपेयः॥ ( असली धर्म यही है कि जैसे के साथ तैसा बना नाय । कपटी को कपट से खत्म करो और सीधे के साथ सिधाई से बस्तो!) सारे श्लोक को देखा जाय तो कहा जायगा कि इसकी भाग बाद के काव्यों से कहीं अधिक प्राञ्जल है। (2.) दोनों ऐतिहासिक महाकाव्यों का प्रन्योन्य सम्बन्ध (क)परिमाण-वर्तमान महाभारत का परिमाण इलिया और ओडिसी के संयुक्त परिमाण का सात गुना है । रामायण का परिमाण महाभारत के परिमाण का चौथाई है। जैसा पर कहा जा चुका है। अाजकल का महाभारत पुराने महाभारत का समुश्वृहित रूप है। भैकडानल के मत से असली महाभारत में ८६०० श्लोक थे। चिन्तामणि विनायक वैद्य के मत से ८८०० कूटश्लोक थे और साधारण रजोक इनले अलग थे। इसे व्यास ने अपने शिष्य वैशम्पायन को पढ़ाया और उसने सनुप हित करके (२४००० श्लोकों तक पहुँचाकर ) सर्पसत्र के अवसर पर जन्मेजय को सुनाया। वैशम्पायन से प्रा6 अन्य को पुष्ट करके ( १ लाख श्लोकों तक पहुँचाकर ) सौति ने द्वादशवर्ष सत्र के अवसर पर शौनक को सुनाया । महाभारत के इन तीनों समुपयों का पता महाभारत के पथ से ही क्षगता है, जिसमें कहा गया है कि महाभारत के तीन प्रारम्भ हैं। ( देखिए पूर्वोक्त प्रघट्टक ६ का 'क' माग !) परन्तु रामायण को अपने ऐले समुपबृहण का पता नहीं है। (ख) रचयितृत्व-रामायण एक ही कवि--वाल्मीकि की रचना है, जो ऐतिहासिक-काव्य की पुरानी शैली को जानता था और जो कविता नाम के अधिकारी, पाख्यान काग्य से भिन्न, अलंकृत काग्य का आदिम रचयिता था । परन्तु वर्तमान महाभारत कई रचयिताओं के श्रम का फल है। महाभारत के रचयिता ब्यास कहे जाते हैं । व्यास धारों वेदों को क्रमबद्ध करने वाले थे । ये हौपकिन के अनुसार रचियता Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास की अपेक्षा सम्पादक अधिक थे। रामायण महाभारत से कहीं अधिक समरूप, कहीं अधिक समानावयवी और परिमार्जित, और चन्दों की नथा सामाजिक वातावरण की दृष्टि से कहीं अधिक परिष्कृत है। (ग) मुख्य अन्यभाग-बोनों ग्रन्थों में से किसी में भी अविसन्दिग्ध भाग नहीं मिलता। दोनों प्रस्थों के नाना संस्करण मिलते हैं, जो एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं। उनके तुलनात्मक अध्ययन से हम किसी एक अविसन्दिग्ध प्रन्यभाग को नहीं रद निकाल सकते। महाभारत का दक्षिण भारत संस्करण उत्तरभारत संस्करण से किसी प्रकार बढ कर नहीं, प्रत्युत घट कर ही है। अतः यह अन्य की असलियत का पता लगादे में बहुत कम उपयोग का है। सच तो यह है कि इन काथ्यों का कोई भी अविसन्दिग्ध असली अन्धभाग नहीं है क्योंकि हिन्दुशों के ऐतिहासिक महाकाग्य का कोई निश्चित रूप था ही नहीं । सभी ऐतिहासिक कविताएँ प्रधम मौखिक रूप में एक से दूसरे को प्रास होती थी और भिन्न भिन्न पुनलेखक इच्छानुसार उनमें परिवर्तन और परिवर्धन कर देते थे । अतः असली अन्य के पुनर्निर्माण को श्राशा दुराशा है। हम अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि प्रत्येक सम्प्रदाय प्राम मन्थों में मोटे मोटे प्रक्षेपों को दे सकें। (घ) उक्त महाकाव्यों का विकास-प्रत्येक के विकास के बारे में यह बात एकदम कही जा सकती है कि दोनों में से किसी का भी विकास दूसरे के बिना स्वतन्त्र रूप से नही हुशा। बाद वाली रामायणा का तात्पर्य वही है, जो महाभारत का है और बाद वाला महाभारत वाल्मीकि की रामायण को स्वीकार करता है। (ङ) पारस्परिक सम्बन्ध-गृह्यसूत्रों के अन्तिम काल से पूर्व किसी भी एक महाकाव्य का स्वीकार किया जाना नहीं मिलता। गृह्यसूत्रों और दूसरे सूत्रमन्थों में जो ऐतिहासिक महाकाव्य सबसे पहले स्वीकार किया गया है, वह भारत है। दोनों महाकाव्यों का तुलनात्मक अध्ययन प्रकट करता है कि महाभारत में रामायण के कई उदरण Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत पाये हैं। हरिवंश में रामोपाख्यान तथा अन्य आकस्मिक उल्लेखों के अलिपिक वाल्मीकि रामायण को पूर्वतनी (अर्थात् पहले की) सिद्ध करने वाले विस्पष्ट उल्लेख पाये जाते हैं। यथा--- अपि चायं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि ।। होपकिन के मत से इन उल्लेखों से इस बारे में यह सिद्ध नहीं झोता कि वाल्मीकि, आदिकवि के रूप में, महाभारत से पहले हुए, इनसे केवल इतना ही सिद्ध हो सकता है कि वाल्मीकि ने तब रामायण लिखी, जब महाभारत श्रमी सम्पूर्ण नहीं हुआ था। महाभारत में वायुपुराण का भी उल्लेख पाया जाता है। उसले मी यही सिद्ध होता है कि महाभारत के प्रारम्भ ले पूर्व नहीं; मत्युत समाप्त होने से पूर्व 'उक्त नाम का कोई पुराण विद्यमान था। इस प्रकरण में यह बात स्मरणीय है कि पीछे की रामायण महाभारत से परिचय सूचित करती है। अतः विस्पष्ट है कि भाज कल की सारी रामायण महाभारत के प्ररम्भ से पहले सम्पूर्ण नहीं हुई थी। रामायण में जन्मेजय को एक प्राचीन वीर स्वीकार किया गया है और कुरूषों तथा पञ्चालों का एवं हस्तिनापुर का मी उल्लेख पाया जाता है। इन सब बातों से यह परिणाम मिकलता है- (1) राम की कथा पाण्डवों की कथा से पुरानी है। (२) पाएडवों की कथा वाल्मीकि रामायण से पुरानी है। और, (३) सारी मिलाकर देखी जाय तो रामायण, सारा मिलाकर देखे हुए महाभारत से पुरानी है। (च) रचना-स्थान-तुल्य प्रकरणों और श्रामाणकों के आलोचनात्मक अध्ययन से पता लगता है कि उत्तरकाण्ड में गङ्गा के मैदान की अनेक कहानियाँ है, और प्राचीनतम महाभारत में पंजाब के रीति-रिवाज वर्णित हैं तथा महाभारत ऊध्यकालीन प्रोपदेशिक भागों का सम्बन्ध कोसल और विदेह से है । दूसरे शब्दों में, उर्वकालीर विकास की दृष्टि से दोनों महा-काज्यों में प्रायः समान देशों की बात है छ) पारस्परिक साम्य-(१)शैली-जैसा पहले कहाजा चुका Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरकुन्द-साहित्य का इतिहास समग्रम को देखते हुध परिष्कृत चन्हों की तथा सामाजिक वातावरण की दृष्टि से रामायण कहीं अधिक परिमार्जित, कहीं अधिक समरूप एवं कहीं अधिक समानावयवी है। इसका होने पर भी दोनों महाकाव्यों की शैली में एक शनि समानता है। होपक्षिम ने लगभग तीन सौ स्थल हूँ है, जो प्रायः एक जैसे है जिनमे एक-ले काश्य और एक से वाक्यखएव हैं। उदाहरणार्थ, शान्तिपूर्ण दृश्यों के दर्शनों में चोकर कतु महसि होनों महाकाव्यों में प्राय: पाया जाता है। (२) दोनों में ही एक जैसी उपमाएं और युद्ध के एक जैसे वर्शन' पाये जाते हैं। (६) कथा की लमानता और भी अधिक देखने के योग्य है। सोता और द्रौपदी दोनों नायिकाएं, यदि उन्हें नायिका कहना उचित हो, प्राश्चर्य-जनक रीति से पैदा हुई हैं। दोनों का विवाद स्वयंवर की रीति से तो हुआ था, किन्तु वर का सुनाव दोनों में से किसी की भी इच्छा से नहीं हुआ था। दोनों के स्वयंवरों में शारीरिक शक्ति ही सर्वोच्च मानी गई थी। दोनों काव्यों में मापक को वनवास होता है और दोनों काव्यों में नायिकाओं का (सीता और द्रौपदी का) अपहरण (क्रमशः रावण और जयद्रथ द्वारा) होता है। इस प्रकार हमें दोनों काव्यों में एक कथा का प्रभाव दूसरे पर पड़ता दिखाई देता है। (४) पौराणिक कथाएं-दोनों महाकाव्यों की पौराणिक कथानों में (और हम कहेंगे कि दर्शन-सिद्धान्तों में भी) बहुत समानता है। दोनों में ऋग्वेदकालीन प्रकृति-पूजा लुत सी दिखाई देती है । वरुण, अश्विन और आदित्य जैसे देवताओं का पता नहीं मिलना । उपप जैसी १.मिलाकर देखिए, सेना भिन्ना नीरिख सागरे, सेना मिना नरिवागाधे। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत वियों का वर्णन नहीं पाया जाता । उन लबका स्थान देवनयी-- ब्रह्मा, विष्णु और महेशवाणेश, कुबेर और दुर्गा ने ले लिया है। अवतारवाद प्रधान हो गया है। इन्द्र जैसे देवता खो-पुत्र वाले कुटुम्बी जन बन जाते हैं। वे स्वर्ग में रहते हैं, सुन्दर महलों के स्वामी हैं और मनुष्यों के समान व्यवहार करते हैं। देवताओं के मन्दिर बनवाये जाते है। धातु, मिट्टी और नमक की मूर्तियों की पूजा की जाती है । यह पौराणिकता दोनों महाकाव्यों में एक जैसी पाई जाती है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) (क) पुराणों की उत्पति-पुराण शब्द अथर्ववेद और ब्राह्मणों में सृष्टि-मीमांसा के अर्थ में प्राता है। महाभारत में इसका प्रयोग प्राचीन उपाख्यानों के ज्ञान के अर्थ में हुधा है। असली पुराण की उत्पत्ति का पता वायु, ब्रह्माण्ड और विष्णु पुराण से लगता है। (भागवत भी कुछ पता देता है । किन्तु वह कुछ भिन्न है और अवरकालीन होने के कारण विश्वसनीय नहीं है। अतः ध्यान देने के योग्य मी नहीं है।) कहा जाता है कि व्यास ने-जिनका यह नाम इसलिए पड़ा कि उन्होंने वेद का विभाग करके उसे चार भागों में क्रमबद्ध किया था-वेद अपने चार शिष्यों के सुपुर्द किये थे। बाद में उन्होंने आख्यायिकाओं, कहानियों, गीतों और परम्पराप्राप्त जनश्रुतियों को लेकर एक पुराण की रचना की और इतिहास के साथ इसे अपने पाँचचे शिष्य रोमहर्षण (या लोमहर्षण) को पढ़ा दिया। उसके बाद उन्होंने महाभारत की रचना की। यहाँ हमारा इससे कोई प्रयोजन नहीं कि व्यास असबी पुराश के रचियता थे या नहीं । मुख्य बात तो यह है कि पुराने समय से विभिन्न प्रकृति की पर्याप्त परम्परा प्राप्त कथाएँ चलती श्रारही होंगी, जो स्वभावतः पुराण की रचना में काम में लाई गई। यह बात बिलकुल स्वाभाविक प्रतीत १ स्वयं महाभारत, पुराण को अपने से पूर्वतन अंगीकार करता है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ पुराण ती है कि जब कि मन्त्रों का संग्रह वेद के रूप में हो चुका था, ब पुरानी लोकाचार सम्बन्धी कथाएँ पुराण के रूप में संगृहीत की जाती । (ख) पुराण का उपचय - रोमहर्षण ने उस पुराणसंहिता को छः शाखाओं में विभक्त करके उन्हें अपने छः शिष्यों को पढ़ाया। उनमें ले सीन ने तीन पृथक् पृथक् संहिताएं बनाई, जो रचयिताओं के नाम से प्रसिद्ध हुई और दोमहर्षण की संहिता के साथ ये तीन संहिताएँ मूकसंहिता कहलाई । उनमें से प्रत्येक के चार चार पाद थे और वे विषय एक होने पर भी शब्दों में भिन्न थीं । वे शाखाएं आजकल उपलभ्य नहीं है । हाँ रोम के सिवा, उप रचयिताओं में से कुछ के नाम पुराणों में और महाभारत में प्रश्न कर्ताओं के अथवा वक्ताओं के रूप में अवश्य आते हैं । वे प्रकरण जिन में ऐसे नाम आते हैं, संभव है उन पुराने पुराणों के ध्वंसावशेष हों जो वायु और ब्रह्माण्ड पुराण में सम्मिलित हो चुके हैं। एक बात और है । केवल ये ही दो पुराण ऐसे हैं, जिन में उक्त चार चार पाद पाये आते हैं । उन चारों पादों के नाम क्रमशः प्रक्रिया, अनुषङ्ग, उपोदात और उपसंहार हैं। उक्त छः शिष्यों में से पाँच ब्राह्मण थे । अतः पुराण ब्राह्मणों के हाथ आ गया | परिणाम यह हुआ कि साम्प्रदायिक नये पुराणों की रचना होने लगी । यह भी स्मरण रखने की बात है कि पुराणों की उत्तरोत्तर वृद्धि नाना स्थानों में हुई। पुराण की इस उत्पत्ति और उत्तरोत्तर वृद्धि की सात स्वय पुराण से मिलती है । 1 (ग) पुराण का विषय श्राख्यानों, गाथाओं और कल्पवाक्ये को लेकर पुराण की सृष्टि हुई थी इस बात को मन में रखते हु हम आदिम पुराणों के विषय को सरलता से जान सकते हैं । -Ama Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास ? 5 सर्गश्व प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चचक्षणम् ॥ यह श्लोक वस्तुत: आदिम पुराण का विषय बताता है जब कि धार्मिक सिद्धान्त, तीर्थमादात्म्य, अनेक शाखा-पत्र-युक्त धर्म जैसे अन्य अनेक विषय, पुराणों में सम्मिलित नहीं हो पाये थे । ५४ • श्राजकन पुराणों का स्वरूप ऐतिहासिक कम और श्रोपदेशिक अधिक है। उनमें उपाख्यान हैं, विष्णु के दश अवतारों के वर्णन हैं, तथा देवताओं की पूजा के और पर्वों के मनाने एवं व्रतों के रखने के विषय में नियम हैं । उनका प्रामाण्य वेदों के प्रामाण्य की स्पर्धा करता है } १. अनुलोमसृष्टि, प्रतिलोमसृष्टि, ऋषिवशो, मन्वन्तरो और राजवंशों का वर्णन करना, यही पांच बातें पुराणो का लक्षण कही जाती हैं । सूचना --- यह बात ध्यान मे रक्खी जा सकती है कि सर्ग, प्रतिसर्ग और मन्वन्तर प्रायः कल्पना के श्राश्रित है। हॉ, अन्य दो बातें--- वंश और वंशानुचरित ऐतिहासिकता का वेष रखने के कारण कुछ महत्त्वपूर्ण हैं । २. बाह्य रूप, भाषा और प्रतिपाद्य अर्थ की दृष्टि से पुराण, ऐतिहासिक महाकाव्य और कानून की पुस्तकें परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं' । केवल इक्के दुक्के श्लोक ही नहीं, प्रकरण शब्दशः ज्यो- के त्यों उनमें एक-से पाए जाते हैं । प्रतिपाद्य अर्थ की दृष्टि से उनके बीच कोई दृढ विभाजक रेखा नहीं खीची जा सकती । भिन्न-भिन्न दृष्टियों से महाभारत को हम ऐतिहासिक महाकाव्य, कानून की पुस्तक या पुराण भी कह सकते हैं । 1 पुराण भागशः । पाख्यानिक और भागशः ऐतिहासिक है। इस बारे में उनकी तुलना ईसाइयों के पुराण 'पैराडाइस लॉस्ट' से की जा सकती है । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण पुराणों के श्लोकों और प्रकरणों के लिए 'अति' 'क' भू' जैसे शब्दों का व्यवहार होता है और वेद के समान वे भी ईश्वरीय ज्ञान होने का दावा करते हैं। उनमें से कई अपने आपको 'वेद सस्मित' (वेद तुत्य ) भी कहते हैं। यह भी कहा गया है कि उनके अध्ययन ने वेदाध्ययन के तुल्य, या उससे भी अधिक पुण्य की प्राप्ति होती है। (5) पुराणों में इतिहास-निम्नलिखित पुराणों में उन राजवंशों का वर्णन है जिन्होंने कझियुग में भारत में राज्य किया है---- (१) मत्स्य, वायु और ब्रह्माण्ड ---इन तीनों पुराणों के वर्णनों में अद्भुन समानता है। अन्त के दो तो आपस में इतने मिलते हैं कि वे शुक ही प्रन्थ के दो संस्करण प्रतीत होते हैं। मत्स्य पुराण में भी, उतभी नहों तो बहुत कुछ इन दोनों से मिलती जुलती हो वाते हैं। ऐसा मालूम होता है कि इन संस्करणों का.. श्राबार कोई एक पुराना अन्य था । पद्य प्रायः ऐतिहासिक महाकाव्य की शैली के हैं, एक पंक्ति में प्राय: एक राजा का वर्णन है। (२) विष्णु और भगवत-उक्त तीनों की अपेक्षा ये दोनों अधिक संक्षिस है । विष्णु प्रायः गद्य में है। ऐसा मालूम होता है कि ये दोनों संसित संस्करण हैं ! (३) गरुड़-यह बाद का ग्रन्थ है और मागवत की अपेक्षा संक्षित है। इसमें पुरु, इक्ष्वाकु और बृहद्रथ राजवंशों का वर्णन है। क्षत्रियों के विचारानुसार प्राचीन भारत की राजनैतिक अवस्था का पता जग जाता है। ४) भविष्य-इस में प्रायः वंशों का विकृत वर्णन है । यथा, इसमें कहा गया है कि प्रत्येक पौरव नृप में कम से कम एक सत्र वर्ष तक राज्य किया। इसमें ईसा की १६ वीं शताब्दी तक की भविष्य वाणियों है। इन पुराणों के वर्णन मुख्य करके भविष्य पुराण के असती रचयिता के वर्णनों पर आश्रित हैं । ये वर्णन चे हैं जो नैमिषारण्य में Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास सूत रोमहर्षण ने अपने पुन ( सौति) को या ऋषियोंको सुनाए हैं और जिन में महाभारत के युद्ध से लेकर तत्कालीन राजानों तक का छाब देने के बाद भविष्यत् के बारे में प्रश्न किया गया है। इस प्रकार महारह पुराणों में से केवल सात में वंश और बंशानुचरित पाए जाते हैं। प्रत. शेष' पुराण भारत के राजनैतिक इतिहास की सष्टि से किसी उपयोग के नहीं हैं। पुराण प्रति प्रशंसित और अत्युपेक्षित दोनों ही रहे ! अब तक प्रह समझा जाता था कि पुराणों की बाते विश्वसनीय नहीं हैं । किन्तु अब यह विश्वास बढ़ रहा है कि पुराणों में जितनी ऐतिहासिक बातें पाई जाती हैं, वे सब की सब ही अविश्वसनीय नहीं हैं। डा. विन्सेंट स्मिथ ने सन् १६०२ ई. में बह सिद्ध किया था कि मत्स्य হায্য ৪ আয় হালক্ষ্মী ৯ জিনা-লিলা হালকা ঋী তল नामों का जो क्रम दिया है वह बिल्कुल ठीक है । पुराणों मे जिन्न परम्परानुगत बातों का उल्लेख है, चाहे वह कितने ही विकृत रूप में क्यों न हो, वे ब्राह्मणों के प्राचीन काल तक की पुरानी हैं। उनका बड़ा महत्व इसी बात में है कि उनसे वेद-ब्राह्मण-सम्बन्धी ब्राह्मणों की रूढि के मुकाबिले पर क्षत्रियों की परम्परानुगत रूढ़ियों का ( Tradition) पता लगता है। क्षत्रिय-रूदि इस लिए १. वे ये हैं --अग्नि, कर्म, पद्म, मार्कण्डेय, ब्रह्मवैवर्त, ब्रह्म, वामन, वराह, स्कन्द, शिव और लिङ्ग । १८ पुराणो मे सब मिलाकर चार लाख से अधिक श्लोक हैं, उनमें से किसी एक मे सात सहस्र हैं तो दूसरे में इक्यासी सहस्र श्लोक हैं ! विष्णुपुराण में, जिसे सब से अधिक सुरक्षित समझा जाता है, सात सहस्र से भी कम श्लोक हैं। २ ब्राह्मणो की उक्त रूदि के पक्ष की त्रुटियाँ ये हैं--- (क) इस में केवल धार्मिक बातो का समावेश है, ऐतिहासिक प्रयोजन इससे सिद्ध नहीं हो सकता। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराण महत्त्वपूर्ण है कि उससे हम क्षत्रिय-दृष्टिकोण से, प्राचीन भारत के तथा उसकी प्राचीन राजनीतिक दशा की मलक के दर्शन प्राप्त कर सकते हैं । प्राचीन राजवंश वर्णन पुराणों में दिए राजवंश वर्णन में प्रत्येक राजा का वर्णन देने का प्रयत्न नहीं किया गया, उनमें केवल यशस्वीराजाओं का वर्णन है । ऐसा प्रतीत होता है कि ये वर्णन ब्राह्मणों की ( जिन्हें सांसारिक विषयों में कोई रुचि नहीं थी ) मौखिक रूढ़ि के द्वारा सुरक्षित नहीं रहे, किन्तु ये सुरक्षित रहे हैं राजाओं के भार कवियों के द्वारा | यदि ब्राह्मण लोग अपने ग्रन्थो को अक्षर प्रत्यक्षर ठीक-ठीक याद रख सकते थे; तो हमें यह विश्वास करने में कोई कठिनता न होनी चाहिए कि पुराण रक्षक भाटो ने भी पुराणों के राजवंश वनों को ठीक-ठीक याद रक्खा | प्राचीन वंशावली का याद रखना भारत में गौरव की वस्तु खयाल की जाती रही है; अतः बहुत अधिक लोकप्रिय होने के कारण इन वशाचलियों में अधिक बढ़ती की (ख) इस रूटि के जन्मदाता ब्राह्मणो में ऐतिहासिक बुद्धि का अभाव था; और (ग) वे एकान्त कुटियो में रहने के कारण सासारिक ज्ञान को ताला लगाए हुए थे । उदाहरणार्थ, ब्राह्मण-रूढ़ि के अनुसार शुनःशेष की जो कथा है । Farrant नगर को गॉव बताया गया है। -- १. भारत पर श्रार्यों की विजय में क्षत्रियों का बहुत बड़ा हाथ हैं यदि हम जानना चाहें कि उनका स्थान क्या था, और उन्हों ने कौन कौन से बड़े काम किये, तो हमें उनकी रूढ़ियों का अध्ययन करना चाहिये । केवल पुराणो में दिए हुए वर्णन से ही हम यह जान सकते हैं कि किस प्रकार ऐल वंश का उन सारे देशों पर प्रभुत्व था जिन्हें हम आर्यों के अधिकार में आए हुए कहते हैं । ब्राह्मण साहित्य से हमें इस महान् रूप-परिवर्तन का कुछ पता नहीं लगता । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास सम्भावना नहीं है। भारत के प्राचीन राजवंशों का सम्बन्ध दो भूलस्रोतों से बताया जाता है सूर्य और चन्द्र ! आशा है कि जद पुराणों को ऐतिहासिक अन्य मानकर उनका अधिक विवेचनात्मक पाठ किया जायगा तब हमें प्राचीन भारत के सम्बन्ध में अनेक उपयोगी हाते मालूम होंगी। पुराणों में केवल पुरुषों, कोशल और मगध के राजाओं का ही विस्तृत वर्णन नहीं है प्रत्युत उनमें अवरकालीन शिशुनागो, नन्दों, शुगों, करवों और पानी का भी वर्णन है। इस प्रकार पुराणों का भारी उपयोग है। पुराणों के आधार पर पार्जिटर ने सिद्ध किया है कि आर्य लोग पश्चिम की ओर बढ़कर देशान्तरवासी हुए। इस प्रसङ्ग में यह सिद्धान्त बडा ही रोचक प्रतीत होता है। पौराणिक रूढ़ि इलावत को, जो ऐल्लों (श्रार्यों ) का मूल निवास स्थान है, नाभि ( भारत ) के उत्तर में बतलाती है। यही दिशा है, उत्तर पश्चिम नहीं, जिसे श्रार्य लोग श्राज तक पचिन्न मानते हैं । यह विश्वास किया जाता है कि आर्य लोग सन् २७०० ई० पू० से पहले ही कमी हिमालय के बीच के प्रदेश से भारस में आए तथा दह्य १६०० ई० पू० के पास-पास भारत से उत्तर पश्चिम मे गए । १४०० ई०पू० के बोमज-कोई के शिला-लेखों में भारतीय देवताओं के नाम आते हैं। ऋग्वेद् भारत में आए हुए प्रार्थों का प्राचीनतम लिखित अन्य माना जाता है और उस ऋग्वेद का ठीक-ठीक सा काल विद्वानों ने लगभग २००० ई० पू० माना है। श्राजकल के प्रचलित श्रार्थों के पूर्व-गमन के बाद से इन बातों का ठीक-ठीक उत्तर नहीं मिलता। ऐसा प्रतीत होता है कि द्रा लोग १६०० ई० पू० १. समय पाकर भूल चूक, परिवर्तन अवश्य हो गए होंगे, परंतु इसी आधार पर हम्म सारी रूदि को अविश्वास की दृष्टि से नहीं देख सकते। क्षत्रिय-रूढ़ियों को हमें उनके अपने आधार पर जॉचना और परखना चाहिए। - - - - - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आस-पास भारत से जाते हुए भारतीय देवताओं को भी अपने साथ लेते गए। ऋग्वेद के एक मन (१०, ७५ ) में भारतीय नदियों के नाम मिलते हैं। उन नामों का क्रम इस पश्चिम-गमन के सिद्धान्तानुसार ठीक बैठना है। पूर्व-गमन का वाद अपेक्षाकृत पुराना है, इसके सिवा इस बाद का पोपक और कोई प्रबल तर्क नहीं है । जब तक विरोध में पर्याप्त युक्तियाँ न हो तब तक भारतीय रूदि को मिथ्या नहीं ठहराया जा सकता। भारतीय रुढि को मिथ्या व्हराने के लिए यह बताना होगा कि क्यों, कैसे और किस उद्देश्य की सिद्धि के लिए यह बड़ी गई थी।] (ङ) काल-विद्वान् पुराणों का समय उनमें उपलब्ध होने वाली ना से नई सूचनाओं के अनुसार निश्चित करते हैं। लेकिन वे इस बात की प्रायः उपेक्षा कर जाते हैं कि किसी मकान या माहित्यिक रचना का काल उसमें होने वाली नवीनतम वृद्धि के अनुसार निश्चित नही हो सकता।२ दिमन में नवीनतम वृद्धियों के ही आधार पर ब्रह्मपुरण को, जिसे आदि पुराण भी कहते हैं, जिसमें पुरानी सामग्री प्रचुरता में पाई जाती है, १३ वीं या १४ वो शाब्दीका बतलाया है। १८ पुराणों ने अपने पृथक-पृथक नाम कमाल किए, यह निश्चय नहीं है। यह सब कुछ होने पर भी, उन्हें प्राहाण् अन्धों के प्राचीन काल तक अच्छी तरह पहुचाया जा सकता है। यह विश्वास नहीं हो सकता कि पुराणों का पान निर्माण वेदों और ब्राह्ममणों से थोड़ी-थोड़ी बाते लेकर उस समय हुश्रा होगा जिस समय किसी ने वेदों और ब्राह्मणों को ऐतिहासिक ग्रन्थ मानने का स्वप्न भी नहीं देखा होगा । १. इम मे गंगे यमुने सरस्वति शुद्रि स्तोम सचता पराया सिकन्या मरुवृधे वितस्तया/कीये शृणुह्यासुपोमया ।। २. 'कैम्ब्रिज हिस्टरी ऑव् इण्डिया' के अन्तर्गत ई० जे० राप्सन लिखित पुराणों पर निबन्ध देखिए । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० संस्कृत-साहित्य का इतिहास सब से प्राचीन (असको) पुरावा क रचना के समय के विषय म अधोलिखित बातें ध्यान में रखने योग्य हैं:--- () बाण ( ६२० ई.) अपने इर्ष-वरित में वायु पुराण का उल्लेख करता है। (२) ४७६ ई. तथा इसके आसपास के भूदान-पन्नों में, महाभारत के बताए जाते हुए ब्याल के कुछ श्लोक उद्धत है, किन्तु वस्तुतः वे श्लोक पद्म और भविष्यत् पुराण में पाये जाते है। (३) मत्स्य, वायु, और ब्रह्माण्ड कहते हैं कि उन्होंने अपने वर्णन भ वष्यत् से लिए हैं और उनके श्राभ्यन्तरिक साचा से सिद्ध होता है कि भविष्यत् पुराण ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में विद्यमान था। मत्स्य ने मविरत से जो कुछ भी लिया वह उक्त शताब्दी के अन्त मे पहले ही लिया और वायु तथा ब्रह्माएक ने चतुर्थं शताब्दी में लिया। (४) आपस्तम्ब सूत्र (ई० पू० ३य शताब्दी से अर्वाचीन नहीं, किन्तु सम्भवतया दो शताब्दी और पुराना ) 'भविष्यत् पुगण को प्रमाण रूप से उद्धत करता है। 'भविष्यत् पुराण में भविष्यत् (आगामी) भार पुराण (गत) दोनों शब्द परस्पर विरोधी हैं, इससे प्रकट होता है कि नाम 'पुराण' केवल जातिवाचक के रूप में ही प्रयोग में श्राने लगा था। ऐसा प्रयोग प्रचलित होने में कम-से-कम दो सौ वर्ष अवश्य लगे होंगे, अतः पुराण कम से कम ५ वीं शताब्दी ई. पू. के प्रारम्भिक काल में या शायद और भी दो शताब्दी पूर्व, अवश्य विद्यमान रहे होंगे। [( श्रापस्तम्ब में उल्लिख ) भविष्यत् नाम और ई०प्रय शताब्दी के भविष्य नाम का अन्तर स्मरण रखने योग्य है। हमें अाजकल विकृत रूप में भविष्य पुराण ही प्राप्त है।] (१) कौटिल्य ने अनेक स्थानों पर अपने अर्थ शास्त्र में पुराणों को उत्कृष्ट प्रमाण रूप से उद्धत किया है। (६) शालायन और सूत्र और प्राश्वलायन सूत्र पुराणों का उल्लेख करते हैं। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराण (७) शतपश्च ब्राह्मण में प्रतिदिन इतिहास पुराण पड़ने का विधान (३) मिन-भिन्न पुराण परीक्षित से पहले की सब घटनाओं को 'भूत' तथा महाभारत के युद्ध (पार्जिटर के अनुसार १५० ई.पू.) के १०० वर्ष की सब घटनाओं को 'भविष्यत्' कहने में एकमत हैं यह १०० वर्ष का काल सन्धि काल है। इस काल के आस-पास सारी को सासरी प्रचलित ऐतिहासिक जनश्रुतियाँ एक पुराण के रूप में संगृहीत (8) ऐतिहासिक महाकाव्यों के समान पुराण भी माटों ने प्राचीन परम्पराप्राह लोकवादों के नाधार पर बनाए थे। उन लोकवादों को अधर्ववेद में बाडमय का एक स्वीकार करके इतिहास-पुराण का साधारण (General) नाम दिया गया है। क्या छान्दोग्य उपनिषद् और क्या प्रारम्भिक बौद्ध ग्रन्थ ( सुत्त निपात दोनों में ही बाइमय के इस अङ्ग को पंचम वेद कहा गया है, और आज तक यह पंचम वेद के ही रूप में स्वीकृत किया जाता है। पुराणों के काल की श्रवर सीमा । सच तो यह है कि मिन-भिन्न पराण, जिस रूप में वे अाज हमें प्राप्त हैं उस रूप में, भिन्न-भिन्न काल में उत्पन्न हुए हैं। हमारे प्रयोजन की वस्तुत: सिद्धि करने वाले महत्वपूर्ण पुराणों के काल की अवर सीमा के विषय में निम्नलिखित बाते मनन करने योग्य है-- (1) मत्स्य पुराण में श्रान्त्रों के पतन ( २३६ ई.) तक क और इसके बाद होने वाले किलकिल राजाओं का वर्णन मिलता है इस प्रकार ऐतिहासिक श्राख्यान ईसा की तृतीय शताब्दी के बगभर ___ मध्य तक पहुंच जाता है, इससे भागे नहीं बढ़ता । (२) विष्णु, वायु, ब्रह्माण्ड और भागवत पराण इस श्रास्यान के और आगे बढ़ाकर गुप्ता के अभ्युदय तक ले आते हैं। समुन्द्रगुप्त की Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत-साहित्य का इतिहास विजयों का तनिक भी उल्लेख नहीं मिलता। अतः यह ऐतिहासिक श्राव्यान अधिक से अधिक ३३७ ई. तक बढ़ पाता है। क्योंकि वायु, ब्रह्माण्ड और मत्स्य पुराण भविष्य पुराण की असली सामग्री पर अचल मियत हैं अत यह परिहाल निकलता है कि भविष्य पुराण किसी न किसी रूप में ईसा को तृतीय शताब्दी के अन्त से पहले-पहले अवश्य बन चुका होगा। मत्स्य ने इसपे तृतीय शताब्दी के चतुर्थ पाद में सामग्री प्रास की तथा वायु और ब्रह्माण्ड ने चतुर्थ शताब्दी के प्रारम्भिक भाग में, जबकि ये वर्णन प्रारम्भिक गुश राजाओं के वर्णनों को अपने में मिलाकर पर्यात बढ़ चुके थे। (३) कलियुग' की बुराइयों के वर्णनों तथा ऐतिहासिक ज्योतिषिक विशेष-निशेष वर्णनों से भी ऊपर दिये हुए परिणाम की पुष्टि होती है। (४) मून्नग्रन्यीय विशेषताएं भी उक्त परिणाम का समर्थन करती है। (१)चिन्तामणि विनायक देय ने वायुपुराण गत वक्ष्यमाण श्लोक की ओर ध्यान खींचा है :-- अनुगंगे प्रयागं च साकेतं मगधस्तथा । एताअनपदान् सर्वान् भोयन्ते गुप्तवंशजाः ।। यह श्लोक उस अवस्था का परामर्श करता है, जब ५०० ई. के. बाद गुप्त शक्ति का अन्त हुआ। () विष्णु पुराण निश्चय ही चायु के बाद का है क्योंकि इसमें वर्णन और भी आगे बढ़ गया है। यह किलकिल के यवन राजाओं का वर्णन करता है जो बान्ध्र देश में 5 वीं और 8 वीं शताब्दी में राजप करते थे । इससे प्रकट होता है कि कम से कम इस शताब्दी तक पुराणों में प्रक्षेप होते रहे । १. विस्तृत युक्तियों के लिए पार्जिटर की 'कलियुग के राजवंश' पुस्तक देखिये। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराण ६३. (७) चिन्तामणि विनायक वैद्य ने भागवत पुराण का काल निश्वय करते हुए विस्तार से विचार किया है और वे इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि यह शंकर' ( 8 वीं शताब्दी) के पश्चात् का और गीत गोविन्द के रचियता जयदेव | ११६४ ई० ) से पूर्व का है और इस प्रकार बहुत करके १० वीं शताब्दी में बना है । यह पुराण सबः पुराणों से अधिक सर्वप्रिय है । इस का अनुवाद भारत की प्रायः सभी" आधुनिक भाषाओं में हो चुका है। २ १. भागवत में बुद्ध को विष्णु का एक अवतार कहा गया है और शंकर बुद्ध का विरोधी था । २ भागवत में राधा का नाम बिल्कुल नहीं आता, और गीत गोविन्द तो ग्राश्रित ही राधा के कृष्ण विषयक प्रेम पर है। यदि भागवत जयदेव के पश्चात् का होता तो इसमें राधा का नाम अवश्य आता । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय (१२) संस्कृत साहित्य में भास का स्थान थोड़े समय पूर्व तक संस्कृतानुरागियों को मास के नाम के सिवा उसके विषय में और कुछ भी मालूम नहीं था। कालिदास ने अपने नाटक मालविकाग्निमित्र में उसका नाम सादर के साथ लिया है । कुछ अन्य संस्कृत-कृतिकारों ने भी उसका नाम लेकर उसे प्रतिष्ठित पद पर आरूढ़ किया है। राजशेखर कहता है : भाली रामिनसोमिलौ वररुचिः श्रीसाहसाङ्कःकविर्मेण्ठो मार विकालिदासतरताः स्कन्धः सुदन्धुश्च यः, दण्डी बाणदिवाकरौ गणपतिः कान्तश्च रत्नाकरः, सिद्धा यस्य सरस्वती भगवती के तस्य सर्वेऽपि ते॥ प्रसन्नराघव की प्रस्तावना में कहा गया है : यस्याश्चकोरश्चिकुरनिकरः कर्णपूरी मयूरः, भालो हासः कविकुलगुरुः कालिदासो विलास. । हर्षी वर्षों हृदयवसति. पञ्चदाणस्तु बाणः, केषां नैषा कथय कविता कामिनी कौतुकाय॥ सुभाषित-कोषों में बस्तुतः कुछ, बहुत ही बलित पद्य भास के .न.म से दिए हुए मिलते हैं। सुभाषितावली में से दो नीचे दिए जाते हैं: Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य में भास का स्थान बाला व साविदितपञ्चशवप्रपञ्चा तन्वी च सा स्तनभरोपचितानन्याष्टिः । लज्जा समुद्वहति सा सुग्नावसाने हा काऽपि सा, किमिव किं कथयामि तस्याः ! दुःखाते मयि दुःखिता भवति या हृष्ट प्रहृष्टा तथा दीने न्यमुपैति शेषपहले पथ्यं बचो भाषते । काल वेत्ति, कथा: करोति निपुणा, सत्संस्तवै ज्यति । भार्या मन्त्रिवर. सला परिजनः सैका बहुस्वं गता ।। ____ कोई दस श्लोक और हैं जो मास के कहे जाते हैं और जो गारङ्गधर-पति, सदुक्तिकर्णामृत और सूक्तिमुक्तावली में पाए हैं। इन इधर उधर के उद्धरणों के सिवा मास के बारे में और कुछ उलूम नहीं था। जब पं० गणपति शास्त्री ने १६१२ ई० में रह नाटकों का पता लगाया तब भारत के बारे में बहुत कुछ मालूम हुआ। तेरह नाटक त्रिवेन्द्र पुस्तकमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हो चुके है। ० कोथ, जैकोबी, स्टेनकोजो, लैकाटे, विटरनिटज प्रादि जैसे विद्वानों इन तेरह के तेरह नाटकों को भास की रचना बताया है। वस्तुतः १ मिलाइये Wordsworth: A perfect woman nobly planned. To warm, to comfort and command.' फिर मिलाइये Pope Thou wert my guide, philosopher and friend. २ इन तेरह नाटकों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है:(क) उदयन की कथा वाले-प्रतिज्ञायौगन्धरायण, स्वप्नवासवदत्तम्। (ख) महाभारत पर आश्रित-ऊरुभंग ( संस्कृत में अवेला दुःखार पटक), बाल चरित, दूतघटोत्कच, दूतवाक्य, कर्णभार, मध्यमव्यायोग, वरात्र। (ग) रामायया पर अवलम्बित- अभिषेक नाटक, प्रतिमा नाटक (घ) कल्पनामूलक अविमारक और चारुदत्त । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत-साहित्य का इतिहास इस विचार के जन्मदाता स्वयं ६० गणपति शास्त्री ही थे। नाटक अपने गुणों के कारण वस्तुतः इस सम्मान के अधिभारी हैं जो उन्हें दिया जा रहा है। बार्नेट और सिलवन लेवी जैसे अन्वेपक उक्त विचार से सहमत नहीं है, अतः हम इस बात को जरा विस्तारपूर्वक कहेंगे। प्रश्न यह है.."चे तेरह के तेरह नाटक किसी एक ही के बनाए हुए हैं या इनके रचियता अनेक व्यक्ति हैं" ? और यदि उनका रचियता एक ही व्यक्ति है, तो वह कौन है ? (१३) क्या इन नाटकों का रचियता एक ही व्यक्ति है? विद्वान इस बात में प्रायः सहमत है कि इन सब नाटकों का कर्ता एक ही व्यक्ति है। इस तर्क की पुष्टि के लिए निम्नलिखित हेतु दिए (१) एक प्राश्च यजनक विशेषता रंगमंच सम्बन्धी संकेत-वाक्य 'नान्यन्ते ततः प्रविशक्षि सत्रधारः' है। संस्कृत के दूसरे नाटकों में यह संकेत-वाक्य आशीर्वादात्मक पद्य या पद्यों के बाद आता है। (२) इन नाटकों में हम प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द के लिए प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द का प्रयोग पाते हैं। यथा, प्रस्तावना के लिए स्थापना शब्द आया है। यद्यपि कुछ एक दूसरे नाटक कारों के नाटकों में भी इस प्रकार के पारिभाषिक शब्द देखे जाते हैं, तथापि ये तेरह नाटक अन्य नाटकों की कक्षा में नहीं रक्खे जा सकते । इनकी अपनी एक पृथक ही श्रेणी है, क्योंकि इनमें 'प्ररोचना का अभाव है अर्थात् उनमें न अन्य का नाम दिया गया है और न अन्धकार का। (३) कम से कम चार नाटकों की नान्दी में मुना अलवार है अर्थात नान्दी में नाटक के मुख्य-मुख्य पात्रों के नाम आ गए हैं। १ यह विशेषता इन नाटको मे भी देखी जाती है-शक्तिभद्र का अाश्चर्य-चूड़ामणि, नप महेन्द्रविक्रमवर्मा का मत्तविलास (ई. की ७वों शताब्दी), चार भाण, श्रोर दो नाटक । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या इन नाटकों का रचयिता एक ही व्यक्ति है ? 1 ( ४ ) ये नाटक अनेक प्रकार से अन्योन्य सम्बन्ध रखते हैं (क) स्वश्वासवदत्त, प्रतिज्ञा यौगन्धरायण का ऐसा ही उत्तरखण्ड है जैसा कि भवभूति का उत्तररामचरित उसके महावीरचरित का है दोनों में पात्र भी वही हैं। दोनों की शैली, (वचन- विम्यास, और चरित्र-चित्रण ) भी बहुत करके एक जैसी हैं इतना ही नहीं, स्वप्नवासवदत्त में प्रतिज्ञा यौगन्धरायण के कुछ उद्देश भी हैं । - POS ६७ (ख) अविमारक ( १ म अ क ) में राजा अपनी कन्या के लिए योग्य वर चुनने की चिन्ता में ग्रस्त है, प्रतिज्ञायौगन्धरायण में भी महासेन अपनी पुत्री वासवदत्ता के लिए योग्य - कुत्रीम एवं वीर-वर के सुनने की चिन्ता कर रहा है । इन दोनों दृश्यों में बड़ी समानता पाई जाती है । (ग) बालचरित में तीसरे अंक का १ म दृश्य ( गोपाल-दृश्य ) प्राय. वैसा ही है जैसा पञ्चरात्र में २ य अंक का १ स दृश्य । (घ) कुछ वाक्य अभिषेक और स्वप्नवासवदत्त दोनों में ज्यों के त्यों आए हैं। ( यथा; किं वच्यतीति हृदयं परिशङ्कितं मे ) इसी प्रकार कुछ वाक्य बालचरित और चारुदत्त में भी एक जैसे हैं । अभिषेक में वाली के अन्तिम शब्द वही हैं जो ऊरुभङ्ग में दुर्योधन के हैं । (५) इन नाटकों में एक जैसी कविकल्पनाएँ ( काव्यालंकृतियाँ ) पाई जाती हैं । यथा; (क) अविमारक, चारुदत्त और दूतवाक्य में बादलों में इयभर में चमक कर छिपाने वाली बिजली की उपमा मिलती है । (ख) प्रतिमा, बालचरित, दूतवाक्य, मध्यमन्यायोग और प्रतिक्षा यौगन्धरायण में राहु के मुख में पड़े चन्द्रमा की उपमा दी गई है। (ग) बालचरित, दूतवाक्य, श्रभिषेक और प्रतिज्ञा यौगन्धरायण में शक्तिशाली पुरुष ( यथा श्रीकृष्ण ) की तुलना मन्दर पर्यंत से की गई है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ६५ संस्कृत-साहित्य का इतिहास (घ) कार्तिकेय के कौश पर्वत पर श्रारोच करने के पराक्रमों का वर्णन बहुधा श्राया है। (ङ) दो प्रतिपक्षियों में से अधिक बजशाली की उपमा सिंह से और दूसरे की हाथी से बार बार दी गई है । (च) शत्रु के क्रोध की उपमा के लिए प्रायः दूर देश तक फैली हुई अग्नि को चुना गया है । (इ) उच्चध्वनी का सादृश्य प्रलयकालीन समुद्र गर्जन से दिखलाया गया है । उदाहरणार्थ:-- शङ्खध्वनिः प्रज्ञयसागरघोषतुल्यः । ( कर्णभार ) यस्य स्वनं प्रलयसागर घोषतुल्यम् । ( दूतवाक्य ) (६) इन नाटकों में कुछ विचारों की आवृत्ति पाई जाती है । उदाहरणार्थ :(क) शपामि सत्येन भयं न जाने । ( मध्यम व्यायोग ) किमेतद्भो ! भयं नाम भवतोऽद्य मया श्रुतम् । ( बाब चरित ) (ख) 'अथवा सर्वमङ्कारो भवति सुरूपाणाम्" अनेक नाटकों में श्राया है । (ग) 'वीर का बाहु ही सच्चा शस्त्र है', यह विचार कई नाटकों में प्रकट किया गया है। ऐसे ही और भी बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं । (७) इन नाटकों में प्रयुक्त शब्द भण्डार ( Vocabulary ) सथा मनोभावप्रकाशन प्रकार ( Expression ) प्राय: एक जैसे पाए १ मिलाइये, कालिदासकृत शकुन्तला ( ११८ ), किमिव हि मथुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् । · Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या इन नाटको का रचयिता एक ही व्यक्ति है ? ક્ जाते हैं | उदाहरणार्थ are a far after शब्द का प्रयोग और द्वितीय के लिए 'अहो करूणा खु इस्सरा' देखिये | (८) इन नाटकों में हम कुछ नाटकीय रचना-नियमों तथा नाटकीय परिस्थितियों की पुनरावृत्ति पाते हैं । उदाहरणार्थ; स्वप्नवासवदत्त के लुटे अक की अभिषेक के तीसरे से तुलना करो । ( 8 ) प्राय: छः नाटकों में एक कहकर पानी माँगता है। मरता हुआ आदमी 'श्रापस्तावत्' (१०) इन नाटकों से मृत्यु समय के करुणा दृश्य प्रायः समान हैं । ( 19 ) इन सब की एक भारी विशेषता यह है कि सभी में भूमिका छोटी-छोटी हैं। ( १२ ) इन नाटकों में गौ पात्रों तक के नामों की श्रावृत्ति पाई जाती है। उदाहरणार्थ; विजया, हारपालिका और बादरायण, कचुकी हैं, तथा गोपालों के नाम वृषभदत्त एवं कुम्भदस हैं ! (१३) एक और भेदक विशेषता यह है कि माता के नाम का व्यवहार बहुधा किया गया है। जैसे, । जैसे, यादवीमातः, शौरसेनीमातः, सुमित्रामातः । (५४) पाणिनी व्याकरण के नियमों से हटकर चलने की बाध साधारण है । यथा, श्रपृच्छ् का प्रयोग परस्मैपद में किया गया है और राज शब्द समास में आया है ( देखिये, काशिराज्ञ, सर्वराज्ञः इत्यादि ) । (१२) 'इमामपि महीं कृत्स्नां राजसिंहः प्रशास्तु नः' यह भरत---- वाक्य इन कई नाटकों में आया है । इन कतिपय हेतुओं से एवं विरोधी युक्तियों के अभाव में यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि इन सब नाटकों का कर्ता एक ही व्यक्ति है । जो इन्हें भास की रचना नहीं मानते, यह तो उन्हें भी मानना पड़ेमा ही कि ये सब किसी एक ही की रचना 觱 1 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास (१४) तब इनका रचयिता कौन है ? श्री वर्ष (६०६-६४८) के दरबारी कवि बाराम ने श्रपर हर्षचरित के उपोद्घात् ' के एक पद्य में सास के नाटकों का छल्लेख किय है। वह पद्य यह है!-- सूत्रधार कृतारम्भैनाटकैबहुभूमिकः । सपसार्यशोलेभे भासोदेवकुलैरिव ३३ भास के नाटकों के सूत्रधार कृतारमः, बहुभूमिकै; और सपताक४ ये तीनों विशेषण इन नाटकों के सम्बन्ध में ठीक हैं। राज शेखर (हवीं शताब्दी) ने 'मासनाटक चक्र' का उल्लेख मिया है और कहा है कि स्वमवासवदत्त अग्निपरीक्षा ५ में पूरा उत्तरा था। देखिये, स्वसवासवदत्तस्य दाहकोऽभूत्र पावकः इन युक्तियों से सिद्ध होता है कि इन नाटकों का रचयिता भास था। किन्तु इस अनुमान के विरोधी विद्वान् राजशेखर के निम्नलिखित श्लोक को प्रस्तुत करते हैं: कारणं तु कवित्वस्य न सम्पनकुलीनता। भावकोऽपि हि यद्धासः कवीनामनिमोऽभवत् ।। आदौ भासेन रचिता नाटिका प्रियदर्शिका। तस्य रत्नावली नूनं रत्नमालेव शजते ।। भागानन्दं समालोक्य यस्य श्रीहर्ष विक्रमः॥ १. यह उपोदयात ऐतिहासिक तथा काल-निर्धारिणी दृष्टि से बड़ा उपयोगी है। इसमें नामोल्लेख किए हुए ग्रन्थों के गुण जानने के लिये भी यह बड़े काम का है । २ सूत्रधार से प्रारम्भ होने वाले । ३ बहुत से पात्रों वाले । कालिदास के शकुन्तला नाटक में २३ और विक्रमोर्वशीय में १८ पात्र हैं। किन्तु इन नाटको में से प्रत्येक मे औसतन लगभग ३० पात्र हैं। ४ मिन्न-भिन्न नाटको में भिन्न-भिन्न कथानक से युक्त । कालिदास के नाटको का विषय प्रायः एक ही है। १ कठिन अालोचना। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब इनका रचयिता कौन है ? इन श्लोकों द्वारा यही सिद्ध होता है कि या तो राजशेखर को भूब लगी है या दो माल हुए हैं जिनमें से एक कालिदास से पूर्व हुमा और दूसरा कालिदाल के पश्चात् । ऐखा मानने पर कहा जावेगा कि स्वप्नवासवदत्त का रचयिता वह मास है जो कालिदास के पश्चात् हुआ! इस अर्थ-ग्रहण के अनुसार उक्त लो में श्राए हुए धावक पद का अर्थ होगा धोषी' और मास का तात्पर्य होगा व्यक्ति विशेष । किन्तु ऐसा तभी माना जा सकता है जब इस भारतीय लोकवाद को, जो केवल लोक वाद ही नही है प्रत्युत जिसका समर्थन कई संस्कृत लेखक भी करते हैं, स्वीकार न करें कि धावक ने उपयुक्त तीन नाटकों (प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानन्द ) की रचना की थी और पारितोषिक रूप में तत्कालीन शासक नृप श्रीहर्ष से विपुल धन प्राह किया था। उक्त श्लोकों का यथार्थ अर्थ लेने पर तो यह मानना पड़ता है कि धावक कषि का असली नाम है भास (प्रकाशमान, सुप्रथित, यशस्वी ) उसके विशेषण हैं। अतः राजशेखर ने जो लिखा है ठीक है। यह भी कहा जाता है कि कई प्राचीन संस्कृत कवि जिसका उल्लेख करते हैं और राजशेखर ने जिसकी इस प्रकार प्रशंसा की हैं वह स्वप्नवासवदत्त नाटक भाजल का उपलभ्यमान स्वामवासवदत्त नाटक नहीं हो सकता। भास के नाम से प्रचलित इन तेरह नाटकों का रचयिता कोई अप्रसिद्ध दक्षिण भारतीय कवि है जो ७वीं शताब्दी में हुमा होगा। प्रो० सिलवेन खेवी ने रामचन्द्र गुणचन्द्र के माध्यदर्पण नामक ग्रन्थ में से एक पध प्रस्तुत किया है जो प्राजक के स्वप्नवासवदत्त में नहीं मिलता। पद्य नहीं मिलता यह ठीक है, किन्तु इस पद्य का भाव उपलभ्यमान १. देखिये, “भण्डारकर इंस्टीच्यूट जर्नल' (१९२५-२६) में देवधर का लेख । २. बार्नेट भी इस विचार से सहमत है। ३. पदाक्रान्तानि पुष्पाणि सोमं चेदं शिलासनम् । नून काचिदिहासीना मा दृष्ट्वा सहसा गता। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास स्वमवासवदास में अवश्य अाया हुआ है, इससे निषा नहीं हो सकता। इस विशेषी युक्ति द्वारा अधिक से अधिक यही सिद्ध हो सकता है कि स्वमवासवदत्त के नाना संस्करण हैं। इसके द्वारा वर्तमान स्वमवासवदत्त के असली होने का खण्डन कदापि नहीं हो सकता। ऐसा उदाहरण कालिदास का मालविकाग्निमित्र नाटक भी उपस्थित करता है। स्वसवासवदत्त के नाना संस्करण थे, इस बात का समर्थन नीमोजदेव के गारप्रकाश के साक्ष्य से भी होता है, क्योंकि शृंगारप्रकाश का उद्धृत प्रकरण स्वमवासवदत्त के श्म अंक का सार है। शारदा तनय ( १२वीं शतान्दी) के भाव प्रकाश में स्वसवासवदत्त से एक श्लोक' उद्धृत है और वह श्लोक आजकल के स्वामवासवदत्त में पाया जाता है। इससे भी सिद्ध होता है कि यही स्वशवासवदत्त भास का असली स्वमवासवदत्त है। इस सब का सार यही है कि इन सब तेरह नाटकों का रचयिता भास ही था। (१५) भास के और ग्रन्थ सुभाषित-कोशों में भास के नाम से दिए हुए पद्म इन नाटको में नहीं मजते । श्रतः सम्भव है कि भास ने कुछ और भी नाटक लिखे हों और कदाचित् कुछ फुटकर कविता भी की हो ( जिसके संग्रह का नाम विष्णुधर्म हो) तथा प्रकारशास्त्र का भी कोई ग्रन्थ लिखा हो। मध्यकालीन संस्कृत साहित्य के प्राचार पर यही अनुमान होता है। महाकवि मास का एक और नाटक 'यज्ञफलम् । अथवा यज्ञ नाटकम् ) राजवैद्य जीवराम कालिदास शास्त्री को मिला है। इस नाटक की कथा वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड से ली गई है और यह सम्बत् १६६७ में गोंडल ( काठियावाड़) से प्रकाशित हुआ है। इसकी दो हस्तलिखित प्रतियां देवनागरी अक्षरों में प्राप्त हुई हैं। १. चिरप्रसुप्तः कामो मे वीण्या प्रतिबोधितः । ता तु देवीं न पश्यामि यस्या घोषवती प्रिया । " Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास की शैली एक के अन्त में लिखा है :-'इति यज्ञनाटक समाप्तं विक्रमार्क सम्बत् ११२७ आश्विन कृष्ण पक्षे द्वितीयायां भौमवासरे लिखित स्वामी शुद्धानन्द तीर्थ "दूसरी प्रति के अन्त में लिखा है, "इति यज्ञफलं संपूर्ण विक्रमीय संवत्सर 2 मासानामुत्तमे पौष मासे सितै पक्षे पूरिक्षमायां गुरुवासरे लिखितं देवप्रसाद शर्मणा हस्तिनापुर निवासी । माटक के प्राभ्यन्तरिक साक्ष्य से प्रतीत होता है, कि इसका पूरा नाम 'यज्ञफल और सक्षिप्त नाम 'यज्ञनाटक' है। जैसा कि स्वप्नवासवदत्तम् के अन्त में भी 'इति स्वप्ननाटकम बसितम्' ही देखने को मिलता है। नाटक का प्रारंभ 'नान्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधारः' से होता है। 'प्रस्तावना के स्थान पर 'स्थापना' शब्द का प्रयोग किया गया है। मास के अन्य नाटकों की मान्द्रि इस की स्थापना भी सक्षिप्त है और उसमें कवि के तथा नाटक के नाम का अभाव है। भरत वाक्य इस प्रकार है : रक्षन्तु वो धर्म स्वं, प्रजाः स्युरनुपप्लुताः । त्वं राजसिंह पृथ्वी सागरान्तां प्रशाधि च ॥ भास के अन्य नाटकों की भान्ति इस में मी पात्रों का बाहुल्य है। इस की अति प्राचीन भाषा, इस की वस्तु कल्पना, इस की शेली, और इसके रस, भाव, अलंकार और नाटयांगों को मनोहरता निस्सन्देश इसे भास की ही कृति प्रमाणित करते हैं। सम्भव है कि भासा के अन्य ग्रन्थ भी इसी प्रकार धीरे २ प्रकाश में आजायें । (१६) मास की शैली भास के काव्य का विशिष्ट गुण यह है कि उसकी भाषा प्राञ्जल और सुष्टु है। इसमे भावों का उद्रेक, लय का मधुरसंगीत और ऊंची उड़ान मरने वाली निर्मल कल्पना है। कविकुलगरु कालिदास प्रकृति के कवि और रममियाना में प्रमाण माने जाते हैं, किन्तु मालवीय मनोवृत्तियों Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ संस्कृत साहित्य का इतिहास की व्याख्या में भात कदाचित उनसे भी बढ जाता है। उसके नाटकों के विषय विविध हैं, तथा उनका कथानक सदा रोचक एवं सरब है । वह केवल ललित भाषा लिखने में ही उच्च कोटि का सिद्धहस्त नहीं है, श्रपितु नाटकीय घटनानुरूप यथार्थ परिस्थति पैदा कर देने में भी । Best शैली की एक और विशेषता यह है कि वह एक खोक के कई gee कर लेता है और प्रत्येक टुकड़े का वक्ता पृथक् पृथक् पात्र होता है। यह रीति मनोविनोदक उत्तर प्रत्युत्तर के तथा ओजस्वी वार्त्तालाप के बहुत अनुरूप है' | गद्य-पद्य दोनों मे कवि अपने आपको काव्य-पद्धति का श्राचार्य सिद्ध करता है । श्रालङ्कारिकों के मतानुसार भाव वैदर्भी रीति का कवि है । २ भा की कविता में रोक छन्द का प्राधान्य है। यह बात बहुत कुछ प्राचीनता को बोधक है। भास की शैली की एक और विशेषता यह है कि वह पाणिनि के नियमों का उल्लङ्घन कर जाता है (जैसा पहले कहा जा चुका है।) यह बात भी उसके प्राक्काखीन होने की सूचक है A (१७) काल' भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भास के लिए भिन्न-भिन्न काल निश्चित किए हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्रतिज्ञायौगन्धरायण में से श्लोक ३ आया है । इसी के आधार पर पं० गणपति शास्त्री ने भारत को ई० पू० १. इसी अभिरुचि के लिये विशाखदत्त का मुद्राराक्षस देखिये | २. दण्डी के अनुसार वैदर्भीरीति में निम्नलिखित दस गुण पाए जाते हैं; श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता ! अर्थ-व्यक्तिरुदारत्वंमोजः कान्तिसमाधयः ॥ ( काव्यादर्श १, ४१ ) [ दण्डी इस बारे में भरत का अनुयायी है । ] ३. नवं शरावं सलिलस्य पूर्णं सुसस्कृतं दर्भकृतोत्तरीयम् । तत्तस्य मा भून्नरकं च गच्छेद, यो भतृ पिण्डस्य कृते न युध्येत ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल चतुर्थ शताब्दी का माना है। इस युक्ति में यह अनुमान कर लिया गया है कि अर्थशास्त्र ई० पू० चौथी शताब्दी में लिखा गया था, किन्तु अाज हमें इतिहास का जो ज्ञान पास है, उसके अनुसार हम उक्त विचार कोनिश्चय के साथ ठीक नहीं कह सकते । ५० रामावतार ने भास को ईसा की दशवीं शताब्दी में रखा है। उनका विचार है कि माल का चारुदत्त नाटक शूद्रक के मृच्छकटिक का भद्दा संक्षेप है। ये नाटक २. नन्छकटिक और चारुदत्त मे इतना घनिष्ठ सम्बन्ध हैं कि दोनो का स्वतन्त्र उद्भव असंभव प्रतीत होता है। उन्हें देखकर अनुमान करना पड़ता है कि या तो उनमें से कोई एक दूसरे के आधार पर लिखा गया है या दोनो किसी तीसरे ग्रन्थ पर अवलम्बित हैं। पहले पक्ष में भी दो मत हैं -- या तो चारुदत्त (जो सर्वसम्मति से चारो अंको में एक अपूर्ण नाठक हे ) अभिनय के प्रयोजन से मृच्छकटिक का संक्षेप है, या मृच्छकटिक चारुदत्त का अमपूर्ण समुपबृहित रूप है। इन दोनो विचारों में से भी प्रथम विचार के समर्थन में निम्नलिखित युक्तियाँ दी जाती हैं: (क) वामन और अभिनवगुप्त जैसे प्रारम्भिक आलंकारिक चारुदत्त की अपेक्षा मृच्छकटिक से अधिक परिचित थे। वामन का पाठ 'द्य तं हि नाम पुरुषस्यासिहासनं राज्यम् मृच्छकटिक में श्राता है। श्लेष के प्रसंग में वामन लिखता है कि यह शूद्रक तथा अन्य लेखको के ग्रन्थों मे बहुत पाया जाता है। (ख) 'असत्पुरुषसेवेव' की उपमा प्रसङ्गानुसार मृच्छकटिक में बहुत अधिक ठीक बैठती है, चारुदत्त में यह केवल एक श्रालंकारिक तुच्छ पदार्थ प्रतीत होता है। (ग) श्राभ्यन्तरिक साक्ष्य से ज्ञात होता है कि चारुदत्त अविस्वष्ट है और सारी अवस्था तभी विस्पष्ट होती है जब हम मृच्छकटिक को हाथ में उठाते हैं।' Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास मत्तविलास के साथ मिलते-जुलते हैं, इस आधार पर डा बानेट ने इन्हें ७ वीं शताब्दी का बताया है। डा बिटरनिटका और स्टेन कोनो ने इन नाटकों को ईसा को कूलरी और चौथी शताब्दी के ये युनियाँ प्रबल होने पर भी पूर्ण साधक नहीं हैं । इस मत में निम्नलिखित बातों का समाधान नहीं होता :--- (अ) चारुदत्त में ऐसे प्रकरण हैं जो मृच्छकटिक में नहीं हैं। (आ) चारुदत्त में उज्जैन के राजनैतिक विप्लव का उल्लेख नहीं है। यदि चारुदत्त मृच्छकटिक से बाद में बना होता, तो इसमें इस महत्त्वपूर्ण विप्लव का उल्लेख अवश्य होता। दोनो नाटको के वैषभ्य के आधार पर भी कुछ परिणाम निकालने का प्रयत्न किया गया है । वैषम्य की कुछ मुख्य बातें ये हैं:-पारिभाषिक शब्द, प्राकृतमाषाएँ, पद्यरचना और नाटकीय घटना। पारिभाषिक शब्द- इस बारे में मुख्य दो शब्द ये हैं ----(१) चारुदत्त की दोनो हस्तलिखित प्रतियों में सुप्रसिद्ध नान्दी का अभाव है । (२) स्थापना में नाटककार का नाम नहीं दिया गया है। मृच्छकटिक की प्रस्तावना मे नान्दी भी है और नाटककार का नाम भी। परन्तु यह युक्ति किसी निश्चय पर नहीं पहुचा सकती । प्राकृत भाषाएँ --प्राकृतो का तुलनात्मक अध्ययन भी कुछ निश्चय नहीं करा सकता, विशेष करके इस अवस्था में जब कि हम जानते है कि चारुदत्त दक्षिण भारत का हस्तलिखित ग्रन्थ है, अतः स्वभावतः उसमें पुराने शब्द सुरक्षित रह गए हैं । अतः इस युक्ति पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता नहीं। पद्यरचना-दोनों नाटको के पद्यों के तुलनात्मक अध्ययन से विदित होता है कि जहाँ जहाँ पागत भेद हैं वहाँ वहाँ मृच्छकटिक के पाठ अधिक अच्छे हैं। कुछ उदाहरण देखिये : (क) चारुदत्त में यथान्धकारादिव दीपदर्शनम् (थथा और इव की पुनरुक्ति) मृच्छकटिक में-धनान्धकारादिव दीपदर्शनम् । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . र का ठहराया है। उनके ऐसा मानने का कारण यह है कि इनकी प्राकृत भाषा अश्वघोष और कालिदास की प्राकृत भाषाओं के मध्य में बीते काल की भाषा प्रतीत होती है। किन्तु जैसा कहीं और कहा जा चुका है प्राकृतों के आधार पर निकाला हुआ कोई सिद्धान्त सत्या सेद्धान्त नहीं हो सकता; कारण कि मास के नाटक दक्षिण भारत में और अश्वघोष के नाटक मध्य एशिया में मिले हैं। इन नाटकों के श्राभ्यन्तरिक साचय से जो बातें मालूम हो सकती हैं वे ये हैं : (ख) चारुदत्त में-यो याति दशा दरिद्रताम् (दो भाववाचक संशाएँ एक दूसरे के विशेषण के रूप में) मृच्छकटिक में-यो याति नरो...... (ग) चारुदत्त में --क्लिन्नखजूर पाण्डु (चन्द्रमा की उपमा के तौर पर उद्धा त पूर्वतया अकृत्रिम और मौलिक ) मृच्छकटिक में-कामिनी गण्डपाण्डु (परिष्कृत और रस सिद्धान्ता नुकूल ) । और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं। इनसे अनुमान होता है कि मृच्छकटिक चारुदन के बाद मे बना होगा, अन्यथा चारुदत्त के दुष्ट पाठो के लिए क्या उत्तर हो सकता है। नाटकीय घटना-उपयुक्त विचार का समर्थन नाटकीय घटना सम्बन्धी भेद से भी होता है। मृच्छकटिक का कथानक कहीं अधिक कौशलपूर्ण है। विशेष स्मरणीय बात यह है कि चारुदत्त नाटक के कई दोष मृच्छकटिक में सुधार दिए गए हैं । यथाचारुदत्त मे पष्ठी की सध्या में देर से चंद्रमा के निकलने का उल्लेख करके दो दिन बाद चंद्रमा को श्राधी रात में छिपा बताया गया है। इस भूल को मृच्छकटिक में सुधार दिया गया है। यह कौन विश्वास करेगा कि अभिनय के लिए सर्वेप करते हुए एक सही प्राकृतिक घटना को गलत बनाकर ले लिया गया होगा। अतः सिद्धान्त यही निकलता है कि मृच्छकटिक चारुदस का समुप Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास (१) भरत वाक्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है। (२) यवनिका शब्द पर्दे ( Curtain ) के लिये नहीं, धूघट ( Veil) के लिये पाया है।। (३) नए अंक के साथ घटनास्थल भी बदल जाता है, किन्तु घटना स्थल के लिये कोई संकेत नहीं दिया गया है। (५) रुद्रदामा (ईसा की दूसरी शताब्दी) के शिलालेखों में जो कृत्रिम काव्य शैली मिलती है वह इनकी भाषा में नहीं है। इसमें व्यवहार-च्युत (पुराने ) व्याकरणीय प्रयोग मिलते हैं और अनुप्रास या लम्बे समास नहीं हैं। () इनमें अप्रचलितह प्रयोग ( Archaic Expressions) मिलते हैं । उदाहरणार्थ ; (क) राजा (Prince) के अर्थ में आर्यपुत्र का प्रयोग हुआ है। ऐसा ही प्रयोग अशोक के सिद्धपुर वाले शिलालेख में भी मिलता है। (ख) महाब्राह्मण शब्द का प्रयोग अवारज के अर्थ में नहीं, अपितु वस्तुतः श्रादर सूचित करने के लिये हुआ है। (ग) अक्षिणी का प्रयोग भूतिनी के अर्थ में हुश्रा है । प्रारम्भिक बौद्ध ग्रन्थों में भी इस शब्द का ऐमा ही प्रयोग देखा जाता है। (घ) भरतों के घर (वंश) को भास ने वेदों का घर बताया है। हुआ है। का प्रयोग बाड यायों हित रूप है । यह कहना कठिन है कि ऐसा करने में प्रयोजन क्या थाकायार्थ की चोरी, या अपूर्ण ग्रन्थ को पूरा करना। __यदि कभी अन्य नए अन्वेषणों से चारुदत्त के विरुद्ध ही सामग्री मिलती रही अर्थात् यह सिद्ध हुआ कि चारुदत्त मौलिक कृति नहीं है (तब भी हम अपने उपयुक्त परिणाम से अनबद्ध यह कल्पना कर सकते हैं कि चारुदत्त मे अपने उपजीव्य मौलिक ग्रन्थ का पर्याप्त अंश सुरक्षित है जिस पर मृच्छकटिक आश्रित है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल वेदासरसमवायप्रविष्टो भारतोवंशः। (प्रतिज्ञायौगन्धरायण) (६) एक कथा को कहते हुए बाक्य का प्रारम्भ इस प्रकार होता है:-काम्पिल्या का एक ब्रह्मदत्त राजा था। यह शैली जातकों में प्रषिद्ध है। (७) पंचरान का कथानक उस कथा' पर अवलम्बिा है जो वर्तमान महाभारत में नहीं मिलती। (E) इन नाटकों में उस समाज का चित्र है जिसने प्राचीन रूदि के अनुसार बौद्ध बातें अपना जी थीं। यथा, प्रतिज्ञा यौगन्धरायण में श्रमएक का चरित्र देखिये । साथ ही हमें बौदधर्म विरोधी मनोवृत्ति का भी प्रामास मिलता है । (8) इमां लागापर्यन्तां हिमवद्विन्ध्य कुण्डलाम् । महीमेकातपत्राको राजसिंहः प्रशास्तु नः॥ इस श्लोक में 'एकतापत्र' राज्य का उल्लेख है जो हिमालय से विन्ध्य तक और समुद्र पर्यन्त फैला हुआ था। ऐसा समय ई०पू० ३२५ और १०० के मध्य पड़ता है। (१०) श्लोक छन्द की बहुलता और पाणिनि के नियमों की उपेक्षा, जैसा पहले कहा जा चुका है, प्राचीनता के चिन्ह है । इन सब बातों के आधार पर यह प्रतीत होता है कि पं. गणपति शास्त्री का बताथा हुधा ईसा पूर्व की ४र्थ शताब्दी का कान संमवतया ठीक है। यह आस के काल की पर सीमा ( Upper limit ) है। १. पंचरात्र में कहा गया है कि दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को वचन दिया था कि यदि अज्ञातवास में रहने वाले पाण्डवो का पता पाच रातों में लग जाए तो वह पाण्डवो को राज्य में भागहर बना लेगा। साथ ही यह भी कहा गया है कि अभि-मन्यु दुर्योधन की ओर से विराट की सेना से लड़ रहा था और विराट की सेना के लोगों ने उसे पकड़ लिया था। २ ऐसा काल शुङ्ग र करवों के बौद्ध-विरोधी साम्राज में था। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 संस्कृत-साहित्य का इतिहास अब रही अवर सीमा (Lower l:mir) की बात। हम जानते है कि ये नाटक कालिदास के मालविकाग्निमित्र थे तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र से भी पुराने हैं। कालिदास का समय भी तक विवाद का विषय बना हुआ है। अर्थ शास्त्र के काल की अवर सीमा विद्वान् साधारणतया ईसा की दूसरी शताब्दी मानते हैं। अत: मास ईसा की दूसरी शताब्दी से पहले ही जीवित रहा होगा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स अध्याय (५) (१८) कौटल्य का अर्थशास्त्र। (क) अर्थशास्त्र का महता- कौटम का अर्थ शास्त्र उन अन्धों में सबसे अधिक महत्वशाली अन्ध है जिन्हें लिखकर दक्षिण भारतीयों में संस्कृत साहित्य की सेवा की है। जब में इसका पता लगा है तब से प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता के सम्बन्ध में हमारे विचार कान्ति के क्षेत्र बन गया है। इसका पता लगने से पहले भारतीय राजनीतिशास्त्र में शून्य समझ जाते थे। शाम राय यह थी कि भातीय सभ्यता ने केवद्ध विचार क्षेत्र में ही चमत्कार दिखनाया है क्रिया' क्षेत्र में यह बुरी तरह असफल रही । कोटल्य के अर्थशास्त्र में राज्य-सिद्धान्तों का ही नहीं, प्रशन्ध की सूम बातों का भी वर्णन है। इसका विषय क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण है। इससे हमें राजा के विविध कर्तव्यों का, गाँवों के अमाने की गलियों का, भूमि, खेती और व्यापार की समस्याओं का, कलाओं और शिल्पों को उन्नत करने की वधियों का, मद्य इत्यादि सरकारी वस्तुओं पर नियन्त्रण रखने का, जाला और खामों (Mines, से लाभ उठाने के डाका, सिंचाई का, श्रकाक्ष में किए जाने वाले कामों का, अपराधियों को दशा देने के विधाम का, तथा इसी प्रकार की और अनेक बातों का पता लगता १. दाक्षिणात्यो के कुछ अन्य उल्लेखनीय ग्रन्थ है:-~-भास के तेरह नाटक, भामह का भामहालंकार, और अवन्तिसुन्दरी कथा । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत-साहित्य का इतिहास अब रही अवर सीमा ( Lower limir) की बात । हम जानते हैं कि ये नाटक कालिदास के मालविकाग्निमित्र से सम्मा कौटिल्य के अर्थशास्त्र से भी पुराने हैं। कालिदास का समय अभी तक विवाद का विषय बना हुआ है। अर्थ शास्त्र के ज्ञान की श्रवर सीमा विद्वान् लाधारणतया ईला की दूसरी शताब्दी मानते हैं। अत: भाल ईसा की दूसरी शताब्दी से पहले ही जीवित रहा होगा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Arya अध्याय (५) (१८) कौटल्य का अर्थशास्त्र । क) अर्ध शास्त्र का महल छोटल्य का अर्थ शास्त्र उन ग्रन्थों में सबसे अधिक महत्वशाली अन्च है जिन्हें लिखकर दक्षिण भारतीयों जे संस्कृत साहित्य की सेवा की है। अब में इसका पता लगा है तब से प्राचीन भारत की सस्कृति और सभ्यता के सम्बन्ध में हमारे विचार शान्ति के क्षेत्र बन गए हैं। इसका पता लगने से पहन्ने भारतीय शाजनीतिशास्त्र में शून्य समझ जाते थे। श्राम राय यह थी कि आतीय सभ्यता ने केवल 'विचार-क्षेत्र में ही चमत्कार दिखनाया है मिया' क्षेत्र में यह बुरी तरह असफल रही । कौटल्य के अर्थशास्त्र में राज्य-सिद्धान्तों का ही नहीं, प्रबन्धकी सुधम बातों का मी वर्णन है। इसका विषय-दोन बहस विस्तीर्ण है। इससे हमें राजा के विविध कर्तव्यों का. गाँवों में बसाने की रीतियों का, भूमि, खेती और व्यापार की समस्याओं का, कलाओं और शिरूषों को उन्नत करने की वधियों का, मद्य इत्यादि सरकारी वस्तुओं पर नियन्त्रण रखने का, जङ्गला और खानों (Mines से लाभ उठाने के दङ्ग का, सिंचाई का, अकाल में किए जाने वाले कामों का, अपराधियों को दीड देने के विधान का, तथा इसी प्रकार की और अनेक बातों का पता लगता १. दाक्षिणात्यो के कुछ अन्य उल्लेखनीय प्रन्थ है:-भास के तेरह नाटक, भामह का भामहालंकार, और अवन्तिसुन्दरी कथा । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ संस्कृत साहित्य का इतिहास है । इस अर्थशास्त्र की बड़ी विशेषता यह है कि इसमें हमें सिद्धान्त और क्रिया का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है । इस कारण संस्कृत के इन ग्रन्थों का महत्व ग्रीक के अरस्तू तथा अफलातून के थों से भी अधिक है । (ख) रचियता - अ) सौभाग्य से कौटल्य के अर्थशास्त्र के रचयिता के विषय में स्वयं ग्रन्थ का श्राभ्यन्तरिक प्रमाण प्राप्त है। ग्रन्थ के अन्त के समीप यह श्लोक श्राया है येन शास्त्रं च नन्दराजगता च भूः । श्रमर्षे पोटतान्याशु तेन शास्त्रमिदं कृतम् ॥ आगे में कहा गया है: j स्वयमेव विष्णुगुप्तश्चकार सूत्रन्च भाग्यन्च ॥ अर्थात "शास्त्रों पर टीका लिखने वालों में कई प्रकार का व्याजात दोष देकर विष्णुगुप्त ने स्वयं [ यह ] शास्त्र और [ इस पर ] भाष्य लिखा है 9 ( था ) बाक्ष प्रमाण के सम्बन्ध में निम्न बिखित बातें ध्यान में रखने योग्य हैं. - ( 1 ) कामन्दक ने अपने नीतिशास्त्र का प्रयोजन strate अर्थशास्त्र का मंक्षेष करना बतलाया है और अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में विष्णुगुप्त को प्रणाम किया है (२) दशकुमारचरित के आठवे उच्छ्वास में दण्डी ने कहा है: इयमिदानीमाचार्य विष्णुगुप्तेन मौर्थे षड्भिः श्लोकसह : संक्षिप्त १. असली पाक के रूप में और भी उद्धरण दिये जा सकते हैं । उदाहरणार्थ (क) कौटिल्येन कृतं शास्त्रं विमुच्य ग्रंथविस्तरम् । १ । १ । ( श्रा) कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधिः कृतः । २ । १० ॥ इससे प्रकट है कि कौटिल्य और विष्णुगुप्त एक ही व्यक्ति के बाचक हैं | Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटल्य का अर्थशास्त्र इसके अतिरिक्त राजा के दैनिक कर्तव्यों का निरूपण करते हुए एडी ने कौटलीय अर्थशास्त्र के कुछ स्थल ज्यों के स्यों उद्धत कर ए हैं। दशकुमारचरित में सोमदत्त के चरित में इसने कौटलीय र्थशास्त्र का फिर उस्लेख करते हुए लिखा है कौटिल्य-कामन्दकीयादि-नीतिपटलकौशल ......। (३) जैनधर्म के नन्दिसूत्र में, पश्चतन्त्र में लोमदेव कृत नीति. क्यामृत में और कालिदासकृत प्रन्थों पर मल्लिनाथीय टीका में चाणक्य , अर्थशास्त्र के उल्लेख या उद्धरण उपलब्ध होते हैं। (४) चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ चाणक्य का सम्बन्ध अवश्य था। रई बात वक्ष्यमाण प्रमाणों से सिद्ध होती है:-- (क) । विष्णुपुराण कहता है.--- नवव तान् नन्दान् कौटिल्यो ब्राह्मण, समुदरिष्यति । ..कौटिल्य एवं चद्रगुप्त राज्येऽभियच्यति । इसी प्रकार भागवत पुराण भी कहता है: नवनन्दान द्विजः कश्चित् प्रपन्नानुरिष्यति । भन एव चन्द्रगुप्तं वै द्विजो राज्येऽभिष क्ष्यति। वायु, मत्स्य और ब्रह्माण्ड पुराणों में भी ऐसे ही वचन मिलते हैं। ब) ॥ जैन' तथा बौद्ध साहित्य में प्राप्य अनेक उल्लेखों से भी उल्लिखित वचनों की पुष्टि होती है। ग) मुद्राराक्षस के कथानक में भी नौनन्दों का बंध कश चुकने के बाद चद गुप्त मौर्य के शासन को सुदृद्ध करने के लिए किए हुए चाणक्य के प्रयत्नों का वर्णन है । १. इस बारे में मुख्य मुख्य जैन ग्रन्थ ये हैं:-स्थविसवलीचरित नन्दिसूत्र और ऋषिमण्डलाकारणवृत्ति । २ इस बारे में मुख्य मुखर बौद्ध अन्य ये हैं:-बुद्धघोषकृत समन्तपशादिका (विनयपिटक की एक टीका) और महावणस-टीका । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास (१) शणक्य के कई नाम प्रसिद्ध थे। यह are अभिधानचिन्तामणि नामक कोष के नीचे अवतारित श्लोक से प्रमाशित होती है :| মামন : জুষ্কোসে । मिल: पशिस्वामी विष्णुगुप्तोऽङ्गलाच मा। অল্পীর ফীকা কা গল্পী রাঃ বিঃ খ। ঘ া होने से वह परणय और शायद कुटज गोत्रा के सम्बन्ध से कौटल्य कहलाया। यह कुटिल भीति का पक्षपाती था, अब कौटिल्य भी कहलाता है। अन्य नाम अक्षिक प्रसिद्ध नहीं हैं। (३) क्या यह ग्रन्थ एक ही व्यक्ति की कृति है ? इस्य अर्थशास्त्र के मूल में ही बहत्तर बार इति चाडक्य: ऐसे वचन पाए जाते हैं। इसी का अवलम्स लेकर प्रो. हिल (Halie brandt ) ने कई जाता है कि यह अन्य किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं है, चाणक्य की कृति होने की तो और भी कम अाशा है। उस महाशय के मान से बद्ध एक ही प्रयान (School ) के कई लेखकों की रचना है: क्याधि निरुक्त और महाभाष्य में हम इति पार' अरों 'इति पसलि,' ऐवं बाप कहीं भी नहीं पाते हैं। प्रो० जकोबी (Jacob1) ने इस मत का घोर विरोध किया है। भारत के अनेक लेखको में अपने ग्रन्थों में अपने हा नाम का प्रयोग प्रथम (अन्य ) पुरुष में किया है। इसका कारण स्पष्ट है~~चे स्वाभिमान-दाध के मामी होना नहीं चाहते थे । नामक, कबीर, तुलसीदास तथा अन्य अनेक कवियों ने ऐसे ही किया है। यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण हैं कि इस प्रन्थ ने अपने प्रस्थान (Schoot} को जन्म दिया है, प्रधान ने अन्य को नहीं:--- (3) कामन्दक ने इस ग्रन्थ के रचियता का उलेख विम्पष्टतया एक व्यक्ति के रूप में च्यिा प्रार उसके अन्य में ऐसे किसी सम्प्रदाय या प्रस्थान (School) के उपलेख का प्रामास तक नहीं पाया जाता। (२) लेखक ने ग्रन्थ एक विशेष उस्म को लेकर लिखा है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटल्य का अर्थशास्त्र यह अन्य के प्रारम्भ में कहता है:--- पृथिध्या नामे पालने च चावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचायः प्रस्थाषितानि पायशस्तानि संहत्यकसिदमर्थशमनं कृतम् । इस अर्थशास्त्र के अन्दर कहीं भी बाधा दोष जहीं पाया जाता है। (३) यदि बागाक्य के बाद का कोई लेखक इस अन्ध का रचयिता हो तो 'सि सगरणक्यः', लेति 'चाणक:', और 'इत्याचार्या.' इत्यादि वाक्य कुछ अर्थ न रखें: क्योंकि तब तो स्वयं वाणक्य एक प्राचार्य (8) स्वयं कौटिल्य ने एक सौ चौदह बार पूर्वाचार्यों का उल्लेख करके उनके विचारों की सीब पालोचना की है। (4) मूल प्रन्थ में लेखक का नाम अथवा उल्लेख सर्वत्र एक वचन में हुआ है। (१) अन्य के प्रारम्भ में बड़ी सावधानी से तैयार की हुई विषयानुक्रमणी है जिसमें रूप-रेखा और निर्माण का अबाधारण ऐक्य देखा जाता है। इस अन्य के लिखे जाने से पहले भी अर्थशास्त्र विषयक अनेक प्रन्थ मौजूद थे और चाणक्य ने उन में काट-छाँट या रहो-बदल करके यह अन्ध तैयार किया था । यह बात स्वयं इस अन्य के भूख-पाठ से भी सिद्ध होती है। यह भी ठीक हो सकता है कि उसे अपने ग्रन्थ के निरूपरसीय विषयों के लिए बहुत सी आवश्यक सामग्री राज्य के अधिकारियों से प्राप्त हो गई होगी; परन्तु यह अन्ध चाणक्य की सौखिक रचना नहीं है यह सिद्ध करने वाला कोई प्रमाया नहीं है। (मा) अन्य का रचनाकाल । (1) डा. शामशास्त्री के द्वारा किए हुए इस अन्य के अनुवाद' के लिए लिखी हुई अपनी सक्षिह भूमिका में डा. फ्लीट ने इस प्रम का १. पैसूर से १९२६ ई. में प्रकाशित । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास सम्भाव्यमा निर्माण-काल ३९१-२६६ ईसा से पूर्व माना है। प्रो. जैकोबी, डा० टॉमस ( Thomas) तथा कई अन्य विद्वान् भी इस विचार से सहमत हैं। १२) प्रो. जालो ( jolls) के विचार से यह अन्ध कामसूत्र से मिलता जुलता है, और कामसूत्र ईसा की चौथी शताब्दी में लिखा गया था . अतः यह भी प्रायः उसी समय का हो सकता है। उक्त प्रोफैसर ने मुख्यतया इस बात पर विश्वाल किया है कि मेगस्थनीक Megasthenese) ने चाणक्य के नाम का उल्लेख नहीं किया है परन्तु आधुनिक अनुसन्धानों के आधार पर माना जाता है कि मेगस्थनीज़ का साथ अधिक विश्वसनीय नहीं है। उदाहरणार्थ, उसने लिखा है कि भारतीय लोग लिपि-कला नहीं जानते हैं परन्तु आजकल इस बात पर कोई भी विद्वान् विश्वास नहीं कर सकता है। प्रो. जाती स्वयं स्वीकार करते हैं कि मेगस्थनीज भारतीय भाषाओं और साहित्य से परिचित नहीं था, अत: उसका साश्य अल्बेरूनि के साक्ष्य से बहुत कम मूल्य रखता है। सच तो यह है कि चाणक्य के अर्थशास्त्र में और्यकाल से पूर्व के भारत का चित्र देखने को मिलता है । यदि १. इस अर्थशास्त्र में श्रालिम्वित समाज की कुछ रीति-नीति ये हैं.--- (क) राजनीतिक अपराध करने पर ब्राह्मण का वध विहित है। (ख) राज्य हित के लिए मन्दिरी को लूटने में दोष नहीं है। (म) विशेष परिस्थितियो मे विवाह-विच्छेद (Divorce) वैध है। (घ) पति मर आए या बहुत अधिक समय के लिए विदेश चला आए तो स्त्रो दूसरा विवाह कर सकती है। (ङ) अथर्व-वेदोक्त जादू-टोना प्रचलित था। (च) वैश्वानर, सङ्कषया और महाकच्छ की उरासना कतयं है ! (छ) तरुणी होने पर कन्याओं को पर बनने की स्वतन्त्रता थी। (ज) ब्राह्मण शूद्र की पत्नी से विवाह कर सकता था। (क) ब्राह्मण सैनिक का व्यवसाय ग्रहण कर सकते थे। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटल्य का अथशास्त्र मेगस्थनीज़ अत्यन्त सक्षम-पर्यवेक्षक होता तब भी उसकी और चाणक्य की बातों में शानक्य स्वाभाविक था । चायाक्य के विषय में मेगस्थनीज चुप है" यह कोई युक्ति नहीं। मेगस्थनीज ने तो कहीं मन्दों का भी नाम नहीं लिया; फिर बाणक्य का नाम लेने को क्या प्राशा हो सकती है ? (3) प्रो. विटमिट्ज Winternitz और प्रो० कोथ (Keith) ने इस प्रन्थ का निर्माण-काल ईसा की चौथी शताब्दी माना है। बिटरनिट्ज़ के मत से इसका रचयिता कोई राजनीतिज्ञ नहीं, बल्कि कोई पणिरत है। परन्तु इस मत में इस तथ्य के ऊपर ध्यान नहीं दिया गया कि भारतवर्ष में एक ही व्यक्ति परित और राजनीतिज्ञ दोनों का कार्य कर सकता है। माधव और सायण दोनों भाई बड़े योग्य अमात्य, साथ ही वेदों और भारतीय दर्शन के धुरन्धर विद्वान् भी थे। (४) कुछ विद्वानों ने बहा कल्पनापूर्ण विचार प्रकट करने का साहस किया है। उनका कथन है कि कौटिल्य ( 'कुटिल' बाबू ) कोई ऐतिहासिक पुरुष नहीं था। परन्तु हम ऊपर कह चुके हैं कि उसका असली नाम विष्णुगुप्त था, कौटिल्य उसका उपनाम है जो उसके कुटिल नीति का पक्षपाती होने के कारण प्रसिद्ध हो गया है। (५) चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ चाणक्य का मारो सम्बन्ध यह सिद्ध करता है कि वह ई० पू० चौथी शताब्दी में हुआ था; और 'नरेन्द्राधे' 'मौर्या) इत्यादि वाक्यों से यह भी विश्वास करना पड़ता है कि यह ग्रन्थ चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन-काल में ही शिला गया था। (१) युता, राजुका, पापण्डेषु, समाज, महामाता इत्यादि पारिभाषिक शब्द कौटलीय अर्थशास्त्र के समान अशोक के शासनलेखों में भी पाए जाते हैं। कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो किसी विशिष्ट अर्थ में प्रयोग में लाए गए हैं और बाद में प्रयुक्त हो गए है। २ कैलकटा रिव्यू (अप्रैल.) १६२४ ई । ३ बर्नल आ रायक एशियाटिक सोसायटी १९१६ ई (१३०) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास (७) चाणक्य के अर्थशास्त्र में और अशोक के शासन-लेखों में कुछ एक एक जैसे विधान पाये जाते हैं। उदाहरण के लिए चक्रवाक, शुरु और शारिका इत्यादि पक्षियों की हत्या करना वर्जित है, सवाइयो के काम में श्रानेवाले पौधों का बोना और सड़कों तथा पगडशिडयों के किनारे कुओं का खुदवाना विहित है। ८) कोई कोई कहते हैं कि इस अर्थशास्त्र की शैली एवं बाहा रूपरेखा से प्रतीत होता है कि यह जितना प्राचीन माना जाता है उतना प्राचीन नहीं हो सकता है। परन्तु ऐसा कहने वालों को जानना चाहिए कि अन्य के भूनपाड मे ही ज्ञात होता है कि असली ग्रन्थ छै इजार श्लोकों और डेढ़ सौ अध्यायों के रूप में था; किन्तु आजकल के अधलिस ग्रन्थ में काफी गद्य मी है। इस समस्या को सुलझाने के लिए किसी किती ने एक आसान उपाय बनाते हुए कहा है कि इस अर्थशास्त्र के बाह्य रूप-रग में ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में कुछ परिवर्तन हुआ है। इसका समर्थन करने वाली बात यह कि दण्डी ने पहले के सबलेखकों से अर्थशास्त्र के जितने भी उद्धरण दिए हैं वे सब श्लोक-बलू और दण्डी के बाद के लेखको द्वारा दिए हुए उन्हरण गद्यात्मक हैं। अनुमान किया जाता है कि सूत्रारमक मन्ध लिखने की प्रथा ईसा की पाँचीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई होगी जब याज्ञवल्क्य स्मृति ( जगभग ३१० ई.) तैयार हो चुकी थी। किन्तु इस 'परिवर्तन -'बाद के प्रवर्तकों ने यह नहीं बताया कि यह परिवर्तन किसने किया, क्यों किया, और किल के नाम के लिए किया? विश्वास तो यह है कि इस अर्थशास्त्र के सार्वभौम सादर ने समय और प्रल्हेरकों के ध्वसकारी हाथ से इम्पकी रक्षा अवश्य की होगी। इसी के साथ एक बात और भी है। कौटलीय अर्थशास्त्र के प्रारम्भ में सुव्यवस्थित एक प्रकरणानुक्रमणिका दी गई है तथा इसकी रचना पहले से ही अच्छी तरह तैयार किए हुए एक ढाँचे पर हुई प्रतीत होती है। निस्सन्देह,भारत में जाल-साजी का मार काफी गर्म मह चुका है, परन्तु इनका म 'भलामानू' का या मनु, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटल्य का अर्थ शास्त्र याज्ञवल्क्य और व्याप्त जैसे ऋषि-मुनियों का नाम था । ऐसी बातों का सम्बन्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों के साथ नहीं देखा जाता है। यह पौदा भारत की भूमि में नहीं उगा है। इस बारे में दणको का साक्ष्य बड़े महत्व का है। आजकल उपलस्यमान कोटलीय अर्थशास्त्र दण्डी के हाथ में अवश्य रहा होगा, क्योंकि उसने इसमें से कई स्थल ज्यों के स्यों उधत किए हैं। वह इस का भी जिक्र करता है कि यह 'गष्ट नीति-विद्या अब श्राचार्य विष्णुगुप्त ने मौय के लिए छ हजार श्लोकों में संक्षिप्त करके कलम-बद्ध कर दी है'-इयमिदानीमाचार्यविष्णुगुप्त न मौर्याथें षड् भिः श्लोकसहस्त्र: सक्षिप्ता'। इससे प्रकट है कि दण्डी से (ईसा को बौं श०) पहले रूप का कोई परिवर्तन नहीं हुश्श होगा । तो क्या रूप का यह परिवर्तन ७वीं शताब्दी के बाद हुमा ? ऐसा अनुमान किसी ने प्रकट नहीं किया। भवभूति ने चाणक्य के अर्थशास्त्र का उद्धरण सूत्र रूप में दिया है, परन्तु दण्डी और भवभूति के बाच पचास साल से भी कम का अन्तर है और इतना समय सूत्र शैली के विकास के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता है इसके अतिरिक्त मूलमन्य श्राप कहता है कि सूत्र और माष्य दोनों का रचयिता विष्णुगुप्त है-'स्वयमेव विष्णुगुप्तश्चकार सूत्रं च भाष्यं च' । अत. हम यह मानने के लिए कोई कारण दिखाई नहीं देता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में इस अर्थशास्त्र के गह्य रूप में परिवर्तन हुश्रा होगा। अब रही छ हजार श्लोकों की बात ! इसका उत्तर देने में हम पी. वी. काणे ( P. V. Kane) के इस कथन से पूर्णतया सहमत हैं कि यहाँ रलोक का तात्पर्य छन्द नहीं, बल्कि बत्तीस वर्षों का सङ्घ है। (घ) शैली—कौटलीय अर्थशास्त्र की शैजी आपस्तम्ब, बौधायन तथा अन्य धर्मसूत्र ग्रन्थों की शैली से बहुत मिलती जुलती है। इसमें गाय-पाका महिमस्या पाया जाता है। इसमें गा मौन पछ एक दूसरे Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास के पूरक है । एक के खिला दूसरा अपूर्ण रहता है। इसके अतिरिक्त, इसमें खुत्र और भाष्य दोनों स्वयं ग्रन्थ-चियता के लिखे हुए हैं। कहीं कहीं भाष्य में उपनिषद् और ऊर्ध्वकालीन ब्राह्मणों की भाषा का गङ्गढङ्ग देखने में श्रा जाता है। ग्रन्थ में श्रानि से अन्त तक स्थूलालेख्य (Plan) और निर्माण की श्राश्चर्यजनक एकता पाई जाती है । कुछेक पद पाणिनि के व्याकरण के नियमों का उल्लङ्घन करते हुए देखे जाते है। उदाहरणार्थ, औपनिषक के स्थान पर श्रोपनिषदिक, रोचक के रोचयन्ते और चातुरधिका के चतुरक्षिा आया है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ६ कालिदास (१६) ईसापूर्व को प्रथम शताब्दी में संस्कृत का पुनरुज्जीवन । जैसा भागे चल कर बताया जायगा, अश्वोष संस्कृत का बहुत बड़ा कवि था । वह बौद्ध भिक्षु और महायान सदावलम्बी था । बह afro ( ई० की प्रथम शताब्दी ) का समसामयिक था। उसने बौद्ध धर्म के कई पाली - प्रमथों पर संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं। अपने धर्म-सिद्धातों के प्रचार के लिए वौद्ध प्रचारकों को भी संस्कृत का प्रयोग करना पड़ा, इससे अनुमान होता है कि ईसवी सन् से पूर्व ही संस्कृत का पुनरुज्जीवन अवश्य हुआ होगा । ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक के बाद कोई ऐसा प्रबल राजनैतिक परिवर्तन हुआ जिसका विशेष महायान मम्बी भी नहीं कर सके और कव जैसी कुछ राजशक्तियों का प्रभुत्व हुआ और उन्होंने संस्कृत को पुनः सर्व प्रिय बनाया । तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय का प्रभाव दूर तक फैल रहा था। पता लगता है कि पुष्यमित्र ने ई० पू० की द्वितीय शताब्दी में साम्राज्य के केन्द्र में अश्वमेधयज्ञ किया था । इस काल में होने वाले पतन्जलि ने अपने काल के कई प्रन्थों का उल्लेख किया है। विशालकाय महाभारत का सम्पादन भी इसी काल में हुआ। पथवद स्मृ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरकत साहित्य का इतिहास वियाँ - मनु और माझवल्क्या-मी इस काम की रचना है। पुराण में बहु-संख्यक पुराण भी इसी समय रचे गए । अतः ईसापूर्व क समम वह समय था जब संस्कृत में बहुत कुछ लिखा गया। सब संस्कृत का प्रभाव इतना हो गया था कि शिलालेख भी संस्कृत में ही लिखें जाने लगे और बाद का जनसाहित्य मा संस्कृत में ही प्रस्तुत हुधा । विक्रमीय सम्वत् ई० पू०१७ से प्रारम्भ होता है । इसकी प्रतिष्ठा या तो किसी बड़े हिन्दू राजा के सम्मान के लिए या किसी बड़ी हिन्दूविजय की स्मति-स्थापना के लिए रखी गई होगी। जनश्रुत-बाद के अनुसार कालिदास ईसापूर्व की प्रथम शताब्दी में हुए । (२०) कालिदास प्रद बात प्रायः सर्वसम्मत है कि कालिदास संस्कृत का सबसे बड़ा कवि है। इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं कि वह भारत का शेक्सपीयर है। भारतीय विद्वान और प्रालङ्कारिक उसका नाम महाकवि, कदिशिरोमण, कविकुलगुरु इत्यादि विशेषणों के साथ लेते हैं। खेद है कि से महाकवि के जीवन के ४ या काल तक के विषय में हम कुछ भी १ रुद्रदामा का शिलालेख ( शक सम्वत् ७२, ईसवी सन् १.०) संस्कृत का प्रथम शिलालेख कदापि नहीं। इस की भाषा और शैली दोनों से प्रतीत होता है कि तब भाषा का पर्याप्त विकास हो चुका था। २. पहले के शिलालेखों में एक सम्वत् को जो ५७ ई० पू० का है कत सम्वत् कहा गया है। ३. कालिदास के बारे में विस्तृत ज्ञान के लिए खएड २१ देखिये । ३. उसके जीवन के विषय में कई जनश्रुतियाँ हैं । एक जनअति के अनुसार वह जवानी तक कुछ न पढ़ा और महामूर्ख था और काल देवी के वरदान से विद्यावान् हुअा था। दूसरी के अनुसार उसकी मृत्यु लंका में एक लालची वेश्या के हाथ से हुई। किन्तु इन जनश्रुतियों में बहुत कम विश्वास हो सकता है। अतः उनसे कोई विशेष परिणाम भी नहीं निकाला जा सकता। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ যাৱাকালিমা निश्चित रूप से नहीं जानते। उसके काल की पर और अपर सीमाओं में पांच सौ वर्षों का अन्तर पाया जाता है। वह बडा भारी विद्वान और अपने काल में प्रचलित सकल विद्याओं का, जिनमें राजधर्म, ज्योतिष पोर कामशास्त्र भी सम्मिलित है, बड़ा पण्डित था। पता लगता है कि कालिदास माटककार, गीतिकाव्यकर्ता और महाकाव्यनिर्माता था। उसके नाम से प्रचलित प्रन्यों की संख्या अच्छी बड़ी है। उनमें से निम्नलिखित अन्य अधिक महत्त्व के हैं और विस्तृत वर्णन के अधिकारी है :---. (१) मालविकाग्निमिन्न । (२) विमोवंशीय । नाटक (३) अमिज्ञान शाकुन्तल।) (४) ऋतुसंहार । गीतिकाव्य (५) मेघदूत। (६) कुमारसम्भव । (पहले ८ सर्ग) महाकाव्य (७) रघुवंश। (१) मालविकाग्निमित्र-- विलसन ने इस प्रन्ध के कालिदास कृत होने में सन्देह प्रकट किया था, किन्तु विलसन के बाद अक्षिक अनुसन्वानों से यह सिद्ध हो चुका है कि यह माटक कालिदास की हो कृति है। जिन आधारों पर यह कालिदास की रचना मानी जाती है वे अ---स्तलिखित प्रतियों का साचय, श्रा-प्रस्तावना में श्राई हुई बातं, इ-प्राभ्यन्तरिक साचच (यथा अमर झारपूर्ण उपमाएँ), ई--पात्रों का चरित्र-चित्रण (प्रत्येक पान का चरित्र कालिदास की शैली के अनुरूप है)। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ संस्कृत साहित्य का इतिहास अ.नाटक-कला की उस्कृष्टता ( कालिदास साधारण कक्षा में से भी एक आश्चर्यजनक सुन्दर कथानक घड़ लेता है।) अ-शैली, और एमाषा! निस्सन्देह कालिदास का यह प्रथम नाटक है। इसकी प्रस्तावना में वह इस दुविधा में है कि भास, लोमिल्ल और कविपुत्र जैसे कीतिमान् कवियों की कृतियों के विद्यमान होते हुए न जाने अमला उसके नाटक का अभिनय देखेगी या नहीं। इसमें पांच अंक हैं और विदिशा के महाराज अग्निमित्र या विदर्भ की राजकुमारो मालविका की सयो गान्त प्रेम-कथा वर्णित है। प्रसंग से इसमें कहा गया है कि पुष्यमित्र ने अपने आपको सम्राट घोषित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा, घोडे के प्रधानरक्षक धसुमित्र (अग्निमित्र के पुत्र) ने सिन्धु के किनारे यवनों को परास्त किया और पुष्यमित्र' (महाराज के पिता) ने उक्त विजय का समाचार राजधानी में भेजा। (२) विक्रमोर्वशीय-~-यह नाटक शक कला से, जिसमें कवि ने भारक-ला में पूर्णमोदि का परिचय दिया है, पहले लिखा गया है। इसमें पाँच अंक है। इसका विषय महाराज पुरुरवा और उर्वशी अपना का परस्पर प्रेम है। प्रथम नंक में पाता है कि केशी नामक देश्य के वश में पड़ी हुई उधंशी को अद्वितीय वीर महाराज पुरुषा ने बचाया । तभी वे दोनों एक दूसरे के प्रेमपाश में बंध गए। दूसरे प्रक की कथा है कि पुरुरवा विदूषक से उर्वशीविषयक अपने अनुराग का ArA साथ वर्णन करते हैं, उसी समय पश्य रूप में उर्वशी अपनी एक सखो के यहां पाती है भीर भोजपत्र पर लिखा हुआ अपना प्रेम सन्देश फैक देती है । तब पुलवा और उशी में वार्तामा प्रारम्भ होता है । संयोग अन्तिम मौर्य नृप को राज्यच्युत करके यह १७८ ई० पू० में सिंहासनारूढ़ हुश्मा इसने शुङ्गवश की नींव डाली। ' Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ विकूमावेशीय से एक नाटक में अभिनय करने के लिये उर्वशी शीघ्र स्वर्ग में बुना ली जाती है। राजा वह प्रेम सन्देश सँभाल कर रखने के लिए विदूषक को दे । है किन्तु किसी न किसी प्रकार वह महारानी के हाथों में जा पहुचता है । और महारानी कुरित हो जाती है। राजा महारानी को मनाने का सबा प्रयत्न करता है, किन्तु सब व्यर्थ । तीसरे अक के श्रादि में हमें बताया जाता है कि भारत ने उर्वशी को मस्यंकोंक में जाने का शाप दे दिया क्योंकि उसने बचमी का अभिभय यथायोग्य नहीं किया था और 'मैं पुरुषोत्तम (विष्णु) को प्यार करती हूं। यह कहने को बजाए उसने कहा था कि 'मैं पुरुरवा को प्यार करती हूं'। इन्द्र ने बीच में पढ़कर शाप में कुछ परिवर्तन करा दिया जिसके अनुसार उसे पुरुरवा से उत्सान होने वाले पुत्र का दर्शन करने के बाद स्वर्ग में श्राने जाने का अधिकार हो गया । तीसरे अंक में महारानी का कोप दूर होकर महाराज और महारानी का फिर मेल-मिलाप हो जाता है। महारानी महाराज को अपनी प्रेयसा से विवाह करने का अनुमति दे देता है। उर्वशी अदृश्य होकर दम्पति की बातें सुननी रहती है और जब महारानी वहां से चली जाती है तब वह महाराज से श्रा मिलती है। चौथे अंक के प्रारम्भ में महाराज पर आने वाली विपत्ति का संकेत है। उर्वशी कुपित होकर कुमार कुंज में आधुमती है जहाँ स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था, फजत वह जता बन जाती है। राजा उसे ददता हूँढता पागल हो जाता है और व्यर्थ में बादल से, मोर से, काय स भौरे से, हायोमे, हरिण से और नदी में उसका पता पूछता हे। अन्त में उसे एक आकाशवाणी सुनाई देती है और वक्ष एक जादू का रस पाता है जिसके प्रभाव से वह ज्यों ही खता को स्पर्श करता है क्यों हो वह बता पूर्वशी बन जाती है। १. हम कह सकते हैं कि यह सारे का सारा अंक एक गीतिकाव्य है जिस में वक्ता अकेला राजा ही है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास अन्तिम (५म) प्रक में उबशी को लेकर राजा प्रसन्नता के साथ अपनी राजधानी को लौटता है । इसके थोड़े समय बाद उक्त रन को एक उठाकर ले जाता है, किन्तु उस गीध को एक माया जमी कर देता है जिस पर लिखा है-~-'पुरुरवा और जवंशी का पुत्र आयु। इसने में ही एक तपस्विनी एक वीर क्षत्रिय बालक को श्राश्रम से शाजा के सामने इसलिये पेश करती है कि उस बालक को उसकी माया उर्वशी को वापस कर दिया जाए, कारण कि उस बाल ने आश्रम के नियमों का मन किया था। यधपि राजा को इस पुत्र का कुछ पता नहीं था, तथापि वह उसे देखकर प्रसन्न हो शठता है। उर्वशी अब काजा से बछुड़ जाने का विचार करके उदास हो जाती है। राजा मी खिन्न हो उठता है। थोड़ी देर बाद वर्ग से वर्ष का सन्देश लेकर देवर्षि नारद वहां आ जाते हैं । इन्द्र ने उस सदेश में देव्यों के विनाश के लिये राजा से सहायता करने की प्रर्थना की थी और उस जीवनपर्यन्त अर्थी के संयोग का आनन्द लेने की प्रज्ञा दी थी। (३) अभिज्ञान शाकुन्तल पर्व सम्मति से बह कालिदास की सर्वोत्तम कृति है जिसे उसने बुढ़ापे में प्रस्तुत किया था । गेटे (Goethe) तक ने भास्ट (Faust) की भूमिका में इसकी प्रशंसा की हैं। सर विजियम जोन्स ने इसका प्रथम इग्जिमा अनुवाद किया। इसमें सात अक हैं। प्रस्तावना में कहा गया है कि महाराज दुप्यन्त एक हरिण का तेजी से पीछा कर रहे थे कि वह महर्षि कश्व के तपोवन में धुप गए। तब महल रथ मे उतर कर महर्षि को प्रणाम करने के लिए पाश्रम में प्रविष्ट हुए, किन्तु महर्षि कहीं बाहर गए हुए थे। उस समय अस काअधिष्ठात्री महर्षि की पालित-पुत्रीशकुन्सला थी, जिसे वे प्राणी से अधिक प्यार करते थे। एक भौंरे ने उसे घेर लिया और वह सहायता के लिये चिल्लाई । उसकी सहेली अनसूया और प्रियम्वदा ने १ यह कथा प्रसंग से यह भी सूचित करती है कि स्त्री पुत्र की अपेक्षा पति को बहुत अधिक चाहती है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ স্নান গাঙ্ক हमी हसी में कहा कि मालमों का सुप्रसिद्ध इसाक दुष्यन्त तुके बदाएगा। राजा उस अवसर पर यहाँ प्रस्तुत था। उकसखियों से राजा को मालूम हुआ कि शकुन्तलावस्तुत: विश्वामित्र और मेनका की सुवा श्री! अतः वह उसके (राजा के) पाणिग्रहण के अयोग्य नहीं थी। इतने में राजा को तोषन में उपद्रव मचाने पर उतारू दिखाई देने वाले एक जगली हाथी को दूर हटाने के लिये वहां से जाना पड़ा, किन्तु उसके जाने से पहले ही उन दोनों के हृदयो में एक दूसरे के प्रति अनुराग का अंकर प्रस्फुटित हो चुका था (प्रथम अंक) राजा अपने प्रेमानुभवों का वर्णन विदूषक से करता है और प्राश्रम को राक्षसों के उपद्रवों से बचाने का भारी बोझ अपने ऊपर लेता है। इसी समय एक त्यौहार में शामिल होने के लिये राजा को राजधानो से बुलावा आ जाता है । वह स्वयं राजधानी न जा कर अपने स्थान पर विदूषक को भेज देता है, और उम्पये कदवा है कि शकुन्तला के प्रेम के बारे में मैंने तुझ से जो कुछ कहा था वह सब विनोद ही था उसे सच मान लेना (द्वितीय अक)। शकुन्तला अस्वस्थ है और उसकी दोनों सखियों को उसके स्थास्म की बढी चिन्ता है। दुष्यन्त-विषयक उसका प्रेम बहुत घनिष्टको मम है। सखियों के कहने से वह एक प्रेम व्यजक पत्र लिखती है। दुष्यन्त, जो छिपकर उनकी बात सुन रहा था, प्रकट हो जाता है। शकुन्तला और राजा में देर तक वार्तालाप होता है। अन्त में तपस्विनी गौतमी का अक्षर प्रामा सुनकर राजा को वहाँ से हटना पडता है (तृतीय क)। राजा अपनी राजधानी को लौट जाता है। वहाँ जाकर वह शकुन्तलाविषयक प्रेम को बिल्कुल भूज जाता है । एक दिन शकुन्तला राजा के प्रेम में बेसुध बैठी थी, कि क्रोधो ऋषि दुर्वासा वो श्रा पहुंचे। आत्मविम्मत शकुन्तला ने उनका यथोचित आतिथ्य न किया तो ऋषि ने उसे कठोर शाप दे दिया। सखियों ने दौड़ कर तमादान की प्रार्थना क' तो ऋषि ने शाप में परिवर्तन करते हुए कहा कि अच्छा, जब वह अपने पति की अभिज्ञान का चिह-रूप उस (पति) की अंगूठी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह संस्कृत-माहित्य का इतिहास दिया देगी, तद उसके पति को उसकी याद आ जाएगी, अन्यथा उसका पति उसे भूला रहेगा। यही साली कथावस्तु का भी है। बाराव अपने समाधि-जल से शकुन्तला के मान्य विवाह को जान जाते हैं। अनिला होने पर भी वे किसी को साथ देकर शकुना को उसके पति के घर भेजने का निश्चय करते हैं। तब विरक महर्षि को भी कन्या-वियोग को या बिसल कर डालती है । बहु महर्षि पिता, प्यारी सखियो, पहियों और उन पौधों को, जिन्हे असने अपने हाथ से सोच-सोचकर बड़ा किया था, छोड़त 3 शक्रन्तला का मी जी भर आता हौ । मारा करुणरस से पाला दिखाई देश है। यहां साक्षिदाल की दोखली की चमत्कृति देखने के योग्य है (४र्थक) । धर्मात्मा राजा मज-काज में संलग्न सभा में बैठा है, द्वारक दो तर. स्वियों और एक स्त्री के आने की सूचना देता है। दुनिया के शाप के जश राजा अपनी पत्नी को नहीं पहचानता और उसे अङ्गीकार करने से निषेध करता है। तपम्ही यरन करते हैं कि राजा होश में श्राए और अपना कम पश्चाने; किन्तु वह अपनी बाबरी प्रकट करता है अन्त में निश्चय करते है कि शकुन्तला की उसके पति के सामने छोडकर उन्हें वापिस हो जाना चाहिए । सो सहमा मानवीय रूप में एक বিমী সঞ্চয় কিন্তু মাত্র তা উক ফ্লাহ প্রয় देखने वालों को माश्चर्य में डाल जाती है (श्म )। एक धीवर के पास राजा की अंगूठी पकड़ी जाती है जो मार्ग में एक तीर्थ में स्नान करते समय शवुन्तला की अंगुली से पानी में गिर गई थी। धीवर पर चोरी का अपराध लगाकर पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है। राजा अंगूठी को पहचान लेता है। शाप का प्रभाव समान हो चुकने के कारण अब राजा को शकुन्तला तथा उसके साथ हुई सब बातों का स्मरण हो पाता है । वह अपनी भीषण भूज पर खूब पताता और अपने परपत्य होने के कारण बड़ा दुखी होता है । थोड़ी देर बाद उसे विदूषक के रोने की आवाज़ पाता है । वह उसे Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋतु सहार ६६ जाने दौड़ता है तो क्या देखता है कि इन्द्र का सारथि मातलि उसकी दुर्ग बना रहा है। तभी उसने मातलि से सुना कि इन्द्र को दस्यों के संहार के लिये उसकी सहायता चाहिये ( ६ ) स्वर्ग में देव्यों पर विजय प्राप्त कर चुकने के बाद मावति राजा को स्वर्ग की सैर कराता है | सैर करते करते राजा मारीच महर्षि के श्राश्रम में पहुँचता है, जहाँ वह देखता है कि बावक खेल खेल में एक शेर के को खींच रहा है। कुछ देर में राजा को मालूम हो जाता है कि वह वीर बालक उसका अपना बेटा है । शकुन्तला तपस्थिती के वेश में भाती है और महर्षि मारीच उन दोनों का पुनर्मिलन करा देते हैं और कुन्वजा से कहते हैं कि तेरे इतने दुःख उठाने में राजा का कोई अपराध नहीं है ( ७ म अक ) । (४) ऋतुसंहार - यह कालिदास का गीतिकाव्य है, जो उसने अपने कवि-जीवन के प्रारम्भिक काल में दिवा था । यह ग्रीष्म के ओखरवी वर्गान से प्रारम्भ होकर वसन्त के प्राय: निःसत्व वर्णन के साथ समाप्त होता है, जिसमें rer in gat वनकर कालिदास के द्वापरम आदि को प्राप्त कर लेता है। छहों ऋों की विशेषताओं का बहुत ही मणीय रीति में निरूपण किया गया है और प्रत्येक ऋतु में अनुरागियों के हृदयों में उठने वाली भाव-कारियों को कुशाग्र कूची से afare कर दिखाया गया है। मीन के भास्वर दिवस तरु प्राणियों के लिए महा-दाहक हैं, उन्हें तो इस ऋतु में शीतल रजनियों में ही शान्ति मिलती है, जब चन्द्रमा भी सुन्दर तरुण रमणियों से द्वेष करने लगता है और जब विरही जन विरहाग्नि में भुनते रहते हैं। वर्षा ऋतु में अहि-मौतियों का चुम्बन करती हुई सी बादलों की घनी घटा कती है और युवक-युवतियों के हृदयों में अनुराग भावों का उनक उत्पन्न कर देती है । शरद् का जावराय निराला ही है। इस ऋतु में वियोगिनी युवतियों की दशा उस प्रियङ्गवत्ता के समान हो जाती है जिसे के की चोट विल कर डालती है; किन्तु जिनके Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० संस्कृत ग्राहित्य का इतिहास 4 पति पास हैं वे इस ऋतु को सर्वोत्तम ऋतु अनुभव करती है अन्त में वसन्त ऋतु भाती है जिसकी शोभा श्राम को मंजरी बहाती है जो युवतियों के हृदय को बाँधने के लिये काम नाय का काम करती है । सारे ग्रन्थ में ११३ पद्य और वः सर्ग हैं । ( प्रत्येक स में एकएक ऋतु का वर्णन है । ) भी खूब परिवर्तित हैं। इस प्रारम्भिक रचना से भी कालीदास की सूक्ष्म-ईचिका और पू प्रसादगुणशालिता का पता लगता है । "प्रकृति के प्रति कवि की गहरी सहानुभूति, सूचमईक्षिका और भारतीय प्राकृतिक दृश्यों को विशद रंगों में चित्रित करने की कुशलता को जितने सुन्दर रूप में कालिदास का यह ग्रन्थ सूचित करता है, उसने में कदाचित् उसका कोई भी दूसरा ग्रन्थ नहीं करता 1" कालिदास के दूसरे किसी भी ग्रन्थ में "वह पूर्ण प्रसाद गुरु नहीं है जिसे आधुनिक अभिरुचि कविता की एक बड़ी रमणीयता सम् t, at roarrafत्रयों को इसने बहुत आकृष्ट न भी किया हो ।" यह कालिदास के प्रौढ़ काल का गोति-काव्य * (५) मे 3 हम कह सकते हैं कि यह संस्कृत साहित्य में ग्रीक करुणगीत (Elegy) है । कुबेर अपने सेवक एक यक्ष को एक वर्ष के लिए निर्वासित कर देता है | अपनी पत्नी से वियुक्त होकर वह ( मध्य भारत में ) रामगिरि नामक पर्वत पर जाकर रहने लगता है । वह एक दिन किसी मेघ को उत्तर दिशा की ओर जाता हुआ देखता है तो उसके द्वारा अपनी पत्नी को सान्त्वना का सन्देश भेजता है । वह मेघ से कहता है कि जब तुम आम्रकूट पर्वत पर होकर वृष्टि द्वारा दावानल को बुझ हुए आगे बढ़ोगे, तो वहां तुम्हें विन्ध्य पर्वत के नीचे बहती हुई नर्मदा इतिहास (इंग्लिश ), (1) मैकडानलः - संस्कृत साहित्य का चतुर्थ संस्करण पृष्ठ ३३७ १२ ए. बी. कीथ, संस्कृत साहित्य का इतिहास ( इंग्लिश ), पृष्ठ ८४ । ३ कीथ ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में ( पृष्ठ पर ) कुबेर के स्थान पर भूल से शिव लिख दिया है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वैश्वती के किनारे बसी हुई विदिशा मगरी मिलेगी। फिर वहाँ से उज्जयिनी को जाना। वहां से कुरुक्षेत्र पहुँच कर पवित्र सरस्वती का मधुर अज पीना । उसले आगे कनखल आएगा, कनखल से कैलास और कैलास से मानस-सर । मानस-सर के मधुर शीतल जज से मार्ग परिशामित दूर करने के बाद तुम अलका पहुँचोगे । अलका ही उसका-अथवा "सच कहा जाए तो उसकी पत्नी का--निवास स्थान है। इसके बाद यह अपनी पत्नी के निवास का पूरा पता देता है जिससे उसे द ढ़ने में कठिनता न हो। तदनन्तर यच मेव से अम्यर्थना करता है कि तुम अपनी बिजली को जोर से न चमकने देना और अपनी जान को जरा धीमी कर देना; क्योंकि ऐसा न हो कि मेरी पत्नी कोई ऐसा स्वप्न देख रही हो जिस में वह मेरा ही ध्यान कर रही हो और वह चौंक कर जाग पड़े।। वह कहता है कि मेरी प्रिया मेरे वियोग में पायड और कृश हो गई होगी। जब वह स्वयं जाग जाए, तभी तुम उसे मेरे सच्चे प्रेम का सन्देश देना और उसे यह कहकर धैर्थ बँधाना कि शीघ्र ही हमारा पुनः संयोग अवश्य होगा। इस काव्य की कथावस्तु का आधार वाल्मीकि की रामायण में ढा जा सकता है। उदाहणार्थः खोई हुई सीता के लिए राम का शोक वियुक्त यक्ष का अपनी पस्नी के लिये शोक करने का आदर्श उपस्थित करता है, और (१, २८ ) में आया हुश्रा वर्षा वर्णन भी कछ लमानता के अंशों को ओर ध्यान खींचता है। फिर भी कालिदास का वर्णन कालिदास का ही है और कथावस्त के बीज से उसने जो पादप उत्पन्न किया है वह भी अत्यन्त सरल है। कालिदास का प्रतिपाचार्थ निस्सन्देह मौलिकता-पूर्ण और उसका पाद-विन्यास विच्छित्तिशाली है। सारी कविता दो भागों में विभक्त है और कुल में ११०' १ वल्लभदेव ( ११०० ई.) की टीका में १११, दक्षिणावर्तनाथ (१२०० ई० ) की में ११० और मल्लिनाथ (१४०० ई.) की में ११८ पद्य है।८ वी शताब्दी के जिनसेन को १२० पचों का पता था। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत-साहित्य का इतिहास से लेकर १२० तक पद्य पाए जाते हैं। सारी कविता में मन्दामा छन्द है जिसमें कवि पूर्ण कृतहस्त प्रतीत होता है। इसी प्रकार की कथावस्तु शिल्लर ( Schiller ) के मेरिया स्टुअर्ट में भी आई है । इलमे भी एक बन्दी रानी अपने प्रमोदमय यौवन का माल्देश स्वदेश की ओर उड़ने वाले बादलों के द्वारा भेजती है। इसमें बानो का विरह अनन्त है और उसका विधुर जीवन पाठक के हृदय को चित कर देता है। मेघदूत के पढ़ने-पढाने का प्रचार खून बहा है। इसकी नकल पर अनेक काव्य लिखे गए हैं । भिन्न-भिन्न शताब्दियों में मिन-भिन्न विद्वानों ने इस पर अनेक टीकाएँ लिखी हैं। मन्दसौर में बरसभट्टि की लिखी विक्रम सम्बत् १३० (सन् ४७३ ई०) को प्रशस्ति मिलती है जिले उसने दशपुर में सूर्य मन्दिर की प्रतिष्ठा के लिए बड़े परिश्रम के लिखा था । उसको लिखने में वत्सभट्टि ने मेघदूत को अवश्य अपना प्रादशे रक्खा है। यद्यपि यद्द पस्ति गौडी रीति में लिखी गई है और कालिदास की रीति दैदर्भी है, तथापि कुछ पद्य बहुत ही चारु है.. और ५४ एश्यों की संक्षिप्त प्रशस्ति में वरसहि ने दशपुर का दीर्घचित्र और वसन्त एवं शरद् का वर्णन दे दिया है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि मेघदूत का विच्छती भाषा में एक अनुवाद तंजार में सुरक्षित है, साथ ही इस का एक अनुवाद लंका की भाषा में भी है। इसके अतिरिक्त, इसके अनेक पद्य अलंकार के सन्दर्भो में भी उद्धत मिलते हैं । १२ वी शताब्दी में धोयीक ने इसी के अनुकरण पर पवनदूत लिखा है। यह छोटा-सा काव्य-अन्ध भूगोल के रसिकों के भी बड़े काम का उसने उन १२० को लेकर, समस्यापूर्ति की कला के अभ्यास के रूप में, उनसे पाव नाय का जीवन लिख डाला । प्रक्षेपो का कारण अन्य का अत्यन्त सर्वप्रिय होना प्रतीत होता है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमार सम्भव १०३ है: क्योंकि इससे हमें कालिदास के समय की कई भौगोलिक बातों का परिचय मिलता है । (६) कुमारलम्वभ ---यह एक महाकाव्य है जिसमें १७ सर्ग हैं। इनमें से १७ तक के सर्ग बाद के किसी लेखक की रचना है ' । जैसा कि नाम से प्रकट होता है इसमें शिव-पार्वती के पुत्र कुमार कार्तिकेय के जन्म का वर्णन है, जिसने देवताओ के पीड़क और संसार के प्रत्येक रम्य पदार्थ के ध्वंसक तारक दैत्य का वध किया था। प्रथम सगं में हिमालय का परम रमणीय वर्णन है । किनर और किरियाँ तक I हिमालय के अन्दर रंगरेलियाँ करने के लिये आती हैं। शिव की भवित्री श्रर्द्धाङ्गिनी पार्वती ऐसे ही हिमालय में जन्म ग्रहण करती है और अद्भुत लावयवती युवती हो जाती है। यद्यपि पार्वती युवती हो चुकी है, 'तथापि उसका पिता शिव मे उसका वाग्दान स्वीकार करने की अभ्यर्थना करने का साहस नहीं कर सका; उसे डर था कहीं ऐसा न हो कि शिव उसके प्रणय का प्रतिषेध कर दे C अभ्यर्थनाभङ्गमयेन साधु र्माध्यस्थ्यमिष्ट ऽप्यवलम्बतेऽर्थे । वरप्रदाता ही है, इन सब बातों के समक्ष पार्वती का पिता पार्वती को कुछ सखियों के साथ जाकर शिव की सेवा में उपस्थित होंने और उसकी भक्ति करने की अनुज्ञा दे देता है ( प्रथम सर्ग ) । इसी बीच में देवता तारकासुर से त्रस्त होकर ब्रह्मा के पास जाते हैं और सहायता की याचना करते हैं । ब्रह्मा भी लाचार है, वह तो तारकासुर का अपने जगाए हुए विषवृक्ष का भी काटना संकट मोचक तो केवल पार्वती गर्भ-जात है ( २ य सर्ग ) । इन्द्र कामदेव को याद करता है करता है कि यदि मेरा मित्र वसन्त मेरे साथ चले तो मैं शिव का व्रत भंग कर सकता हूं । वसंत के शिव के तपोवन में जाने पर सारी प्रकृति पुनरुच्छसित हो उठती है; यहाँ तक कि पशु और पक्षी भी मन्मथो उचित नहीं है। देवों का शिव का पुत्र ही हो सकता । कामदेव प्रतिज्ञा १ देखिये खण्ड १६ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ संस्कृत साहित्य का इतिहास स्मथित हो जाते हैं। पार्वती शिस के सामने आती है और शिक्षका धैर्य कुछ परिलुप्त हो जाता है। समाधि तोड़कर शिम ने देखा तो सामने कामदेव को अधिज्यधन्ददा पाया। बस फिर क्या था! तस्कान ऋद्ध शिव का तृतीय नेत्र खुखा और उसमें से निकली हुई 'अग्नि-ज्वाला ने पल के अन्दर-अन्दर कामदेव को भस्म कर दिया (३ य सर्ग) हति को अपने पति कामदेव का वियोग असह्य हो गया । वह अपने पति के साथ सती हो जाने का निश्चय करती है। सलंत उसे धैर्य बंधाता है पर उसका क्षोभ दूर नहीं होता ! इतने में आकाशवाणी होती है कि जब पार्वती के साथ शिछ का विवाह हो जाएगा। तब तेरा पति पुनहग्जीवित हो जायगा। इस काशवाणी को सुनकर रति ने धैर्य धारण किया। वह उत्सुकता से पति के पुनरुज्जीवन के शुभ दिन की प्रतीक्षा करने लगी ( चतुर्थ मर्ग)। अपने प्रथरमों में असफल होकर पाती ने अब तप के द्वारा शिव को प्रस करने का निश्चय किया । माता ने बेटी को तप से विरत रहने की बहुत प्रेरणा की, किन्तु सब भ्यर्थ । पात: एक पर्वत के शिखर पर जाकर ऐसा भयंकर तप करने लगी कि उसे देख कर मुनि भी आश्चर्य में पड़ गए ! उसने स्वयं मिहने हुए पत्तों तक को खाने से निषेध कर दिया और वह केवल अयाचित प्राप्त जल पर ही रहने लगी। उसके इस तप को देख कर शिव से न रहा गया। वे ब्राह्मण ब्रह्मचारी का रूप मनाकर उसके सामने आए और पार्वती की पति-भक्ति की परीक्षा लेने के लिए शिव की निन्दा करने लगे । पार्वती ने उचित उत्तर दिया और कहा कि तुम शिव के यथार्थ रूप से परिचित नहीं हो । महापुरूषों की निन्दा करना ही पाप नहीं है। प्रत्युत निन्दा सुनना भी पाप है यह कहते हुए पार्वती ने वहाँ से चल देना चाहा। तब शिव ने यथार्थ रूप प्रकट करके पार्वती का हाथ पकड़ लिया और कहा कि मैं श्राज से तप क्रीत तुम्हारा दास हूँ (पन्धम सर्ग) अरुन्धती के साथ समर्षि पार्वती के पिता के पास आए और घर की प्रशंसा करने समे । पित Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवा १०५ के पास खड़ी हुई पार्वती सिर नीचा करके उनको सब बातें सुनती रही। पार्वती के पिता ने पार्वती की माता से पूछा कि तुम्हारी क्या सम्मति है, क्योंकि कन्याओं के विषय में गृहस्थ लोग प्राय: अपनी पत्नियों की अनुमति पर चलते हैं। पार्वती की माता तुरन्त स्वीकार कर लेती है । ( षष्ठ सर्ग ) 1 राजवैभव के अनुसार विवाद की तैयारियाँ होने बगों और बड़ी शान के साथ विवाद हुआ। कवि पार्वती की माता के हर्ष - विषाद के मिश्रित भावों का बड़ी विशदता के साथ वर्णन करता है ( सप्तम सर्ग ) । इस सर्ग में काम शास्त्र के नियमानुसार शिव-पार्वती की प्रेमलीला का विस्तृत वर्णन है । हमें श्रानन्दवर्धन ( ३, ७ ) से मालूम होता है कि समालोचकों ने जगत् के माता-पिता ( शिव-पार्वती ) के सुरत का वर्णन करना अच्छा नहीं माना. कदाचित् इस आजिचना के कारण ही कालिदास ने आगे नहीं लिखा और ग्रन्थ को कुमार के जन्म के साथ ही समाप्त कर दिया । 'कुमार सम्भव' नाम भी यही सूचित करता है। ऐसा मालूम होता है कि कवि की मृत्यु के कारण यह प्रन्थ अपूर्ण नहीं रहा; क्योंकि यह माना जाता है कि रघुवंश कवि की प्रोंदावस्था की रचना है और इसी की तरह अपूर्ण भी है । बाद के सगों में कहानी को ग्रन्थ के नाम द्वारा सूचित होने वाले स्थल से आगे बढ़ाया गया है। युद्ध के देवता स्कन्द का जन्म होता है । वह युवा होकर अद्वितीय पराक्रमी वीर बनता है । अन्त में जाकर उसके द्वारा तारकासुर के पराजित होने का वर्णन है । (७) रघुवंश - यद्द १६ सर्ग का महाकाव्य है और विद्वान् मानते हैं कि कवि ने इसे अपनी प्रौढ़ावस्था में लिखा था । यद्यपि कथानक लगभग वही है जो रामायण और पुराणों में पाया जाता है, तथापि कालिदास की मौलिकता और सूक्ष्म-ईक्षिका दर्शनीय हैं । ग्रन्थ महाराज दिलीप के वर्णन से प्रारम्भ होता है। दिलीप के अनेक गुणों का वर्णन किया गया है। दुर्भाग्य से एक बार महाराज इन्द्र को गौ सुरभि का Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत-साहित्य का इतिहास यथोचित प्रादुर मकर पाए, जिससे उसने उन्हे निश्पस्थ होने का शाप दे दिया। इस शाप की शक्ति केवल सुरभि को सुखा नन्दिनी से प्राम किए हुए एक बर से ही नष्ट हो सकती थी (मलग)। वसिष्ठ के उपदेश से दिलीप ने बन में नन्दिनी की सेवा को एक बार एक सिह ने नन्दिना के ऊपर आमना करना चाहा। राजा दे सिंह से प्रार्थना की कि तुम मेरे शरीर से अपना पेट भर कर इस गान को छोड़ दो। इस प्रकार उसने अपनी बच्ची भक्ति का परिचय दिया। सिंह कोई सच्चा सिंह नहीं ५, वह महादेव का एक सेवक था और पाजा को परीक्षा ले के लिए भेजा गया था। अब राजा को नन्दिनी ले अभीष्ट वर मिल गया (य सर्ग)। राजा के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ,सका नाम रघु रक्खा गया । रघु के हसपन का वर्णन है। जब वह युवा हो गया तब राजा ने उसे अश्वमेघ के घोड़े की रक्षा का भार सौपा। रघु को घोड़े को रक्षा के लिये इन्द्र तक से युद्ध करना पड़ा (३यप्लग) । दिलीप के पश्चात् रघु गद्दी पर बैठा । अब उसकी दिग्विजय का संक्षिप्त किन्तु बड़ा ओजस्वी वर्णन भाता है। दिग्विजय के बाद उसने विश्वजित् यज्ञ किया, जिसमें विजयों में प्राप्त सारी सम्पत्ति दान में दे दी, 'प्रादानं हि विसर्गाय समां बारिमुचामिय' (४) सन)। औदार्य के कारण रघु अकिंचन हो गया। जब कोरसमुनि दान मांगने के लिये उसके पास आये तो वह किंकर्तव्यविमूढ हो गया । कुबेर की समयोचित सहायता ने उसकी कठिनता को दूर कर दिया। उसके एक पुत्र हुअा। उसका माग अज रक्खा गया (श्म सर्ग)। तब इन्दुभतो के स्वयंवर का वर्णन आता है। कोई न कोई बहाना बनाकर अनेक राजकुमारों को बरने से छोड़ दिया जाता है। एक वीर राजकुमार को राजकुमारी केवल यह कहकर नापसन्द कर देती है कि प्रत्येक की अभिरुचि पृथक् पृका है। अन्त में अज का वरण हो जाता है। (ष्ठ सगं) । विवाह हो जाता है। स्वयं. वर में हार खाए हुए राजा वर-पात्रा पर आक्रमण करते हैं. किन्तु अज अपने अद्भुत वीर्य-शौर्य द्वारा उनको केवल मार भगाता है और दया करके . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ - अन्यों के मौलिक भाग उन की जान नहीं लेता (७म सर्ग) । किर अज के शान्तिपूर्ण शासन का वर्णन झोता है । इन्दुमती की सहसा मृत्यु से अज पर वज्रपात-सा हो जाता है। उसका धैर्य टूट जाता है और उसे जीवन में प्रानन्द दिखाई नहीं देता । उस पर किसी सान्त्वना का कोई प्रभाव नहीं होता। वह चाहता है कि उसको अकाला मत्यु हो जाए जिनसे वह अपनी प्रिया से स्वर्ग में फिर मिल सके ( सर्ग) उसके बाद उसका पुत्र दशरथ राजा होता है । श्रवणकुमार की कथा वर्णित है (स्म सर्ग) अगले छः सर्गों में राम की कथा का सविस्तर वर्णन पाता है। सोलहवे वर्ग में कुश की, सत्ररहवें में कुश के पुत्र की और अठारहवे तथा उन्नीसवें लगे में उनके अनेक उत्तराधिकारियों की कथा दी गई हैं। उत्तराधिकारियों में से कुछ के तो केवल नाम मात्र ही दिये गए हैं। काव्य अपूर्ण रहता है । कदाचित इसका कारण कावे की मृत्यु है। (२१) कालिदास के ग्रन्थों के मौलिक भाग (क) अपर' कहा जा चुका है कि विल्सन ने दुर्बल प्राधार पर मानविकाग्निमित्र को कालिदास की रचना मानने में सन्देह प्रकट किया था, परन्तु वास्तव में यह कालिदास की ही रचना है। शेष दोनों नाटक सर्व सम्मति से उनकी ही कृति माने जाते हैं। (0) ऋतुसहार कालिदास कृत है या नहीं, इस बारे में बड़ा विवाद पाया जाता है। विरोधी पक्ष कहता है कि-- (१) नाम के अन्दर 'संहार' शब्द 'चक्कर' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और कालिदास ने कुमारसम्भव में इस शब्द का प्रयोग विल्कुल ही भिन्न अर्थ में किया है, यथा--- क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति । (२) यह काव्य ग्रीष्म ऋत के विशद वर्णन से प्रारम्भ होकर वसन्ता देखिये खण्ड २० का (1)। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 能 संस्कृत-साहित्य का इतिहास 협 के चोथा वर्णन के साथ समाप्त होता है । इससे फल कक्ष अथवा अनुपावशून्यता (Disproportion ) सुटित होता है । इम कालिदास से ऐसी आशा नहीं कर सकते । ऋतु वर्शन के उदाहरण ऋतुमंहार से न (३) अक्षकांराचार्यो ने देeevgn से दिये हैं । (४) मल्लिनाथ ने क बिदास के ऋतुसंहार पर नहीं । काव्यमय पर टीका लिखी है, (५) १०वीं शताब्दी से प्रारम्भ करके अनेक विद्वानों ने कालिदास के दूसरे ग्रन्थों पर टीकाए ं लिखी हैं, किन्तु ऋतुसंहार पर 9वीं शताब्दी तक कोई टीका नहीं लिखी गई । समर्थक पक्ष के लोगों का कथन है कि ऋतुसंहार कालिदास की श्रन्थकृतियों की अपेक्षा न्यून अशी का अवश्य है किन्तु यह इसलिए है कि कवि का यह प्रारम्भिक प्रयत्न है। टेनिसन और बेटे तक की वादिम और अन्तिम रचनाओं में ऐसा ही भारी अन्तर्वैषम्य देखा जाता है । इससे इस बात का भी समाधान हो जाता है कि धालंकारिकों ने ऋतु संहार की अपेक्षा रघुवंश में से अद्धरण देना क्यों पसंद किया ? ऋतुसंहार को सरल समझ कर ही मल्लिनाथ या किसी अन्य टीकाकार ने इस पर टीका लिखने की भी श्रावश्यकता नहीं समझी। किसी भी प्राचीन विद्वान् ने इसके कालिदास कृत होने में कभी सन्देह नहीं किया साथ ही यह भी संभव जाना पडता है कि वरभट्ट को इस काव्य का पता था और उसने मन्दसोर प्रशस्ति ( २३० वि० ) इसी के अनुकरण पर लिखी थी । ( ग ) मेघदूत के बारे में पता लगता है कि इसके प्राचीनतम टीकाकार वल्लभदेव को केवल १११ पचों का पता था, किन्तु मल्लिनाथ की टीका में ११८ पद्य हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि विशेष करके उत्तारा के कुछ पद्य प्रक्षिप्त है । (घ) रघुवंश के बारे में हिसबैंड (Hillebrandt ) का 'काशिदास ' Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास के नाटकों के सस्कर e कवि पृष्ठ ४२ पर कहना है कि इसके १७ से १३ तक के तीन दाल कृत नहीं हैं। यह ठीक है कि गुणों में ये लग म्यूम श्रेणी के हैं। इनमें न तो काव्यविषयिणी अन्तर्दृष्टि ही पाई जाती हैं, और न ही वह तीव्र भावोष्मा, जो कालिदास में पर्याप्त देखी जाती है, किन्तु इससे हम यह परिणाम नहीं निकाल सकते कि ये कालिदास कृत नहीं हैं। किसी अन्य विद्वान ने इन सर्गों के प्रक्षिप्त होने की शंका नहीं की । अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि इन सर्गों में कालिदास की उत्कृष्ट काव्य-शक्ति का चमत्कार देखने को नहीं मिलता । (ङ) अब कुमारसम्भव को लेते हैं । सवें से १७ वें तक के सगं निश्चयः ही बाद में जोड़े गए हैं। मल्लिनाथ की टीका केवल वें के अन्त तक मिलती है । श्रालंकारिकों ने भी पहले ही श्राठ' सर्गों में से उदाहरण दिए हैं। शैली, वाक्य विन्यास और कथा -निर्माण-कौशल के श्रभयन्तरिक प्रमाणों से भी अन्त के इन सर्गो का प्रसित होना एक दम सिद्ध होता है । इनमें कुछ ऐसे वाक्य खण्ड बार बार आए हैं जो कालिदास की शैली के विरुद्ध हैं । पूर्ति के लिए नूनम् खलु, सद्यः, अलम् इत्यादि व्यर्थ के शब्द भरे गए हैं । कई स्थलों पर प्रथम और तृतीय चरण के अन्त में यति का भी श्रभाव है। अव्ययीभाव समासों और कर्मणि प्रयोग आमनेपद में जिद के प्रयोगों का आधिक्य है । समास के अन्त में 'अन्त' ( यथा समासान्त) पद का प्रयोग लेखक को बढा प्यारा लगता है । इस 'अन्त' की तुलना मराठी के अधिकरण कारक की 'श्रांत' विभक्ति से की जा सकती है | इसी आधार पर जैकोबी का विचार है कि कदाचित् इन सर्मो का रचयिता कोई महाराष्ट्रीय होगा । (२२) नाटकों के नाना संस्करण कालिदास के अधिक सर्व-प्रिय नाटकों के नाना संस्करणों का १ इसके विपरीत हम देखते हैं कि आलंकारिकों ने रघुवंश के सन सगों में से उदाहरण दिए हैं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० संस्कृत-साहित्य का इतिहास मिलना स्वाभाविक ही है। मालविकाग्निमित्र का चक एक ही संस्क. रण मिलता ना रहा है. किन्तु साक्षिदर्पण में एक लस्या प्रकरण इस में से उद्धत किया गया है जो बसमान संस्करण के प्रकरण से पूरा पूरा नहीं मिलता। इसले अनुमान होता है कि इसका भी कोई दूसरा संस्करह रहा होगा । वत्त मान मालविकाग्निमित्र का प्रकरण साहित्यदर्पण में शुद्ध त प्रकरण का समुपत्र हिल रूप है। चिक्रमोर्वशीय दो संस्करणों में चला आ रहा है, (१) स्तरीय (बंगाली और देवनागरी लिपि में सुरक्षित) शव (२) दक्षियोंय (दक्षिा भारत की भाषा की लिपियों में सुरक्षित)। पहले पर रंगनाथ : १६५६ई.) ने और दूसरे पर कटपम (३४०० १०) ने टोका रखी है ! उत्तरीय संस्करण का चौथा अझ बहुत उप क्षित है। इसमें अपनश के अनेक ऐये पद्य हैं जिनक गीत-स्वर भी साथ ही निर्देश कर दिए गए हैं। नायक, नाट्य-शास्त्र के विरुद्ध, अपन श में गाता है, परन्तु इस नियमोल्लंघन का समाधान इस प्राधार पर किया जाता है कि नायक उन्मत्त है। यह विश्वास नहीं होता कि कालिदास के ये पछ श्रपत्र'श में लिखे होंगे। इस अंज' की अनुकृति पर लिखे अनेक सन्दर्भो में से किसी में भी अपभ्रंश का कोई पद्य नहीं पाया जाता ! इसके अतिरिक्त कालिदास के काल में ऐसी अपनश दोषियों के होने में भी सन्देश किया जाता है। उत्तरीय संस्करण में नाटक को 'नाटक' का और दक्षिसीय में नाटक का नाम दिया गया है। अभिज्ञान शकुन्तला के चार संस्करण उपलब्ध हैं. बंगाजी, देवनागरी, काश्मीरी और दक्षिण भारतीय, पहले दो विशेष महत्व के १ देखिये- भवभूति के मालतीमाधव का नवम अंक, राजशेखर के बालरामायण का पंचम अंक, जयदेव के प्रसन्नराघव का षष्ट अंक और महानाटक का चतुर्थ अक । २ काश्मीरी तो बंगाली और देवनागरी का सम्मिश्रण है, तथा दक्षिणभारतीय देवनागरी से बहुत ज्यादा मिलता जलता है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास का काल है। बाली संस्करण में २२१ श्लोक हैं और शंकर एवं चन्द्रशेखर इल पर टीका लिखने वाले हैं। देवनागरी संस्करण में १६४ पद्य है और इस पर राषव भट्ट की टीका मिलती है। यह बताना यद्यपि कठिन है कि इन दोनों में में कौन-सा संस्करण अधिक अच्छा है. तथापि प्रमाण वृहतर संस्करण के पक्ष में अधिक झकता है। ईसा की ७वीं शताब्दी में हर्ष ने बगाली सस्करण का अनुकरण किया था; क्योंकि रमाबली का बह दृश्य जिसमें नाविका सागरिका जाना है, कापस श्राती है, छु मकर राजा की बातें सुनती है और उसके सामने प्रकट होती है, वृक्षन्तर सस्करण के एक ऐसे ही दृश्य के लाभग पूरे प्रकरण पर लिखा गया है। दूसरी तरफ देवनागरी संस्करण अपूर्ण है। लम्भवतया बन अनि के लिये किया हुश्रा वृहत्तर संस्करण का संक्षिप्त रूप है। इशो 'द पर हो रहा है। कह कर बाजा शकुन्तला को रोकता है, इतने में 'श.म हो गई है। कद्वता दुई गौरमी आ जाती है। वृहत्तर संस्करण कादिप सा ऐसा दायात दोष नहीं पाया जाता है । इसई लिना बंगाली संस्करण को प्राकृत मानिस अधिक शुद्ध है। यह बात भी बात कुछ ठीक है कि राजशेखर को रंगाखी संस्करण का पता था, विसी अन्य का नहीं । देवनागरी संस्करण के प्राचीन होने में बैदर {Weber) की दी हुई युक्तियां संशयापहारिणी नहीं है। (२३) कालिदास का काल दुर्भाग्य की बात है कि भारत के सर्वश्रेष्ठ कवि के काम के बारे में कोई निर्णायक प्रभाग नहीं मिलता । कानको अवरसीमा Lower Limit का निश्चय तीन बातों से होता है---(१)शक सम्बत् ५५६ (६३१ ई.)का ऐडोल का शिला-लेख जिसमें कालिदास की कीर्ति का उल्लेख है, (२)बाण ६२०६०)के हर्ष चरित्र की भूमिका जिसमें उसने कालिदास की मधुरोहियों की प्रशंसा की है, और (३) सुबन्धु का एक परोक्ष संकेत । १ बोलेनसेन (Bollensen) का भी यही मत है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास इलमा दिगन्तव्यापी यश सनुपार्जित करने के लिए कम से WHORE वर्ष पहले विद्यमान रहा होगा। पर लीमा upper limit की अभिव्यक्ति मालविकाग्निमित्र (लगभग ई० पू० १२५) है जो शुगवश का प्रवर्तक था। इन दोनों सीमाओं के बीच, भिन्न भिन्न विद्वान् .. कालिदास का भिन्न भिन्न काला निश्चित करते हैं। (1) ई. पू. प्रथम शताब्दी का अनुश्रु सवाद । जनश ति के छानुसार कालिदास विक्रमादित्य शकारि की सभा के. नवरत्नों में से एक था । यह विक्रमादित्य भी वही विक्रमादित्य कहे जाते हैं, जिन्होंने शकविजय के उपलक्ष्य में १७ ई० पू० में अपना सम्वत् प्रवर्तित किया था। कालिदास के विक्रमादित्य-पाबित होने की सूचना विक्रमोर्वशीय नाटक के नाम से भी होती है इस नाम में उसने द्वन्द्वममास के अन्त में लगने वाले 'ईय' प्रत्यय के नियम का उत्खनन केवल अपने प्राश्रयदाता के नाम को अमर बनाने के लिए किया है। इल बाद का समर्थन वक्ष्यमाण युक्तियों से होता है: (क) मालविकाग्निमिन की कथा से प्रतीत होता है कि कवि को शुङ्ग वंश के इतिहास का, जो पुराणों तक में नहीं मिलता है, खूब परिच शा। नाटक की बात' अर्थात् पुष्यमित्र का सेनापति होना, पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र का यवनों को सिन्धु के तट पर परास्त करना, पुष्यमित्र का अश्वमेध यज्ञ करना ऐतिहासिक घटनाएं हैं। कालिदास को यह सारा पता स्वयं शुङ्गों से बगा होगा। इसके अतिरिक्त, नाट्यशास्त्र के अनुसार कथावस्तु तथा नायक सुप्रसिद्ध होने चाहिएं । यदि कालिदास गुप्त-काल में जीवित होता तो उसके समय अग्निमित्र का यश मन्द हो चुका होने के कारण उसे नायक बनाने का बात सन्देहपूर्ण हो जाती है।। (ख) मोटा के एक मुद्रा-चिन्न में एक राजा रथ में बैठकर हरिश का पाखेट करता हुभा दिखाया गया है । यह रश्य शकुन्तला नाटक प्रथम अंक के दृश्य से बहुत मिलता है। इस दृश्य के समान सम्पूर्ण Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ Aw कालिदास का काल-प्रथम शताब्दः (ई०पू०) ११३ सस्कृत-साहित्य में कोई दूसरा दृश्य नहीं है । यह मुद्रा-चिन्न शुङ्ग-सानाज' की सीमा के अन्तर्गत प्राप्त हुआ था । अत: कालिदास शङ्ग वंश के मन्त ( अर्थात् २५ ई० पू०) ले पहले ही जीवित रहा होगा। (ग) कालिदास की शैको कृत्रिमता से मुक्त है। यह महामाय से बहुत मिलती जुलती है। अतः कालिदास का काई श्रम सम्पन एवं कृत्रिम शेती उत्तम मादर्शभूत नासिक और गिरनार के शिलालेखों के काल मे बहुत पहरे होना चाहिए। (ब) कुछ शब्दों के इतिहास से ऐसा ज्ञात होता है कि संस्कृत कालिदास के काल के शिक्षितों की बोल चाल की भाषा थी । उदाहरणार्थ, परसेडी और पेनव शब्द का प्रयोग अमरकोष में दिए अर्थ से बिल्कुल भिन्न अर्थ में हुआ है। (क) कुछ वैहिक शब्दों के व्यवहार से ऐसा प्रतीत होता है कि वह बादिको अंशय साहित्य के सन्धि काल में हुआ, और यह हाल ई० पू० ले इसवी सन के प्रारम्स तक माना जाता है। इसदी बन्द के प्रारम्भिक काल के लेखक तक भी अपनी रचनाओं में किसी वैदिक शब्द का प्रयोग नहीं करते। (च) कालिदास ने परशुराम को केवल ऋषि माना है, विष्णु का अवतार नहीं। परशुराम को अवतार मानना पश्चात् में प्रारम्भ हुना। ( () =াৱিন্তু স্ত্রী স্বাস্থ ক লাক সম্বল ঈ সুর স্ত্রী है कि उन दोनों के लेख परस्पर निरपेक्षा नहीं है बहुत ही कम विद्वान् इसे अस्वीकार करने कि अश्वघोष कालिदास की अपेक्षा अधिक कृत्रिम । अश्वघोष प्राय ध्वनि के लिये अर्थ की उपेक्षा कर देता है। काव्य शैली का इतिहास प्रायः उसकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई कृत्रिमता का इतिहास है। ऐसी अवस्था में कालिदास को अश्वघोष (ईसा की प्रथम शताब्दी) से पहले रखना ही स्वामाविक होगा । यद्यपि दूसरे भी प्राधार है, तयापि यही अधिक न्यायपूर्ण प्रतीत होता है कि बौद कवि १ खण्ड०२८ और है। + - - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ संस्कृत साहित्य का इतहास T र में कालिश के ग्रन्थों में से दृश्यों का अनुकरण किया हो। यह विश्वास कम होता है कि संस्कृत साहित्य के सर्वतोमुखीजावान् सर्वश्र ेष्ठ कवि ने अश्वघोष के बुद्धचरित्र की नकल की दो और सावन सुख में, एक ही नहीं, दोनों महाकाव्यों में चुराए हुए मान से दूकान विभूषित की हो । (अ) हाल ( ईसा की प्रथम शताब्दी ) की सतसई में एक रथ में महाराज विक्रमादित्य की दानस्तुति आई है। ६) बौद्धधर्म - परामर्शी स्थलों तथा शकुन्तला में आए बौद्ध धर्म सम्बन्धो राज-संरक्षणों की बातों से मालूम होता है कि कालिदास ईसवी पन् के प्रारम्भ में कुछ पूर्व हुआ होगा । यह वह काल था जिस तक राजा लोग बौद्धधर्म का संरक्षण करते आ रहे थे । 'प्रवर्ततां प्रकृति द्विताय पार्थिवः सरस्वती श्रुतिमतां महीयताम्' की प्रार्थना उसके व्यथित हृदय सेड निकली होगी । किन्तु क बाद त्रुटियों से बिल्कुल शून्य नहीं है । (क) इसका कोई प्राण नहीं मिलता कि ई० पू० की प्रथम शताब्दी में विक्रमादित्य नामक किसी राजा ने ( चाहे दाल की सतसई में आया हुआ विक्रमादित्य सम्बन्धी उल्लेन सत्य ही हो ) शकों को परास्त किया हो । (ख) बहुत सम्भव है कि विक्रमादित्य, जिसके साथ errerana रूढ़ि के अनुसार कालिदास का नाम जोड़ा जाता है, कोई उपाधि मात्र हो, और व्यकिवाचक संज्ञा न हो । (ग) इसका कोई प्रमाण नहीं कि २७ ई० पू० में प्रवर्तित सम्वत् विक्रम सम्बत् ही था । लेखों के साक्ष्य के आधार पर हम इतना ही जानते हैं कि ५७ ई० पू० में प्रथतित सम्वत् कः सौ तक कृत सम्वत् या मालव सम्बल के नाम से प्रचलित रहा । बहुत देर के बाद ( ०० ० के लगभग ) यह सम्बत् विक्रम सम्वत् से प्रसिद्ध हुआ । (घ) नवरत्नों में कालिदास के नाम के साथ अमरसिह और वराह Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी शताब्दी का वाद ११५ मिहिर के भी नाम लिए जाते हैं; किन्तु अन्य स्वतन्त्र प्रमाणों से पता जगता है कि ये दोनों (२) छठी शताब्दी का वाद । (क) फगुसन ( Fergusson ) का विचार या कि विक्रमादित्य नामक किसी राजा ने १४४ ई० में हगों को परास्त किया था। अपनी विजय की स्मृति में उसने विक्रम सम्वत् की नींव डाली और अपने सम्वत् को प्राचीनता का महत्व देने के लिए इसे ६ शताब्दी पूर्व से प्रारम्भ किया । प्रो. मैक्समूलर के पुनरुज्जीवन वाद ने, जिसके अनुसार छ: सौ वर्ष तक सोने के बाद ईसा की शंचवीं शताब्दी में संस्कृत का पुनर्जागरण हुश्रा, इस बाद को कुछ महत्व दे दिया। किन्तु शिलालेख-लन्ध प्रमाण ले बनलाया कि न तो समलम्लर का वाद समभ्युपात हो सकता है और न फासन की, स्यामि १७ ई० ५० का सम्दत् कम स्ने कस एक शताब्दी पहले कृत या मालक सम्वत् के नाम से शिलालेखों में ज्ञात था। (ख) यथाशि फगुन का वाद उपेक्षित हो चुका था, तथापि कुछ बिहान् कतिपय स्वतन्त्र प्रमाणों के आधार पर कालिदास का काल छठी शताब्दी ही मानते रहे । डा. हानले (Hoernle) के मत से कालिदास महाराज यशोवर्मा (ई० को छटी शताब्दी) का माश्रित था। इस विचार का प्राधार मुख्यतः रघुवंशगत दिग्विजय का वर्णन और हूणों का खास देश (कश्मीर में रहना बताना है जहां केसर ३ जगत् के इतिहास में इस प्रकार के सम्वत् के प्रारम्भ होने का कोई दष्टांत नहीं मिलता, तो भी यह काल्पनिक वाद कुछ काल तक प्रचलित रहता रहा। २ बर्नल' प्राव रायल एशियाटिक सोसायटी (1६०६) ३ केसर का नाम मात्र सुनकर किसी ने कालिदास (कालि के दास) को काश्मीर निवासी मातगुप्त (माता से रक्षित) मान लिया है ! शायद इसका कारण नाम के अर्थ का साम्य है। पर इस विचार में कोई प्रमाण नहीं मिलता और इसके समर्थक भी नहीं हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ सस्कव-साहित्य का इतिहास पैदा होती है इस विचार का समर्थन कोई बहान् नहीं रखा यह विधार मानीव पर खड़ा मालूम होता है। ६३) पञ्चम शताब्दी वाला बाद । (क) कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीया विक्रमादित्य कालिदास का श्राश्रयदाता था। (ख) मेघदूत में, रघुवंशस्थ दिजन एवं राम के लंका से लौटने में कालिदास ने जो भोगोलिक परिस्थिति प्रकट की है वह गुपक्षकाल के भारत को सूचित करता है । (ग) रखु की विजय का या समुगुप्त की दिग्विजय से आया होगा जिलका मम भी प्रायः यही है। (4) कदाचित् कुमारसम्भव कुमारगुल के जन्म की ओर संकेत करता हो। (ब) मुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया था। मालविकाग्निमित्र में जो अश्वमेव वर्णित है वह कदाचित् उसी की ओर संकेत हो। (च) इस बात की पुष्टि वम महि (४७३ ई०) रचित कुमारगुप्त के मन्दसौर के शिलालेख से भा होती है। इस शिलालेख के क पद्य कालिदास के रघवंश और मेघदूत के पचों का स्मरण करते हैं। उदाहरणार्थ चलस्पताका मजलासनाथाम्यत्यर्थयुकान्यधिकोनतान्ति । शदिलाताचित्रलिताम्रकूटतुल्योपमानानि गृहाणि च ।। ফানুজ মিসানালি ব্যানারি তুলনা सवेदिकानि । गान्धर्वशब्दसुखरामिण निविष्टचित्रकर्माथि बोलकदलीवनशो मितानि । वरसमाद्रि के यह पथ मेघदूतस्थ अधोलिखित पद्य का पढ़ान्तर करणमान है Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शताब्दी वाला वाद विध स्वन्तं चलितबनिता लेन्द्र चापं सचिनाः कोसाय महतमुरजा: जिग्घासीरघोषन् ! अन्तस्तोय मणिमय भुवस्तुगम जिद्दामा प्रासादाम तुजयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषः ।। (क) दिग्विजय में पारसको और हणों का निवास भारत की उत्तर-पश्चिमीय सीमा पर बताया गया है, यह बात पंजाब तक को सम्मिलित करके हम उत्तर भारत के ऊपर शासन करने वाले गुप्त बाजाओं के समय के बाद संभव नहीं हो सकी होगी। (ज) मल्लिनाथ की टीका के आधार पर यह माना जाता है कि कालिदास ने मेघदूत में दिनाग और निचुल की ओर संकेत किया है। मल्लिनाथ का काल कालिदास से बहुत पश्चात है, अतः उसका कथन पूर्ण विश्वसनीय नहीं है। किसी प्राचीन लेखक के लेख में मल्लिनाथ की बात का बीज नहीं पाया जाता। इसके अतिरिक्त, श्लेष कालिदास की शैली के विरुद्ध है। यह भी सम्भव नहीं है कि कोई ज्याक श्रादरसूचक बहुवचन में अपने शत्र के नाम की ओर संकेत करें जैसा कि कालिदास के पन्ध में बताया जाता है । (देखिये, दिनागानां पथि परिहरन् स्थूलहस्तावलेपान्)। और यदि इस संकेत को सत्य मान मी, तो भी इसकी कालम की दृष्टि से इस वाद से मुठभेड़ नहीं होती । दिङलाग के गुरु वसुबन्धु का अन्ध ४०४ ई० में चीनी भाषा में अनूदित हो चुका था और चन्द्रगुप्त द्वितीय ४३३ ई० तक जीवित रहा। (स) कालिदास ने माना है कि पथिवी की छाया पाने के कारण चन्द्र ग्रहण होता है। इसी बात को लेकर कहा जाता है कि कालिदास ने यह विचार आर्यभट्ट ( ४६ ई.) से लिया था । चन्द्रमा के कला को छोड़कर, यह बात किसी अन्य दाद की ओर सङ्केत करती है, इसमें सन्देश है और यदि कालिदास के चन्द्र ग्रहण सम्बन्धी उक्त विचार को यथार्थ मी मान से तो भी कहा जा सकता है कि उसने यह विचार Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास ११८ रोमक सिद्धन्त ( ४०० ई०) से किया होना ? (ञ) कालिदास ने ज्योतिष शास्त्र का 'मित्र' शब्द प्रयुक्त किया है | ह शब्द यूनानी भाषा का प्रतीत होता है। प्रो की केम सार यह शब्द कालिदाल का जो बात सूचित करता है यह ३२० ई० से पहले नहीं पड़ सकता । (2) कहा गया है कि काचिदाल की प्राकृत भाषाएं अश्वघोष की प्राकृतों से पुरानी नहीं हैं, परन्तु यह भाषा-तुमा यथार्थ नहीं हो सकती, कारण कि अश्ववोष के ग्रन्थ मध्य एशिया में और काजिदास के भारत में उपलब्ध हुए हैं । 1 इस प्रकार हम देखते हैं कि काfate का are at iters a अर्थात ई० पू० प्रथम शताब्दी और ४०० हूँ० के मध्य पड़ता "जब तक ज्ञात काल शिलालेखों के साथ तथा संस्कृत के प्राचीनतम narrat में दिए नियमों के साथ मिलाकर उसके प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा, शैली और साहित्यिक ( अलंकारिक ) परिभाषाओं का गहरा अनुसन्धान न हो आए तब तक उसके काल के प्रश्न का निश्चित सम्भव नहीं है ।" (२४) कालिदास के विचार कालिदास पूर्णता को प्राप्त ब्राह्मण (वैदिक) धर्म के सिद्धान्तों का सच्चा प्रतिनिधि है । वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रइन चार वर्णों और इनके शास्त्र का मानने वाला है । ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ्य और संन्यास इन चारों श्राश्रमों एवं इनके शास्त्र विहित कर्तव्यों का पक्षपाती है । इस अनुमान का समर्थन रघुवंश की प्रारम्भिक पतियों से ही हो जाता है--- शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । arat मुनिवृसोni योगेनान्ते सनुत्यजाम् ॥ १ मैक्डानल, संस्कृत साहित्य का इतिहास ( इंग्लिश ) पृष्ठ ३२५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदामक विचार (बच रन में वे विद्याभ्यास करते थे, युवावस्था में विषयोपभोग। बुढापे में ये मुनियों जैसा जीवन प्रतीत करते थे और अन्त में योगद्वारा शरीष त्यागते थे) जीवन के चार फजो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में उस का पूर्ण विश्वास है। काम और अर्थ की प्राप्ति मोक्षगाप्ति के उद्देश्य से धर्म के अनुसार होनी चाहिये । यह सिद्धान्त उसने अपने माना अन्थो में भल्ली माँति व्यक्त किया है।---जच तक दुष्यन्त को यह निश्चय नहीं हो जाता कि शकुन्तला क्षत्रिय-कन्या है अतएव राजा से, चाही जाने के योग्य है.. तब तक यह उसके लिये इच्छा प्रकट नहीं करता। फिर, वह दरबार में शकुन्तला को ग्रहण करने से केवल इसलिये निषत्र कर देता है कि वह इसकी परिणीता पत्नी नहीं है। प्रेम के विषय में कालिदास का मत है कि तपस्या से प्रेम निखरमा है। प्रेमियों की दी तपस्या सेम उज्ज्वल होकर स्थायी बन जाता है। उसके रूपकों में शकुन्तला एवं अन्य नायिकाएँ वोर लश सहन करने के बाद ही पतियों के साथ पुन: स्थिर संयोग प्राप्त कर सकी हैं। यही दशा दुष्यन्ताहि नायलो की भी है। तप पारस्परिक और समान रूप से उग्र है। उसके माध्यों में भी यही बात पाई जाती है । इस प्रसङ्ग में कुमारसम्भव के पञ्चम सर्म में पार्वती के प्रात शिद की उक्ति लोलो पाने ठीक है। अब प्रमत्यवनसाङ्गि ! तवास्मि दासः श्रीशस्तपोभिः ......... ..... । शिव की आकृष्ट करने वाला पार्वती का अलौकिक सौन्दर्य नही. १ सस्कृत साहित्य के इतिहास में इंग्लिश (प०६७) कीथ कहता है-कालिदास 'उन्हें दिलीप के पुत्रों में मूने देखता है । कदाचित् दिलीप से कीथ का तात्पर्य दशरथ से है, क्योंकि दिलीप के तो केवल एक पुत्र-रघु था। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सस्कृत साहित्य का इतिहास ऐसा मालूम होता है कि कालिदास , दिर और महेश तीनों देवों की पारमार्थिक एकता का मानने वाला है। कुमारसम के दूसरे वर्ग में उसने ब्रह्मा को समुत्ति की है, रघुवंश में विष्णु को परमेश्वर माना और दूसरे ग्रन्थों में शिव को महादेव माना है। सच तो यह कि वह काश्मर शंध सम्प्रदाय का अनुयायी था। 'विस्मरमा के बाद 'प्रस्थाभिज्ञान' होता है। यह सिद्धान्त छलके रूपको सें, विशेषत: अभिज्ञान शाकुन्तल में सम्यक उन्नीत हुआ है। जगत्-प्रकृति के बारे में माल्य और योगदर्शन के सिद्धान्तो का मानने वाला है। यह बात रघुवंश से बहुत अच्छी बाद प्रसीस होती है। बुढ़ापे में रघुवंशी जंगल में वर्षों तप करते हैं और अन्त में योगद्वारा' शशर छोड़ देते हैं। यह पुनर्जन्म में, जो हिन्दू धर्म के सिद्धातो मे सर से मुख्य है, विश्वास रखता है । इस विश्वास को उसने खष खोलकर दिखलाया है:--अगले जन्म में इन्दुमकी से मिलने की प्राशा से अज अकाल मृत्यु का अभिनन्दन करता है, अागामी जीवन में अपने पति से पुनः योग प्राप्त करने के लिए रति काम के साथ चिता पर अपने आप को जलाने को अद्यत है, और सीता इसीलिए कठोर तप करती है कि भावी जीवन में वह शम से पुन. मिल सके। (२५) कालिदास की शैली कालिदास वैदर्भी रीति का सर्वोत्तम प्रादर्श है। संस्कृत साहित्य का बस एक कराड से सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। ऐहोल के शिलालेख (६३४ ई.) में उसका यश गाया गया है और बारण अपने इर्षचरित की भूमिका में उसकी स्तुति करता हुशालिखता है:-- १ जीवन का अन्तिम लक्ष्य सर्वोपरि शक्ति के साथ ऐस्य स्थापित करना है; वह शक्ति हो ब्रह्म है जो जगत् की धारिणी है। यह एकता भी योगाभ्यास से ही सम्भव है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास की शैली निर्गतासुन वा कस्य कालिदासस्य सूकिषु प्रोतिर्मधुरसान्द्रालु मारीचि जायते ।। वस्तुतः भारतीयों की सम्मति में कालिदास अतुपम कशि है :पुरा कवीनां नायनाप्रसङ्ग कलिष्ठकाधिष्ठित कालिदासा। प्रथापि तत्तुल्यकामाबाद नामिका सार्थवती बभूव ॥ जर्मन महाकवि गेटे (Goethe) ने अभिज्ञान शाकुन्तल का सर विलियम जोन्स कृत (१७८६ ई.), अनुवाद ही पढ़कर कहा था:---- क्या तू उदीयमान वर्ष के पुए और क्षीयमाण वर्ष के फन देखना चाहता है? क्या वह सब देखना चाहता है जिससे आमा मन्त्रमुग्ध मोद-मग्न, हर्षाप्लादित और परितृप्त हो जाती है? क्या तू घुजोक और पृथ्वीनीक का एक नाम में अनुगह हो जाना पसन्द करेगा? अरे, तब मैं तेरे समक्ष शकुन्तला को प्रस्तुत करता हूँ और बम बम कुछ एक दम इस ही में प्रागया । इनके काव्य की प्रथम श्रेणी की विशेषता व्यकता है (मिजाइये, कास्यस्यात्मा स्वनि:)! वह उस सुनहरी पद्धति पर चला है जो पुराणों की घोर प्रसाद-गुण-पूर्णता और अधीन कवियों की सीमा से सदका कृत्रिमता के मध्य होकर गई है। कभी कभी हमें उस में मास की सी प्रसाद गह-पूर्णता देखने को मिलती है, किन्तु इसमें भी एक अनोखापन भौह लालित्य है। कालिदास के अधोलिखित पछ की तुखना भास ने उस पश्य से की जा सकती है ओ वल्लभदेवकृत सुभाषितावली में १३१३ क्रमांच पर प्राया है गृहिणी सचिव सखी विधः प्रियशिष्या चलित कलाविौ। करुणाविमुखेन मृत्युना हरता त्वां वदः कि म मे हतन् ।। मास कहता है भार्या मन्त्रिवरः सखा परिजनः सैका बहुत्वं गता। कालिदास में कथानक का विकास करने का असाधारण कौशल Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ संस्कृत साहित्य का इतिहास और चरित्र-चिव को भुत शक्ति है। शेक्सपियर के समान उसके प्रत्येक पात्र में अपना स्वतः व्यक्तित्व है; उदाहणार्थ; श्रभिज्ञान शाकुन्तल में तीन ऋषि आते हैं—कराव, दुर्वासा और मारीच | केवल एक ही वाक्य दुर्वासा के क्रोधी स्वभाव का, या अन्य ऋषियों की भिन्न २ प्रकार को प्रकृति का चित्र खींच देता ह । एवं शकुन्तला की दो सखियों अनसूया और प्रियम्वदा में से अनसूया गम्भीर प्रकृति और प्रियम्वदा विनोदप्रिय है । करक के दोनों शिष्यों में व्यक्तित्व के लक्ष्य Trenष्ट हैं। कालिदास की भाषा भाव और पात्र के बिल्कुल अनुरू है: - गृह-पुरोहित अपने वार्त्तालाप में दार्शनिक सूत्रों का प्रयोग करता है और feat erate प्राकृत हो में बोलती है। , 9 कालिदास की अधिक प्रसिद्धि उपमात्रां' के लिये है जो योग्य, Hfree और मर्मस्पर्शिनी हैं। वे भिन्न र शास्त्रों में से संकलित 7 यहां तक कि व्याकरण और अलंकार शास्त्र को भी नहीं छोड़ा गया | न केवल संकेत मात्र हो, अपितु श्रौपम्य पूर्णता को पहुंचाया गया है । वह स्वर्थ के समान उसका भी प्रकृति के साथ तादात्म्य है । उसका प्रकृति पर्यवेक्षण उत्कृष्ट कोटि का है; वह जद पर्वतों पवन और नदियों तक को अपनी बात सुना सकता है । उसके वृक्षों, पौधों, पशुओं एवं पक्षियों में भी मानव हृदय के भाव -- हर्ष, शोक, ध्यान और चिन्ता है। उसके इन विशिष्ट गुण का प्रतिक्रमण तो क्या कोई तुलना भी नहीं कर सकता । reer के अतिरिक्त उसने उत्प्रेक्षा, अर्थान्तर न्यास और यमकादि का भी प्रयोग पूर्ण सफलता से किया है। रघुवंश के नवम सर्ग में उसने देखिये, उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम् । दण्डिनः पदलालित्य माघे सन्ति त्रयोगुणाः ॥ २ उसके शब्दालंकारो और अथालंकारो के प्रयोग में बहुत सुन्दर सम-तुलन है। अर्थ की बलि देकर शब्द का चमत्कार उत्पन्न करने की र उसकी अभिरुचि नहीं है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास की शैली १२३ अनुवास के विभिन्न भेदों और नाना छन्दों के प्रयोग में पूर्ण कौशल दिखाया है। किन्तु वह श्लेष का रसिक नहीं था । ・ उपके अन्थों ने अन्य कवियों के लिये आदर्श का काम किया है । मेघदूत के अनुकरणों का सरलेख ऊपर हो चुका है । हब के दोनों aree मालविकाग्निमित्र के अनुकरण पर लिखे गए हैं । मालतीमात्र में भवभूति ने उसके अच्वलन का आश्रय लिया है। दण्ड का पद्य 'मलिनं हिमांशीचा तरी तनोति' कालिदास से ही उधार लिया प्रतीत होता है । वामन ( वीं शताब्दी) ने कालिदास के उदाहरण लिए हैं और प्रानन्दवर्धनाचार्य के बाद से कालिदास के पठन-पाठन का पर्याप्त प्रचार रहा है और उसके अन्थों पर टीकाएं लिखी गई हैं। कालिदास कुन्दों के प्रयोग में बड़ा निपुण है । मेघदूत में उसने केवल मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग किया हैं । उसके अधिक प्रयुक्त छन्द इन्द्रवज्रा [ कुमारसम्भव में सर्ग १, ३, और ७: रघुवंश में वर्ग २, २, ७, १३, १४, १६ और १७, ] और श्लोक | कुमारसम्भव में सर्ग २ और ६, रघुवंश में सर्ग १, ४, १०, १२, १२, और १६ ] हैं । कुमारसम्भव की अपेक्षा रघुवंश में नाना प्रकार के छन्द अधिक प्रयुक्त हुए हैं । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्याय ७ अश्वत्रोष (२६) अश्वघोष का परिचय अश्वघोष भी संस्कृत के बडे बडे कवियों में से एक है। यह महाकाव्य, नाटक और गीति-कानों का निर्माता है। यह बौद्ध भिक्षु था। जनश्रुति के अनुसार यह कनिष्क का समागमशिक था । सिब्बत, चीन और मध्य एशिया में फैलने वाले महायान सम्प्रदाय का प्रवर्तक नहीं, तो यह बहुत अक्षा आचार्य अवश्य था। श्रश्वघोष के एक जीवन चरित्र के अनुसार अइ मध्य भारत का निवासी था और पूज्य प का १ संयुक्तरत्नपिटक और धर्मपिटकनिदान, जिनका अनुवाद चीनी में ४७२ ई० मे हुआ, बताते हैं कि अश्वघोष कनिष्क का गुरु था। २ चीनी में इसका अनुवाद यात्रो-जिन (Yao-Tzine) (३८४.४५७ ई.) वंश के राज्यकाल में कुमारस्य ( कुमारशील १) ने किया उस अनुवाद से एम वैसिलीफ (M, Vassilief) ने संक्षिप्त जीवन तैयार किया, उसका अनुवाद मिस ई० लायल ने किया । ३ तिब्बती बुद्धचरित की समाप्ति की पंक्तियां कहती हैं कि अश्वघोष साकेत का निवासी था [ इंडियन एंबिक्वेरियन सन् १९०३, पृ० ३५०] । ४ पूर्णयश लिखित जीवन चरित के अनुसार यह पार्श्व के अन्तवासी का शिष्य था। wrapproat-r Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्वधाष की नाट्य कला १२५. P age शिष्य था जिसने अपने स्माट शुद्धि- मात्र के बल से बौदधर्म में दीक्षित किया था। एक और जनति कहती है कि इसका भाषण इतना मधुर होता था कि धाई भी चरना छोड़कन इसका भाषण सुनने बगाडे थे। (२७) अश्वघोष की नाट्य-कला ० लडाई को मन्यवाद ई जिलके प्रशनों से हम जानन्द है कि प्रश्वकोष ने कुछ नाटक लिखे थे। मध्य एशिया में ताडपमवाली हस्तलिखित पुस्तकों के हकों में से कोनीन दौर नाटक उपलब्ध हुए हैं उनमें शारिपुत्र प्रकरण (पूराना, शारदवती पुत्र प्रकरण ) भी है। यह नाटक निस्सन्देह अश्वनीष की कृति है। क्योंकि (1; अन्याम्स में सुवर्णाक्षी के पत्र अश्वघोष का नाम दिया है। (२) एक या ज्यों का त्यों बुद्धचरित में से लिया गया है और (३) लेखक ने श्ररने सूत्रालंकार में दो बार हल अन्य का नामोल्लेख किया है । इस नाटक से पता जगता है कि किस प्रकार बुद्ध ने तरुण मोदनात्यायन और शारिपुन को अपने धर्म का विश्वासी बनाया। कहानी बुद्धचरित में वर्णित कहानी से कुछ मिन्न है, क्योंकि ज्यों ही ये शिष्य बुद्ध के पास भाए प्यों हो उसने सीबी इनसे अपनी भविष्यवाणी करदी। मृच्छकरिक और मालसोमाधव के समान यह नाटक मी 'प्रकार है। इसमे नौ अंक हैं। इस नाटक में नाट्यशास्त्र में वर्णित नाटक के नियमों का यथाशक्य पूर्ण पालन किया गया है। नायक भारिपुत्र धीरोदात्त है । बुद्ध और उसके शिष्य संस्कृत बोलते हैं। दिदूध और अन्य हीनपात्र माकृत बोलते हैं। जो ऐसे नायक के साथ भी अश्वकोष ने विदूषक रक्ता इसले अनुमान होता है कि उसके समय से पूर्व ही संस्कृत नाटक का वद स्वरूप निश्चित हो चुका था जो हमें बाद के साहित्य में देखने को मिलता है। भरतवाक्य में 'श्रतः परम्' शब्दों का प्रमोम भी हहे कौशल से कुछ एक विद्वानो का कथन है कि इस नाटक में 'श्रतः परमपि प्रियमस्ति? वाला प्रश्न नहीं पाया है और भरतवाक्य को नायक नहीं Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ संस्कृत साहित्य का इतिहास .. किया गया है। areata franों के अनुसार भिन्न-भिन्न पात्र अपने सामाजिक पद के अनुसार भिन्न भिन्न भाषा बोलते हैं। इस नाटक में तीन प्रकार की प्रा पाई जाती हैं। 'दुष्ट' की माकृत मागधी से, 'गोवन' की माथी से और विदूषक की उक्त दोनो के मिश्र से मिलतो जुदती हैं। शेष दो बौद्ध नाटकों के रचयिता के विषय में हम ठीक-ठीक कुछ नहीं जान सकते, क्योंकि ये खतिरूप में ही मिलते हैं; किन्तु हम उन्हें किसी और कृतिकार की कृति मानने की अपेक्षा अश्वघोष को ही कृति मानने की घोर अधिक केंगे। इनमें से एक रूपकाख्यान के रूप में है और कृष्णमिश्ररचित प्रबोधचन्द्रोदय से मिलता जुलता है जिसमें कुछ भाववाचक संज्ञाओं को व्यक्तिवाचक संज्ञाएं मानकर पात्रों की कल्पना की गई है और वे संस्कृत बोलते हैं । (२८) अश्वघोष के महाकाव्य ܐ [ बुद्धपरित और सौन्दरानन्द ] संस्कृत साहित्य के पुष्पोद्यान में अश्वघोष एक परम लोचनासेचनक कुसुम है। इसके इस यश के विस्तारक इसके अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा बोलता है | इस बात से लूडर्स ने यह परिणाम निकला कि सस्कृत नाटक का अन्त्यां अभी निर्माणावस्था में था । किन्तु यह हेतु वस्तुतः हेत्वाभास है । लूडर्स के ध्यान मे यह बात नहीं आई, कि कवि भरतवाक्य में 'अतः परम्' शब्द रखकर नाटकीय नियमों का यथाशक्ति पूर्णपालन करने का यत्न कर रहा है। इसके अतिरिक्त, बाद की शताब्दियों में भी भरतवाक्य, नायक को छोड़; अन्य श्रद्धय व्यक्तियों द्वारा बोला गया है | उदाहरणार्थ, भट्टनारायणकृत वेणीसंहार में इसका वक्ता कृष्ण और दिङ नाग की कुन्दमाला में इसका बक्ता वाल्मीकि है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वघोष के महाकाव्य इलाके महाकाव्य - बुद्धचरित और सौन्दरानन्द ही अधिक है। बुद्धचरित की शारदालिपि में एक हस्तलिखित प्रति मिलती है जिसमें तेरह वर्ग पूर्ण और चौदहव सग के केवल चार पथ हैं। इस ग्रन्थ का अनुवाद चीनी भाषा में (४१४-४३१ ई० में) हो चुका है और इस्सिङ्ग इसे प्रश्वयोर की रचना बतलाता है। केवल चोली अनुवाद ही नहीं, तितो अनुवाद भी हमें बतलाता है कि असली बुद्धचरित में २७ सर्ग थे। कहानी बुद्ध-निर्वाण तक पूर्ण है। इरिसङ्ग के वन ले मालूम होता है कि ईसा की छटी और सादही शताब्दी में सारे भारतवर्ष में बुद्धचरित के पाठन-पाठन का प्रचार था। १३ वीं शताब्दी में श्रमतानन्द ने विद्यमान १३ सगर्गों में सर्ग प्रार जोड़कर कहानी को बुद्ध के काशी में प्रथमोपदेश तक पहुँचा दिया। बुद्धचरित अत्युत्तम महाकाव्य है। इल में महाकाव्य के सब मुख्य मुख्य उपादानतत्व मौजूद है. इसमें प्रेम-कथा के दृश्य, नीतिशास्त्र लिखान्त और स्वाभामिक घटनाओं का वर्णन भी है। कसनीय कामिनियो की केलियां, गृह पुगेहत का सिद्धार्थ को उपदेश, सिद्धार्थ का सकर-ध्वज के साथ संग्राम, ये सब दृश्य बड़ी विशद और रमणीय शैलीले अङ्कित किए गए हैं। यपि कवि बौद्ध था, तथापि काव्य पौराणिक तथा अन्ध-हिन्दूकथा-प्रन्थीम परामों से पूर्ण है। निदर्शनार्थ, इसमें पाठक इन्द्र, माया, लहसाच इंद्र, पशु, इक्षिवान, वाल्मीकि, कोशिक, सगर, स्कन्द के नाम, मान्धाता, नहुप, पुरुरवा, शिव-पार्वती की कथाहर और अतिथि १ इस बारे में एक कहानी है। कहा जाता है कि कानिक अश्वघोष को पाटलिपुत्र से ले गया था। उसे कनिष्क की प्रायोजित प्रौद्धी की परिषद् का उपप्रधान बनाया गया । फलतः महाविभाषा की रचना हुई जो चीनी भाषा में अब तक विद्यमान है और जिसे बौद्ध दर्शन का विश्वकोष कहा जाता है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ संस्कृत साहित्य का इतिहास सरकार की सनातनी रीखि पायेंगे । उपनिषद, भद्गीस, महाभारत और रामायण के उल्लेख भी देखने को मिलते है। बारी से पिट है कि कवि ने ब्रह्मसम्बन्धी वैदिक गायिका गदरा अध्ययन किया होगा । शहर 1 जैसा ऊपर कहा जा चुका है. बुद्ध की मी अनेक बातें पाई जाती है। ( सर्व ३, ३-१६) जब सिद्धार्थ का जुनून पदजी बार बाज़ार में निकलता है तब स्त्रियां उसे देखने के लिए हाकिमों में इकट्ठी हो जाती हैं, रघुवंश ( सर्ग ७ -१२ ) में भी रघु के नगर प्रवेश के समय ऐसा ही वर्णन है | विचार और वर्णन दोनों पटियों से बुद्धचरित का ( सर्ग १३, ६) काम का सिद्धार्थ पर आक्रमण कुमारसम्भव के ( स २, ६ ) काम के शिव पर किए आक्रमण से मिलता है । ऐसे और भी अनेक दृष्टान्त दिए जा सकते है। इस एक बात और देखते हैं । बुद्धचरित सोती हुई स्त्रियों का वर्णन रामान्य मत ऐसे ही वर्णन से बहुत मिलता-जुलता है । सम्पूर्णकाव्य में वैदर्भी रोति है, अत: 1 में कालिदालीय महाकाव्यों के लिए; बुद्धचरित में १ सच तो यह है कि सभी विद्वानों ने कालिदास और अश्वघोष मे बहुत अधिक समानता होना स्वीकार किया है। किन्तु कौन पहले हुआ, और कौन बाद में, इस बारे में बड़ा मतभेद है । धिष्ण्य (स्थान) निर्वाण श्रादि शब्द एवं कतिपय समास दोनों ने एक जैसे श्रयों में प्रयुक्त किए हैं। यह अधिक सम्भव प्रतीत होता है कि दोनों में तीन शताब्दियों का तो नहीं, एक शताब्दी का अन्तर होगा । कालिदास के विपरीत, अश्वघोष की रचना में वैदिक शब्द नहीं पाए जाते। वह वैदिकलौकिक संस्कृत- सन्धि काल के बाद हुआ। साथ ही ऐसा भी मालूम होता है कि कालिदास की अपेक्षा अश्वघोष अधिक कृत्रिमता-पूर्ण है । अश्वघोष की रचना में प्रायः ध्वनि-सौन्दर्य उत्पन्न करने के लिए श्रर्थ की बलि कर दी गई है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोष के महाकाव्य १२६ में प्राञ्जलता का होना स्वाभाविक है । कालिदास के अन्थों के समान इसमें भी लम्बे लम्बे समास नहीं हैं। भाषा सरब, सुन्दर, मधुर और प्रसाद गुरु-पूर्ण है। Brain में ऐतिहासिक महाकाव्य की पद्धति का अनुसरण करने हुऐ बुद्ध के सौतेले भाई नन्द और सुन्दरी की कथा दी गई है और बतलाया गया है कि बुद्ध ने नन्द को, जो सुम्दरी के प्रेम में डूबा हुआ था, किस प्रकार अपने सम्पदाय का अनुगामी बनाया। इसके बोस के बीस सर्ग सुरक्षित चले आ रहे हैं । यह ग्रन्थ free देह अश्वघोष की ही कृति है, कारण कि:-- (1) सौन्दरानन्द और बुद्धवरित में एक सम्बन्ध देखा जाता है। वे दोनों एक दूसरे की पूर्ति करते हैं । उदाहरण के लिए बुद्धचरित में कपिलवस्तु का वर्णन संतित है और सोन्दरानन्द में विस्तृत बुद्धचरित क बुद्ध के संन्यास का विस्तृत वर्णन है और सौन्दरानन्द में संक्षित । बुद्धचरित में नन्द के बौद्ध होने का वर्णन संक्षिप्त किन्तु सौन्दरानन्द में विस्तृत है। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं । (२) इन दोनों काव्यों में कान्नीय सम्प्रदाय, रामायण, महाभारत, पुराण और भी हिन्दूसिद्धान्तों का उल्लेख एक जैसा पाया जाता है 1 (३) इन दोनों काथों में ऋ आदि अनेक ऋषियों का वर्णन एक क्रम से हुआ है। सौन्दरानन्द में अपने से पहले किसी काव्य की ओर संकेत नहीं पाया जाता, इसी आधार पर प्रो० कीथ ने यह कल्पन कर डाली है कि सौन्दरानन्द अश्वघोष की प्रथम रचना है । परन्तु इसके विपक्ष का प्रमाण अधिक प्रबल है । सूत्रालङ्कार में बुद्धचरित के वो नाम का उल्लेख पाया जाता है, सौन्दरानन्द का नहीं । बुद्धचरित में महायान का एक भी सिद्धान्त उपलब्ध नहीं होता; किन्तु सौन्दरानन्द के अन्तिम भाग में कवि का सहायान के सिद्धान्तों से परिचित होना * १ कीयकृत 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' (इग्लिश) पृष्ठ १७ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० संस्कृत साहित्य का इतिहास ज्ञात होता है । सौन्दरानन्द में कवि दार्शनिक वादों का वर्णन करता है और बड़े कौशल के साथ बौद्ध सिद्धान्तों की शिक्षा देता है। शैली को कृति और ति की इष्टि से सौन्दरानन्द बुद्धचरित से बहुत बढ़ कर है । सौन्दरानन्द की कविता वस्तुतः अनवद्य तथा हृद्य है, और चरित्र केवल पद्यात्मक वर्णन है । सौन्दरानन्द का प्रकाशन प्रथम बार १६३० ई० में हुआ। इसके सम्पादक पं. हरप्रसाद शास्त्री थे जिन्होंने नेपाल से प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर इसका सम्मान किया था इसकी तुलना टेनिस के 'इन मैमोरियम' से की जा सकती है। (२६) अश्वघोष के अन्य ग्रन्थ कुछ और भी ग्रन्थ है जिन्हें अश्वघोष की कृति कहा जाता है । इनसे ज्ञात होता है कि कवि में वस्तुतः बहुमुखी प्रज्ञा थी । (१) सूत्रालङ्कार - इसका उल्लेख ऊपर हो चुका है और इसका पता हमें तिब्बती अनुवाद से लगता है। इसमें कवि ने बौद्धधर्म के प्रचारार्थ एक कहानी के घुमाने फिराने में अपनी योग्यता का प्रदर्शन किया है । (२) महायान श्रद्धोत्पाद - यह बौद्धों की प्रसिद्ध पुस्तक है। इसमें महायान सम्प्रदाय के नाल्यकाल के सिद्धान्तों का निरूपण है ! जनश्रुति के अनुसार यह सन्दर्भ अश्वघोष का लिखा हुआ है । यदि जमश्रति ठीक है तो अश्वघोष एक बहुत बड़ा प्रकृति-विज्ञान - शास्त्री था । (३) वज्रसूचि --- ब्राह्मणों ने बौद्धधर्म का इस लिए भी विरोध किया था कि वे उच्चवणिक ( ब्राह्मण ) होकर अपने से हीन वर्णिक ( क्षत्रिय) का उपदेश क्यों प्रहण करें । इस ग्रन्थ में ब्राह्मणों के चातुर्य सिद्धान्त का खण्डन किया गया है । 6 (४) गण्डिर स्तोत्र गाथा -- अनरुप महत्व का यह एक गीति काव्य है । भिन्न-भिन्न छन्दों में इसमें अनेक सुन्दर पद ( गीत ) हैं जिनसे किसी भी कविता का गौरव बढ़ सकता है। इससे पता चलता है कि Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोष की शैली १३१ कवि संगीत का विशेषज्ञ और छन्दःशास्त्र का विद्वानू था। इस कविता का उद्देश्य बौद्धधर्म का प्रचार है। (३०) अश्वघोष की शैली वैदर्भी रीति का बहुत सुन्दर कवि है । उसकी भाषा सुगम और शुद्ध, शैखो परिष्कृत और विच्छित्तिशाली, तथा शब्दो पत्यास विशद और शोना है। उसके ग्रन्थों का मुख्य लक्ष्य, जैसा कि सौन्दरानन्द को समापक पषियों से प्रतीत होता है, आकर्षक वेष से भूषित करके अपने विद्वान्तो का प्रचार करना है जिससे जोग लत्य का करके निर्वाण प्राप्त कर सकें । इसी लिए हम देखते हैं कि sease दीर्घ समालों का नहीं है और न उसे बडे डोल-डौल वाले शब्द अवघा बनावटीपन ले भरे हुए अर्थों द्वारा पाठक पर प्रभाव Cater it है। यहां तक कि दर्शनों के सूक्ष्म सिद्धान्त भी बड़ी खादी भाषा में व्यक्त किए गए हैं। एक उदाहरण देखिए:-- दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काशिद विदिशं न काञ्चित् स्नेहस्यात् केवल मेति शान्तिम् ॥ तथा कृती निवृतिभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काशिद विदिशं न काञ्चित क्लेशचयात केवलमेवि शान्तिम् ॥ ( सौन्दरानन्द १६, २८-२६ ) The इतना ही नहीं कि यहां भाषा सुबोध है, बल्कि उपमा भी बिल्कुल बरेलू और दिल में उतर जाने वाली है । कुछ विद्वान् समझते हैं कि योग्य रूपमाओं की दृष्टि से कहीं कहीं वह कालिदास से भी आगे बढ़ गया है । इसके समर्थन में निम्नलिखित उदाहरण दिया जाता है. मार्गाचलव्यविकराकुलितेन सिन्धुः शैखाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ ॥ ( कु० सं० १, ८५ ) ( मार्ग में आए पर्वत से सुबध नदी के समान पार्वती न चली न ठहरी) | सोऽनिश्चयानापि ययौ न तस्थौ, तरंस्तरंगेष्वित्र राजहंसः । ( सौन्दरानन्द ४, ४२ ) 用 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ संस्कृत साहित्य का इतिहास (तरंगों में तैरते हुए राजहंस के समान वह अनिश्चय के कारण न गया न ठहरा ) । दूसरे विद्वान् कहते हैं कि रंगों में तैरते हुए इस का निश्चत कहनः सन्देहपूर्ण है, अतः निःसन्देह होकर यह भी नहीं कहा जा सकता कि अश्वघोष की उपमा कालिदास की उस उपमा से उत्कृष्ट है । दिलीप का वर्णन करते हुए कालिदास कहता है - ढोरको हृषस्कन्धः शातर्महाभुजः । ( रघुवंश १, १२ ) नन्द का वर्णन करता हुआ अश्वघोष भी कहता हैदीर्घबाहुर्महाचताः सिंहांसो वृषभेचणः । ( सोन्द्र० २,५८ ) उक्ति में बहुत कुछ साम्य होते हुए भी कोष की उपमा कालिदास की उपमा के समान हृदयग्राहिणा नहीं है | aadiष ने ख की जो उपसा बैल की आंखों से दी है वह पाठक पर अधिक प्रभाव नहीं डाल सकषी । "कालिदास ने यहां दिलीप की प्रांखों की ओर sita aoret देखा ही नहीं, वह तो उसके कधों को सांड की ठाट के तुल्य देख रहा है । बेचारे अश्वघोष ने कुछ भेद रखना चाहा और अपना भरडा स्वयं फोड़ लिया" ( चट्टोपाध्याय ) | अश्वदोष प्रदर्श-अनुराग का चित्र सरल शब्दो में खींच सकता है । देखिए - 9 सां सुन्दरों चेन्न बभेत नन्दः, सा वा निषेव न संनतन्त्रः । इन्द्र' ध्रुवं तद् विकलं न शोभतान्योन्यहीनाविव रात्रिचन्द्र' || ( सौन्द० ४, ७ ) १ यदि नन्द उस सुन्दरी को न प्राप्त करे या वह विनम्र अ -वती उसको प्राप्त न कर सके, तो भम्र उस जोड़े की कुछ शोभा नहीं, जैसे एक दूसरे के बिना रात्रि और चन्द्रमा की [कुछ शोभा नहीं ] | Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वघोष की शैली १३३ * শীলু । যা লক্ষ গীং সাৰ সন্ধান শু स्वेन व रूपेण विभूषिता हि विभूषणानामपि भूषणं ला || (मौन्द० ४, २) अश्वघोष अकृत्रिम और सुबोध यमकों का रसिक है। सुने --- प्रणष्टबस्लामिव वलद्धा नाम् । अथवा उदारसंख्यैः सचिरसंख्यः । अश्वघोष आच्छा वैयाकरण है और कभी कभी वह व्याकरण के अप्रसिद्ध प्रयोगों का भी प्रदर्शन भरता है । निदर्शनार्थ; उसने उपमा के द्योतक के तौर पर 'अ४ि मिपात का प्रयोग किया है। सौन्दरानन्द के दूसरे हाँ में उसने लुङ के प्रयोगों में पाथिहत्य दिखाते हुए "मामि और मी तीनों धातुओं से कर्मणि प्रयोग में सिद्ध होने वाले 'मीयते पद का प्रयोग किया है। रामायण-महाभारत तथा बौद्ध लेखकों के प्रभाव से कहीं-कहीं व्याकरमा-विरुद्ध प्रयोग भी देखे जाते हैं । उदाहरण के लिए देखिए, कदन्न गा' और 'विवयित्वा' किस् उत में स्थान पर किम क्त चेद् के स्थान पर सचे । हो इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह छन्दों के प्रयोग में बड़ा सिद्ध इस्त है और उद्गाता जैसे का प्रयोग में में अाले वाले छन्दों का भी प्रयोग सफलता से कर सकता है। सूचना--अश्वघोष के कुछ पा मार के पचों से बहुत कुछ सिलते जुलते हैं इसिरह ---- १ वह अपने लावण्य से हो अलंकत थो, कयोकि अलकारों को तो वह अलंकार थी । २ जिसका बछड़ा मर गया है, प्यार करने वाली, उस गाय के तुल्य । ३ उत्तम परामर्श देने वाले असंख्य मन्त्रियो के साथ ४ सौन्दरानन्द १२, १० । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास জানাজায় লালা, भूमिस्तोयं काम्थमाना' ददाति । सोत्साहाना नात्यसाध्यं नाराणा, मारधा सर्वधरलाः फलन्ति । भास] काष्ठई अनन् लभते हुताशन, भूमि खमन् चिन्इति चापि सोपस् । तिबन्धिनः किञ्चिन्नास्त्यसाध्य, न्यायेन युक्त च कृतं च सर्वम् ।। अश्वघोष ? ऐसे भी स्थल है जिन में मालूम होता है कि अश्वघोष का अनुकरण हर्ष ने नैषध में किया है। देखिए--- रामामुनेन्दूनभिभूतपमान, मन्त्रापयातोऽवमान्य भानु । सन्तापयोगादिव वारि वेष्टु, पश्चात् समुद्राभिमुखं प्रस्थे ।। [अश्वघोष] और, निजांशुनिर्दग्धमदङ्गमस्मभिमुधा विधुर्वाञ्छति लान्छनोन्मजाम् । स्वास्थना यास्पति तावतापि किं वधूवधेनैव पुनः कलक्षितः!! [ नैषधीय । १. वन्यमाना' पार उचित है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ८ महा-काव्य (३१) सामान्य परिचय - संस्कृत साहित्य में अनेक बड़े प्रतिभाशाली महा-काव्य रचयिता कवि हो चुके हैं जिनमें अमर, अचल और अभिनन्द के नाम उल्लेखनीय है । ये कवि सम्भव कालिदास की श्रेणी में रखे जा सकते थे, किन्तु अब हमें सूक्ति-संग्रहों में इनके केवल मान' ही उपलब्ध होते हैं। प्रकृति की संहारिणी शक्तियों ने इसके ग्रन्थों का संहार कर दिया है। इनके अतिरिक घटिया दर्जे के और भी afar हुए हैं front ofय में बार बार उल्लेख पाया जाता है; पर दुर्भाग्य है कि इनके प्रन्थ हम तक नहीं पहुँच पाए हैं। अत: इस अध्याय में केवल इन कवियों को चर्चा की जाएगी जिनके प्रथ प्राप्य हैं। ५ सुप्रसिद्ध रामायण और महाभारत से पृथक राज- सभा-कायों या [ संक्षेप में ] कार्यो की एक स्वतंत्र श्रेणी है। इस श्रेणी के ग्रन्थों में प्रतिपाद्यार्थ की अपेक्षा रीति, अलङ्कार, वर्णन इत्यादि बाह्य रूप-रङ्ग के arer में अधिक परिश्रम किया गया है। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया यस्य काव्य में कृत्रिमता की वृद्धि होती गई । इस के दो प्रकार १. कविरमरः कविरथलः कविरभिनन्दश्च कालिदासश्च । श्रन्ये कश्यः कपयश्चापलमात्रं परं दधति || Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास है- महाकाव्य' और कान्य । इस अध्याय में हम महाकाम के रोष कवियों की चर्चा करेंगे और अगले में काव्य के लेखकों को लेंगे। - - - - - काय जगत में भारवि का बड! उच्च स्थान है। शालिदास के काव्यों के समान इसका किरातार्जुनीय भी महाकाव्यों में परिगणित होता है। इसके काव्य की प्रमा की तुलना सूर्य की प्रभा ले की जाती है। कालिदास के समान इसके भी जीवन का वृत्तान्त अन्धकार के गर्भ में छिपा पड़ा है। भारवि का समय। मावि के समय के बारे में अधोलिखित बाह साइन उपलब्ध होता है- (१) ऐहोल के शिलालेख में (६३४ ई.) कालिदास के साथ इसका भी उल्लेख यशस्वी कवि के रूप में किया गया है। १ दण्डी ने अपने काव्यादर्श १, १४-०२० मे महाकाव्य का जो लक्षण दिया है उसके अनुसार महाकाव्य का प्रारम्भ आशीः, नमस्क्रिया अथवा कथावस्तुनिर्देश से होना चाहिए । विषय किसी जनति से लिया गया हो अथवा वास्तविक हो । उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मे से ___ कोई एक हो । नायक धीरोदात्त होना चाहिए । इसमें सूर्योदय, चन्द्रोदय ऋतु, पर्वत, समुद्र, नगर इत्यादि भोतिक पदार्थों, अनुरागियो के वियोग अथवा संयोग, पुत्रजन्म, युद्ध, नायक-विजय इत्यादि का ललित वर्णन होना चाहिए । यह संक्षिप्त न हो। इसमें रसो और भावो का पूर्ण समावेश हो । सर्ग बहुत बड़े बड़े न हो । छन्द आकर्षक हो और सर्ग की समाप्ति पर नए बन्द का प्रयोग हो । एक सम की कथा से दूसरे सर्ग की कथा नैसर्गिक रूप में मिलती हो । २ प्रकाश सर्वतो दिव्यं विदधाना सता मुदे । प्रबोधनपरा हृद्या भा रवेरिव भारवेः ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारबि का समय ((१) काशिकावृत्ति में इसकी रचना में से उदाहरया दिया गया है। (३) ऐसा प्रतीत होता है कि इस पर कालिदास का प्रभाव पड़ा है और इसने माष के ऊपर अपना प्रभाव डाला है। (४) बाण ने अपने हर्षचरित की भूमिका में इसका कोई उल्लेख नहीं किया । सम्भवतः बाण के समय तक भारवि इसना प्रख्यात नहीं हो पाया था। अतः हम इसका काल १५० ई. के आस-पास रखेंगे। किरातार्जनीय-इस अन्य का विषय महाभारत के वन-पर्व से लिया गया है। काव्य के प्रारम्भिक श्लोकों से ही पता लग जाता है कि कृती कलाकार के समान भारवि ने अपने उपजीव्य अर्थ को कितना परिष्कृत कर दिया है। महाभारत में पायाव-बन्धु बनवास की अवस्था में रहते हुए मन्त्रणा करते हैं, किन्तु भारवि इस मन्त्रणा को गुप्तचर से प्रारम्भ करते हैं जिस युधिष्ठिर ने दुर्योधन के कार्यों का पता लगाने के लिए नियुक्त किया था। अब द्रौपदी को मालूम हुवा कि दुर्योधन सरकार्यों के द्वारा प्रजा का अनुमा-माजक बनता जा रहा है, सब उसने तत्काल युद्ध छेस देने की प्रेरणा की (सर्ग)। भीम द्रौपदी के कथन का शक शब्दों में समर्थन करता है, किन्तु युधिष्ठिर अपने वचन को तोडने के लिए तैयार नहीं है । सा२) युधिष्ठिर व्यास से परामर्श देने की प्रार्थना करता है। व्यास ने परामर्श दिया कि अर्जुन को हिमालय पर जाकर कठिन तपस्या द्वारा दिव्य सहाय्य प्राप्त करना चाहिए। अजन को पर्वत पर ले जाने के लिए इतने में वहाँ एक यक्ष आ जाता है (सर्ग ३) चौथे से ग्यारहवं तक पाठ सर्गों में कवि की नवनवीन्मेषशालिनी प्रज्ञा प्रस्फुटित होती है। इन सों में शिशिर, हिमालय, स्नान-क्रीड़ा, सन्ध्या, सूर्यास्तामान, चन्द्रोदय इत्यादि प्राकृतिक दृश्यों का चिया बई ही रमणाय रङ्गों में किया गया है। इसके बाइ इसमें अजुन का स्कन्द के सेनापतित्व में आई हुई शिव की सेवा के साथ (सर्ग १५) और अन्न में किरात (प्रच्छन्न शिव) के साथ युद्ध वर्णित है। युद्ध में शिव अर्जुन से प्रसन्न होकर उसे दिग्ध शस्त्र प्रदान Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ संस्कृत साहित्य का इतिहास करते हैं जिनकी अर्जुन को उत्कट अभिलाषा थी। आलोचना-जैसा ऊपर संकेत किया जा चुका है, कति ने अपनी बुद्धि पर ताला लगा महाभारत की कथा का अनुसरण नहीं किया, किन्तु उसमें अपनी ओर से कुछ नवीनतार पैदा कर दी है। उदाहरण के लिए स्कन्द के सेनापति में शिव की सेना का बल के साथ युज जीजिए, जिसमें दोनों ओर से दिन शस्त्रों का प्रयोग हुवा है। युद्ध के वर्णन को लम्बा कर देने से अक्षयों की गन्धों के साथ प्रणय-केली और अजुन का व्रत-भङ्ग करने की व्यर्थ शोशिश जैसे कुछ विचारों की कहीं कहाँ पुनमक्ति हो गई है। शैलो-~-पुरानी परम्परा के अनुसार भारचि में अर्थ-गौरव का विशेष गुण पाया जाता है। इसकी वन-योग्यता भारी और वचनोपर न्याल-शक्ति लापनीय है। (२) इसकी शैली में शान्ति-पूर्ण गर्व है जो एक दम पाठक के मन ঐ মন্তু সাৱা । ৪া অল্প ম ন্ত্রী যা স্ব স্ব স্ব ী को मिल जाता है। (३) प्रति और युवति के सौन्दर्य को सूक्ष्मता से देखने वाली इसकी दृष्टि बड़ी विलक्षण है । शिशिर ऋतु का वर्णन सुनिए---- कतिपयसहकारपुपरम्यस्तनुतहिनोऽल्पविनिद्रासिन्दुचारः । सुरभिमुखहिमागमान्तशंसी समुपययौ शिशिरः स्म कमन्धः ।। १ इस प्रकार के औराशिक अंश का समावेश सम्भक्त्या वाल्मीकि की देखा-देखी होगा। २ देखिए, उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम् । दण्डिनः पदलालित्य माधे सन्ति त्रयो गुणाः । ३ इसके बाद काम का अद्वितीय मित्र, बसन्त के आगमन का सूचक, हेमन्त का अन्तकारी, श्राम की अल्प मञ्जरी के कारण रमणीय, स्वल्प कोहरेवाला सिन्दुवार (सिंभालु ) के खिले हुए थोड़े से फूलो वाला शिशिर ऋतु का समय आगया । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मवि की शैली (४) भारवि की कुछ पंक्तियां इसमी हृदयम्पर्शिशी है कि वे लोकोकियां बन गई हैं। उदाहरणार्थ हितं मनोहारि च दुर्लभ वच ॥ न हि प्रियं, प्रबक मिच्छन्ति मृषा हितषिणः॥ (4) इसकी उत्प्रेक्षाएं बड़ी सुस्थिर और व्यापक हैं । (६) संस्कृत के महाकाव्य-साहित्य में यह विशेषता देखी जाती है, कि ज्यों-ज्यों इसको आयु बढ़ती गई, त्यो त्यों यह अधिक बनाव-सिंगार से पूर्ण होता गया। भारवि भी शैलो-सम्बन्धिनी कृत्रिमता से मुक नहीं रह सका। इस कृत्रिमता की लस्कृत के अलङ्कार शास्त्री चाहे जितनी प्रशंसा करें परन्तु यह कविता के आधुनिक प्रमाणों ( Standards) के अनुरूप नहीं है। शायद इसका कारण यह है कि इस कृत्रिमता की खातिर खींचतान करनी पड़ती है और इस तरह स्वाभाविक प्रवाह का विवाद हो जाता है। पन्द्रहवें सर्ग में भारवि ने शब्दालङ्कारों के निर्माण में कमाल किया है। एक पद्य के चारों चरण एक हो चरण की पावृत्ति से बनाए गए हैं। एक ऐसा पद्य है जिनके तीन अर्थ निकलते हैं । एक पद्य ऐना है जिसे बाई पार से दाहिनी ओर को पढ़ा, चाहे दाहिनी ओर से बाई ओर को पढ़ो, एक जैसा पढ़ा जाएगा। उदाहरणार्थ, निम्नलिखित पञ्च का निर्माण केवल 'न' से कियागया है, त्' एक बार केवल अन्त में भाया है f - . न मोननुन्नी नुशोलो माना नानानना गनु । तुजोऽनुको ननुन्नेनो नानेनानुन्ननुन्ननुत् ।। (७) भारवि की शैली में लम्बे लम्बे समास नहीं है। सारे को मिला जुलाकर देखा जाए तो उसकी शैली में क्लिष्टता का दोष नहीं है। (E) भारवि निपुण वैयाकरण था। पाणिनि के अप्रसिद्ध नियमों के उदाहरण देने में यह अपने पूर्वगामी कालिदास और पश्चिमगामी Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० संस्कृत साहित्य का इतिहास माघ दोषों से बढ़कर है। उदाहरणार्थ इसके भूत-कालवाची नियमित प्रयोगों को लीजिए। इसने लुक का प्रयोग निकट भूत कालीन घटनाओं के लिए और बङका वका के अपने अनुभव से सबन्ध रखने वाली चिर भूख कालीन घटनायो के लिए किया है। इस प्रकार परोक्ष भूतकास कथा-दान करने का भूतकाल रह गया । इसने इलवरह मिलाकर जुक का प्रयोग केवल इस स्थलों पर किसान मात्र में इस प्रयाग दो सौ बहत्तर स्थानों पर किया है। () छन्द का प्रयोग करने में तो यह पूर्ण सिद्ध है। कभी-कभी इसने कठिन और अप्रयुक्त छन्द का भी प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ, १३वे सई में अकेला उद्गाता छन्द है । इल बात को छोड़कर देख लो यह छन्दों के प्रयोग में बहुत ही विशुद्ध है और इसने छन्दों के विविध प्रकारी का प्रयोग पर्याप्त संख्या में किया है। केले पांचवें स्वर्ग में सोलह प्रकार के छन्द आए हैं। यह बात मान देने योग्य है कि ओ प्रसिद्ध नाटककार भवभूति का प्रिय छन्द है भारत ने उस शिखरिणी छन्द का प्रयोग बहुत ही कम किया है ।। (३३. भाट्टि ( लगभग ६०० ई०) मष्टि भी महाकाव्य रयिता एक प्रसिद्ध कवि हैं। इसके काव्य का नाम 'रावणवध है जिस को साधारणतया भट्टिकाव्य कहते हैं । यह राम की कथा भी कहता है और व्याकरण के नियमों के उदाहरण भी उपस्थित करता है। इस प्रकार इससे 'एक पन्थ दो काज' सिद्ध होते हैं। भारतीय लेखक भष्टिकाव्य को महाकाव्य मानते हैं । इस काव्य में २२ सर्ग है जो चार भागों में विभक हुए हैं। प्रथम भाग में (सर्ग १-४) फुटकर नियमों के उदाहरण हैं । द्वितीयभाग में (सग ५-६) मुख्य-मुख्य नियमों के उदाहरण हैं और ततीय भाग में (सर्ग १७---१३) कुछ अजङ्कारों के उदाहरण हैं। तेरह वर्ग में ऐसे श्लोक हैं जिन्हें संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के कह सकते हैं। चतुर्थ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टि १४१ भाग में (१४--२२) 'कालों' और 'कारों' (tenses & mocds ) के प्रयोगों का निरूपण है । EDI शतो---मट्टि की शैक्षी प्रांजल और सरल है, परन्तु इसमें श्रीज और प्रभा का अभाव है। इसकी रचना में न कालिदास की-सी विशिष्ट उपमाएँ और न भारवि की-सी वचनोपन्यास शक्ति है । इसकी शैबी श्राश्वर्य जनक रूप से दो समासों और विचारों की जटिलता से मिल्कुल युक्त है। इसकी शैली में दूसरों की अपेक्षा जो अधिक प्रसादपूर्णता है उसका कारण इसका छोटे-छोटे छन्दों पर अनुराग है। इसके कुछ लोक तो वस्तुत: बहुत ही बढ़िया हैं और कालिदास के पद्यों की श्रेणी में रक्खे जा सकते हैं | समय- (क) स्वयं भट्टि स हमें इस बात का पता लगता है उसने बक्षी के राजा श्रीधर सेन के श्राश्रय में रह कर अपना ग्रन्थ लिखा । किन्तु इस नाम के बार राजा हुए हैं । उनमें से अन्तिम राजा खगभग ६४१ ई० में मरा। चत: अट्टि को हम ६०० ई० के श्रास-पास रख सकते हैं । सम्बन्ध में निम्नलिखित बाह्य साक्ष्य भी कुछ उपयोग का हो सकता है । (ख) सम्भवतया सामह को मट्टि का पता था, क्योंकि भामद ने बगभग पूर्णतया मिलते जुलते शब्दों में भट्टि का निम्नलिखित श्लोक अपने ग्रंथ में उद्धृत किया है। व्याख्यागम्यमिदं काव्यं उत्सवः सुधियामतम् । हृता दुर्मेधसास्मिन् विद्वत् प्रियतया मया ॥ (ग) दरिड और भामह के अलंकरों से मिला कर देखने पर भट्टि के अलंकार बहुत कुछ मौतिक प्रसव होते हैं। १ निम्नलिखित पद्य को विक्रमोर्वशीय २, १६ से मिलाइये, रामोऽपि दाराहरणेन ततो, वयं इतै बन्धुभिरात्मतुल्यैः । तप्तेन तप्तस्य यथायो नः सन्धिः परेणास्तु विमुच सीताम Ar Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ संस्कृत-साहित्य का इतिहास HMEHT क (घ) माघ ने मट्टि का अनुकरण किया है. विशेष करके याकरहा में अपनी योग्यता दिखाने का महाप्रयत्न करले। भट्टि कौन था? हमारे ज्ञान की जहाँ तक पहुँच है उसके अनुसार यह बताना सम्भव नहीं कि कौन ले कवि का नाम महि था। कोई-कोई कहते हैं कि व ह और महि दोनों एक ही व्यक्ति के नाम है। किन्तु यह कोरी कल्पना मालूम होती है क्योंकि वसाह ने माकरण की कई अशुद्धियाँ की है। किसी-किसी का कहना है कि महि शब्द मत का प्राकृत रूप है, अतः भतृहरि ही भट्टि है। किंतु यह सिद्धांत भी माननीय नहीं हो सकता ! अधिक सम्भावना यही है कि भट्टि कोई इन सब से पृथक् ही भक्ति है। (३४) भाव (६६७-७००ई०) महाकाच्यों के इतिहास में साध का स्थान साहा उच्च है। कलिदास, अश्वघोष, मारवि और भट्टि के ग्रंथों के समान साध का ग्रंथ शिशुपालव (जिसे 'माघ काम्च' भी कहते हैं। महाकाव्य गिना जाता है। कई बातों में वह अपने पुरस्सर मारवि' से भी बढ़ जाता है। शिशुपालवध में २० सर्म हैं । इसमें युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ समाप्त होने पर कृष्ण के हाथों शिशुपाल के मारे जाने का वर्णन है । १. भारतीय सम्मति देखिये। तावद् भा भारवे तियावन्माघस्य नोदयः । उदिते तु पर माचे भारवे भी वेरिव ।। उपमा कालिदासस्य भारवेर्थगौरवम । दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति योगुणाः ॥ माघी माघ इवाशेष क्षमः कम्पयितु जगत् । श्लेषामोदभरं चापि सम्भावयितुमीश्वरः ।। यह जानना चाहिये कि माघ को जो महती प्रशंसा की गई है वह निराधार नहीं है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ २४३ · महाभारत में यह कहानी बहुत ही सादी है किंतु माघ ने इसमें अनेक सुन्दर सुधार कर दिये हैं । महाभारत में यज्ञ का वर्णन केवल एक पॉक में समाप्त कर दिया गया है। साथ में इसका चिह्न उतारा गया है । महाभारत पक्ष विपक्ष को वस्तृवाओं को संक्षिप्त कर दिया गया है • युद्ध की प्रारम्भिक कार्यवाहियों प्रतिपक्षिनों द्वारा महीं, दूवो द्वारा पूर्ण कराई गई हैं । प्रतिपक्षियों के युद्ध से पूर्व उनकी सेनाओं का युद्ध दिखलाया गया है। महाभारत की कथा aforest feसो हाकाव्य का विषय बनने के योग्य थी, किं की वन करने की शक्ति ने असखी कथा की त्रुटियों को पूर्ण कर दिया है। आरवि ने अपने काव्य में शिव की, शार माघ ने अपने काव्य में विष्णु की स्तुति की है। शैली -- (१) भाव भाव प्रकाशन की सम्पदा से परिपूर्ण और कल्पना की महती शक्ति का स्वामी है। (२) माघ काम-सूत्र का बडा परिडत था । उसके शृङ्गार रसक श्लोक बहुधा माधुर्य और सौंदर्य से परिपूर्ण हैं । किंतु कभी-कभी घन इतने विस्तृत हो गए हैं कि वे पाश्चात्यों को मन उकता देने वाले मालूम होते हैं । (३) माघ कलंकारों का बड़ा शौकीन है। इसके अलंकार बहुधा सुन्दर हैं, और पाठक के मन पर अपना प्रभाव डालते हैं। इनके अनु प्रास सुन्दर और विशाद है। श्लेष की ओर भी इसकी पर्यात free देखी जाती है । उदाहृस्या देखिये अभिधाय तदा तदप्रियं शिशपालोऽनुशयं परं गतः । भवतोऽभिमना मोड़ते सरुष. कतुमुपेत्य माननाम् ॥ ५ Maryla १. तब प्रिय बच्चन कह कर शिशुपाल अत्यन्त कुपित (और पश्चात्तापवान् ) हो गया । वह निर्भय ( और उत्सुक ) होकर आपके सामने आना चाहता है। और श्राप का हनन ( और मान ) करना चाहता है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ संस्कृत साहित्य का इतिहास (४) सम्पूर्ण पर दृष्टि डालने के बाद हम कह सकते हैं कि इसकी औधी प्रयासपूर्ण है और शब्द तथा अर्थ की शोभा में यह आहेि और कुमारदाय की तुलना करता है। (५) कई बातों में इसकी तुलना भारवि से की जा सकती है :(क) विविध इन्दो' के प्रयोग की दृष्टि से माघ के चौथे सर्ग की ममा किरात के चौथे सर्ग से की जा सकती है। ख) बाह्यरूप रंग की विलक्षणता की दृष्टि से माथ के उन्नीसवें सर्ग की तुलना किरात के पंद्रह स से हो सकती है। इस सर्ग में माघ ने सर्वतोभद्र, चक्र और गोमूनिका लकारों के उदाहरण देते हुए अपने रचनामैपुण्य का परिचय दिया है उदाहरणार्थं, तीसरे श्लोक के प्रथम चरण में केवल 'जू' व्यंजन, द्वितीय में '5' तृतीय में 'भ' चतुर्थ में 'तू' है। (ग) 'माघ' के कुछ पद्यों में भारवि के नैविक भावों की सरलता और aaa विन्यास की शक्ति देखने को मिलती है | उदाहरण देखियेarated feet न विषीदति पौरुपे । शब्दार्थी सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते ॥ (६) माघ की रचना में प्रसाद, माधुर्य और भोज तीनों हैं, वी की उक्तियों से यह बात विशेष करके पाई आती है। देखिये :--- शिशुपाल युधिष्ठिर से कहता है--- नृतां गिरं न गदसीति जगति पटद्वैविष्य । freate a staयस्तव कर्मणैव विकलकत्ता || १) 'माघ' व्याकरण ਕ कृषट्स है और यह कदाचित् हि मे refer ster oपाकरया के नियमों के प्रयोग के अनेक उदाहरगा atra seat है काल -- (१) मात्र के पिता का नाम दत्तक सर्वाश्रय और पितामह १. छन्दों के प्रयोग में माघ बडा कुशल है । अकेले इसी सर्ग में बाईस प्रकार के छंद हैं । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान १४२ का सुप्रभदेव था जो नृप वर्मयात (वर्मनाख्य) का मंत्री था! घसंतगाद से ६८२ वि० (६२५ ई०) का एक शिक्षा-लेख मिला है जिसमें वर्मलात का माम आया है। इस लिखित प्रमाण के आधार पर हम माघ का काख सातवीं शताब्दी के सत्ता में कहीं रख सकते हैं। (२) श्लोक २, १२ में 'वृत्ति' और 'पास' शब्द आये हैं। मल्लिनाथ के मत से श्लेष द्वारा वृत्ति का अभिप्राय 'काशिका वृत्ति' (जिसका रचयिता जयादित्य, इसिंग के अनुसार, ६६१ ई० में मरा) और न्यास का अभिप्राय काशिकावृत्ति की टीका 'न्यास है जिसका रचयिता जिनेन्द्रबुद्धि है (जिसके सम्बन्ध में इसिग चुप है)। इस साचय के आधार पर माघ का समय पाठवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में कहीं निश्चित किया जा सकता था, किन्तु यह साक्ष्य कुछ अश्विक मूल्य नहीं रखता, विशेष करके जब कि हम जानते है कि वाण ने भी हर्षचरित में प्रसन्नवृत्तमो गृहीतवाक्या कृतयुगपदन्याला होक इव व्याकरऽपि इस वाक्य में वृति और न्यास पद का प्रयोग किया है। सम्भव है माघ ने इन अधिक पुराने वृत्ति और न्यास ग्रन्थों की ओर संकेत किया हो। (३) पुरानी पुरम्परा के अनुसार माघ का नाम महाराज मोज़ के साथ लिया जाता है। इस आधार पर कुछ विद्वान् माघ को १३वीं शताब्दी में हश्रा बतलाते हैं। दूसरे विद्वानो का कहना है कि यह परम्परा सस्य घटनाओं पर आश्रित इतिहास के लेख के समान मूल्यवान् नहीं मानी जा सकती, अत: बक्त विचार माह्य नहीं हो सकता। यह बात ध्यान देने योग्य है कि कर्नल टाड ने अपने राजस्थान में किसी जैन रचित इतिहास और व्याकरण दोनों के संयुक्त सूची-प्रन्ध के आधार पर मालवे में क्रमशः ५७५, ६६५२ और १०४२ ई० में शासन करने वाले १. प्रभाविक चरित' ग्रन्थ से मिलाकर देखिये । २.६६५ ई० के भोजदेव का समर्थन ७१४ ई० के मानसरोवर वाले शिला-लेख से भी होता है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास लीन भोजों का उल्लेख किया है। अतः हम उपयुक परम्परा को भी सत्य मान सकते हैं। (४) माघ अपने बहुत कुछ उपजीब्य भारवि और भहि से निस्सन्देह बाद में हुश्रा। यह भी निश्चित रूप से मालूम है कि माव को हर्ष कृत 'नागानन्द का परिचय था। किसी किसी ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सुबन्धु ने मान के अन्ध से लाभ उठाया है। परन्तु यह प्रयत्न न तो बुद्धिमत्ता से पूर्ण है और न विश्वासोत्पादक। (३५) रत्नाकर कृत हरविजय (८५० ई० के लगभग) यह १० सर्गों का एक बिजुल-काश्च महाडान्य है। इसे ८१० ई के आस-पास रत्नाकर' ने लिखा था। इसमें अन्धक के ऊपर ग्राम की हुई शिव की विजय का वर्णन है। काव्य में श्रानुपातिक सम्बन्ध का अभाव है। यह सबंमिय भी नहीं है। कवि पर माघ का समधिक प्रभाव सुव्यक्त है। क्षेमेन्द्र कवि के वसन्ततिलका के निर्माण में कृती होने का समर्थन करता है। (३६) श्रीहर्षे (११५०-१२०० ई०) महाकाव्य की परम्पदा में अन्तिम महाकाव्य नैषधीयचरित या औषधीय है जिसे कन्नौज के महाराज जयचन्द्र के आश्रय में रहने वाले श्रीहर्ष ने २ १२वीं शताब्दी के उत्तराद्ध में लिखा था। इस काव्य में २२ सर्ग हैं और दमयन्ती के साथ नल के विवाह तक की कथा १ इसकी शैली राजानक और वागीश्वर की शैलियों से मिलती है। २ इस ने और भी कई ग्रन्थ लिखे हैं। इनमें में ( खण्डनखण्डखाब) अधिक प्रसिद्ध है जिसमें इसने वेदान्त की उपपत्तिमत्ता सिद्ध की है। ३ कहा जाता है कि असली ग्रन्थ मे ६० या १२० सर्ग थे और आशा की जाती है कि शेष सगों की हस्तलिखित प्रति भी शायद कभी मिल जाए (कृष्णाचार्यकृत संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ ४५), किन्तु यह सन्दिग्ध ही प्रतीत होता है कि कवि ने २२ सगों से अधिक लिखा हो। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहर्ष . वर्णित है। उसके अन्तिम सर्ग में सहसा दमयन्ती की प्रणय-कल्पनाएं हो गई हैं । यद्यपि कवि एक नैयायिक था, तथापि उसने विवाह के विषय का वर्णन करने में कामशास्त्र को कविता का रूप दे दिया है । कवि में वर्णन करने की अदभुत योग्यता है । उसने एक साधारण कथा को एक महाकाव्य का वर्णनीय विषय का रूप दे दिया है। भारतीय कारकों ने श्रोव को महाकवि कहकर सम्मानित किया है और कवि इस सम्मान का अधिकारी भी है । एक जनश्रुति है कि श्रीहर्ष सम्मट का मानना (अथवा किसी रिश्ते में आई ) था । श्रीहर्ष ने अपनी रचना (वध) को श्रभिमानपूर्ण हृदय के साथ मम्मट को दिखलाया । अम्मद ने खेदानुभव के साथ कहा कि यदि यह ग्रन्थ मुझे अपने (काव्य प्रकाश के) दोषाध्याय के लिखने से पहले देखने को मिलता तो मुझे दूसरे प्रन्थों में से दोषों के उदाहरण ढूँढने का इतना प्रयास न करना पड़ता । किन्तु इस जनश्रुति में सत्यता का बहुत थोड़ा अंश rata होता है । १४७ श्रीहर्ष में शिष्ट रचना करने की भारी योग्यता है । यह भाषा के प्रयोग में सिद्धहस्त और सुन्दर-मधुर भाव - प्रकाशन में निपुण है । इसकी अनुप्रास की घोर प्रभिरुचि बहुत अधिक है। कभी कभी यह अन्त्यानु मास की भी छटा बाँध देता है । इसने सब उन्नीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है जिन में से उपजाति और वंशस्थ अधिक आए हैं । सूचना - हरविजय को दोषकर उपर्युक सब महाकाव्यों पर सुप्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने टीकाएँ लिखी हैं । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय काव्य- निर्माता (३७) वत्समट्टि (७३-४७३ ई.)--यह कोई बड़ा प्रसिद्ध कति नहीं है। इसने वि० सम्वत् १२६ में मन्दसोर में स्थित सूर्य-मन्दिर की प्रशस्ति लिली थी। इसमें गौडी हीति में लिखे हुए कुल ४४ पत्र हैं। इस प्रकार इसमें लम्बे जम्ने समास है, कभी-कभी सारी की सारी पंक्ति में एक ही समास चला गया है। कवि ने पद-पद में यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि यह काव्य के नियमों को भलो भाँति जानता है। इसने इस प्रशस्ति में दशपुर नगर का और वसन्त तथा शाद का वर्णन दिया है। कुल छन्दों की संख्या बारह है और सबसे अधिक प्रयुक्त वसन्ततिलका है। प्रायः एक ही बात तीन पद्यों में जाकर समाप्त हुई है किन्तु काव्य की श्रेष्ठ पद्धति में कोई अन्तर नहीं पड़ा। कभी-कभी इसकी रचना में अर्थ की प्रतिध्वनि पाई जाती है; उदाहरण के लिए, वें श्लोक के पहले तीन चरणों में, जिनमें राजा के सद्गुणों का वर्णन है, मृदु और मधुर ध्वनि से युक्त शब्द हैं,परन्तु चौथे चरण में,जिसमें उसके भीषण वीर्य का वर्णन है, कठोर-श्रुतियुक्त शब्द हैं [द्विदृप्तपक्षक्षपणकदक्षः] 1 9वें और १२वें पद्य में इसने कालिदास के मेघदूत और ऋतुसंहार का अनुकरण किया है। (३८) सेतुबन्ध----यह कान्य महाराष्ट्री में है। कई विद्वानों की धारणा है कि इसे कवि ने कश्मीर के राजा प्रवरसेन द्वारा वितस्ता (जेहलम) पर बनवाए हुए पुल की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमय-निर्माता १४६ लिखा था । यह कालिदास की कृति कही जाती है। दण्डी और बाण ले इसकी सड़ी प्रशंसा की है। किन्तु दीर्ष समाल तथा कृत्रिमतापूर्ण शही को देखकर विश्वास नहीं होता कि यह कालिदास की रक्षना है। (३६) कुमारदास का जालकीहरण (७वीं शताब्दी) (क) जानकीहरणकान्य का पता इसके शब्द-प्रतिशब्द सिंहाली अदुबाद से लगा था। इसी के आधार पर पहले इसका प्रकाशन भी हुआ, किन्तु अब दक्षिण भारत में इसकी स्व-लिखित प्रति भी मिल गई है। (ख) कहा जाता है कि इसका लेखक लंका का कोई राजा (५१७२६) में था और कालिदाल की मृत्यु में उसका हाथ था। किन्तु ये बातें माननीय नहीं प्रतीत होती। (ग) आपली काव्य के २५ सर्ग है। इसकी कथा वही है जो रघुवंश की है। अन्य को देखने से मालूम होता है कि कचि में अर्शन करने की भारी योग्यता है । इसमें जो वर्णनात्मक चित्र देखने को मिलते हैं उनमें से कुछेक ये हैं--दशरथ, उसकी पत्नियों और अयोध्या का चित्र (सर्ग १), जनक्रीड़ा, वसन्त, सूर्यास्त, रात्रि और प्रभात का (सर्ग ३), सूर्यास्त का और रात्रि का (सर्ग ८), वर्षा ऋतु का (सर्ग ११) और पतझड़ का (सर्ग १२)। घ) कालिदास का प्रभाव-क्या विषय के निर्वाचन और क्या शैशी के निर्धारण दोनों ही में लेखक पर कालिदास का प्रभाव परिलक्षित होता है। यह मानना पड़ता है कि यह कवि कालिदास का बड़ा भक्क था और इसने विषय के साधारण प्रतिपादन एवं रीति दोनों बातों में उसका यथेष्ट अनुकरण किया। इसका 'स्वामिसम्मदफलं हि मण्डन' शाक्य कालिदास के 'प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता' (कृ० सं० ५, १) वाक्य से बिल्कुल मिलता है। जानकी हरण के सर्ग में १ रघुवंश, सर्ग १२ को जानकी हरण के तत्तुल्य अंश-श. भिलाकर देखिये। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य का इतिहास वर्णित विवाहित जीवन के प्रानन्द का चित्र कुमार संसद के वर्ग में वर्णित ऐसे ही चिनले मिलाकर देखना चाहिये । (ङ) शैली- (१) इसने वैदर्भी रीति का अवलम्बन लिया है। अनुप्रास पर इसका विशेष स्नेह है किन्तु यह कृत्रिमता की सीमा को नही पहुँचा है। (२) इस कवि की विशेषता सौन्दर्य में है । प्रो ए. बी कीथ' का काथन है कि इसकी रचना में सुन्दर सुन्दर श्रलंकारों की प्रचुरता है जो मधुर वचनोए-पास के द्वारा अभिव्यक्त किए गए हैं। साथ ही इसकी रचना में ध्वनि ( स्वमन) और वृन्द का वह चमत्कार है जो संस्कृत को छोड़ कर किसी अन्य भाषा में उत्पन्न करने की शक्ति (३) यह सुन्दर चित्र तथा रमणीय परिस्थितियां चित्रित करने की शक्ति रखता है:--- पश्यन् हत्तो मन्मथवाणपातः, शको विधातु न निमीलचक्षुः । अरू विधात्रा हि कृतौ कथं ताविल्यास तस्यां सुमतेवितर्क.२ ॥ निम्नलिखित पय में किशोर राम का एक सुन्दर चिन्न उतारा गया है: नस राम इह क्व यात इत्यनुयुक्तो वनिताभिरप्रतः । निजइस्तापुटावृताननो, विदधेऽलोकनितीनमर्भकः॥ १ संस्कृत साहित्य का इतिहास (इंग्लिश ) ( १९२८ ), पुष्ठ १२१ १२ ब्रह्मा ने उन जंघात्रों को कैसे बनाया होगा ? यदि उसने उनपर निगाह डाली होगी तो वह काम के बाणो से विद्ध हो जाना चाहिए था और यदि उसने अांख मींचली होगी तो वह बना नहीं सकता था । इस प्रकार प्रतिभाशाली पुरुष भी उस (स्त्री) के विषय में विचार करता हुश्रा संशय मग्न था। ३ सामने खड़ी हुई स्त्रियों ने पूछा, क्या राम यहाँ नहीं है ? वह कहां Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-निमाता (४) यह व्याकरण का बड़ा विद्वान् है, और हजधर्म (Furrow) जैसे अप्रसिद्ध पदों का प्रयोग करता है। यह काशिका में से अधिकमस और मर्माविध जैसे अप्रसिद्ध प्रयोग लेता है। यह पश्यतोहर, जम्पती और सौख्यरात्रिक जैसे विल-प्रयुक्त शब्दों का प्रयोग करता है। निस्सन्देश भाषा पर इसका अधिकार बहुत भारी था। (५) छन्दों के प्रयोग में यह बाड़ा निपुण है । सग २, ६ और 1. में श्लोक तथा सा ३, ५, ६, और १२ में वंशस्थ प्रधान है। (च) काम-(1) इसे काशिका वृत्ति ( लगभग ६५० ई.) का। पता था, यह तो सन्देह से परे है। (२) यह माघ से प्राचीन है क्योंकि बाद में इसके एक एच की छाया दिखाई देती है। (३) वामन ( ८०० ई.) ने वाक्य के प्रारम्भ में 'खलु' शब्द के प्रयोग को दूषित बताया है। पर ऐसा प्रयोग कुमारदास की रचना में पाया जाता है। अत: विश्वास होता है कि शासन को इसका पता था। (४) राजशेखर ( १०० ई.) इसके यश को स्वीकार करता हुआ जानकाहरणं कतु" रघुवंशे स्थिते भुवि । कविः कुमारदासश्च हावखन यदि क्षमः ।। अत' कुमारदास को ६१० और ७०० ई० के मध्य में कहीं रख सकते हैं। (४०) वाकपति का मउडवह (८वीं शताब्दी का प्राहम्म)-- गाडवह ( गौडवष) प्राकृत-काव्य है जिसे वीं शताब्दी के प्रारम्भ में चाक पति ने लिखा था । इसमें कवि के प्राश्रयदाता कोज के अधीश्वर यशोवर्मा द्वारा गौड़-नरेश के पराजित होने का वर्णन है। गया है ? बालक (राम) ने अपने हाथों से अपना मह छिपाकर झूठ मूठ की अॉख मिचौनी खेली। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ संस्कृत साहित्य का इतिहास इसमें लम्बे लम्बे समास हैं जिसे प्रकट होता है कि कृत्रिम शैली के विकास में प्राकृत अनिता किस प्रकार संस्कृत कविता के साथ साथ चलती रही । वाक्पति भवभूति का ऋणी है । (४१) कविराज कृन वाघापारडवीय ( १२ वीं शताब्दी ).. इस कवि को सूर या परिइत भो कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इसका लेखक कादम्ब कामदेव (अगभग ११६० ई.) के आश्रम में रहता था। इस का श्लेष के बल से रामायया और महाभारत की दो भिन्न भिन्न कथाएं एक साथ चलती है। कवि ले यह एक ऐला कठिन काम करके दिखाया है जो संस्कृत को छोड़ जगत की किसी अन्य भाषा में देखने को नहीं मिलता, पाठक के मनोविनोदार्थ एक उदाहरण दिया जाता है नृपेण कन्या जनकेन विस्मिताम् , अयोनिज लम्मयितु स्वर बरे।। द्विजप्रकर्षण स धर्मनन्दन. सहानुजस्ता भुवमप्यनीयतय' ॥ कवि और देकर कहता है कि वक्रोक्ति के प्रयोग में सुबन्धु और बाण को छोडकर उसके जोड़ का दूसरा कोई नहीं है । (४२) हरवत स्मृरिकन राधव नैषधीय-इसका रचना काल पत्ता नहीं है। इसमें भी श्लेष द्वारा राम और नल की कथा का एक साथ वर्णन है। (४३) चिदम्बर कुन यादवीय राघवपारावीय - यह भी जोक १ द्विजोत्तम ( विश्वामित्र) महागज जनक द्वारा दी जाने वाली अयोनिजा कन्या को प्राप्त करने के लिये छोटे भाई सहित इस धर्मनन्दन ( राम ) को स्वयवर भूमि में लाए । द्विजोत्तम (व्यास ) पिता द्वारा दी जाने वाली अयोनिजा कन्या को प्राप्त कराने के लिए छोटे भाइयो सहित उस धर्मपुत्र (युधिष्ठिर ) को स्वयबर ममि में लाए। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-निर्माना प्रिय नहीं है। इसमें श्लेष द्वारा रामायण, महाभारत और भागवत की कथा का एक साथ वर्णन है ।। (४४) इलायुधकृत कविरहस्य-साहित्य की दृष्टि से यह महत्वशाली नहीं है। इसकी रचना १० वीं शताब्दी में क्रियाओं की रूपावली के नियम समझाने के लिए की गई थी। प्रसङ्ग से यह राष्ट्रकूटवंशीय भूप कृष्णा (१४५-५६ ई० ) को प्रशस्ति का भी काम देता है। (४५) मेएठ(जो भतृ मेरठ और हस्तिपक के नाम से भी प्रख्यात है)। नप मातगुप्त ने इससे हयग्रीवत्र की बडी प्रशंसा की है। बाल्मीकि मेण्ड, भवभूति और राजशेखर इन प्राध्यास्मिक गुरुश्री की श्रेणी में मेहत को दूसरे स्थान पर पारद होने का सौभाग्य प्राप्त है । मल ने इसे सुबन्धु,भारवि और बाण की कक्षा में बैठाया है। सुभाषित भाण्डागारों में इसके नाम से उद्धृत कई सुन्दह पथ मिलते हैं। यह छठी शताब्दी के अन्तिम भाग में हुआ होगा। (४६) सातगुप-कल्हण के अनुसार यह काश्मीराधिपति प्रवरसेन का पूर्वगामी था। कोई कोई इसे और कालिदास को एक ही व्यक्ति मानते हैं किन्तु यह बात मानने योग्य नहीं जंचती। इसके काल का पता नहीं। कहा जाता है कि इसने भरत के नाट्यशास्त्र पर टीका लिस्ली थी। अब इस टीका के उदाहरण मात्र मिलते हैं। (४७) भौमक का रावणार्जुनीय (ई० की ७ वीं शताब्दी के भासपास-~-इसमें २७ सर्ग है और राबण तथा कार्तवीर्य अर्जुन के कलह की कथा है। कवि का मुख्य उद्देश्य व्याकरण के नियमों का व्याख्यान करना है। (४८) शिवस्वामी का कपफनाभ्युदय (६ बी शनान्दी)-- यह एक रोचक बौद्ध काग्य है किन्तु लोकप्रिय नहीं है। इसका रचयिता शिवस्वामी बौद्ध था, जिसने इसे काश्मीर-पति अवन्तिवर्मा के आश्रय में रहकर है वीं शताब्दी के उत्तराद्ध में लिखा था। इसकी कथा अवदानशतक में पाई हुई एक कथा पर आश्रित है और इसमें ! चिय के Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ संस्कृत साहित्य का इतिहास fert राजा के मर्म को दीक्षा लेने का वर्णन है । कवि पर भारवि और माघ का प्रभाव पड़ा दिखाई देता है। इसमें हर्षकृत नागानन्द की चोर भी संकेत पाया जाता 1 (४६) कादम्बरीकथासार ( ६ वीं शताब्दी ) - इसका लेखक काश्मीर में 8 वीं शताब्दी में होने वाला कवि अभिनन्द है । यह काव्य के रूप में त्राण की कादम्बरी का सार है । (५०) क्षेमेन्द्र ( ११ वीं शताब्दी) - इसने १०३७ ई० में भारतमन्जरी ( महाभारत का सार ) और १०६६ ई० में दशावतार चरित की रचना की । इसने बुद्ध को नौवाँ अवतार माना है । इसने रामायणमंजरी ( रामायण का सार ) और पथ- कादम्बरी भी लिखी थी । यह काश्मीर का निवासी था । (५१) मंत्र का श्रीकण्ठचरित्र ( १२ वीं शताब्दी ) - इस काव्य में २५ वर्ग हैं। इसमें श्रीकण्ठ (शिव) द्वारा त्रिपुरासुर की पराजय का वर्णन है । म काश्मीर का रहने वाला था, और १२ वीं शताब्दी में हुआ था । (५२) रामचन्द्रकृत रसिकरंजन (१५४२ १० ) - इसकी रचना प्रयोध्या में १५४२ ई० में हुई । इस काव्य का सौन्दर्य इस बात में है कि इसके पद्यों को एक घोर से बढ़िये तो शृङ्गारमय काव्य प्रतीत होगा, और दूसरी ओर से पढ़िये तो साधु-जीवन की प्रशंसा मिलेगी । इसकी तुलना मैदीना निवासी विनोन के अपने गुरु मोसस बैसीला के ऊपर लिखे शोक-गीत से हो सकती है जिले चाहे इटैलियन भाषा का काव्य मानकर पदलो चाहे हिब का । A (५३) कतिपय जैन ग्रन्थ-- कुछ महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थ भी प्राप्त हैं, किन्तु वे अधिक लोकप्रिय नहीं हैं। यहां उनका साधारण उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा । (क) वादिराज कृत यशोधरचरित। इसकी रचना १० वीं शताब्दी में हुई थी। इसमें सब चारसर्ग और २१६ श्लोक हैं । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य निर्माता १५५ (स) हेमचन्द्र का ( ११६०-११७२ ई० ) त्रिषष्टिशलाका पुरु चरित इस ग्रन्थ में दस पर्व हैं जिनमें जैनधर्म के त्रेसठ ६६ श्रेष्ठ पुरुषों के जीवन चरित वर्णित हैं। उनमें से २४ जिन, १२ चक्रवर्ती, ६ वासु - विष्णुद्विट् हैं ] । यह अभ्थ विस्तृत और चित देव, ६ बलदेव और उकता देने वाला होते (ग) हरिचन्द्र का हुए भी महत्वपूर्ण है । शर्माभ्युदय | इस ग्रन्थ में २१ सर्ग हैं। इसके निर्माणकाल का पता नहीं है। इसमें तेरहवें तीर्थङ्कर धर्मनाथ क जीवन वर्णित है । (५४) ईमा की छठी शताब्दी में संस्कृत के पुनरुत्थान का वा ( India what can it teach us ) ' इण्डिया चट् कैन इट् दीच् अस' नामक अपने ग्रन्थ में प्रो० मैक्समूलर ने बड़ी योग्यता के साथ यह बाद प्रतिपादित किया है कि ईसा की छठी शताब्दी के मध्य में संस्कृत का पुनरुत्थान हुआ । अनेक त्रुटियाँ होने पर भी कई साल तक यह वाद क्षेत्र में डटा रहा । प्रो० मैक्समूलर की मूल स्थापना यह थी कि एक ( सिथियन ) तथा अन्य विदेशियों के आक्रमण के कारण ईसवी सन् की पहिली दो शताब्दियों में संस्कृत भाषा सोती रही । परन्तु इस सिद्धान्त में वचपमाण त्रुटियाँ थीं : (१) सिथियनों ने भारत का केवल पाँचवां भाग विजय किया था । (२) वे लोग अपने जीते हुए देशों में भी स्वयं शीघ्र ही हिन्दू हो गये थे ! उन्होंने केवल हिन्दू नाम ही नहीं अपना लिए थे, प्रत्युत हिन्दू भाषा (संस्कृत) और हिन्दू धर्म भी अपना लिया था । उपमदत्त (ऋषभदत्त ) नामक एक सिथियन वौर ने तो संस्कृत और प्राकृत की मिली-जुली भाषा में अपने वीर्य-कर्म भी उत्कीर्ण करवाए थे । कनिष्क स्वयं बौद्धधर्म का बहुत बड़ा अभिभावक था । 1 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास (३) यह बात निर्विवाद मानी जाती है कि इन्हीं राजाओं के संरक्षण में मथुरा में भारत की जातीच वास्तुकला और शिल्पकला (Sculpture ) ने परम उत्कर्ष प्राप्त किया था। आधुनिक अनुसन्धानों ने तो मैक्समूलरीय इस लिद्धान्न का अन्त 'हो कर दिया है । हम देख चुके हैं कि बौद्ध महाकवि अश्वघोष ईसा को प्रथम शताब्दी में ही हुश्रा और उस समय संस्कृत का इतना बोलबाला था कि उसे भी अपने धर्मोपदेश के अन्य संस्कृत मे ही लिखने पड़े। गिरनार और नासिक दोनों स्थानों के शिलालेख ईसा की दूसरी शताब्दी के हैं (जो अब उपलच हुए हैं ) वे मार्जित काव्य-शैली में लिखे हुए हैं । कई दृष्टियों से इनकी शैली की तुलना श्रेण्य संस्कृत के कथा-काव्यों की तथा गद्यकाव्यो की शैली के साथ की जा सकती है। ये लेख निश्चय रूप से सिद्ध करते हैं कि तत्कालीन राजाओं के दर्वारों में संस्कृत काव्यों की रचना खूब होती होगी। सच तो यह है कि ईला की दूसरी शताब्दी के पीछे भाने वाली शताब्दियों में भी संस्कृत काव्य के निर्माण का कार्य निरन्तर आरी रहा। हरिषेण लिखित ३५० ई. बाली समुद्रगुल की प्रशस्ति से पता चलता है कि वह कवियों का बडा आदर करने वाला और स्वयं कवि था। उसकी प्रशस्ति में कहीं कहीं बैदी शैली है (जैसी कालिदास और दण्डी के अन्धों में है) और कहीं कहीं लम्बे लम्बे समालों का भय है ( एक समाल तो ऐसा है जिसमें एक सौ बीस से भी अधिक वर्ण हैं)। इसके अतिरिक गुप्तकाल के अनेक शिलालेख मिले हैं जो काव्य शैली में लिखे हैं। शिलालेखों के इन प्रमाण से पूर्णतया प्रमाणित होता है कि ईसा की छठी शताब्दी तक संस्कृत कभी नहीं सोई । ईसा की पहजी और दूसरी शताब्दी में इसके सोने को शङ्का का अवसर तो और भी कम रह जाता है। प्रो० मैक्समूबर का मुख्य विषय था कि ईसा की छठी शताब्दी का मपाल संस्कृत कान्य के इतिहास में सुवर्ण युग था। मैक्समूलर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत का पुनरुत्थान की इस धारणा का आधार फगुसन (Fergusson) महोदय की वह स्थापना प्रतीत होती है जिसमें उन्होंने कहा है कि उज्जैन के विक्रमा. विश्य नामक किली दाजा ने ५४४ ई० में सिथियनों को परास्त करके उन्हें भारत से निकाल दिया और अपनी विजय की स्मृति में विक्रम सम्बत् प्रवर्तित किया और साथ ही पुरातनता के नाम पर प्रतिष्ठा प्राप्त कराने के प्रयोजन से इसे ६०० वर्ष पुराना प्रसिद्ध किया' । परन्तु पलीट (Fleet) महोदय ने शिलालेखों का गहन अनुसन्धान करके अब यह निन्तितया सिद्ध कर दिया है कि ५७.३० वाला भारतीय सम्बत उक्त विक्रमादित्य से कम से कम सौ लाज पहले अवश्य प्रचलित था, तथा छठी शताब्दी के मध्य में सिथियनों को पश्चिमी भारत ले निकालने की भी कोई सम्भावना प्रतीत नहीं होती; कारण, भारत के इस भाग पर गुप्तवंशीय सुपों का अधिका- था ईसा की छठी शताब्दी के मध्य में अन्य विदेशी लोग अर्थात् हूण अवश्य पश्चिमी भारत से निकाले गए थे; परन्तु उनका विजेता कोई विक्रमादित्य नहीं, यशोधर्मा विष्णुवर्धन था। प्रो० मैक्समूलर ने अनुमान किया था कि विक्रमादित्य के दार के काजिदास प्रादि माहित्यिक रत्नों ने ईसा की छठी शताब्दी के मध्य में संस्कृत को पुनरुज्जीवित किया होगा, परन्तु अब इतिहास में छठी विद्वानो को इस स्थापना पर प्रारम्भ से ही सन्देह था । इतिहास में ऐसे किसी अन्य सम्वत् का वर्णन नहीं मिलता जो पुरातनता के नाम पर प्रतिष्ठा प्राम कराने के लिए, या किसी अन्य कारण से, प्रवर्तन के समय ही पर्याप्त प्राचीन प्रसिद्ध किया गया हो । प्रश्न उठता है छः सौ साल प्राचीन ही क्यो प्रसिद्ध किया गया १ हजार साल या और अधिक प्राचीन क्या नहीं ? Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास शताब्दी के विक्रमादित्य का चिन्ह नहीं मिलता है। यही काजिदास की। पास अन्य प्रमाणों के आधार पर उसका कान छठी शताब्दी से पर्याप्त पूर्व सिद्ध किया जा सकता है। इसके भी प्रमाण हैं कि ईसा पूर्व की पहली शताब्दी में संस्कृत साहित्य में जितनी प्रगति थी उसनी ईसा के पश्चात् की छठी शताब्दी में नहीं। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १० संगीत-काव्य (Lyacs) और सूक्ति-सन्दर्भ (५५) संगीत-काव्य (खंड काव्य) का आविर्भाव संगीत-कान्य' का इतिवृत्त प्रायः कालिदास के मेघदूत और ऋतुसंहार से प्रारम्भ किया जाता है; परन्तु इस अवस्था में उस सारे श्रेएम. संस्कृत के संगीत-कान्य के आधार की उपेक्षा हो जाती है जिसकी धार ऋग्वेद के काल तक चली गई है। ____ भारतीय संगीत काव्य पाँच प्रकार का है और उसे पाच ही युगों में विभक्त किया जाता है। (१) ऋग्वेदीय काल का निःश्वसित संगीत काव्य-यह अंशतः धार्मिक भावना प्रधान और अंशत: लौकिक काममा प्रधान है । कभी-कभी वीररस के विषय को धार्मिक तत्व से मिश्रित कर दिया गया है। उदाहरण के लिए परम रमणीय उषा-सूक्त, विपाशा और शुतुदी नदियों की स्तुति ले पूर्ण वीररसमय संगीत (खंड) कान्य (Lyrics) या सुदास की विजय का वीररसमय अनुवाक देखा जा १ संगीत (खंड) काव्य का प्रधान लक्षण यह है कि इसमें अर्थसम्बन्ध से परस्पर सम्बद्ध अनेक पद्यों की बहुत लम्बी माला नहीं होती अपितु इसमें किसी प्रेम-घटना का या किसी रस का वर्णन करने गला कोई छोटा सा शब्दचित्र रहता है। २ अलौकिक शक्ति प्रेरित Inspired: Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ShTH १६० संस्कृत साहित्य का इतिहास सकता है। इन काव्यों (Lyrics) में ऋषियों (Seers) के नियाज उद्गार भरे हुए हैं जो शयः प्रकृति की उपकारिणी शक्तियों के वशीभूत होकर प्रकट किए गए हैं। ये मन्त्र बहुत सोच कर चुने हुए छहों में रचे गए हैं जिनमें प्राय: अन्यानुप्रास भी पाया जाता है और जो गाए भी जा सकते हैं। (२) भक्तिरसमय संगीत-काव्य-इस भेद के उदाहरण प्राधिक्य के साथ बौद्ध तथा उपनिषद् ग्रंथों में पाए जाते हैं जिनमें भवीनधर्म की प्रालि होने पर हृदय का विस्मय सहसा संगीर-काव्य के पथ के रूप में प्रकट हो जाता है। हायर ___३) ऐतिहासिक ( Epic ) या भावुक (Sentimental ) संगीत काव्य-इस जाति के उदाहरण महाभारत में और उससे भी अधिक रामायण में प्रकृति-वर्यानों में उपक्षध होते हैं। (४) रुपक-माहित्य का विविका शृंगाररसपूर्ण संगीतकास अशी में वे लोक पाते हैं जो रूपकों के पात्रों द्वारा प्रेमादि का वर्णन करने के लिए बोले जाते है ! यह श्रेणी उस सोपान का काम देती है जिस पर पैर रह कर भक्तिरस के संगीव-काव्य से या ऐतिहासिक संगीच-काव्य में उठकर महरि और प्रमह जैसे अकालीन कवियों की श्रेणी में प्रवेश किया जाता है। इन कवियों के हाथों में पहुँच कर संगीत-काव्य साहित्य का एक परतन्द्र अंगन रह कर स्वतंत्र अङ्गी बन गया है। (५) ऊर्धकालीन कवियों का संकीण शृङ्गार म्ममय या रहस्यमय संगत-काव्य-इस कोटि में पहुँच कर संगीत-काव्य में शृङ्गाररस और धार्मिक भावना का ऐसा सम्मिश्रणा पाया जाता है जिसमें यह मालूम करना दुस्साध्य है कि लिखते समय लेखक में रति का अतिरे कथा अथवा भक्ति का । भक्तिरस वाले या ऐतिहासिक संगीत काव्य के साथ इसकी तुलना करके देखते हैं, इसमें शृङ्गारस की या प्रकृति के अथवा किसी स्त्री के सौंदर्य के प्रत्युक्तिपूर्ण वर्णनों की अधिकता पाते Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगीत-काव्य के कर्ता हैं। ये संगीत-काव्य कवियों की महतो निरीक्षण सम्पति तथा तीन अनुभूति के साक्षी हैं। इनमें से कई प्रतिपाय अर्थ की बाल कल्पना की दृष्टि से सुषमाशाली दुर्लभ रत्न है । मानवीय जीवन तथा प्रेम-तत्व को भिव्यक्त करने के लिए इनमें चात्तक, चकोर, चक्रमा इत्यादि नाना नवरों को पक्का-श्रोता बनाया गया है। इस सारे संगोस-काव्य में स्शुपक्षी, लता-पादप इत्यादि द्वारा बन्छ। मास्वपूर्ण काम लिया गया है और कविकृत उनका वर्णन बड़ा ही धमत्कारी है । इस अध्याय में हमारे बयान का क्षेत्रफल उकालीन उन्हीं कवियों तक सीमित रहेगा जिन्होंने संत-काव्य का साहित्य-संसार में स्वतन्त्र अङ्गी स्वीकार करके कुड़ संगीत-काव्य के कर्ता (५६)शृङ्गारतिसक-इसका कर्ता कालिदास' कहा जाता है, परंतु इसका प्रमाण नहीं मिलता है। इसमें केवल तेईस । २३) पध है। इसका कोई कोई पद्य वस्तुतः बड़ा ही हृदयङ्गम है । एक नमूना देखिए : इयं व्याधायते बाला रस्याः कार्मुकायते । कटाक्षाश्च शरायन्ते मनो मे हरिणामसे ॥ फिर देखिए । कवि को शिकायत है कि सुंदरी के अन्य अवयवों का निर्माण मृदुल कमलों से कर के उसके हृदय की रचना पाषाण से क्यों की गई : - इन्दीवरेया नयनं मुखमम्बुजेन कुन्देन दन्तमधरं नवपल्लवेन। अंगानि चम्पकदलैः स विधाय वेधाः कांते ! कथं घटितवानुपलेन चेतः । काजिदास के नाम से प्रसिद्ध एक और संगीत-काग्य है---रामखकाव्य, परन्तु यह पूर्वोक काव्य से अत्यन्त अपकृष्ट है और निबर १. कालिदास के सुप्रसिद्ध संगीत-काव्यो मेघदूत और अतुसंहार के लिए खंड २० वा २१ देखिए । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सत्कृत साहित्य का इतिहास ही कालिदास की कृति होने की प्रतिष्ठा प्राह करने का अधिकारी (५७) घटकपर-इलके रचयिता का नाम भी वही है जो इस काव्य का है-~-घटकपर । इसमें कुल २२ पद हैं। घटकपर का नाम विक्रमादित्य के नौ रत्नों में लिया जाता है । अन्तिम पछ में कवि ने साभिमान कहा है कि यदि कोई मुमले अच्छे यमकालंकार की रचना करके दिखजाए तो मैं उसके लिए धड़े के ठाकरे में पानी भर कर लाने को तैयार हूँ। इस काव्य का विषय मेघदूत से बिल्कुल उलटा है अर्थात इसमें एक विरहिशी वर्षा ऋतु थाने पह मेव के द्वारा अपने पति को सन्देश भेजती है। (५८) हाल की सतसई[सप्तशती ---यह महाराष्ट्रो प्रायत का प्रबन्ध काव्य है क्योंकि इसमें परस्पर सम्बद्ध सात सौ पद्य है। इसका कर्ता हाल या सातवाहन प्रसिद्ध है। कहा नहीं जा सकता कि सातवाहन या हाल इन पद्यों का रचयिता है या केवल संग्रहकर्ता है । यह सतसई इसवी सन की प्रारम्भिक शताब्दियों से सम्बन्ध रखती है परन्तु इसके लिए कोई विशिष्ट काज मिति नहीं किया जा सकता। हर्षचरित की भूमिका में बाण ने इसकी प्रशंसा की है। यह सतसई सर्वसाधारण जनता का कोई काम नहीं है, कारण, इसकी रचना कृत्रिम तथा मनोयोग के साथ अध्ययन की हुई भाषा में हुई है। वर्णनीय विषयों में विविविधता विद्यमान है। यही कारण है कि इसमें गोप-गोपिका, व्याध-स्त्रियाँ, मालिन, हस्तशिल्पोजीवी इत्यादि विभिन्न श्रेणियों के स्त्री-पुरुषों के मनोरजक तथा विस्मयोत्पादक वर्णन है, प्रकृति के बोचन-लोमनीय दृश्य अंकित हैं जिनमें कभी-कभी शृङ्गाररस का संसर्श पाया जाता है तो कभी वे उससे बिल्कुल विवि देखे जाते हैं। कहीं-कहीं शिक्षाप्रद पद्य भी सामने आ जाते हैं। उदाहरणार्थ, एक प्रोषितपतिका निशम्मति से प्रार्थना करती है कि तू ने जिन किरया से मेरे जीवनबलम का स्पर्श किया है उन्हीं से मेरा भी स्मर्श करे । एक प्रवत्स्यगत Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाल- छतसई १६३ का चाहती है कि सदा शत ही बनी रहे, दिन कभी न निकले क्योंकि प्रभात काल में उसका जीवन-माथ विदेश जाने को तैयार है। कोई वृधातुर 'पथिक' किसी उद्यद्यौवना कन्या को कुएं पर पानी भरती हुई देखकर इस पानी पिलाने को कहता है और उसके सुन्दर बदन को देर तक देखते रहने का अवसर प्राप्त करने के लिए अपने चुल्लु में से पानो गिराने जगता है; जो इच्छा पथिक के सन में थी उसी इच्छा से पानी पिज्ञाने वाली भी उसके चुल्लू में पतली धार से पानी डालना प्रारम्भ करती है। वर्षा ऋतु के वर्णन में कुसुमों पर द्विरेफों के गुजारने का मूसलाधार वर्षा में मोरों और कौधों के हर्ष मनाने का और साभिलाष हरियों व कवियों के अपनी सहचारियों के तलाश करने का वयंग बढ़ा ही हृदयदारी नीति-सम्बन्धी बहुति का उदाहरण देना हो तो सुनिए - ' कृपय को अपना धन इतना ही उपयोगी है जितना पथिक को अपनी छाया । जगत में बहरे और अन्धे ही धन्य हैं; क्योंकि बहरे कटुशब्द सुनने से और अन्धे कुरूप को देखने से बचे हुए हैं ।" कहीं कहीं नाटकीय परिस्थितियाँ भी विचित्र मिलती हैं:- एक कुशल-मति स्त्री बहाना करती है कि मुझे बिच्छू ने काट लिया है; इस बहाने का कारण केवल यह है कि इसके द्वारा उसे उस वैद्य के घर जाने का अवसर मिल जाएगा जिसके साथ उसका प्रेम है । 1 अनुकरण -- प्रकाश में आए हुए अनुकृत प्रन्थों में से सब से अधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ गोवर्धन को श्रायतिती है। इसकी रचना ईसा की १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बंगाल के महीपति लक्ष्मणसेन के दरबार में हुई थी। इसमें सात सौ मुक्तक पथ हैं जो अकारादि के क्रम से रखे गए हैं। सारे प्रन्थ में शृङ्गाररस प्रधान है। इसके अध्यायों को बज्या का नाम दिया गया है। ध्वनि सिद्धान्त में विशेष पक्षपात होने के कारण लेखक ने अन्योक्ति ( व्यवहित Indirect व्यञ्जना ) का बहुत प्रयोग किया है । जैसे शम्भु ( ११०० ई० ) को अन्योक्तिमुक्त-जता में या Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संस्कृत साहित्य का इतिहास aitree' के अन्त में वैसे ही इसमें भी प्राय श्रङ्गाररस की हरीति से की गई है । यह संस्कृत में है पर मूल्यको से हाल की सतसई से घट कर है । एक और अनुकून wr feat fast की सतसई है। इसमें लगभग सात सौदा हैं जिनमें रस है । इसमें नायक के सम्बन्ध से विविध परिस्थितियों में विभिन्न मनोवेगों से उत्पन्न होने बाकी नायिका के नाना रूपों के चित्र प्रति किये गए हैं । (५६) भट हरि - सङ्गीत-काव्य के इतिहास में तृहरि का स्थान कालिदास से दूसरे नम्बर पर है । उसके तीन ही शतक प्रfter हैं--शृङ्गार शतक, नीविशतक और वैराग्यशतक | पहले शतक में प्रेम का दूसरे में नीति ( Moral policy ) का और तीसरे में वैराग्य का वर्णन है । इनमें से प्रत्येक में सौ से कुछ अधिक हो पय पाए जाते हैं, परन्तु यह कहना कठिन है कि वे सब भर्तृहरि की ही रचना हैं। इनमें से कुछ शकुन्तला, मुद्रा और चन्द्रादयाचिका में भी आए हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो सूक्ति सन्दर्भों में किसी अन्य refrता के नाम से संग्रहीत हैं । चाहे उसके नीति और वैराग्यशतक में किलो अन्य रविता के भो तो संगृद्दीत दो; परन्तु श्रङ्गारशतक उसी के मस्तिष्क की उपज्ञा प्रतीत होती है । यह भतृहरि कौन था ? इन शतकों के रचियता के जीवन के बारे में बहुत कम बातें ज्ञाव होता हैं । जनश्रुति से भी कुछ अच्छी सहायता नहीं मिलती है यह भतृहरि कौनसा भर्तृहरि था, इतना तक ठीक ठीक मालूम नहीं। चीनी यात्री इन्सिङ्ग ने वाक्यपदीय के कर्ता भर्तृहरि नामक एक वैयाकरण की मृत्यु ६१५ ई० में लिखी है। यह भी लिखा है कि उसने dure जीवन के श्रानन्द की तथा गृहस्थ जीवन के प्रमोद को रस्सियों १ इसके काल का पता नहीं है । २ सूक्ति-सन्दमों में प्रायः परस्पर विरोध भी देखा जाता है, अतः हम उनके साक्ष्य पर अधिक विश्वास नहीं कर सकते हैं। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत हरि १६५ से चने मूते पर कई मोटे खाए थे। इसी साय पर प्रो. मैक्समूलर (Max Mulher)ने विचार प्रकट किया है कि कदाचित् यही भतृहरि वह तीनों शतकां का कर्ता हो । चाहे उक्त प्रोफैसर साहब के अनुमान में कुछ सत्यांश हो तथापि यह निश्चित रूप में ग्रहण नहीं हो सका, क्यों कि इस शतकों का रचयिता कोई बौद्ध नहीं, प्रत्युत वेदान्तसम्प्रदाय का एक श्रद्धालु शिवोपासक है। बहुत सम्भव है कि इरिसङ्ग ने इन शतकों के विषय में कुछ न सुना हो या जान-बूझकर इनकी उपेक्षा कर दी हो। शैली मतृहरि का प्रत्येक श्लोक दाबण्यमयी एकतन्वी कविता है और इतनी सामग्री से पूर्ण है कि उसने ईजिश का एक चतुर्दशपदो पद्य (Sonnet) चन्न सकता है । ऐसा अद्भुत कार्य कर के दिखलाना कुछ असम्भव नहीं है, क्योंकि संस्कृत भाषा में गागर में सागर भरने की असाधारण योग्यता है और भतृहरि निस्सन्दव इस विषय में बड़ा ही निपुण है। उसने नीतिशतक में बड़ी सुन्दर एवं शिक्षाप्रद कविता है। देखिए महापुरुष का लक्षण बताते हुए क्या लिखा है :-- विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वालपटुता युधि विक्रम । यशसि चाभिरुचियसमं श्रतो, प्रकृतिसिमिदं हि महात्मनाम् ॥ वैराग्य शतक में बिल्कुल ही कुछ और कहा है : प्राकान्तं मरण न जन्म जरसा चास्युत्तमं यौवनं, सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गाना-विभ्रम । बौकर्मसरिभिगुणा वनभुवो व्याजेनुपा दुर्जन, १ विपत्ति में धैर्य, सम्पत्ति मे क्षमा, सभा में वाक्चातुर्य, युद्ध में पराक्रम, यश के लिये अभिलाशा और श्रुति के अध्ययनादि का व्यसनये बातें महापुरुषों में स्वाभाविक होती हैं। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सस्कृत साहित्य का इतिहास रस्थेश विभूतयोऽयुपहता प्रस्तं न कि केन वा ॥ उसके प्रिय छन्द शार्दूलविक्रीडित और शिखरिणी हैं। समय- यदि इन शतकों का रचयिता भन् हरि वाक्यपदीय का का मतृहरि ही न माना जाए तो इस भतृहरि के समय के विषय में कुछ मालूम नहीं । कुछ किंवदन्तियों के अनुसार वह प्रसिद्ध नृपति विक्रमादित्य का भाई था; परन्तु इतने से उसके कान का संशोधन करने में अधिक सहायता नहीं मिलती। कोई कोई अहते हैं भट्टिकाव्य का प्रणता भहि हो मत हरि है; परन्तु इस कथन का पोषक भी पर्याप्त प्रमाण मान्य नहीं है। (६०) अमरु ( ईसा की ७वी श. इस कवि के अमरु और अमरुक दोनों नाम मिलते हैं। इसके काव्य अमरु शतक के चार संस्करण मिलते हैं जिनमें १० से लेकर १११ ३ श्लोक है। इन में से ११ १२ सत्र संस्करणों में एक से पाए जाते है; परन्तु क्रम में बड़ा भेद पाया जाता है। सूक्ति-संग्रहों में इसके नाम से संग्रहीत श्लोकों का मेख किसी संस्करण ले नहीं होता है । अतः निश्चय के साथ श्रमजी अन्ध के पाठ का पता लगाना असम्भव है । इसके टीकाकार अजुननाथ (१२१५ ई.) ने जो पाठ माना है संभव है, वही बहुत कुछ प्रमाणित पाठ हो। टीकाएँ ---किंवदन्ती है कि शङ्कराचार्य ने काश्मीर के राजा के मृतशरीर को अपनी प्रास्मा के प्रवेश द्वारा जोवित करके उसके स्नवास १ जीवन को मृत्यु ने, उत्तम योवन को बुढ़ापे ने, सन्तोष को धन की तृष्णा ने, शान्ति-सुख को पूर्ण युवतियों के हाव-भावों ने गुणो को दोषपूर्ण लोगो ने. बनस्थलियों को सपों (या हाथियो) ने, राजाओं को दुष्टो ने, अभिभूत कर रखा है; सम्पदाओ को भी क्षणभङ्गुरता ने खराब कर दिया है। किस ने किसको नहीं निगल रक्खा है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीत-काव्य के कर्ता १६० " की सौ रानियों के साथ प्रेस-केलि करते हुए जो कुछ अनुभव किया था वही इन जोकों में वर्णित है; परन्तु यह किंवदन्ती निरी किंवदन्ती हो है । इसके एक टोकाकार रविचन्द्र ने इन पर्थो की वेदान्तपरक व्याख्या की है । प्रेमपाल ने (१४वीं श० ) इन में नायिका वर्णन पाया है । किन्हीं - किन्हों की दृष्टि में ये विविध श्रजङ्कारों के उदाहरण हैं । सारे को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह शतक प्रेम के विभिन्न वण -चित्रों का एक ऐल्बम है। श्रम का दृष्टिकोण भतृहरि के दृष्टिकोह से बिल्कुल भिन्न है । भर्तृहरि ने तो प्रेम और स्त्री को मनुष्य जीवन के निर्माण में अपेक्षित उपादान सत्व मानकर उनके सामान्य रूपों का वर्णन किया है; परन्तु अमरु ने प्राबियों के अन्योन्य सम्बन्धका विश्लेषण करना अपना लक्ष्य रखा है 1 शैली --- प्रमह वैदर्भी रीतिका पक्षपाती है । सो इमने दीर्घ या क्लिष्ट समास अपनी रचना में नहीं आने दिये हैं। इसी भाषा विशुद्ध और शैखी शोभाशालिनी है। इसके श्लोकों में वीर्य और चमत्कार है जो पाठक पर अपना प्रभाव अवश्य डालते हैं। प्रेम के स्वरूप के विषय मैं इसका क्या मत है ? इस प्रश्न का उत्तर है कि मोद-प्रमोद ही प्रेम हे । छोटी सी कजह के पश्चात् मुस्कराते हुए प्रथियों को देखकर यह बड़ा प्रसन्न होता है | देखिए प्राणों को गुदगुदा देने वाली एक कथा को कवि ने किस कौशक से संक्षेप में एक ही श्लोक में व्यक्त कर दिया है --- बाजे ! नाथ ! विमुख मानिनि ! रुप, रोषान्मया किं कृतम् ? खेदोऽस्मासु, न मेऽपराध्यति भवान् सर्वेऽवसधा मयि ! तत् कि रोदिषि गद्गदेन वचसा ? कस्याप्रती रुद्यते ? नन्दम्मम, का तवास्मि ? दयिता, नास्मीत्यतो रुपते !! १ १ 'प्रिये !', 'स्वामिन् !' 'मानिनि ! मान छोड दे ।', मान करके मैने आपकी क्या हानि की है' ? 'हमारे हृदय में खेद पैदा कर दिया है' 1 'हॉ, आप तो कभी मेरा कोई अपराध करते ही नहीं ! सारे अप TE Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ संस्कृत साहित्य का इतिहास इस कवि का प्रिय छन्द शादूलविक्रीडित है । समय - ( २ ) आनन्दबध ेन ने ( ८५० ई० ) अमरुशतक को एक बड़ा ख्यात-मात ग्रन्थ माना 1 (ख) वामन ते ( ८०० ई० ) इसमें से तीन लोक उद्घृत किए हैं। मिश्च मे तो कुछ नहीं कहा जा सकता, परन्तु ईसा की सातवीं शताब्दी अमरु का बहुत-कुछ ठीक समय समझा जा सकता है । (६१) मयूर (वों श०) मयूर हर्षवर्धन के दर्बारी कवि बाण का ससुर था; यह प्रसिद्ध है । इसका सूर्यशतक प्रसिद्ध है । इस कारण की रचना का कारण बतलाने वाली एक प्रमाणापेत प्रसिद्धि है। कहा जाता है कि मयूर ने अपनी ही कन्या के सौंदर्य का बड़ा सूक्ष्म वर्णन किया था इस पर कुपित होकर कन्या ने शाप दे दिया और वह कोडी हो गया। तब उलने सूर्यदेवता की स्तुति में सौ श्लोक बनाए, इसमें उसका कोद नष्ट हो गया । (६२) दिवाकर (७वीं श०) --- यह भर्तृहरि और मयूर का समकालीन था । इसने अपने समय में अच्छा नाम पाया था । इसक थोड़े से श्लोक सुरक्षित बजे श्रा रहे हैं । (६३) मोहमुद्गर -- रूप-रंग और विषय दोनो के विचार से इसकी तुलना भर्तृहरि के वैराग्यशतक ले की जा सकती हैं। इसका कोई कोई श्लोक वस्तुतः बड़ा सुन्दर हैं । यह शहर की रचना कही जाती है; परन्त इसका प्रमाण कुछ नहीं है । (६४) शिक्षण का शान्तिशतक - इस ग्रन्थ में कुछ बौद्ध मनोवृत्ति पाई जाती है। इसका समय निश्चित है । काव्य की दृष्टि से यह भर्तृहरि की रचना से घटिया है और अधिक लोकप्रिय भी नहीं है । राध मुझ में ही है' !! 'तब फिर गद्गद् कण्ठ से रोती क्यो हो ' ? 'किस के सामने रोती हूं ?' 'हूं' यह मेरे सामने रो रही हो या नहीं ?' 'तुम्हारी क्या लगती हुँ' ? 'प्यारो' | 'प्यारी नहीं हूं, इसीलिए तो रोना श्रा रहा है।' Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ শিক্ষা अनुभूति की गहराई में यह अत हरि के अन्य से निस्सन्देह बढ़कर है। (६५) बिल्हण की चौरपंचाशिका (११ वीं श०) इस अन्य के नाम 'चौरपंचाशिका' के कई अर्थ लगाए जाते हैं। एक कहते है...-'ची परित पचास पच' । दूसरे कहते है---'चौर्यरत पर पचास पध' । तीसरी श्रेणी के लोग कहते हैं ... "चौर नामक कवि के बनाए हुए पचास पद्य", इत्यादि । किन्हीं किन्हीं हस्तलिखित प्रतियों में इसे 'बिल्हण-काव्य' लिखा है, इसमे प्रतीत होता है इसका रचयिता विषहण था, वही बिल्हण जो विक्रमांकदेवचरित' का ख्यातनामा प्रणेता है। इस ग्रन्थ के शाश्मीरी और दक्षिण भारतीय दोनों संस्करण कवि की किवदन्ती प्रसिद्ध प्रेयसी राजकुमारी का वर्णन भिन्न भिन्न देते है। सम्भवतमा कवि ने किसी राजपुत्री के साथ किसी चोर के अनुराग का वर्णन किया हो। इसमें सुखमय म के तथाकथित अनिर्वचनीय दृश्यों का बडा मनोरन्जक सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन है। आदि से अन्त तक शैली सरल, सुन्दर और अपरानुरूप है। वर्णित भावों में पर्याप्त विविधविधता पाई जाती है। प्रत्येक पद्य का प्रारम्भ 'अद्यापि (आज भी, अभी तक) से होता है और प्रत्येक पथ तीन अनुभूतियों तथा गहन मनोवेगों से भरा हुआ है । एक उदाहरण बीजिए : अद्यापि at प्रणयिनी मृगशावकाची, पीयूषवर्णकुचकुम्भयुगं वहन्तीम् । पश्याम्यहं यदि पुनर्दिवसावसाने, स्वर्गापवर्ग वाराणसुखं त्यजामि ॥ सा के सारे अन्य में वसन्त तिलका छन्द है ॥ (६६) जयदेव जयदेव बान के राजा लक्ष्मणसेन के दार के पाँच रस्मों में था। इसके गीतगोविन्द का हान संस्कृत साहित्य के १ विक्रमांकचरित पर टिप्पणी के लिए खण्ड ७२ देखना चाहिए। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० संस्कृत साहित्य का इतिहास व काव्यों की श्रेणी में है। बोक-निषता में इस से बढ़ कर किसी শ্রীহ ছল্পীঃ ক্লা জা ব্যাল্প ক্লিকাজ ঝ?? হানী a इसके रचयिता की प्रतिष्ठार्थ इसकी जन्म-वडली में प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले उत्सव में रात्रि को गीतगोविन्द के गीत गाए जाते रहे है। इसका अपने आपको कविराज शहना धिरकुल यथार्थ है । सर विलियम जोन्स (Sir william Jones) द्वारा तैयार किए हुए इसके एक विकृत संस्करण को ही देख कर गेटे (Goeth:) ने इसकी बड़ाई करते हुए कहा था--"यदि उस्कृष्ट काब्य का यहा लक्षण है कि उनका अनुवाद करना अस्वम्भव है तो जयदेव का काब्य वस्तुतः ऐसा ही है" १ । बाह्याकृतिगीत गोविन्द की बाह्याकृति के बारे में अनेक मत्त हैं। भिन्न-भिन्न कला-कोविदों ने इसके भिन्न भिन्न नाम रक्खे हैं; जैसे---- सङ्गीत काव्यात्मक रूपक (Lyric drama) (बासेन Lassen), मधुररूपक (Melodrama) (पिश Pischel), परिष्कृत यात्रा (Refined Yatra वॉन बॉडर (Von schrodder), पशुचारकीय रूपक (Pastoral drama)(जोन्स Jones), गीत और रूपक का मध्यवर्ती काव्य (Between Song and drama) (लेवि LEVI)। परन्तु यह अन्य मुख्यतया कान्य श्रेणी ने सम्बन्ध रखता है। यह बात ध्यान रखने की है कि प्रत्यकर्ता ने स्वर्ग इसे सों में विभक किया है अंकों में नहा । गौर उत्सवों में मन्दिरों में गाने के उद्देश्य से रचे गए हैं, इसीलिए उनके ऊपर रा और तान का नाम दिया गया है। सच तो यह है कि साहित्य में यह अन्य अपने ढंग का श्राप हो है और कवि की यथार्थ उपज्ञा है। उच्चारणीय पाठ और गील, कथा, वर्णन और भाषण सब के सब बड़े विचार के साथ परस्पर गूथे गए है। व षय- इस सारे मन्ध में १२ लग है जो १४ प्रबन्धों १ प्रो० ए. बी. कीथ (Keith) कृत 'ए हिल्टराव सस्कृत लिटरेचर' (१९२८) पृष्ठ १३५ । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयदेव-गीत गोविन्द (अण्डों) में विभक है। प्रबन्धों का उपविभाग पदों या गीतों में किया गया है। प्रत्येक पद या गीत में श्राउ पद्य है। गीतों के चक्का कृष्ण. राधा या राधा की सखी हैं । अत्यन्त नैराश्य और निरवधि वियोग को छोड़कर बचे हुए भारतीय-प्रेम के अभिलाष, ईा, प्रत्याशा, नैराश्य, कोप, पुनर्मिलन और कलबत्ता इत्यादि सारे रूपों का बड़ी योग्यता के लाध वर्णन किया गया है। वर्णन इतना बढिया है कि ऐसा मालूम होता है मानो कवि काम-शास्त्र को कविता के रूप में परिणत कर रहा है। मानवीय रागांश के चित्रण में प्रकृति को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, तो हमें इस काव्य में भूतरान, ज्योत्स्ना और सुरभि समीर का कण न देखने को मिलता है। और तो और पक्षी तक प्रेम देव की सर्वशक्तिमत्ता का महिमा गाते नज़र पाते हैं। रूपकातिशयोक्ति या अप्रस्तुत प्रशंसा ( Allegory)। कुछ विद्वानों ने इस सारे काम को अप्रस्तुतप्रशंसा (Allegory) मानकर बाध्य अर्थ में छुपे व्यग्या को व्यक्त करने का प्रयत्न किया है। उनके मत से कृष्ण मनुष्याला के प्रतिनिधि हैं, गोपियों की कोड़ा अनेक प्रकार का वह प्रपञ्च है जिसमें मनुष्यारमा अज्ञानावस्था में फंसा रहता है, और राधा ब्रह्मानन्द है। कृष्ण ही कवि का उपास्य देव था, इस बात से इनकार नहीं हो सकता । शैली-~-जयदेव वैदर्भी रीति का अनुगामी है। उसने कभी-कभी दीर्घ समासों का भी प्रयोग किया अवश्य है किन्तु उसकी रचना में दुर्बोधता का या क्लिष्टान्वयता का दोष नहीं पाया है। सच तो यह है कि ये गीत सर्वसाधारण के सामने विशेष-विशेष उत्सवों में गाने के लिए लिखे गए थे [अत. उनको सुबोध रखना आवश्यक था] । कवि की प्रतिमा ने उसे साहित्य में एक बिल्कुल नई चीज़ पैदा करने के योग्य बना दिया। इन गीतों में असाधारण प्रकृत्रिमता और अनुपम माधुर्य है। सौन्दर्य में, सङ्गीतमय वचनोपन्यास में और रचना के खौष्ठव में Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्कृत-साहित्य का इतिहास इसकी शैली की उपसा नहीं लिखती है। कभी पदों की देगी धारा द्वारा और कमी चातुर्य के साथ रचित दोधसमासों की लयपूर्ण गति द्वारा अपने पाठक या श्रोता पर यथेच्छ प्रभाव डालने की इसमें अद्भुत योग्यता है। यह नाना छन्दों के प्रयोग में ही कृतहस्त नहीं है किन्तु अहवरण के मध्य और अन्त दोनों तक में एक-सी तुक लाने में भी अद्वितीय है। उदाहरण देखिए:-- हरिरभिसरति वइति मधुपवने, किमपरमधिक सुखं ससि भवने । इस तुकान्त रचना को देकर किसी किसी ने कह डाला है कि शायद गीतगोविन्द का निर्माण अपभ्रंश के किसी नमूने के अाधार पर हुश्रा होगा परन्तु यह अनुमान डोक नहीं है क्योंकि ऐसी रचना का आधार अन्त्यानुमान है जो संस्कृत में जयदेव के काल से बहुत पहले हे प्रसिद्ध चला जा रहा है । तात्पर्य यह है कि जय देव को शैली की जितनी प्रशंसा की जाए थोड़ी हैं। इसने मानवीय भागात्मक भाव के साथ प्रकति-सौन्दर्य का सम्मिश्रण तो बड़ी योग्यता से किया ही है, भाषानुरूप ध्वनि का भी इस दीति से प्रयोग किया है कि इसकी कृत्ति का अनुवाद हो हो नहीं सकता है। इस तथ्य को विशद करने के लिए एक उदाहरण नीचे दिया जाता है। राधा कहती है (सर्ग =)-- कथितसमयेऽपि धरिरहह न ययौ वनम्, भम विफलमिदममलरूपमपि यौवनम् । यामि हे कमिह शरणं खोजनवचनवश्चिता, मम मरणमेव वरमिति विसथ केतना ॥ किमिति विषहामि विरहानलमवेतमा ।। यामि है.' ' सीसरे सर्ग में नदी तट के कुझगृह में बैठे २ मारव कहते हैं मामियं शालिता विलोक्य वृतं वधूमिश्चयन, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति -संदर्भ सापराधमया मयापि न वारिताऽतिमयेन ॥ हरि हरि इतादरतया गता सा कुपितेव ।। किरिष्यति किं वदिष्यति सा चिरं विरहेण । किं धनेन जनेन कि मम जीवितेन गृहे ॥ हरि हरि .. इस अन्य पर अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं और अनेक कवियों ने इलाके अनुकरण पर लिखने का प्रयत्न किया है। १६६) शोधाममारिका-यद्याप सन्धि-संग्रहों में और भी अनेक सङ्गीत (खण्ड) काव्य-प्रणेताओं के उल्लेख मिलते हैं तथापि वे लगअग इन योग्य नहीं है कि यहां उनका परिचय दिया जाए। हां, शीबमहारिका का नामोल्लेख करना अनुचित न होगा क्योंकि इसके कई पछ वस्तुनः परम रमत्मीय हैं। बानगी का एक पच देखिए: दूति तरुणी, युवा स चपन:, श्यामास्तपोभिर्दिशः, सन्देश' सरहस्य एष विपिने संकेतकाऽऽवासकः । भूयो भूय इसे वसन्तमरुतश्चेतो नयन्त्यन्यथा, गच्छ क्षेमसमानामा निपुणं रक्षन्त ते देवताः ।। इसकी भाषा नैसर्गिक और शली सौष्ठवशालिनी है। इसका प्रिय छन्द शान-विक्रीडित है। (६८) सूक्ति-सन्दर्भ। सूक्तिसन्दर्भ वे ग्रन्थ हैं जिनमें पृथक् पृथक काब्य-कलाकारों की कृतियों में से चुने हुए पद्य पङगृहीत हैं। काल-दृष्टि से वे अधिक पुराने नहीं है, पर उनमें सामग्री पर्याप्त पुरानी सुरक्षित है। जिन खएकाव्यकारों और नीतिकाव्यकारों के केवल नाममात्र सुनने में प्रात हैं उनके उदाहरण इन सूक्ति-संदर्भो में सुरक्षित हैं । परन्तु इन पर १ जयदेव के सम्बन्ध में मूल्य की केवल एक ही चीज और है और वह है हिन्दी में इरिगोविन्द की प्रशस्ति, यह सिक्खो के 'श्रादि अन्य' में सुरक्षित है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ संस्कृत साहित्य का इतिहास पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि उनमें देखा जाता है। एक सूक्ति-सन्दर्भ में एक पद्य एक दिया हुआ है तो दूसरे में वही पद्य दूसरे कवि के नाम से । इससे प्रकट होता है कि कवियों के इतिहास की कोई यथार्थ परम्परा न होने के कारण पुराने समय में भी संग्रहकारों को पद्यों के रचयिताओं के नाम निर्धारित करने में बड़ी कठिनता पड़ती थी । संस्कृत में अनेक सूक्ति सन्दर्भ हैं; परन्तु यह केवल अधिक महत्वपूर्ण प्रन्थों का ही परिचय दिया जाता है । 6 परस्पर बहुत भेद कवि के नाम से (१) कन्द्रवचन समुच्चय--अबतक प्रकाश में श्राप सूक्तिअन्थों में यह सब से पुराना है। इसका सम्पादन डा. पेफ डब्ल्यू टॉमस (Thomas ) ने बारहवीं शताब्दी की एक नेपाली हस्तलिखित प्रति से किया था। इसमें पृथक पृथक कवियों के ५२२ इलाक संगृइति हैं; परन्तु उनमें से सब के सब १००० ई० से पहले के है ॥ (२) सदुक्तिकर्णामृत (या, सूक्तिकर्णामृत ) - इसकी रचना १२०५ ई० में बज्ञान के राजा लक्ष्मणसेन के एक सेवक श्रीधरदास ने की थी। इसमें ४४६ कवियों की रचनाएँ संगृहीत हैं । इन कवियों में से fear बङ्गाली ही हैं । (३) सुभापित मुक्तावली — इसका सम्पादक जल्द है जिसका प्रादुर्भाव काल ईसा की १३वीं शताब्दी है' । इसले पद्यों की स्थापना विषय-क्रम से की गई है । 'कवि और काव्य' पर इसका अध्याय बडा उपयोगी है। क्योंकि इससे कई कृतिकारों के बारे में अनेक निश्चित बाव मालूम होती हैं । (४) शाङ्गधरपद्धति – इमे १३३३ ई० में शाङ्गधर ने लिखा था । १६३ खण्डों के अन्दर इसमें ४६८६ श्लोक हैं । कुछ श्लोक १ 'मद्रास सूची - प्रन्थ ( Catalogue ) के २०, ८११ के अनुसार इसे १२७५ ई० में वैद्यभानु पण्डित ने जल्हण के लिए लिखा था । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक (alfareक) काव्य १७५ शाङ्ग घर के अपने बनाए हुए भी हैं। सूफिसन्दर्भों में यह सब से अधिक महत्वशाली है । (५) सुभाषितावले - इसका सम्पादन १६वीं शताब्दी में वल्लभदेव ने किया था। इसमें १०१ खण्डों में ३५० कवियों के ३५२७ पद्य सकक्षित हैं। एक सुभाषितावजी और है । उसका संग्रहकर्ता श्रीवर है जो जोनराज का पुत्र या शिष्य था । ये जोनरात और श्रीवर वही जोनराज और श्रीवर हैं जिन्होंने कल्हण के बाद उसकी राजतरंगिणी के लिखने का काम श्रारम्य रखा था । यह दूसरी सुभाषितावली १२वीं शताब्दी की है और हमें ३५० से भी अधिक कवियों के रखोक संकलित है। (६६) पदेशिक (नीतिपरक ) काव्य संस्कृत साहित्य में औपदेशिक काव्य के होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। इसके प्राचीनतम चिह्न ऋग्वेद में पाए जाते हैं। उसके पश्चात् ऐतरेय ब्राह्मण में शुभः शेप के उपाख्यान में इसके अनेक उदाक्षरण उपजन्च होते हैं । उपनिषदों में, सूत्रग्रन्थों में, मन्वादि राजधर्म शास्त्रों में और महाभारत में मोति के अनेक वचन मिलते हैं। पञ्चतन्त्र और हितोपदेश तो ऐसे नीनों से भरे हुए हैं जो बिल्ली, चूहे, गधे, शेर इत्यादि के मुँह से सुनने पर बड़े विचित्र प्रतीत होते हैं। यह बात हम पहले ही कह आए हैं कि भर्तृहरि का नीतिशतक चौपदेशिक (नीaिves) काव्य में बड़ा महत्वपूर्ण सन्दर्भ है और यह भी संकेत किया जा चुका है कि खदाहरणों से भरे पड़े हैं । नीतिविषयक कुछ अन्य नीचे दिया जाता है | सूक्ति सन्दर्भ ऐसे ग्रन्थों का परि (१) चाणक्य नीतिशास्त्र --- (जिसे राजनीतिसमुचय, चाणक राजनीति, वृद्ध चाणक्य हस्यादि कई नामों से पुकारते हैं) । इसक रचयिता चन्द्रगुप्त का सचिव चाणक्य (ओ अर्थ - शास्त्र के रचयित! Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७६ संस्कृत-साहित्य का इतिहास नाम से प्रसिद्ध है) बतलाया जाता है। परन्तु इसम पर्याह प्रमाण नहीं मिञ्जता। इसके कई संस्करण प्रचलित हैं जिनने पर्यात भेद है। उदाहरण के लिए, एक संस्करण में मुल्द ३५० श्ांक है जो ५७ अध्यायों में बराबर अरावर बैठे हुए हैं, परन्तु भोजराज-सम्पादित दूसरे में शाह अध्याय और ५७६ श्लोक हैं । इस ग्रंथ में सब प्रकार के नीति-बचन मिलते हैं। उदाहरणार्थ :-- साल्पन्ति राजानः सकृजल्पन्ति पण्डिताः ! सकृत् कल्या. प्रदीयते ब्रीएयेतानि सकृत् सकृत् ॥' शैली सरल-सुबोध है और बहु-व्यापी छन्द अनुष्टुप् है। (२-४) नीति-रत्न, नीति-सार और नीति-प्रदीप बोटे-छोटे नीतिविषयक सन्दर्भ हैं। इनके निर्माए-कान का ठीक-टक पता नहीं। इनमें कोई-कोई पच वस्तुनः स्मरणीय हैं। (५-७) समर-मातृका, चारु-चयों और कला-विलास का रचयिता (११वीं शताब्दी का) महाग्रंथकार क्षेमेन्द्र प्रसिद्ध है। दूसरे ग्रंथों की अपेक्षा इन अंथो से लेखक की कुशलता अधिक अच्छी तरह प्रकट दूसरे लेखकों के और छोटे-छोटे कई ग्रंथ है; परन्तु वे यहाँ उल्लेख के अधिकारी नहीं हैं। १ राजा लोग एक ही बार अाशा करते हैं, पंडित लोग एक ही बार बात कहते हैं, कन्याओं का दान एक ही बार किया जाता है । ये तीनों चीजें एक ही बार होती हैं। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ११ ऐतिहासिक काव्य नौ अध्याय में हम काव्य-ग्रंथों का साधारणरूप ले वर्णन कर चुके हैं । इस अध्याय में उन ऐतिहासिक कामों का दर्शन किया जायमा जो संस्कृत में उपलभ्यमान हैं। वाङ्मय के इस बार में भारत के कुछ अच्छा काम करके नहीं दिखाया है। संस्कृत में इतिहास का सबसे बड़ा लेखक कल्हण है। इसमें विवेचनात्मक विचार करने की शक्ति है और इसने नाना साधनों से भासन्न भूतकाल के इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया था, जिसकी घटनाओं के बारे में यह निष्पन सम्मति प्रकट कर सकता है । इदना होने पर भी, अाजकल के ऐतिहासिकों की समानता करने की बात तो एक ओर रही, यह धीरोडोटस भी समानता नहीं कर सकना । संस्कृत के दुसरे इतिहासकारों की तो स्वयं कदहण के साथ जरा मी तुलना तक नहीं हो सकती ! (७०) भारत में इतिहास का प्रारम्भ (1) भारत के पुरातन इतिहास के स्रोत के रूप में पुराणों का जो मूल्य है उसका हलस पहले किया जा चुका है। (२) पुराणों के बाद पश्चारकालीन वैदिक अंत्रों में पाई जाने वाली पुरुषों और शिष्यों की नामावली का क्लेख किया जा सकता है। १ इसके कारणों के लिए गत खण्ड ३ देखिये। २ देखिये स्पड २, ५ भाग। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জুল ও জুঃ ছমিছা अपि भौशिक परम्परा मे उसे सुरक्षित किया है, समाधि इभ माही का सकते कि हमें प्रक्षेप और अत्युक्ति मिल नहीं है। (३) तीसरे नम्बर पर होमन्य हैं जिनमें बुद्ध के सम्बन्ध में अनेक अपाख्यान है परन्तु सच को मिला-जुलाकर देख लो उनमें ऐतिहासिकता का अमाय दिखाई देता है। ध्यान देने की बात यह है कि महामाम का महावंश तक अशोक के जीवन के सम्बन्ध में ऐतिहासिक विवरण महीं देखा। (e) इतिहास नाम के योग्य ऐतिहासिक ग्रन्थ जन-साहित्य में भी माही पाए जाते पावलियों में जैनाचार्यों के सूजीएत्रों के अतिरिक्ष और एक नहीं है। (३) शिला लेखों को प्रशस्तियो' भारत में वास्तविक इतिहास की मोर प्रथम प्रयास है। (६) बाइपसिराज के गबर को इतिहास के पास पहुँचने वाला अन्य कह सकते है। इसमें इसके प्राश्रयदाता कन्नौज के अधीश्वर यशोवर्मा ( १७. ई. के आस पास ) के द्वारा गौर देश के किसी राजा के वध का वर्शक है और भारतीय ग्रामीण जीवन के कुछ विशद चित्र है; परन्तु इसमें इतिहासस्थ को अपेक्षा काव्यत्व अधिक है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि गौड़ देश के राजा तक का नाम नहीं दिया गया है। अब हम ऐतिहासिक-कान्य जगतू के महत्वपूर्ण अन्धों की ओर - - १ये प्रशस्तिया समकाल-भव राजाश्रो अथवा दानियो की, काव्यशैली में लिखी, स्तुतियां हैं । इनका प्रारम्भ ईसा की दुसरी शताब्दी में होता है। २ देखिये पीछे खल्ड ३६ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाण का हर्ष चरित (७१) बाण का हर्षचरित । Pा का हर्षचरित सात शखाड़ी के पूर्वाई में लिखा गया था। इसमें पाठ अध्याय हैं जिन्हें इच्छूवास कहते हैं। कदि कृत कादम्बको के समान यह भी भपूर्ण है। कदाचित् मृत्यु ने कवि को बीच में ही उडा लिया हो। इस अन्य से हमें हर्ष के अपने जीवन बथा उसके कतिपर निकटतम पूर्वजों के सम्बन्ध में थोड़ी-सी बातें मालूम होती है। किन्तु इसमें कई महत्वपूर्ण घटनाओं को (जैसे: हर्ष के भाई की तथा * के बहनोई गृहकमा की मृत्यु के बारे में बताने योग्य आवश्यक बातों को) अन्धकार में ही छोड़ दिया गया है। ऐतिहासिक अंश को छोड़कर सारा ग्रन्थ एक कल्पनामय कहानी है और इस का प्रारम्भ कवि के वंश की पौराणिक शैली को उत्पत्ति से होता है। उपरोदात में प्रसङ्गআয় খুঙ্কাল্পী তু হি বিশ্ব শাখা @ ঋকন্তু ক্রিয়া শঙ্কা है-जैसे, वासवदत्ताकार, मट्टारहरिश्चन्द्र, सातवाहन, प्रवरसेन, भार कालिदास, बृहत्कथाकार; अतः साहित्यिक इतिहास की दृष्टि से यह अन्ध विशेष महत्व रखता है। कथा और पाख्यायिका में मंद दिखबाने के लिए नाबानिकों ने इस ग्रन्थ को प्रादर्श प्राण्यायिका का नाम दिया है। 'भोजः समासभूयस्त्वम् एतद् गग्रस्य जीवितम् २ को मानने वाले १ श्रालङ्कारिक कत कथा-श्राख्यायिका मेद केवल बालकोपयोगी है। उदाहरणार्थ, श्राख्यायिका के पद्य वक्त्र और अपरवक्न छन्दों में होते है परन्तु कथा में प्रार्या आदि छन्दी में। श्राख्यायिका के अध्यायों को उच्छवास श्रीर कथा के अध्यायों को लम्भ कहते हैं । "बातिरेका संज्ञा याकिता. कहकर दण्डी ने इस परम्परा प्राप्त भेद को मिटाने की रुचि दिखलाई है। शायद यह कहना उचित होगा कि-आख्यायिका में ऐतिहासिक तथ्य होता है और कथा प्रायः कल्पनाप्रचुर होती है। २ समास भाइल्प में ही प्रोब रहता है यही गब का प्राय (काव्यादर्शन.) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lion संस्कृत साहित्य का इतिहास भारतीय आकार-शास्त्रियों के मत मे बहाण संस्कृत में गाय का एक सर्वोत्कृष्ट लेखक है। कहा जाता है कि यह पंचाली वृत्तिका, जिसमें शब्द और अर्थ दोनों का महत्व एक जैमा है, सबसे बड़ा भक्त है। कविराज ने इसे । और सुबन्धु ] को बकोक्ति ( श्लेष) की रचना में निरुपम कहा है। ध्वनि (व्यंजनापूर्ण कृति) की दृष्टि से यह सर्वोत्तम भाना जाता है। प्रभावशाली वर्णनों का तो यह तितम कृतिकार है। इसके वाक्य कमी कमी बड़े खम्ब्बे होते हैं। उदाहरण के लिए, पाठ उत्रास में एक वाक्य छाले के पांच पृष्ठों तक और एक और चाक्य तीन पृष्ठों तक चला गया है। तक अन्त तक नहीं पहुंच जाता, पाठक को अर्थ का निश्चय नहीं होता। ऐसी शैली श्राधनिक पाश्चात्यों को आकर्षक नहीं लग सकती । वैवछ ने कहा भी है ...."बाण का गद्य एक ऐया भारतीय जंगल है जिसमें आगे बढ़ने के लिए छोटी-छोटी झाड़ियों को काट डालना श्रावस्यक है; इस जंगल में प्रसिद्ध शब्दों के रूप में जंगली जानवर पथिक की घात में बैठे रहते है।" कीथ जी कहता है कि शैलीशार की दृष्टि से बाण के दोषों पर अफलोल होता है। ' इसमें सन्देश नहीं कि बाण का पुराणाध्ययन पहुत बढ़ा चढ़ा था और इसकी कल्पना की उड़ान भी बहुत ऊँची थी। इसे श्लेष का बड़ा शौक था और इसकी रचना में दूरविलन्त्री परामशों (Allusions) की भरमार है। इसके वर्णन विशद, स्वच्छ चित्रोपम हैं जो पाठक के अदय में एक दम का चिपकते हैं। किसी उदाहरण के उस्लेख के तौर पर हम पाठक को प्रमाकरवर्धन की मृत्यु का वर्णन देखने के लिए कहेंगे। (७२) पद्मगुप्त (या, परिमल) १००५ १० का नवसाहक चरित। यह बात इसकी दूसरी रचना अर्थात् कावम्बरी में अधिक देखने Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aru are atta १५१ बाद में बनने वाले ऐतिहासिक काव्य-प्रन्थों के संभान यह भी काव्य-पद्धति पर लिखा गया है। इस में १८ सर्ग हैं। लेखक धारा नगरी के राजा वाळूपतिराज और सिन्धुराज के श्राश्रय में रहा करता था और उन्हीं के उत्ers दिखाने पर इसने इस ग्रन्थ का निर्वाण किया था। इसमें राजकुमारी शशिप्रभा को प्राप्त करने का वर्णन है, किन्तु साथ ही मानने के महाराज नवसाहसांक के इतिहास की ओर संकेत करना भी अभीष्ट है । (७३) बिल्ट्स' ( ईसा की ११ वीं शताब्दी ) हम इसे इसके श्रद्धतिहासिक नाटक कर्णसुन्दरी तथा (पूर्वोक्त चौरपंचाशिका के अतिरिक्त) इसके अधिक प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य विक्रमांकदेवचरित के नाते से जानते हैं । कर्णसुन्दरी नाटक में कवि किसी चालुक्य वंशीय राजा के किसी विद्याधर- पति की कन्या के साथ विवाह का न करता है। साथ ही साथ इसके द्वारा कवि को अपने आश्रयदाता नृप का, एक राजकुमारी के साथ हुआ विवाद भी विवक्षित है। इसके कई पद्य वस्ततः रमणीय हैं और कवि की प्रसादगुणपूर्ण चित्रण शक्ति का परिचय देते हैं । विक्रमांकदेव चरित के प्रारम्भ में कवि ने चाणक्य वंश का उद्गम पुराणोक्त कथाओं में दिखाया है, उसके बाद इसने अपने श्राश्रयदाता नृपति के पिता महराज श्राहवमल का ( १०४० - ६६ ) वैयक्तिक न बड़े विस्तार के साथ दिया हैं। तदनन्तर इसने स्वपाक्षक कल्याणेश्वर चाणक्यराज महाराज विक्रमादित्य पष्ट ( १०७६-११२७ ) का यशोगान किया है । यह यशोगान अपूर्ण और संक्षिप्त जीवन-परिचय-सा है । जैसे बाया की रचना में, वैसे ही इसकी रचना में भी ऐतिहासिक काल-दृष्टि का सर्वथा अभाव है । कदाचित् जो बातें राजा के पक्ष में ठीक नहीं बैठती थीं, उनके परिहारार्थं तीन बार शिव का पल्ला १ इसकी गीति-रचना चौरपंचाशिका के लिए खण्ड ६४ देखिये । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास গুলা বন্ধ । জাসুফিয়া কা শ্লষ্ট প্রশ্ন ফাঙ্গ স্থ इसकी तथाकथित गौड-विजयों का उल्लेख कर सकते हैं। स्वयम्बर का वर्या कालिशम्ब की शैली का है और सुन्दर है। किन्तु यह वास्तविक और ऐतिहासिक प्रतीत नहीं होता। छोटे-छोटे अवनियों का नाम प्रायः बोल दिया गया है। सारी कविता का स्वरूप इतिहास-जैसा कम, काब्य जैसा अधिक है। इसीलिए इसमें वसन्त का, जय-विहार का, वर्षानियों के आगमन का और शरद् के ग्रामोद्य-प्रमोदों का विस्तृत वर्णन है। पाहवमल और विक्रमादित्य दोनों नायक सौन्दर के उच्चतम श्रादर्श और शेष सब बुरे हैं । इसमें १८ सर्ग है। अन्तिम वर्ग में अधि ने स्वजन्मসুমি ফাৰ্মীৰ ঐ হাঙ্গী স্কা স্কুণ্ডু ঘন স্ত্রী স্বাসঘাম বিশ্ব ই जिममें अपने आप को इसने घुमकर पंडित लिया है। यह व्याकरण के अनुभवी विद्वान् ज्येष्ठकाश का पुत्र था । यह स्वयं वेद का जिद्वान और महाभाष्य तथा अलंकार-ग्रंथों का अध्येता था। यह एक देश से दूसरे देश में घूमता-वामता विक्रमादित्य षष्ठ के दरबार में पहुंचा और बहीं रहने लगा । यहाँ यह विद्यापति की उपाधि से विभूषित किया गया। विलक्षण की गिनती इतिहास के गम्भीर सेवकों में की जा सकती हैं । इसके उक ग्रंथ का काल १०८ ई० मे पहले माना जाना उचित है, कारण कि-- (1) यह विक्रमादित्य के दखिया पर श्राक्रममा के सम्बन्ध में, जो १०८८ में हुआ बिल्कुल चुप है। (२) क्योंकि इसमें काश्मीर का हर्षदेव युवराज कहा गया है, महारा नहीं । बा महाराज 10 ई में बना था। शैली--शिवहरण की शैली वैदी है और अइ प्रसादगुम पूर्व विषण का सस्कृष्ट बेखक है। उदाहरण के लिए देखिए माहवामा अन्तिम क्षों का वर्षमा :---- Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका राजदरानली १=३ नावानि तिम श्रम नान्यत्र विश्वासः पार्श्वतीजीवितेश्वरात् ॥ वांगे तुङ्गभद्रायास्तदेष शिवचितया । बान्छाम्यहं निकट देहविनाम् ॥ as जम्बे समासों का प्रयोग नहीं करता और न अनुप्रास तथा रखोक की ही भरमार करता है। इसका वचन-विन्यास साधारणतया है । -कहीं इसकी रचना में कृत्रिमता श्राजाने के कारण अर्थ-मान्य हो जाता है; किंतु प्रायः इसकी रचना विशदता और प्रसाद का दर्स है। इसने इंद्रवज्रा (छः सर्गों में ) और वंशस्थ ( तीन सों में) वृत्त का प्रयोग सबसे अधिक किया है (७४) कल्हण की राजतरंगिणी ( ११४६-५० ई० ) । इसमें सन्देह नहीं कि कल्हार संस्कृत साहित्य में सब से बड़ा इतिहासकार है । सौभाग्य से हमें इसकी अपनी लेखनी से इसके जोवन के सम्बन्ध में बहुत मी बातें मालूम है । इसका जन्म काश्मीर में ११०० ई० के आस-पास हुआ था। इसका पिता चम्पक काश्मीराधिपति महाराजा हर्ष (१०-११०१) का सच्ची भक्ति से भरा हुआ सेवक था । षड्यंत्र द्वारा महाराजा का वध हो जाने पर कल्क्ष्य के परिवार को राजदरबार का थाश्रम छोड़ना पड़ा था। यह घटना उस निष्पक्ष तथा सम मैं जानता हूँ कि यह अभागा जीवन हाथी के कान के किनारे के तुल्य चञ्चल है। पार्वती के जीवन धन (शिव) को छोड़ कर किसी अन्य में मेरी आस्था नहीं है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि शरीरधारण के इस सॉग को शिव का ध्यान करते हुए तुङ्गभद्रा नदी की गोदी में समाप्त कर दूँ । २ र मंडल ने इसे कल्याण का अधिक सुन्दर नाम देकर इसका नामोल्लेख किया है । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ संस्कृत साहित्य का इतिहास दृष्टि का पता देती है, जिसके द्वारा कहा अपने पात्रों का चरित्र चिन्त्रिी कर सकता था। यह पहला शैव-सम्प्रदायी था किंतु शेव-दर्शन की तानिय प्रक्रियाओं की ओर इसकी अभिरुचि नहीं थी । यह अहिशु का का था और बौद्ध धर्म' तथा इसके अहिसा सिद्धान्त का बड़ा भादर कल्या ऐतिहासिक महाकाव्यों (रामायण, महाभारत का महाविद्वान् था । इसने महाकाव्यों और बाण के द्वचरित जैसे ग्रंथों का विस्तृत अध्ययन किया था। इसका बिल्हण ले धनिष्ठ परिचय थे, और कलित ज्योतिष के अन्थों का इसे अच्छा झान्द था : इलम सन्देह नहीं कि काश्मीर का विस्तृत इतिहास लिखने का जो काम इसने हाथ में लिया था वह बड़ा काठन काम था। इस मार्ग में दुलं बाधाएं यो । इमक लगाय के पहले हा राजवंश के पुराने डिथि-पत्र या नो नष्ट हो चुके थे, या इनमें अविश्वसनीय बाते और अशुद्ध तिथियाँ उपलब्ध होली थी । कन्हण में ऐतिहासिक रुचि पार बुद्धि थी, और इलने प्राप्त सारे साधनों से पूर-पुरा लाभ उठाया । किन्तु पुराने इतिहास को इसकी दी हुई तिथियाँ सही नहीं हैं । उदाहरण के लिए. राजतरक्षिणी में अशोक की तिथि अाजकल की प्रख्यात तिथि से एक हजार साल पहले की मिलती है। कादया स्त्र कहता है कि मैंने धारद पुराने अन्यों है जो सब अब लुप्त हर चुके हैं) और नीलमत पुराण को देखकर यह ग्रन्थ लिखा है । इसने जनश्रुति-विश्रुत प्राचीनतर नृपों को संख्या वावन बताकर नीलमत के श्राधार पर पहले चार का नामोल्लेख किया है। १ सच तो यह है कि इससे बहुत पहले हो बौद्धधर्म नै हिन्दू-धर्म के साघ मेल कर लिया था। क्षेमेन्द्र ने बुद्ध को विष्णु का एक अवतार मान कर उसकी स्तुति की थो, और कल्हण के समय से पहले ही लोग 'विवाहित' महन्तो को जानते थे। ... २ बराहमिहिर कृत वृहत्संहिता के विषय में किए हुए इसके उल्लेखों को देखिए। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ স্কুল ঈম লিখি । १८५ इसके बाद यह क्षेत्तीस के बारे में बिल्कुल मौन साध कर पद्ममिहिर के आधार पर अगले अ.ह राजाश्रा के वर्ग का प्रारम्भ लब से करता है। अन्तिम पाँच राजाओं का पता इसे चिल्लाकर से लगा था | वाकालिक इतिहास के विषय में कल्हण की दी हुई बात विश्वसनीय और मूल्यवान् है। सब प्रकार के उपजन्य शिक्षालेखों का, भूदान लेखों का, प्रशस्तियों का और महलो मन्दिरों और स्मारकों के निर्माण के वरान से पूर्ण लेखपत्रों का निरीक्षण इसने अपने आप किया था। इतना ही नहीं, इसने सिकों का अध्ययन और ऐतिहासिक भवनों का पवित्रा किया । काश्मीर को उपत्यका और अधिस्थचा कर इसे पूरा-पूरा भौगोलिक ज्ञान था। इसी के साथ-साथ, इस पृथक-वंशों के अपने ऐतिहासिक सन्दमों तथा सब प्रकार की स्थानिक हन्त कमानों से भी काम दिया। अपने समय की तथा अपने समय में एचास साल पहले की घटनाओं का विस्तृत ज्ञान इसने अपने जिता तथा अन्य लोगों से पूछ पूछ-कर माप्त किया था। करहण बड़ा उत्साही और संयत जगदी था। इसका पात्रों का चित्रए वास्तविक और पक्षपातशून्य है। इसका दिया हुश्रा अपने समय के शाल के महाराज जयसिंह का दर्शन विरुदाख्यान हे सर्वथा सुरू है। इसके रचित अपने देश निवासियों के गुणावगुण के बाद चित्र विशद, यथार्थ धीर शोचक है। इसका कथन है कि काश्मीरी लोग सुन्दर, ले और अस्थिर होते हैं। सैन्य अभ्यवस्थ तथा भार हैं--प्रवाह सुनकर भागने को तैयार हैं। राजपुत्रों में साहस और स्वामिन-मक्ति है । राजकर्मचारीलोमी, अत्याचारी और अस्वाभि-भरक है. किन्तु दिलाय और अलंकार जैसे राजमन्त्रियों की ग्रह सञ्चो प्रशंसा करता है। पानों का चरित्र अकित करने में कल्हण अपने पुरस्लर बाणा, . .१ पद्ममिहिर का अाधार कोई हेलाराज पाशुपत था, जिसका अन्य कोई बहग्रन्थ होगा मगर वह कल्हण से पहले ही लुप्त हो चुका था। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास ঋতু স্ব কিছু স্ব স্ব অদ্ভুত অদ্ভাদ্ধা! জিলী গুঞ্জয়ী # ঝই হই যন্ত্র বলছ ক ৪ লী পূঞ্জক। খহির শুরু জুরক্ষী কুহু' হাজী , স্মাহ ও মনুষ্য ? স্বল কুৰ জব্দ সুকে জিলা স্ব স্ব-গুঞ্জী ফ অন হল সার উনি আঁই বুঙ্গি জ্ঞা জা কা কা ।। ঘলু ন্তু অইজ জুলি যক্ষ্মা ঝিলা ল বন্ধু। কামী মীলাক্স চ্চাখিবি চুষজ গুড়ি ঞ্জী জুরি গলা দ্বিয়া আঃ ব্যায় স্বল ক া াী ক বকা মিলল # Appreciation) না কিনা। মন খ্রীস ক্ষী মিশ্র খ্রহী ছিী ই ই ই। অল্প জায় ই কি রঞ্জকাবা খাজ্জ * শু ঈ = ক বিঘাষ ই ঈ ক্ষী স্থল বা মাল অলংকাৰ মা মন্তু স্কা হজ্জ স্কাৰ । ইট লিঙ্ক ঃ ক লিঙ্ক লাভূপি মী স্মাৰ । এ গথর স্মৰক্ষাজী ৯, শীর গরম ৯ ঘি ঈ ঈ গু লম্বা না । | বৃষ ৪ মন্ত্রী কি পারি ঋীং নাম ক্রী-র্থী কুবি-রুনা দুই ইয়ন কর পন্থী লৱৰী। ছি মাল দ্বী কি সুখ স্না इस महत कार्य को देख कर ही यह ऐसी बातों के चक्र में मही ফা। দুৱকিছু লক্ষী হল। ম সানক্লিফ বল ঘা হ মুক্তি। পুষ। কিন্তু দুল অর কী যন্ত্র মালা । কি কৰি া ন মনিকা কী থাঃ ক াব্দৰ অৰী কা বিষ্ণু ব্রা না । বাপ্পি মাং কী গায়া জা বাঞ্জন হল লিং ব্যায় ৪ ক্ষিী খুজ বন # মাঞ্জা দ্বীন জানু ই ঋীহ ধর্ম না # বাঘ ঙী মখণ ৫ ই জী কৃষি কা কার ব্যাষ্ট্রি ক্ষা বুনি। (লিমা), पृष्ठ १६६ । २ जैसे, अतुओं के, सूर्योदय के, चन्द्रोदय के, जल-विहार के विस्तृत Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्हण की राजतरंगिणी १ है | रहती । पात्रों के मनोवृत्ति की ओर भी दृष्टि आए बिना नह कार्यों के उचितावित होने का विचार धर्मशास्त्रोक सिद्धान्तों के आधार पर एक विविक नैतिक मनोदसि के अनुसार किया गया है। काश्मीर पर शासन करने की कला के विषय में अपने विचारों को, जो प्रायः कौटिलीय अर्थ-३ - शास्त्र पर अवलम्बित हैं, इसने कलितादित्य के मुंह से कहलवाया है। शैजी-हम पहले कह चुके है कि की राजतरंगिणी की रचना काव्य की उच्चतर शैली में नहीं हुई है। इसे दोष ग कहना चाहिए, जिसकी तुमा यूरोप के मध्यकालीन इतिहासों से की जा सकती है। भाषा में सादगी और सुन्दरता दोनों हैं। साथ ही इस धारा का प्रवाह भी है जो इस ग्रन्थ को एक मुख्य विशेषता है । कभी कभी at eat afare शक्ति का भी परिचय देवा है। यह शक्ति शब्द-चित्रों में खूष प्रस्फुटित हुई है। उदाहरण के fire हर्ष के निर्जनवास और विपत्ति की करुया कहानी देखी जा सकी है । सम्भाषण के प्रयोग से हमें पदापन और नाटकीय fee में स्वाद पैदा हो गया है । दूसरी तरफ 'द्वार' (निरीक्षणार्थं सीमा पर बड़ी चौकी), 'पादान' (nagari का बहर दफ्तर) इत्यादि पारिभाषिक शब्दों के लक्षण दिए बिना ही उनका प्रयोग करने से कहीं-कहीं इसमें दुरूह आ गई है। ष्टक, ब्रोटक और aiser ate aor जैसे एक ही नाम के भिन्न-भिन्न रूपों के प्रयोग ने इस दुरुता और भी वृद्धि कर दी है } में ee ite पर aurat or rate करने का इसे पदा शौक है; इसके लिए पर्वत, नदी, सूर्य और चन्द्रमा से अधिक काम शिया गया है। इसकी रचना में देखने में जाने वाली एक और विशेष बात यह है कि इसमें रखे और freerame winकारों की अधिकता है। कन्द की प्रखर सादगी को सौभाग्य से बीच-बीच में क बाजे भसंकृत पथों के साथ-सर कर दिया है। स्प Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ?S संस्कृत साहित्य का इतिहास में भी इसकी भाषा में एक असामान्य चमत्कार है। देखिए के चाटुकारों के सम्बन्ध में लिखता हुआ कहता है--- ये केचिन्ननु शाक्य मौग्ध्यनिघयस्ते भूभूत रंजका' ।' मी देवी के एक रमणीय वर्णन में कहा गया है:-- भास्वद्विम्बाधरा कृष्ण केशी सितकरानना । हरिमध्या शिवाकारा सर्वदेवमयीव सा ॥ (७५) छोटे-छोटे ग्रन्थ | 1 (१) कुमारपाल चरित या द्वयाश्रय काव्य । इसे जैनमुनि हेमचन्द्र (१०८ - ११७२ ) ने ११६३ ई० के आस-पास दिखा था । इसमें चालुक्य नृपति कुमारपाल और उसके बिल्कुल पूर्वगामियों का इतिवृत्त वर्णित है। इसमें ( २० संस्कृत और प्राकृत में ) कुलमर्ग हैं इसका मुख्य लक्ष्य अपने व्याकरण में दिये संस्कृत और प्राकृत के कथाकरणों के नियमों के उदाहरण देना है । यह जैनधर्म का एक स्पर्धावान् प्रचारक था और इसके वचन पक्षपात से शून्य नहीं हैं । सो से बीसवें तक के लगों में कुमारपाल को जैनधर्म की feeकारिणी नीति पर चलने वाला कहा गया है । Mark, (२) पृथ्वीराज विजय में पृथ्वीराज चाहमान (चौहान) की विजयों का वर्णन दिया गया है । यह कृति ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े काम की है किन्तु इसकी एक ही खण्डित और त्रुटिपूर्ण हस्तलिखित प्रति मिली १ जो शठता और मूर्खता के निधान हैं, वही राजाश्री को खुश रखने वाले हैं । २ उसका निचला होट बिम्बाफल जैसा चमकदार (सूर्य-युक्त ) था, उसके बाल काले (कृष्ण- युक्त ) थे, उसका मुख चन्द्रमा जैसा (चन्द्रमा-युक्त ) था, उसकी कमर सिंह की कमर के समान (विष्णु-युक्त ) थी, उसका मुख कल्याणकारी (शिव-युक्त ) था । इस प्रकार मानो वह देवता को लेकर बनाई गई थी। 4 1. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्हण की राजतरंगिणी १८६ । इसके रचयिता के नाम का पता नहीं । शैली विल्या की है सका क्लेख जयरथ ने अपनी अलंकार विमर्शिनी में (१२०० ) किया है । और इस पर काश्मीर के जोनराज की ( १४४८ टीका है स इसका लेखक काश्मीरी ष्टी हो । (३) सन्ध्याकर नन्दी के रामपाल चरित्र में बंगाल के रामपाल के ( १०८४ - ११३०) कौशलों का वर्णन है । (४) (काश्मीरी ) कल्हण का सोमपाल विश्वास सुस्सल द्वारा पराजित किये हुए नृप सोमपाल विलास की कथा सुनाता है मङ्ग ने इस कवि को काश्मीर के नृप प्रकार की सभा का सदस्य लिखा है । (५) शम्भुकृत राजेन्द्र कर्णपुर काश्मीर भूराज हर्षदेव की प्रशस्ति हैं ! ( ६-६ ) मोमेश्वरदस द्वारा ( ११७३-१२६२ ) रचित कीर्तिकौमुदी और सुरथोत्सव, अरिसिंह द्वारा (१३ वीं शताब्दी ) रचिन सुकृतसकीन और सर्वानन्द द्वारा ( १३ वीं शताब्दी ) रोचन जगदुचरित न्यूनाधिक प्रशस्तियां दी हैं जो यहां विस्तृत परिचय देने के योग्य नहीं हैं । (२०) अन्त में यहां काश्मीर के उन लोगों के नामों का उल्लेख करना सूचित प्रतित होता है जिन्होंने राजतरंगिली को पूरा करने का काम जारी रक्खा । जोनराज ने ( मृत्यु १४५६ ) उसके शिष्य श्रीर ने और शिवर के शिष्य शुक ने राजतरंगियो की कथा को काश्मीर को अकबर द्वारा अपने राज्य में मिलाए जाने वक आगे बढ़ाया, किन्तु इनकी रचना में मौलिकता और काव्य-गुण दोनों का अमाव 書 alpājam vivahdetaliile 4 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १२ गद्य-काव्य ( कहानी ) और चम्यू । (७६) गद्य-काव्य का आविर्भार। महाकाय के आविर्भाव के समान गद्य-काव्य का भी विवि हहस्य से भादूरख है। हमें दण्डी, सुबन्धु और बाश जैसे यशस्वी लेखकों के ही ग्रन्थ मिले हैं। इनसे पहले के नमूनों के बारे में हमे कुछ एता नहीं है। वाण ने अपने हर्षचरित की भूमिका में कीर्तिमान गद्य-लेखक के रूप में महार हरिचन्द्र का नाम अवश्य लिखा है, पर प्रसिद्ध दलक के शिष्य में इससे अधिक और कुछ मालूम नहीं है। सम्भव होने पर भी इसका निश्चय नहीं कि मह लेखक दशही से प्राचीन है। गध-काम्य और सर्वसाधारण की कहानी में भेद है। पहले को आमा म-निष्पादित वर्णन और दूसरे को मारमा वेगवान् और सुगम कथा-कथन है। इस प्रकार यह साबित होता है कि गा-काव्य की बचना रमणीय काम्य-ौली के आधार पर होती है। अतः शैली की रहिसे इसके प्रादुर्भाव का हाल जानने के लिए हमें साधारमा कपाकथन को खोद कर रुद्रयामा के शिलालेख और हरिषेण कृत समुद्रगुप्त की प्रशस्ति की शोर पोछे मुड़ना होगा। गद्य-काय के विकास पर पड़ा दुमा वास्तविक काव्य का यह प्रभाव कई शताब्दियों म उहा होगा। पीटरसन ने भपमा प्रकट करते हुए कहा था कि भारतीय गहकाम्य युनामी भय-काव्य का पी है। दोनों में अनेक समानताएं हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा-काव्य और चम्यू अदाहरण के लिए इण-सौन्दर्य का और पशु एवं सा-यादमों में हामस्थ-प्रेम का बाम इत्यादि बा बसाई जा सकती है। इसमें युक्ति यह दी जाती है कि जैसे यूनानी फजित ज्योतिष का प्रभाव भारतीय 'कलित ज्योतिष पर बहुत बड़ा है, वैसे ही गध-काग्य(कथा माझ्याधिका) के क्षेत्र में भी घूमान ने भारत पर अपना प्रभाव दाखा होगा। ऐम. कोरे ने यूनानी गड-काव्य और गुणात्यकृत बक्षकथा में कुन समानताए दिखाई है, निदर्शनार्थ, दोनों में वायम प्राणियों की जाति का वर्णन, नायक और नायिका के कर तथा अन्त में उनकी विजय, उनका वियोग और पुनर्मितन, और उनके वीरोचित परामों का वर्णन तथा ऐसी ही और भी कई बातें पाई जाती है। इससे उपने यह परिणाम निकाला कि बृहत्कथा यूनानी गद्य-कार की ऋषी है। बाद में उसने अपनी सम्मति बदल दी और कहा कि यूनानी भाय-काव्य भारतीय साहित्य का ऋणी है। किन्तु ये सब परिणाम अपर्याप्त आधार पर आश्रित हैं। भारतीय और युनानी साल्यायिकानों में मान्य की अपेक्षा वैषम्य अधिक विचार करने योग्य । यूनानी कहानी और सुबन्धुकत वासवदत्ता की कथा में घटनासाम्य की कुछ और बातें ये हैं.--- स्वप्न द्वारा परस्पर प्रेम का प्रादुर्भाव, स्वयंवर, पत्र-व्यवहार, मूर्धा, विशाल अनुशोचन, अात्मघात की इच्छा। निम्नलिखित साहित्यिक रचना-भागों का साम्य भी दर्शनीय है:--- कथा में कथा तथा उपकथा, प्रकृति-वर्णन, विस्तृत-व्यक्ति-वर्शन, कथादि के विद्वत्तापूर्ण संकेत, प्राचीन दृष्टान्तों का सुनाना, अनुप्रास इत्यादि ( देखिये, में सम्पादित वासवदत्ता, पृष्ट ३५.६ । अन्त में में महाशय परिणाम निकालते हुए कहते हैं-"तो भी ये तथा अन्य और साम्य जो दिखलाए जा सकते हैं मुझे कुछ भी सिद्ध करते प्रतीत नहीं होते ।") Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास है। 'एकदमपाठ से यह बात जाजी आ सकती है कि दोनों जातियों का प्राध्याथिका माहित्य बाह्यरून और अन्तमा दोनों की दृष्टि से एक दूसरे मे सर्वथा निन्न है' " संस्कृत के गद्य-काय (आख्यायिकासाहित्य ) में श्रम-निष्पादित वर्णन पर बल दिया जाता है तरे यूनानी मद्य-काव्य में मारा ध्यान कहानी की ओर लगा दिया जाता है। इस प्रकरण को समाप्त करते हुए हम कह सकते हैं कि भारतीय और यूनानो गय-काव्यों का जन्म परस्पर बिल्कुल निरपेक्ष रूप से होकर दोनों का पालन-पोषण की अपनी अपनी सभ्यता तथा साहित्यिक रूदियों के बीच में हुआ। (७७) दण्डी इसके अन्य ----परम्परा के अनुसार दशही तीन ग्रन्थों का रचयिता माना जाता है। दशकुमार छरित ( गद्य में कहानी) और काव्यादर्श (अलङ्कार का अन्य ) निस्सन्देह इसी के हैं। उत्तर्गत ग्रन्थ में इसने जिन नियमों का प्रतिपादन किया है पूर्वाक ग्रन्थ में उन्हीं का स्वयं उल्लञ्चन भी कर डाला है। शायद यह इसलिए हुछा है कि 'पर उपदेश शाल बहुतेरे, से प्राचारहि ते ना न घनेरे। इसक तीसरे प्रन्थ के बारे में लोगों ने भनेक कच्ची कच्ची धारणाएं की है। मृच्छकटिक और काव्यादर्श दोनों में समानरूप से श्र.ए एक पद्य के आधार पर निस्चल ने कह डाला कि दण्डी का तीसरा अन्य पृच्छकटिक होगा, किन्तु मास के अन्यों की उपलब्धि होने पर मालूम हुआ कि वही पच चारुदच में भी आया है. असा दण्डी ने वह वश्च चारुदत से ही लिया होगा। यह भी कहा जाता १ देखिये ने (Gray) सम्पादित वासवदत्ता, पृष्ठ ३. २ देखिये राजशेखर का निम्नलिखित पध प्रयोऽग्नवस्त्रयो वेदास्त्रयो देवास्त्रयोगुणाः । भयो दरिडप्रबन्धाश्च त्रिषु लोकेषु विच ताः ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य-काव्य और चम्पू १६ कहा जाता है कि शायद इसका तीसरा ग्रन्थ छन्दोविक्ति हो, जिसका उल्लेख इसने अपने काव्यादर्श में किया है, किन्तु इसका कुछ निश्चय नहीं कि यह शब्द किसी वशिष्ट ग्रन्थ छा परामर्श करता है या अलङ्कार के सामान्य शास्त्र का। इसी प्रकार काव्यादर्श में कलापरिच्छेद का भी उल्लेख पाता है। यदि यह अन्य दण्डी का ही होता तो एक प्रथक अन्य न होकर यह काव्यादर्श का ही एक पिछला अध्याय होता। यह तो निश्चय है कि दण्डी अवन्तीसुन्दरीकथा का, जिसको यस्नायात शैली सुबन्धु और बाणा के अन्यों की शैली की स्पर्धा करती है, रचयिता वैयक्तिक जीवन---- राडी के वैयक्तिक जीवन के बारे में खास करके कुछ मालूम नहीं है। दशकुमारचरिता के प्रारम्भिक पत्रों से किसी किसी ने यह धारणा की है कि शायद सह वैष्णव' था; किन्तु इस धारणा में इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया कि पूर्वपालिका (दशकुमार की भूमिका ), जिसमें यह पय प्राता है, विद्वानों की सम्मति में दण्डी की रचना नहीं है। हाँ, इसना सम्भव प्रतीत होता है कि यह दाक्षिणात्य और विदर्भ देश का निवासी था। यह वैदर्भी शेति की प्रशंसा करता है; महाराष्ट्री भाषा को उत्तम बतलाता है; कलिङ्ग, आन्ध्र, चोल देशों और दक्षिण भारत की नदियों का नाम देता है, और मध्यभारत के रीति-रिवाजों ने खूब परिचित है। उदाहरण के लिए दशकुमार चरित में विश्चत की कया में विन्ध्यवासिनी देवी का वर्णन देखा जा सकता है। काल-दण्डी का काल भी बड़ा विवादास्पद विषय बला भा रहा है। दशकुमार चरित की अन्तिम कथा में, जिसे विश्रुत ने सुनाया है, भोज वंश का नाम आया है। इस श्राभ्यन्तरिक साक्ष्य पर विश्वास करके १ देखिये, एम. आर० काले द्वारा सम्पादित दशकुमारचरित, पष्ठ ४४ (इंग्लिश भूमिका)। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास प्रो. विल्सन ने परिणाम निकाला है कि दरडी महाराज भोज के किसी ঋল ভলামিকাৰ ক স্বাক্ষ্য ম লাবিন বা ব্যা? কী वास्पर्य यह है कि दण्डी ईला को १३ वी शताब्दी में हुआ, परन्तु कुछ अन्य विचार इसे इससे बहुत ही पहले का लिह करते हैं। आ० पीटरसन ने जिन आधारों पर इसे ईसा की शताब्दी में रक्खा है, वे ये हैं:-१) काव्यादर्श २, २५८.६ में पालद्वारिक वामन (८ वी श० ) की ओर संकेत प्रतीत होता है, और (२) कान्यादर्श १, १३७ वाला पद्य' कादम्बरी के उसी बयान में बहुत समानता खवर । ভাৰাছা ফিঙ্গু ল মনাহি ক লাঃ की तथा भवभूति के माजीमाधव नाटक के पश्चम अङ्क की कथा में অন লস্তাই হ্রদ্ধা ও অন্যান্স বিল্পি আজি দুখী सम्भवतया भवभूति का समकालीन था। हाण ने अपने हर्षचरित की भूमिका में दण्डी का नाम नहीं लिया, परन्तु इससे भी कुछ परिणाम नहीं निकाला जा सकता, क्योंकि उसने तो भारवि जैले महाकवियों तक का भी नामोल्लेख नही किना है। शैली का साक्ष्य बतलाता है कि दशकुमारचरित सुबन्धु और बाण के गद्य-काव्यों की अपेक्षा पञ्चतन्त्र या कथासरित्सागर से अधिक मिलता जुलता है । यद्यपि अपने काव्यादर्श में दण्डी कहता है कि "प्रोज; समासभूषल्वमेतद् गधस्य जीवितम्। ( समासबाहुल्य से परिपूर्ण भोज गुण हो गद्य का प्राण है), तथापि इसका अपना दशकुमारचरित वासवदत्ता या कादम्बरी के सामने बिल्कुल सरह है। १ दण्डी अरलालोक सेहाथैमवार्थ सूर्यरश्मिभिः । दृष्ठिरोधकरं यूनां यौवनप्रभवं तमः । बाय---- केवलं च निसर्गत एवाभानुभेद्यमरनालोकोच्छेद्यम प्रदीपसमापनेयमतिगहन वमो चौवनप्रभवम् । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य-काव्य और चम्पू १६ खाण और सुबन्धु से मिलाकर देखें वो दण्डी न तो उतना कठिन है और न उतना कृत्रिमता से पूर्ण । भारतीय प्रायोवाद (Tradition) के अनुसार दण्डो पदलालित्य के लिए प्रसिद्ध है। इस पदनानिस्य का अभिप्राय है शब्दों के सुन्दर चुनाव पर आश्रित विच्छित्ति-शातिनी और परिष्कृत शैली जिसमें प्राकर्षण और प्रभाव दोनों हैं। इसके अतिरिक्त दण्डी कथा-सून को नहीं भूलता और सुबन्धु तथा दामा के समान आयास-मब वर्णनों में अटकता है। ये बात इसका काद २००ई० के आस-पास सूचित करती है, इसी काल का समर्थन दशकुमार चरित में पाई जाने वाली भौगोलिक परिस्थितियों से भी है। श्राम्यन्नरिक साक्ष्य के धार पर सिद्ध होता है कि दण्डी महाराज भोज के अनन्त मादी नृप के शासन काल में विद्यमान था, इस विचार के साथ इसके छली शताब्दी में होने की बारा बिलकुल ठीक बैठ जाती है। कर्नल टाड ने किसी जैन इतिहास-व्याकरणोभयान्वित सूचीपत्र के आधार पर भोज नाम के तीन गजानों का उल्लेख किया है, जो मालवे में क्रमशः २७५, ६६१, और १७४१ ई० में शासन करते थे। प्रत: बहुत कुछ निश्चय के साथ इसी परिणाम पर पहुँच सकते है कि दण्डी ईसा की छठी शताब्दी के अन्य के पास-पास जीवित था। १ उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थ- गौरवम् । दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति यो गुणाः || २ देखिए 'रघुवंश और दशकुमारचरित की भौगोलिक बातें, (इंगलिश) कोलिन्स (१९०७), पृष्ठ ४६ । ३ दक्खन में विजिका नाम के एक कवि ने दण्डी का नाम लेते हुए कहा है-"वृथैव दण्डिना प्रोक्त सर्वशुक्ला सरस्वती" यदि यह विजिका पुलकेशी द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र चन्द्रादिस्य की रानी विजयभवारिका ही है तो वह ६६० ई० के आसपास जीवित थी। इससे दण्डी का ६०० ई. के समीप विद्यमान होना सिद्ध हो जाएगा। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास (७) दशकुमारचरित अन्थ के नाम से सूचित होता है कि इसमें दुख राजकुमारों की कहानी है। मुख्य ग्रन्थ का प्रारम्भ सहसा कथा के नायक राजकुमार राजवाहन की कथा से होता है। इस ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं जिन्हें उच्छवास कहते है । १६६ पूर्वपीठिका नाम से प्रसिद्ध भूमिका-भाग मे पाँच उपवास है । इसमें सारी कथा का ढाँचा और दोनों राजकुमारों की कहानी या गई है। इस प्रकार कुमारों की संख्या दस हो जाती है । उत्तरपटिका नाम are और est का अन्योन्य सम्बन्ध ध्यान में रखकर दएडी का काल-निर्णय करने में बड़ा जबरदस्त विवाद चलता रहा है; किन्तु कुछ कारणो से भामह की अपेक्षा दरडी प्राचीन प्रतीत होता है--- (१) रुद्र के काव्यालङ्कार में आता है---' ननु दरिडीपमेधाविरुद्र भामहादिकृतानि सन्त्येवालङ्कारशास्त्राथि' । ऐसी ही बात नमिसाधु भी कहता है। ऐसा अनुमान होता है कि ये नाम काल-क्रमानुसार रखे गए हैं, जैसा कि हम मेवाविरुद्ध के बारे में भामह के ग्रन्थ में भी उल्लेख पाते हैं । (२) दरडी की निरूपणशैली Trer और अवैज्ञानिक है। इसको अपेक्षा The after ree तथा वैज्ञानिक होने के साथ साथ वस्तु के अव धारण, तर्क की तीक्ष्ण और विचार की विशदता में भी इससे बढ़कर है । (३) कभी कभी भामह 'श्रपरे, अन्ये' इत्यादि कहकर जिन मतो को उद्धृत करता है वे दडी में पाए जाते है । यह भी प्रायः निश्चित ही है कि दरडी का काव्यादर्श भट्टिकाव्य के बाद का है । भट्टि मे प्रायः उन्हीं अलङ्कारो के उदाहरण हैं जिनके लक्षण दण्डी ने दिए हैं, किन्तु भट्टि का क्रम तथा भेदो भेदादि कथन पर्या free है। यदि उसने दो का अनुसरण किया होता, तो ऐसा क्यो होता; परन्तु इतने से भी हम दण्डी के ठीक-ठीक समय को नहीं जान सकते, क्योकि महि और भामह के काल भी अनिश्चित है I Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य-काव्य और चम्पू १.६७ से प्रसिद्ध परिशिष्ट भाग में अन्तिम राजकुमार विश्रुत की कहानी पूरी की गई है। शैखी के विचार को एक ओर रखकर देखे तो कथा की रूप-रेखा और अन्तरात्मा दोनों की दृष्टि से भी पूर्वपीठिका तथा उत्तर'पीठिका दोनों ही दडी के मुख्य ग्रन्थ से अलग प्रतीत होती हैं। कहीं कहीं तोरणों में भी परस्पर विरोध है । उदाहरण के लिए, पूर्वपीठिका में पान तारावली का और प्रमति एक और मन्त्री सुमति का पुत्र कहा गया है, परन्तु मुख्य ग्रन्थ में श्रर्थपाक्ष और प्रति दोनों कामशक के पुत्र कहे गये हैं जिनको माता क्रमशः क्रान्तिnat और खारावली हैं। पूर्वपीfrer और उत्तरपटिका दोनों ही पृथक पृथक संस्करणों में इतने पाठान्तरों के साथ उपन्तब्ध होती हैं कि उन्हें देख कर यही मानना पड़ता है कि सचमुच ये दडी के ग्रन्थ का भाग नहीं है। शैली की दृष्टि से पूर्वपीठिका का पंचम उच्चा शेष quire से कृष्ट है, इससे प्रतीत होता है कि पूर्वपीठिका में भी दो लेखकों का हाथ है । कथा का नायक राजवाहन है। उसका पिता राजहंस मगध का राजा था जो मालदाधीश से परास्त होकर वन में इधर उधर अपने दिन व्यतीत कर रहा था । नायक के नौ साथी भूतपूर्व मंत्रियों या सामन्तों के पुत्र हैं जो एक एक करके वन में लाए गए थे। जवान होने पर वे सब के सब श्रीकाम होकर दिग्विजय के लिए निकले । राजकुमार जवाइन एक काम से अपने साथियों से मिge कर पाताल में जा पहुँचा, और के नौ साथी कसे ढूंढ़ने के लिए निकल पड़े। उर पाताल से बोटने पर जब राजवाहन ने अपने साथियों को न देखा त वह भी उनकी खोज में थन दिया । अन्त में वे सब मिल गए और प्रत्येक ने अपनी अपनी पर्यटन-कथा बारी बारी सुनानी प्रारम्भ की। ये कथाएँ अदभुत, पराक्रमपूर्ण और विविध जातिक हैं। इनके क्षेत्र के विस्तार से मालूम होता है कि कवि की कल्पना-शक्ति बहुत भारी है । यह समझना भूख है कि इस कथा में किसी प्रकार भी काम हिन्दू Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ संस्कृत साहित्य का इतिहास समाज का चिन्न अलित है। कवि का असली सदेश्य मनोरंजना को सामग्री उपस्थित करना है न कि सामाजिक अवस्था का चित्र उतारना । अान्तरिक स्वरूप की दृष्टि से ये कथाएँ गुणाव्य की वृहत्कथा में पाई जाने वाली कुछ कथाओं से मिलती जुलती है। इनसे सिद्ध होता है कि जादू-टोना, मन्तर-जन्तर, अन्ध-विश्वास और चमत्कार ही उस समय के धार्मिक जीवन का एक अनद थे। इन कथाओं में हम पढ़ते हैं कि एक श्रादमी श्राकाश से गिरता है और उसे कोई राहगीर अपने हाथों में समान लेता है परन्तु चोट किलो के नहीं लगती है। मार्कण्डेय मुनि के शाप से सुरतमंजरी नाम की एक अप्सरा चाँदी की 'जीर होगई थी, उसने नायक राजवाहन को बाँध लिया, और वह फिर अपसरा की अपक्षरा होगई। जोया जुना खेचने में, चोरी करने में, सेंध लगाने में तथा ऐसे ही और दूसरे काम करने में सिद्धहस्त हैं। प्रेम-चित्रों में जरा जरा-सी बातों को दिखलाने का प्रयत्न किया गया है जो अाजकल के पाठक में अरुचि उत्पन्न कर देती हैं। ऐसी बातों का क्रम यहां तक बढ़ गया है कि इस ग्रन्थ को पाठ्य-पुस्तकों में रखने के लिए उन बातों में से कुछ-एक को प्रन्थ से निकाल देना पड़ेगा। शैली--परम्परानुसार प्रसिद्ध दण्डी के पदलालित्य का उल्लेख इम पहले कर चुके हैं और कह चुके हैं कि सुबन्धु और बाण जैसी कृत्रिमता इसमें नहीं है। चरित्र-चित्रण की विशेष योग्यता के लिए भी दण्डी प्रसिद्ध है। केवल राजकुमारों का ही नहीं, छोटे छोटे पात्रों का चरित्र भी बड़ी सकाई के साथ चित्रित किया गया है। उनमें से प्रत्येक की एक विशिष्ट ब्यक्ति भासिब होने लगी है और उनके चित्र-चित्रण दण्डी२ के भाम १देखिए खंड ७७। २ दण्डी यशस्वी कवि के रूप में प्रसिद्ध है। इसका काव्यादर्श सारे का सारा पद्य-बद्ध है और दशकुमारचरित भी श्रान्तरिक स्वरूप में काव्य हो है (देखिए वा रसात्सकं काव्यम्।) एडी के किसी पुराने प्रशंसक ने कहा है : Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्यकाव्य और चम्पू जोश, पैनी नजर तथा जिन्दादिली के मिले हुए रंग से बने हैं । प्रकृति के या वर्णन के कवि को हैसियत में दगडी कालिदास, भारवि या माथ की तुलना न करता बही, फिर भी इसकी रचना में वसन्त, सूर्यास्त, राजवाहन और श्रवम्वीसुन्दरी का मिलन, प्रमतिकृत अपरिचित राजकुमारी का वृत्तान्त, और कन्दुकावती का गेंद खेलना ऐसे सुन्दर ढंग से वर्णित हुए हैं कि इन्हें हम किसी बड़े कवि के नाम के अनुरूप उसकी उत्तम रचना के उदाहरणों के रूप में सम्मुख रख सकते हैं। १६६ भाषा पर दण्डी का पूर्ण अधिकार प्रशंसनीय है । सम्पूर्ण सातवें अच्छूवास में एक भी श्रोष्ठ्य वर्णं नहीं आने पाया, कारण, मन्त्रगुप्त की प्रेयसी ने उसके श्रोष्ट में काट लिया था, तब उसने मुँह पर हाथ रखकर श्रोष्ठ्य वर्णं का परिहार करते हुए अपनी कथा कही । वैदर्भी रीति का समर्थक होने के कारण दण्डी ने अपना लक्ष्य सुबोधता, भावों का यथार्थ प्रकाशन, पदों का माधुर्य, चन्चन - विन्यास की मनोरमता रक्खा है और इसलिए इसने श्रुतिकटु तथा विशालकाय शब्दों के प्रयोग से परहेज़ किया है। गद्य तक में इसने दुर्बोधदीर्घ समास वाले पदों का प्रयोग नहीं किया है । यह निपुण वैयाकरण था, और इसने राजकुमारों की अपनी कथा सुनाने में उनके मुँह से लिट् बकार का प्रयोग नहीं करवाया । हाँ, इसने लुङ का पर्याप्त प्रयोग किया है दण्डी में हँसा देने की भी शक्ति है। राजकुमारों के जंगलों में घूमते फिरते रहने का तथा श्रपना-प्रयोजन पूर्ण करने के उनके अद्भुत उपायों को किथाओं से कवि की पाठक का मनोविनोद करने वाली भारी योग्यता का परिचय मिलता है । रानी वसुन्धरा ने नगर के भाद्र खोगों को एक गुप्त अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए निमन्त्रित किया और उनसे वस्तुत: गुप्त रखने का वचन लेकर एक झूठी अफवाह फैला जाते जगति वाल्मीकी कविरित्यभिधाऽभवत् । कवी इति ततो व्यासे कपयस्त्वयि दण्डिनि ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० संस्कृत साहित्य का इतिहास दी-सचमुच इस काम को करने का यह एक प्रत्युत्तम उपाय था। पूर्वपीठिका का प्रारम्भिक अनुच्छेद ( Paragraph) बारह की श्रममव शंत्री के अनुकरण पर लिखा गया है। इस अनुच्छेद में दुर्बोध दोष समासों के लम्बे-लम्बे वाक्य हैं । पूर्वपीठिका के लेखक ने यमकानहार का अधिक प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए एक बाक्य देखिए--- कुमारा माराभिरामा रामापौरुषा रुषा अस्मीकृतास्यो श्योपहलितसमीरणा रणामियानेन यानेनाभ्युदयाशसं राजासमकार्ष: । [उच्छ्वास २, अनुच्छेद ] (७६) सुबन्धु सुबन्धु को हम वासवदत्ता के कीर्तिमान कर्ता के रूप में जानते है। वासवदत्ता का प्राचीनतम उल्लेख बाय के हर्षचरित की भूमिका के ग्यारह पद्य में प्राक्ष होता है कवीनामगबद्दों नूनं वासवदत्तया । शकत्व पाण्डुपुत्राणां गलया कर्णगोचरम् ॥ कादम्बरी की भूमिका के बीसवें पद्य में बाण अपनी कृति को हथम प्रतिद्वयो कथा' कह कर विशेषित करता है। टीकाकार कहता है कि 'द्वयी खे यहाँ बृहत्कथा और वासवदसा अभिप्रेत हैं। साहित्य संसार में सुबन्धुविषयक कुछ लेन निस्सन्देह बाण के जो कामदेव के समान सुन्दर थे, राम इत्यादि के समान पौरुष वाले थे, जिन्होंने क्रोध में भरकर शत्रुओं को राख कर डाला था, जो बेग में वायु का भी उपहास उड़ाते थे, उन कुमारों ने दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते हुए राजा को अभ्युदय की श्राशा से भर दिया। २ सचमुच जैसे इन्द्र की दी हुई शक्ति के कर्ण के हाथ में पहुँचने पर पाण्डवों का गर्क जाता रहा था वैसे ही वासवदत्ता को सुन लेने पर कवियों का गर्व लाता रहा। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ गद्य-काव्य और चम्पू बा के भी मिलते है । चाकपतिराज ने अपने गउद्धवह में सुबन्धु का माम भास और रघुवंश के कर्ता के साथ किया है। रावबपाएलवीय के रचयिता कविराज के अनुसार सुबन्धु, बाणभट्ट, और कविराज ( वह स्वयं ) वक्रोक्ति में निरूपम हैं । मडर ने प्रशंसा करते हुए सुबन्धु को मेष्ठ और भारवि की श्रेणी में रखा है। सुभाषित संग्रहों में इसका जाम और भी कई स्थलों पर पाया है। बल्लाजकृत मोजप्रबन्ध में (१६दी श०) इसकी गणना धारा के शासक भोज के तेरह रत्नों में को गई है। ११६८ ई. के कनारी भाषा के एक शिलालेख में इसका नाम काव्य-जगत् के एक गययमान्य व्यक्ति के रूप में प्राया है। इसका अर्थ हुश्रा कि बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसका यश दक्षिण में फैल्ब चुका था। सुबन्धु के जीवन-काल के विषय में अभी तक निश्चितरूप से कुछ पता नहीं है। यद्यपि इसके प्रन्थ में रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद्, मीमांसा, न्याय, बृहटकथा और कामसूत्र से सम्बद्ध अनेक उल्लेखों के साथ साथ बौद्धों और जैनों के साथ विरोध को सूचित करने वाले भी कई उल्लेख पाए है, किन्तु इन सब ले. कवि के कान पर बहुत ही मन्द प्रकाश पड़ता है। वासवदत्ता में छन्दोविचिति का १दण्डी के दशकुमार चरित में वासवदत्ता विषयक वक्ष्यमा उल्लेख मिलता है.-"अनुरूपमर्तृगामिनीनां च वासवदत्तादीना वर्णनेन ग्राहयाऽनुशयम ( अपने योग्य पति को प्राप्त होने वाली वासवदत्ता इत्यादि स्त्रियों के वर्णन से उसके मन में पश्चाशाप का उदय कीजिये) अधिक संभावना यह है कि इस उल्लेख में वासवदत्ता शब्द भासरचित स्वप्नवासवदत्ता का परामर्श करता है सुबन्धु के ग्रन्थ की बासवदत्ता का नहीं। पाणिनि-अष्टाध्यायी के चौथे अध्याय के तीसरी पाद के सतासीवें सूत्र पर पठित वार्तिक में (लगभग ई० पू० तीसरा श०) “कासवदत्तार अधिकृत्य चलो ग्रन्या इस प्रकार श्राने बाला शब्द विस्परूप से भास के अन्य का परामर्श करता है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ संस्कृत साहित्य का इतिहास दो बार उल्लेख मिलता है। यदि यह छन्दोदिन्थिति दरकी का वी प्रन्ध है; जिसके होने में सम्भावना कम और सन्देह अधिक है, तो सुबन्धु हण्डी के बाद हुश्रा । यह ग्रन्थ नृए विक्रमादित्य के बाद गही पर बैठने वाले सच से पहले राजा के राज्य में लिखा गया था, इसके कुछ प्रमार उपलब्ध हैं:--(क) वासवदत्ता की भूमिका के दस पछा में पाया है, “गतवति भुवि विक्रमादित्ये" (ख) दासवदत्ता का एक तिलककार नरसिंह बैच कहता है, "कविरथं विक्रमादित्यसभ्यः। तस्मिन् राज्ञि लोकान्तरं प्राप्ते एतं निबन्धं कृतवान" (यह कवि विक्रमादित्य का सभासद् था । महाराज विक्रमादित्य के स्वर्गवामी होने पर इसने यह अन्थ लिखा); (ग) महाशय हाल को उपलब्ध होने वाली वासवदत्ता की हस्त-जि खित प्रति बतलाती है कि सुबन्धु वररुचि का भानजा था । यह वररुचि भी विक्रमादित्य के दरबार का एक रत्न कहा जाता है। परन्तु केवल इसी आधार पर किसी बात का पक्का निश्चय नहीं हो सकता। सुबन्धु का "स्वास्थितिमिबोद्योतकरस्वरूपा बौद्धसङ्गतिमिवालङ्कारदूषिताम्" कथना बड़े काम का है। क्योंकि इसमें उद्योकर तथा बौद्ध सङ्गस्थलङ्कारकार धर्मकीर्ति का नाम पाया है। उद्योस्कर और धर्मकीर्ति दोनों ही ईसा की छठी शताब्दी के उत्तराई में हुए हैं। अतः हम सुबन्धु को छठी शताब्दी के अन्तिम भाग के समीप रख सकते हैं। यह तो निश्चित ही है कि वासवदत्ता इर्षचरित से पहले लिखी गई है। कथावस्तु-इस कथा का नायक चिन्तामणि का शुणी पुत्र कन्दर्पकेतु था। एक प्राभातिक स्वप्न में किसी षोडशो सुन्दर कन्या को देखकर वह अपने सुहृद् मकरन्द को साथ ले उसकी तलाश में निकल पड़ा। घूमते हुए वे विन्ध्यपर्वत में जा पहुंचे। वहाँ एक रात कन्दप केत १छन्दोविचितिरिव मालिनी सनाथा. और छन्दोविचितिं प्राजमानतनुमध्याम [हल' द्वारा सम्पादित संस्करण, ११६, २३५] । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -काव्य और पू २०३ ने रात में देर से वृक्ष पर लौट कर आए हुए शुक को धमकाती हुई शारिका को सुना । फिर शुक ने अपने विलम्ब का कारण बताते हुए शारिका को एक कथा सुनाई। इस कथा से कन्दर्पकेतु को अपनी प्रेयसी का कुछ पता मिल गया । वह कुसुमपुर के अधिपति नृप शृङ्गारशेखर की इकलौती बेटी थी। उसका नाम वासवदत्ता था । उसने भी कन्दर्पकेतु के समान सुन्दर एक तरुया को स्वप्न में देखकर उसकी तलाश में अपनी अनुचरी मालिका को भेजा था । कुसुमपुर में रागालुग युगका के सम्मिलन का प्रबन्ध हो गया । बिल्कुल अगले ही दिन वासवदत्ता का विवाह विद्याधर राजकुमार पुष्पकेतु के साथ हो जाने का निश्चय हो चुका था । श्रतः कन्दर्पकेतु और वासवदत्ता दोनों के दोनों तत्काल एक जादू के घोड़े पर सवार हो उडकर विन्ध्यपर्वत में जा पहुँचे । प्रातः कन्दर्पकेतु ने वासवदत्ता को अनुपस्थित पाया तो उसने प्रेस से पागल होकर आमवात करने का निश्चय कर लिया, किन्तु उसी तय एक आकाशवाणी ने प्रेयसी के साथ पुनः मिलाप होने की श्राशा दिलाकर उसे श्रात्मघात करने से रोक दिया। कुछ महीने के बाद एक दिन कन्दर्पकेतु ने वासवदत्ता को पाषाण की मूर्ति बनी पाया जो उसके छूते ही जीवित हो उठी। पूछने पर वासवदत्ता ने बताया कि जब अपने अपने स्वामी के लिए मुझे माल करने के उद्देश्य से दो सेनाएँ आपस में युद्ध करने में व्यन थीं, तब मैं अनजाने उस तरफ चलो गई जिस तरफ स्त्रियों के जाने की मनाही थी । वहाँ मुनि ने मुझे शाप देकर पाषाणी बना दिया। इसके पश्चात कन्दर्पकेतु उसे लेकर अपनी राजधानी को हौद श्राया और वहाँ वे दोनों सुख से रहने लगे । + वासवदत्ता की गिनती, आख्यायिकाओं में नहीं, कथाओं में की जानी चाहिए; इसका प्रतिपाच अर्थ हर्ष चरित की अपेक्षा कादम्बरी से अधिक मेल खाता है । हमें इसमें स्वप्नों में विश्वास, पक्षियों का वार्तालाप, जाडू का घोड़ा, शरीराकृति का परिवर्तन, शाप का प्रभाव इस्थादि कथानुकूल सामग्री उपलब्ध होती है Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ संस्कृत साहित्य का इतिहास शैक्षो-सुबन्धु का जदय ऐसा प्रध प्रस्तुत करना है जिसके प्रत्येक वर्ग में श्लेष हो।' कवि के साफल्य की प्रशंसा करनी पकृती है और कहना पड़ता है कि कवि की गोंकि यथार्थ है। किन्तु श्राधुनिक तुला पर सोलने से अन्य निर्दोष सिद्ध नहीं होता। कथावस्तु के निर्माण में शिथिलता है और समस्कारपूर्ण, चकाचौंध पैदा करने वाला वर्णन ही सर्व प्रधान पदार्थ समझ लिया गया है । नायिका का सौन्दर्य, नायक की वीरता, वसन्त वम-पर्वत का बहन बड़े मनोरमरूप से हुआ है । कथा की रोचकता को शैली की कृत्रिमता ने लगभग दबा लिया है। और यह शैली पाठक को बहुधा अरुचिकर एवं व्यामोहजनक प्रतीत होने लगती है। रीति पूर्ण गौडी है, इसीलिए इसमें बोमाली बनावट के लम्बे-लम्ब समास और भारी भरकम शब्द हैं, अनुप्रास तथा अन्य शब्दालङ्कारों की भरमार है। कवि को अर्थ की अपेक्षा शब्द से पाठक पर प्रभाव डालना अभिप्रेत प्रतीत होता है। श्लेष के बाद अधिक संख्या में पाया जाने वाला अलङ्कार विरोधाभास है, जिसमें अर्थ का स्व-विरोध मासिस होता है किन्तु वस्तुतः वह (अर्थ) स्वाविरोधवान् और अधिक उर्जस्थित् होता है। उदाहरण के लिए, नृप चिन्तामणि का वर्णन करते हुए कहा गया है.--"विद्याधरोऽपि सुमनाः, धृतराष्ट्रोऽपि गुणप्रियः, समानुगतोऽपि सुधर्माश्रितः" ।मालादीपक का एक उदाहरण १ भूमिका के तेरहवें पद्य में इसने अपने आपको "प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रबन्धविन्यास वैदग्ध्यानिधिः" कहा है। २ पहला अर्थ- यद्यपि वह विद्याधर (निम्न श्रेणी का देव) तथापि वह सुमना (यथार्थ श्रेणी का देव था), यद्यपि वह धृतराष्ट्र था तथापि भीम का मित्र था, यद्यपि वह पृथिवी पर उतर आया था, तथापि वह देवसभा में आश्रय (निवास) रखता था । दूसराश्रर्थ-वह विद्वान होने पर भी उत्तम मन वाला, राष्ट्र का धर्ती होने पर भी गुणग्राही, पैशाली होने पर भी उत्तम शासन का श्राश्रय लेने वाला था। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य-काव्य और चम्पू २०५ देखिए --नायकेन कीतिः, कीर्या सब सागसः, सागरः कृतयगादिराजचरितस्मरणम् .. । शहीरानुसार अवयवकल्पना एक प्रकार से शैक्षी को नींव होती है। वासदत्ता में इसका इतना अभाव है कि उसका उल्लेख किये बिना रहा नहीं जा सकता । चरम सीमा को पहुंचाए बिना कवि ने किसी भी प्रसङ्ग को नहीं जाने दिया है। निदर्शनार्थ, किसी घटना के वर्णन में प्रत्येक सम्भव विवरण दिया गया है, यदि इतना देना अपर्याप्त प्रतीत हुश्रा है तो इसकी पूछ से उपमा के पीछे उपमा और शेष के पीछे श्लेष का तांता बांध दिया गया है। कहीं उत्साह दिलाना अमोष्ट हा. तो एक ही बात अनेक रूप से बारबार दोहराई गई है । इस दोष का कारण कवि की मति की तीय स्फूर्ति तथा बहुज्ञता है। अन्य कहानियों के समान इसमें कथा के अन्दर कथा भरने की विशेषता है। ) वारण की कादम्बरी। बाण की कादम्बरी हमें कई प्रकार से रुचिकरी प्रतीत होती है। एक तो हमें इसकी निश्चित तिथि मालूम है। अत: भारतीय साहित्य के और भारतीय दर्शन के इतिहास में यह एक सीमा का निर्देश कर सकती है। दूसरे यह हमारे लिए लौकिक संस्कृत के प्रमाणीमूत गयोदाहरण का काम देती है। तीसरे यह भारतीय सर्वसाधारण का ज्ञान बढ़ाने वाली लोकप्रिय कहानी है। बाण अपने अन्य ग्रन्थ के समान कादम्बरी को भी अपूर्ण छोड़ गया था । सौभाग्य से उसके पुत्र भूषण भट्ट ने इसे समाक्ष कर दिया था । कथा-वस्तु कुछ जटिल सी है। इसमें कथा के अन्दर कथा, उसके भी अन्दर और कथा पाई जाती है। कथा का प्रधान भाग एक तोते के मुंह से कहलवाया गया है। यही तोता अन्त में पुण्डरीक मुनि सिद्ध १नायक ने यश, यश ने सात समुद्र, सात समुद्रो नै सतयुग आदि में हुए राजाओं के चरित का स्मरण [ प्राप्त ] किया !. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास होता है जो कथा का उपनायक है । कथा की नायिका कादम्बरी क माम तो हमें बाधा अन्य एढ़ जाने के बाद मालूम होता है। कहानी का श्रोता नृप शूदक है जो एक अनावश्यक पात्र प्रतीत होता है और कथा से जिसका नाम निकाल देने से कोई हानि पहुंचती प्रतीत नहीं होती; परन्तु अन्त में यही राजा कथा का मुरूम नायक चन्द्रापीड निकल पड़ता है जो शाप-वश उस जीवन में गया हुश्रा है। इस प्रकार बड़ी कुशलता से कथा की रोचकता अन्त तक अखण्ड रखी गई है। संक्षेप में कथा यों है: शूद्धक नामक एक राजा के दरबार में कोई चाराडाज बन्यो एक दिन एक तोता बाई ! राजा के पूछने पर तोते ने अपनी दुःखभरी कथा उसे सुनाते हुए कहा-मेरी माता की मृत्यु मेरे जन्म के समय ही हो गई थी और कुछ ही समय पश्चात् मेरे पिता को शिकारियों ने पकड लिया । जाबालि मुनि के एक शिष्ठ ने मुझे सिर्जन बन में पड़ा हुभा देखा तो दयाई होकर बठा लिया और अपने गुरु के धाश्रम में ले गया। शिष्यों के पूछने पर जाबाजि मुनि ने मेरा पूर्वजन्म का वृत्तान्त उन्हें इस प्रकार सुनाया कमी उज्जैन में तारापीर मामक एक धर्मात्मा राजा राज्य करता था। उसकी रानी विलासवती राजा के सम्पूर्ण अन्तःपुर में सब से अधिक गुणशालिनी देवी थी ! राजा का मन्त्री शुकनास बड़ा बुद्धिमान् था। बहुत समय बीतने पर महादेव की कृपा से राजा के एक पुत्र हुधा जिसका नाम चन्द्रापीड रक्खा गया । चन्द्रापीड का समवयस्क वैशम्पायन नामक सन्त्री का पुत्र था। दोनों कुमारों का पालन-पोषण साथ साथ हुश्रा और वे ज्यों-ज्यों बढ़ते गए स्यों त्यो उनका सौहार्द घनिष्ट होता गया; यहाँ तक कि वे एक दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकते थे। उनकी शिक्षा के लिए एक गुरुकुल की स्थापना की गई, जहाँ उन्होंने सोलह वर्ष की आय में ही सारी विद्याओं में पारङ्गतमा प्राश कर जी। शिक्षा समाप्ति पर शुकनाल ने राजकुमार को राजोपयोगी Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - काव्य और चम्पू २०७ एक सुन्दर उपदेश दिया। तब राजकुमार को युवराज पद देकर इन्द्रायुध नाम का एक बड़ा अद्भुत घोड़ा और पत्रलेखा नाम की विश्वासपात्र अनुधरी दी गई । श्रथ राजकुमार दिग्विजय के लिए निकला और तीन वर्ष तक सब संग्रामों में विजयी होता हुआ आगे बढ़ता रहा । एक बार दो किन्नरों का पीछा करता हुआ वह जङ्गल में दूर निकल गया जहाँ उसने एक सुन्दर सरोवर के तट पर तपश्चर्या करती हुई महाश्वेता नामक एक परम रमणीयाङ्गी रमणी को देखा । रमणी ने राजकुमार को बताया कि मेरा पुण्डरीक नामक एक तरुण पर और उसका मुझ पर अनुराग था; परन्तु हम अभी अपने पारस्परिक अनुराग को एक दूसरे पर प्रकट भी न कर पाए थे कि पुण्डरीक का लोकान्तर -गमन हो गया। मैंने उसकी चिता पर उसी के साथ सती होना चाहा; किन्तु एक दिव्य मूर्ति सुझे पुनर्मिलन की श्राशा दिलाकर उसके शव को ले गई। इस आत्म कथा के अतिरिक्त महाश्वेता ने राजकुमार को अनुपम लावण्यवती अपनी प्रियसखी कादम्बरी के बारे में भी कई बाते बताई । इसके बाद चन्द्रापीड़ कादम्बरी से मिला। दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए । किन्तु अभी उन्होंने अपने अनुराग को एक दूसरे पर प्रकट भी नहीं क्रिया था कि चन्द्रापीड़ को पिता की ओर से घर का बुलावा आ गया और उसे निराश हृदय के साथ घर aौटना पड़ा। इससे कादम्बरी का मन भो बड़ा उदास हो गया। उसने श्रात्महत्या करनी चाही; किन्तु उसे पत्रलेखा ने जिले चन्द्रापीड पीछे छोड़ गया 警 था, रोक दिया और फिर स्वयं चन्द्रापीड के पास आकर उसे कादम्बरी की प्रेम-चिह्नवता की सारी कथा सुनाई' । पत्रलेखा से कादम्बरी की विह्वलता की कथा सुनकर चन्द्रापीड़ १ बाणकृत ग्रन्थ यही हैं । कथा का शेष भाग उसके पुत्र भूषण भट्ट ने लिखा है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास उससे मिलने जाने के लिए सथ्यार हुअा। देवयोग से सभी एक दुर्धटमा घटित हो गई । वैशम्पायन श्राद्ध करके उस सरोवर के तट पर पीछे उहर गया था जिस पर महारदेता वप कर रही थी। बन्दापी ने लौटका उसे वहाँ न पाया तो वह च उसको लाश करने लगा। महाश्वेता से मिलने पर उसे मालूम हुआ कि किसी ब्राह्मण पवक ने महाश्वेता से प्रणय की याचना की थी जिसे उसने स्वीकार नहीं किया। जब युवक ने अधिक प्रामद किया त कुपित होकर महाश्वेता ने उसे तोते की योनि में चले जाने का शाप दे दिया। यह सुनते ही चन्द्रापीड़ निष्प्राण होकर पृथिवी पर गिर पड़ा। कादम्बरी वहाँ पहुँची तो महाश्वेता ले भी अधिक दुःखित हुई। एक आकाशवाणी ने कहा कि तुम चन्द्रापी का शव सुरक्षित रखो, क्योंकि एक शापयश इसके भाण निकले हैं । अन्त में तुम दोनों को तुम्हारे प्रियतमों की प्राप्ति होगी। ज्यों ही इन्द्रायुष ने सरोवर में प्रवेश किया त्यों ही उसके स्थान पर पुण्डरीक का सुहृद् कपिञ्जन प्रकट हुआ और उसने बताया कि चन्द्रापार चन्द्रमा का अवतार है तथा वैशम्पायन पुण्डरीक और हन्द्रायुध कपिञ्जा है। मुनि से इस कथा को सुनकर मैंने अपने आपको पहचान लिया। मैं समझ गया कि मैं हो पुण्डरीक और वैशम्पायन दोनों हूँ। अब मैं चन्द्रापोह को हूँढने के लिए चल दिया; परन्त दुर्भाग्य से मार्ग में मुझे चारडाल कन्या ने पकड़ लिया और यहाँ धापके पास ले पाई। कहानी के अगले भाग से हमें पता लगता है कि चाण्डाल कन्या पुरारीक की माता ही थी जिसने कटों से बचाने के लिए तोते का अपनी आँख के नीचे रख रक्खा था। शूद्रक में चन्द्रापीड का पारमा था। अब शाम के समय का अन्त आ गया था। उसी क्षण शूद्र का शरीरान्त हो गया। कादम्बरी की गोद में चन्दापी यो पुनर्जीवित हो उठा मानो वह किसी गहरी नींद से जागा हो । शीघ्र ही पुएबरीक भी सनसे आ मिला। दोनों प्रणयि-युगलों का विवाह हो गया और सर्वत्र Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -काव्य और चम्पू २०६ saire ही आनन्द का गया । उसके बाद उन प्रणमि-युगों में से प्रत्येक एक पक्ष के लिए भी एक दूसरे से पृथक् नहीं हुआ । साहित्यिक विशेषता - साहित्यिक विशेषता की दृष्टि से कादम्बरी, जो एक कथा ग्रन्थ है, बाया की अन्य रचना हर्षचरित से, जो एक श्रापाविका प्रन्य है, बकर दे। कादम्बरी और महाश्वेता के प्राय की Tags कथा बड़े कौशल से परस्पर गूंथी गई है। सच तो यह है कि जगत् के साहित्य इतिहास में ऐसे अन्य बहुत दो रूम में संस्कृत में तो कोई है ही नहीं । यद्यपि यह अन्य गद्य में है, तथापि रसपूर्ण' और अलङ्कारयुक्त होने के कारण भारतीय साहित्यशास्त्रियो ने इसे काव्य का नाम दिया है । अङ्गी रस कार है। इसका विकाव बड़ी निपुणता से किया गया है। मृत्यु तक को करते हुए काम की दखों दशाओं को दिखाने में यह कवि जैसा सफल हुआ है वैसा इससे पहले या इसके बाद कोई दूसरा नहीं । अन रखों में अद्भुत और करुण उल्लेखनीय हैं। इनके उदाहरणों की अन्य में कमी नहीं है । क में श्लेष बहुत अधिक पाया जाता है। दूसरे दर्जे पर ब्रेक और वृत्त्यनुप्रास हैं। सनोपमा का उदाहरण देते हुए कहा गया है, "कपिल पुपहरी के लिए ऐसा ही था जैसे सौन्दर्य को यौन, यौवन को अनुराग और अनुराग को वसन्त" अन्य - कारों का वर्णन करने के लिए यहाँ अवकाश नहीं है। वस्तुतः बाण संस्कृत साहित्य के श्रष्ट कक्षाकारों में गिना जाता है। गोवर्धनाचार्य Refer में कहा है ' 1 आता शिखण्डिनी प्राग् यथा शिखण्डी तथावगच्छामि । गा वाणी वाणो बभूवेति ॥ १ देखिये वाक्यं रसात्मकम् काव्यम् । २ उदाहरणार्थ चन्द्रमा और पुडरीक के क्रमिक अवतार । १ उदाहरणार्थ, प्राणियों के मृत्यु के बाद कादम्बरी और महाश्वेता की अवस्थाओं के तथा वैशम्पायन की मृत्यु पर चन्द्रापीड की अवस्था का वर्णन | ४ मेरा अनुमान है कि जैसे Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास धर्मदास नामक एक और समालोचक ने उसके साहित्यिक कृतित्व को और store से कहा है । वह कहता है : २१० रुचिrस्वरवता रसभाववती जगन्मनो हरति । तत् किं ? तरुणी ! नहि नहि वासी बाणस्य मधुरशीतस्य ' ॥ जयदेव ने और भी आगे बढ कर कहा है : --- "हृदयवसतिः पचबाणस्तु बाणः " [ कविता कामिनी के ] हृदय में बसने वाला बाण मानो काम है। अन्य समालोचकों ने भी अपने अपने ढंग से बाय के साहित्यिक गुणों की पर्याप्त प्रशंसा की है । बाण में वर्णन की, माननीय मनोवृत्तियों के तथा प्राकृतिक पदार्थों के सूचन पर्यवेक्षण की एवं कान्त्रोपयोगिनी कल्पना को आश्चर्यजनक शक्ति है । केवल प्रधानपात्र ही नहीं, छोटे-छोटे पात्रों का भी विशद चरित्र-चित्रण किया गया है । नायिकाओं के रागात्मक तीन मनोभाव और कन्योचित लज्जालुता के साथ प्राणियों के संवेदन और नायकनायिका की अन्योन्य भक्ति का वर्णन बढ़ो उत्तम रीति से किया गया है । एक सच्चा प्रणयी अपने प्रणयपात्र से पृथक होने की अपेक्षा मरना अधिक पसन्द करता है । हिमालय पर्वत के सुन्दर दरयों, अच्छोद सरोवर और अन्य प्राकृतिक पदार्थों का सुन्दर वर्णन कवि की साहि fore a का परिचय देता है। मुनियों के शान्तिमय और राजाश्र पहले समय में अधिक प्रागल्भ्य प्राप्त करने के लिए शिखण्डिनी शिखण्डी बन कर अवतीर्ण हुआ था वैसे ही अधिक प्रौढि प्राप्त करने के लिए सरस्वती बाग बन कर अवतीर्ण हुई थी । १ सुन्दर स्वर, सुन्दर वर्ण और सुंदर पदों वाली तथा रसमयी तथा भावमयी जगत् का मन हरती है। बताओ क्या है ? वरुणो है । न, न । मधुर प्रकृति वाले बारा की वाणी । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य-काव्य और चम्पू २१. के बाडम्बरपूर्ण जीवन का निपुण वर्णन तुलना की रीति पर बड़े है उत्तम डङ्ग से किया गया है। लचमुच बार की वर्णन-शक्ति बहुत मारी है, इसीलिये उसके विषय में कहा गया है कि "बाणोपिछष्ठं जगत् सर्थम्" हाण ने सारे जगत को जूठा कर दिया है। कादम्बरी के अध्ययन से यह भी मालूम होता है कि बाण का भाषा पर बड़ा विद्वत्तापूर्ण अधिकार था जिसके कारण उसने अप्रसिद्ध और ऋठिन शब्दों का भी प्रयोग कर डाला है। श्लेष के संयोग से तो उसका मध किसी योग्य टीका के बिना समझना ही कनिन हो गया है। आधुनिक बाटों से तोलने वाले प.श्चात्य पालोचकों ने इन त्रुटियों की बड़ी कटु आलोचना की है। जैसा पइले कहा जा चुका है उनके गा को एक भारतीय जंगल कहा गया है जिसमें झाड़-मंकादों के उग आने के कारण पथिक, जब तक मार्ग न बना ले. अागे नहीं बढ़ सकता, और जिसमें उसे अप्रसिद्ध शब्दों के रूप में भयावह जंगली जानवों का सामना करना पड़ता अन्य में समानुपातिक अंगोपचय का ध्यान नहीं रखा गया है। कदाचित् लेस्नक के पास किसी प्रसंग के वर्णन की जब तक कुछ भी सामग्री शेष रही है तब तक उसने इस प्रसङ्ग का पिंड नहीं छोड़ा है। दाहरणार्थ, एक सीधी सादी बात थी कि एक उज्जैन नगर था। अब इसकी विशेषणमाला जो प्रारम्भ हुई है दो पृष्ठ तक चली गई है। कभी कभी समास-गुम्फित विशेषण एक सारी की सारी पंक्ति तक बन्बा हो गया है। चन्द्रापीड़ को दिया हुआ शुकनास का उगदेश सात पृष्ठ में पाया है। जब तक प्रत्येक सम्भव रीति से बात तरुण राजकुमार के मन में पिठा नहीं दी गई, तम तक उपदेश समाप्त नहीं किया गया। किन्तु वाश की शैली का वास्तविक स्वरूप यह है कि १ कादम्बरी के अपने संस्करण की भूमिका में डा० पीटरसन द्वारा उद्धृत बैबर की सम्पति। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ सस्कृत साहित्य का इतिहास वह प्रतिपाय अर्थ के अनुसार बदलती रहने ली है । बहुत से प्रकरणों में बाण की भाषा पूर्ण सरल और श्रव है। ___ कादम्बरी का मूल स्रोत-स्थूल रूप-रेखा में कादम्बरी की कथा सोमदेव ( हैसा की १२वीं श० ) द्वारा लिखित कथासरित्सागर के नृप सुमना की कथा से बहुत मिलती जुलती है। कथासरित्सागर गुणान्यकृत बृहत्कथा का संस्कृतानुवाद है । बृहत्कथा अाजकल प्राच्या नहीं है, किन्तु यह बाण के समय में विद्यमान थी। इससे अनुमान होता है कि बाण ने बृहत्कथा से कथावस्तु लेकर कहा की दृष्टि से उसे प्रभाकशालिनी बनाने के लिए उसमें अनेक परिवर्तन कर दिये थे। ऊव्व कालीन कथात्मक काव्यो पर बरा का प्रभावबाण के कथाबनाने काव्य के उच्च प्रमाण तक पहुँचना कोई सुगस कार्य नहीं था। जाण के बाद कथा-काब्य अधिक चमत्कारक नहीं है, किन्तु इनसे यह साफ झलकता है कि उन पर बाए का गहरा प्रभाव पड़ा । बाण के बाद के कयालक काव्यों में प्रथम उर देखनीय विजकमंजरी है । इसका को धनपाल (ईसा की १०वीं श०) धारा के महाराज के पात्र में रहा करता था। इस प्रन्ध में तिलकमंजरी और समरकेतु के प्रेम की कथा है। अन्तरात्मा (Spirit) और शैली दोनों को दृष्टि से यह अन्य कादम्बरी की नकल है। इस बात को स्वयं लेखक भी स्वीकार करता है। बाण का ऋणी दूसरा प्रन्थ बचिन्तामणि है। इसका लेखक प्रोडयदेव नामक एक जैन था। इसी का उपनाम बादीमसिंह था । इस अन्य का प्रतिपाद्य विषय जीवनभर का उपाख्यान है। यही उपाख्यान जीवनधर बम्पू का भी विषय है। इसका काल अनिश्चत है। १ इसके अन्य ग्रन्थ है-पैयलच्छी (प्राकृतभाषा का कोष, रचनाकाल ६७२-३ ई०) और ऋषभ पंचाशिका (प्राकृत भाषा में पचास पद्य) जो किसी जैन मुनि की प्रशस्ति है। २ साहित्य के और भी अग हैं जिनमें गद्य-पद्य का मिश्रमा रहता है; परन्तु उनमे पद्य या तो औपदेशिक होते हैं या पक्ष्यमाण कहानी का Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य-काव्य और चम्पू (८१) चम्पू चम्पू गद्य-पद्यमय काव्य को कहते हैं । इसकी वर्णनीय वस्तु कोई कथा होती है । 'कथा' के समान ही चम्पू भी साहित्यदर्पण में रचना का एक प्रकार स्वीकृत हुआ है और ईसा की १०वीं शताब्दी तक के पुराने चम्पू ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । आजकस जिसने चम्पू-लेखकों का पता चलता है उनमें सबसे पुराना त्रिविक्रम भट्ट है । यही ६६३ ई० के राष्ट्रकूट नृप इन्द्र तृतीय के नौसारी वाले शिक्षालेख का भी लेखक है । इसके दो ग्रन्थ मिलते हैं --- नलचम्पू (जिसे दमयन्ती कथा भी कहते हैं) और मदालसचम्पू । इनमें से नवम् अपूर्ण है। दोनो ग्रन्थों में गौडी रीति का अनुसरण किया गया है । यहो कारण है कि इनमें दीर्घ समास, अनेक श्लेष, अनन्त विशेषण, दुरूह वाक्य रचना और अत्यधिक अनुप्रास हैं श्रुति सुखदता के लिए अर्थ की बलि दे दी गई है । हां, कुछ पछ रमणीय बनपड़े हैं । इस के नाम से सूक्तिसंग्रहों में संग्रहीत किया हुआ एक पथ देखिए- जननीरागहेतवः । सन्ध्येके बहुलायो बालका इव ' ॥ २१३ अप्रगल्भपदन्यासा arat शताब्दी में लिखा हुआ दूसरा कथा- काव्यग्रन्थ यशस्तिलक | इसे सोमदेव जैन ने १५० ई० में लिखा था । साहित्यिक गुणों की केन्द्रिक अभिप्राय देते हैं (जैसे; पञ्चतन्त्र ) या बात को प्रभाव - शालिनी बनाते हैं या किसी बात पर बल देते हैं । चम्पू में पद्य गद्यवत् ही किसी घटना का वर्णन करते हैं । १ प्रौढ चाल वाले, माता को श्रानन्द देने वाले, और [मुख से चूत हुई ] बहुत से पीने वाले बालकों के समान कुछ ऐसे भी कवि हैं जिनक वाक्य रचना प्रौढ नहीं है जो जनता को आकृष्ट नहीं कर सकते और जो बोलते अधिक हैं। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ सस्कृत साहित्य का इतिहास दृष्टि से यह ग्रन्थ उपयुक्त दोनों चम्पुओं से बहुत उत्कृष्ट है । कथा प्राय: सायन्त रोचक है । लेखक का उद्देश्य जैन सिद्धान्तों को लोकप्रिय रूप में रख कर उनका प्रचार करना प्रतीत होता है। यही कारण है कि इस अन्य में हम देखते हैं कि नृप मारिदत्त, कथा का नायक, जो कुल देवी चण्डमारी देवता के सामने सम्पूर्ण सजीव पदार्थों के जोड़ों को, जिनमें एक बालक और बालिका भी सम्मिलित थी, बलि देना चाहता था, अपनी प्रजा के साथ अन्त में जैनधर्म ग्रहण कर लेता है। इसके कुछ पद्य वस्तुतः सुन्दर हैं । जैसे प्रवक्ताऽपि स्वयं लोकः कामं का परीक्षक ! रसपाकानभिज्ञोऽपि भोका वेत्ति न कि हमम् ॥ कदाचित् उन्क शनाब्दी का ही एक और जैन कथात्मक काम्य हरिचन्द्र कृत जीवनधर चम्पू है । इसका अाधार गुणभन्न का उत्तर पुराण है। इसकी कहानी में रख का नाम नहीं । [भोज के नाम से प्रसिद्ध ] रामायण उम्पू, अनन्तकृत भारतचम्पू, सोडूढजकृत (१०८० ई०) उदयसुन्दरीका इत्यादि और भी कुछ स्वम्पू अन्ध है, परन्तु वे सब साधारण होने के कारण यहाँ परिचय कराने के अधिकारी नहीं हैं। - - - १ स्वयं अपने भावो का सम्यक् प्रकाश न कर सकने वाला व्यक्ति भी काव्य का परीक्षक हो सकता है; क्या स्वाद भोजन बनाने की क्रिया न जानने वाला भोक्ता भोजन के स्वाद को नहीं जानता। २ इसका पक्का निश्चय नहीं कि यही ( २१ सर्गात्मक ) धर्मशर्माभ्युदय नामक जैन काव्य का भी कर्ता है । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १३ लोकप्रिय कथाग्रन्थ । (८२) गुणाढ्य की बृहत्कथा । भारतीय साहित्य में जिन लोकप्रिय कथाओं के उल्लेख मिलते हैं उनका सबसे युगना अन्य गुणान्य की वृहरकथा है। मूल ग्रन्थ पैशाची भाषा में था। वह अब लुप्त हो चुका है। परन्तु इसके अनुवाद या वित संस्करण के नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थों के आधार पर इस ग्रन्थ के और इसके रचयिता के लम्जन्त्र में कुछ धारणाएं की जा सकती हैं। इस सम्बन्ध में हारमीर से उपलब्ध क्षेमेन्द्र को बृहत्कथामनरी और सोमदेव का कथासरित्सागर तथा नेपाल से प्राप्त बुद्धस्वामी का बृहत्कथाश्लोक संग्रह' मुख्य अन्ध हैं। (क) कवि-जीवन-काश्मीरी संस्करणों के अनुसार गुणात्य का जन्म गोदावरी के तट पर बसे प्रतिष्ठान नगर में हुआ था । वह थोड़ी सी संस्कृत जानने वाले नप पातवाहन का बड़ा कृपापान था । एक दिन जल-विहार के समय रानी ने हाजा से कहा, मोदकैः--उदक मा. अर्थात् जलों ले न । सन्धिज्ञान से शून्य राजा ने इसका अर्थ समझा १ऐसी कथाएँ समाज के उच्च श्रेणी के लोगों की अपेक्षा साधारण श्रेणी के लोगों में अधिक प्रचलित हैं । इन दिनो भी ग्विाज है कि शाम के समय बच्चे घर की बूढ़ी स्त्री के चारों ओर इकठे हो जाते हैं और उसमे अपनी मातृभाषा में रोचक कहानिया सुनते हैं । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ संस्कृत साहित्य का इतिहास 'लड्डुओं से' | भूल मालूम होने पर राजा को खेड हुआ और उसने संस्कृत सीखने की इच्छा प्रकट की । गुणाढ्य ने कहा- मैं आपको छः वर्ष में संस्कृत पढ़ा सकता हूँ । इस पर हँसता हुआ ( कातन्त्र व्याकरण का रचयिता ) शर्ववर्मा बोला- मैं तो छः महीने में ही पढा सकता हूँ। उसकी प्रतिज्ञा को असाध्य समझते हुए गुणाढ्य कहा यदि तम ऐसा कर दिखाओ, तो में संस्कृत, प्राकृत या प्रचलित अन्य कोई भी भाषा व्यवहार में नहीं जाऊँगा । शर्ववर्मा ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दिखाई, तो गुणाढ्य विन्ध्य पर्वत के अन्दर चला गया और वहाँ उसने पिशाचों (भूतों) को भाषा में इस बृहत्काय अन्थ का लिखना प्रार कर दिया । गुणाढ्य के शिष्य सात तास रखोकों के इस पोधे को नृप सातवाहन के पास ले गए, किन्तु उसने श्रवहेलना के साथ इसे अस्वीकृत कर दिया । गुणाढ्य बड़ा विषण्ण हुना । उसने अपने चारों ओर के पशुओं और पक्षियों को सुनाते हुए ग्रन्थ को ऊँचे स्वर में पड़ना प्रारम्भ किया और पठित भाग को जज्ञाता बजा गया। तब ग्रन्थ की कीर्ति राजा तक पहुँची और उसने उसका सात भाग (अर्धा एक लाख पद्य-समूह ) बच्चा लिया। यही भाग बृहत्कथा है । नेपाली संस्करण के अनुसार गुणाढ्य का जन्म मथुरा में हुआ था; और वह उज्जैन के नृपति मदन का श्राश्रित था । अन्य विवरणों में भी कुछ कुछ भेद है । उक्त दोनों देशों के संस्करणों के गम्भीर अध्ययन से नेपाल की अपेक्षा काश्मीरी की बात अधिक विश्वसनीय प्रतीत होती है । कदाचित् नेपाली संस्करण के रचियता का अभिप्राय गुणान्य को नेपाल के समीपवर्ती देश का निवासी सिद्ध करना हो । (ख) साहित्य में उल्लेख - गुणाढ्य की बृहत्कथा का बहुत ही पुराना उल्लेख दण्डी के काव्यादर्श में मिलता है । अपनी वासवदा में सुबन्धु ने भी गुणाढ्य का नाम लिया है। बारा भी हर्षचरित्र और कादम्बरी दोनों की भूमिकाओं में गाय की कीर्ति का स्मरण करता है । बाद के साहित्य में तो उल्लेखों की भरमार है। बृहत्कथा का Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकप्रिय कथाग्रन्थ माम त्रिविक्रमभट्ट और सोमदेव के चम्पुत्रों में, गोवर्धन की समाती में और ८७५ ई. के कम्बोदिया के शिलालेख में भी भाता है। (ग) प्रतिपाद्याथे की रूप रेखा--किसी किसी का कहना है कि बृहत्कथा की कथावस्तु का प्राधार रामायण की कथा है। रामायण में शाम सीता और लक्ष्मण को साथ लेकर बन में गए। वहाँ सीता चुराई गई लक्ष्मण की सहायता से रामने सीता को पुनः प्राप्त किया और अन्त में घर लौट कर के अयोध्या के राजा बने । बृहत्कथा का नायक भरवाहनदत्त वेगवती और गोमुख को साथ लेकर घरसे निकलता है; वेगवती से विधुत होता है, अनेक पराक्रमयत कार्य करने के बाद गोमुख की सहायमा से (नायिका) मदनमब्जा को प्राप्त करके विद्याधरों के देश का राजा बनता है ! जैसे हावण के हाथ मे पड़ कर भी लीता का सतीत्व सुरक्षित रहा, वैसे ही मानस-वेग के वश में रह कर भी मदनमनुका का नारीधर्म अखण्डिन रहा। यह बात तो अलन्दिग्ध ही है कि गुणात्य रामायणीय, महाभारतीय और बौद्ध उपाख्यानों से परिचित था। भासमान समानता केवल रूप-रेखा में हैं, विवरण की दृष्टि से वृहत्कथा और रामायण में बड़ा अन्तर है। नरवाहनदत्त और गोमुख के पराक्रम प्रायः कवि के समय की लोक-प्रचलित और पथिकों से मुनिसुनाई कहानियों पर प्राश्रित हैं। ये कहानियां श्रमिकों, नाविकों वांशकों, और पथिकों को छडी प्रिय लगने वाली हैं। लेखक का उद्देश्य सर्वसाधारण के लिए पैशाची भाषा में एक सुगम साहित्यिक सन्दर्भ प्रस्तुत करना था, न कि समाज के उच्च श्रेणी के लोगों के लिए संस्कृत में किसी ऐतिहालिक अथवा श्रीपाख्यानिक नप की जीवनी या आचारस्कृति सम्पादित करना । गणास्य में मौलिकता की बहुजता थी । सत्र तो यह है कि उसका ग्रन्थ अपने ढंग का अनठा ग्रन्थ है। गणाच्य के पात्रों के चरित्र का अङ्कन बड़ा भव्य है। मड़ोंमे ही नहों, छोटे पात्रों में भी व्यक्तित्व की खूब झलक है । नरवाहनदत्त अपने पिता उदयन से अधिक गुणशानी है। उसके शरीर पर तीस सहज Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सस्कृत साहित्य का इविहास सौभाग्य-चिह्न हैं, जो इसके दूसरा सुगत प्रथका एक सबाट बनने के घोतक है। यह न्याय का अवतार दिखाई देता है । मोभख राष्ट्रनीनि कुशल, विद्वान् और चालाक है। इसकी तुलना यथार्थतया सचिव यौगन्धमायण के साथ की जा सकती है । नायिका मदनमजुझा की पूर्ण उपमा सृच्छकटिक की नाविका वसन्तसेना मे दी जा सकती है। (घ) रचना का रूप (गद्य अथवा पद्य - 'गुणान्य ने गद्य में लिखा या पञ्च में? इस प्रश्न का सोलहों श्राने सही उत्तर देना साभन नहीं है। बृहत्कथा के उपलक्ष्यमान तीनों ही संस्करण पद्यबद्ध हैं और उनले यही अनुमान होता है कि भूल ग्रन्थ मी पद्यात्मक ही होगा। काश्मीरी संस्करण में उपलब्ध इकथा के निर्माण हेतु की कहानी कहती है कि गुणाय ने वस्तुतः सात लाख पश्च लिखे थे, जिन में से नप सातवाहन केवल एक लाख को मष्ट होने से बचा सका था। इसके विरुद्ध दण्डी कहता है कि 'कथा' गद्यात्मक काव्य को कहते है। जैसे- बृहटकथा ' । दण्डो के मत पर यूँ ही झटपट हड्ताल नहीं फेरी जा सकती; कारण, दगडी पर्यास प्राचीन है और सम्मव है उसने किसी न किसी रूप में स्वयं बृहत्कथा को देखा हो । हेमचन्द ने बृहरकथा में से एक गद्य खण्ड उद्धृत किया है। इसले दराद्धी के मत का समर्थन होता है। यह दूसरी बात है कि पर्याप्त ऊर्वकालीन होने से हेमचन्द्र की बात पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता । (ङ) पैशाची भाषा का जन्मदेश-यही सुना जाता है कि गुणाढ्य ने यह ग्रन्थ पैशाची भाषा में लिखा था। काश्मीरी संस्करण के अनुसार गुणाढ्य का जन्म स्थान गोदावरी के तट अवस्थित प्रतिष्ठान नगर और बृहत्कथा का उत्पादन-रधान विन्ध्यगिरि का गर्भ था। इससे १ अपादः पदसन्तानों गढ्यमाख्यायिका कथा, इति तस्य प्रभेदो द्वौ .. .. .........॥(काव्यादर्श १, २३) भूतभाषामयीं प्राहुरद्भुतार्था बहत्कथाम् ।। (काव्यादर्श १, ३८) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकप्रिय कवापन्य whe ता यही पारणाम निकाला जा सकता है कि पैशाची बोली का जन्मप्रदेश विध्य वित है। दूसरी ओर, सर जार्ज प्रियरसन ने पिशाची बोलियों के एक वर्ग का प्रचार-क्षेत्र भारत का उत्तर-पश्चिमीय प्रान्त श्तलाया है। उसके मत ले इन बोलियों का सीधा सम्बन्ध पुरातन पैशाचो माया से है और इन दिनों ये काफिरिस्तान में चिताला. गिजगिल और स्वार के प्रदेशों में बोली जाती हैं। उत्तर-पश्चिम की इन पिशाच-बोलियों में '६' के स्थान पर 'त' और इसी प्रकार अन्य कोमल मजनों के स्थान पर भी उन्हीं-जैसे कठोर व्यञ्जन बोले जाने हैं। परन्तु यद्दी प्रवृत्ति विन्ध्यपर्वत की भाषाओं में भी पाई जाती है। लेकोट का विचार है कि शायद गणान्य ने पैशाची भाषा उत्तर-पश्चिम के किन्हीं यात्रियों से सीखी हो । किन्तु यह बिचार दिल को कुछ जगता नहौं । फिर, और भी कई कठिनाइयाँ है। पैशाची भाषा में केवल एक सकार-अनि का सदाव पाया जाना है, परन्तु उत्तरपश्चिम की पिशाच-छोलियों में अशोक के काल से लेकर भिन्न-भिन्न सकार-ध्वनियाँ विद्यमान चलो श्रा रही हैं। इसका रत्तीभर प्रमाण नहीं मिलता कि गुणात्य कभी भी उत्तर-पश्चिमीय भारत में रहा हो। इसके अतिरिक राजशेखर हमें बतलाता है कि पैशाची भाषा देश के एक बड़े भाग में, जिसमें विन्ध्याचल श्रेणी भी सम्मिलित हैं, व्यवहृत होती थी। प्रात: प्रकरण को समाल करते हुए यही कहना पड़ा है कि प्रमाणों का अधिक भार पैशाची के विन्ध्यवासिनी होने के पक्ष (च) काल-यह निश्चय है कि बृहत्कथा ईसा की छटी शताब्दी से पहले ही लिखी गई थी, क्योंकि दण्डी ने अपने काव्यादर्श में इसका हल्लेख करते हुए इसे भूतभाषा में लिखी हुई कहा है। बाद में सुबन्धु और बाण ने भी अपने प्रन्धों में इसका नाम लिया है । सम्भव है मृच्छकटिक के कार्याने बृहत्कथा देखी हो और वसन्तसेना का चरित्र मदनमन्जुका के चरित्र पर ही चित्रित किया हो; परन्तु दुर्भाग्य से Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास मृच्छकटिक का काम अनिश्चित है। बैंकोट ने गुणाख्य को सातवाहन का समकालमद होने के कारण ईसा की प्रथम शताब्दी में रखा है। इस विरुद्ध मत्व वालों का कथन है कि सातवाहन केवल वंश-वाचक नाम है, अत: इससे कोई अमन्दिग्ध परिणाम नहीं निकाला जा सकता है। कायन्त्र ब्याकरख के कर्ता शर्वशर्मा के साथ नाम्न गाने के कारण गुणात्य ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद का मालूम होता है। (छ) ग्रन्थ का महत्त्व-(8)--वृहत्कथाह महान् महत्व का अन्य है । लोकप्रिय कहानियों का प्राचीनतम ग्रन्थ होने के अतिरिक्त यह भारतीय साहित्य-कला को सामग्री देने वाला विशाल भण्डार है ! (२) अपने से अध्यकाल के संस्कृत-साहित्य पर प्रभाव डालने बाले अन्थों में इसका स्थान पामायण और महाभारत केवल इन दा अन्थों के बाद हैं ! ऊर्ध्वकालीन लेखकों के लिए प्रतिपाद्य अर्थ तथा प्रकार दोनों की दृष्टि से यह अक्षर निधि सिद्ध हुश्रा है। (३) बृहस्कथा की कहानियाँ एक ऐसे काल की ओर सकेत करती हैं, जो हमें भारत के इतिहास में ऐतिहासिक दृष्टि से अविस्पष्ट प्रतीत होता है। इन कहानियों को जाँच-पड़ताल करने वाले की दृष्टि से देखा जाए, तो इनसे तत्कालीन भारतीय विचारों और रीति-रिवाजों पर प र प्रकाश पडता प्रतीत होगा। (४) बृहत्कथा भारतीय साहित्य के विकास में एक महत्वपूर्ण अवस्था की सीमा का निर्धारण करती है। (८३) बुद्ध स्वामी का श्लोक संग्रह (८ वीं या ६ वी श०) बुद्धस्वामी के ग्रन्थ का पूरा नाम वृहत्कथा श्लोकसंग्रह है। अत. जाना जाता है कि इस अन्य का उद्देश्य पद्यरूप में बृहत्कथा का संक्षेप दना है । यह अन्ध केवल खपितरूप ने उपलब्ध होता है, और पता ही लेखक ने इसे पूरा लिखा था या अधूरा ही छोड दिया था । इस अन्य की हस्तलिखित प्रतियाँ नेपाल से मिली है। अत: इसका नाम नेपाली संस्करण रक्खा गया है। किन्तु इस ग्रन्थ या ग्रन्थकार का Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकप्रिय कथाग्रन्थ २२१ नेपाल के साथ सम्बन्ध जोड़ने में कोई हेतु दिखाई नहीं देता। इसका ईसा की श्रावों या नौवीं शताब्दी माना जाता है । यावशिष्टखरित प्रति में २८ सर्ग और ४१३६ पथ हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार ने किसी न किसी रूप में असही बृहत्कथा की पदा था । पाठक उदयन की कथा से परिचित है, यह कल्पना करके वह एक एक करके नरवाहनदास की प्रेम-कथाश्रों को कहना प्रारम्भ कर देता है। काश्मीरी संस्करणों के साथ तुलना करने से प्रतीत होता है कि विवरण में महान भेद है। दोनों देशों के संस्करणों में भेद केवल कथा के क्रम का ही नही, कथा के अन्तर आमा के स्वरूप का भी है। इसके अनिरिक्त काश्मीरी संस्करणों में प्रक्षेप भी पर्याप्त है । उदाहरण के बिए पंचतन्त्र के एक संस्करण की कुछ कथाएं और समग्र वेताळपंचविशतिका को लिया जा सकता है । प्रारम्भ में यही समझा जाता था कि काश्मीरी संस्करणों का आधार अधिकतया असली बृहत्कथा ही है, किन्तु बुद्धस्वामी के ग्रन्थ की उपलब्धि ने इस विचार को बिकुल बदल दिया है । श्रीमों संस्करणों के समान प्रकरणों की तुलना करने से जान पड़ता है कि शायद क्षेमेन्द्र और सोमदेव को दस्वामी के ग्रन्थ का पता था और उन्होंने उसका संक्षेप कर दिया है । कम से कम यह कहना तो बिलकुल सच है कि काश्मीरी संस्करण के कई उपा स्थान अप्रासङ्गिक प्रतीत होते हैं और श्नोक्समद को पढ़े विना इसका अभिप्राय समझ में नहीं आता है। -- काश्मीरी संस्करणों में आए प्रक्षिप्तांशों के विषय में दो समाधान होते हैं - या तो बृहत्कथा की वह प्रति, जो काश्मीर में पहुँची, पहले ही उपबृहित हो चुकी थी, और उसमें पंचतन्त्र का एक संस्करण एवं समग्र वेताळपंचविंशतिका प्रविष्ट थी; या संक्षेप-कारकों ने अपने कर्तव्य को ठीक ठीक नहीं अनुभव किया और अपने क्षेत्र की सीमाओं के अन्दर ही अन्दर रहने की सावधानता नहीं वरती । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृतसाहित्य का इतिहास शैली-लोकसंग्रह की शैली सरल, सनष्ट और विच्छित्तिशालिनी है। यदि शैली सरल न हो, तो अन्ध जोकप्रिय साहित्य में स्थान नहीं पा सकता। पात्रों का निर्माण स्पष्ट और निर्मल है। रचना के प्रत्येक अवयव में स्वाभाविकता का रंग है । ऐसा भासित होता है कि शर्थमान स्थानों को लेखक ने बार देखा था। मूल का नैतिक कएठ-स्वर इस अन्य में अत्यन्तर उदात्त है । भाषा में प्राए हुए प्राकृत के अनेक शब्दों ने एक विशेषता उत्पन्न कर दी है। लेखक संस्कृत का पण्डित है और उसे लुड लकार के प्रयोग करने का शौक है। (४) क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामञ्जरी (१०६३-६ ई०)। ____ जैसा नाम से प्रकट है बृहत्कथामारी बृहत्कथा का संक्षेप है। क्षेमेन्द्र की लिखी रामायणमञ्जरी और भारतमञ्जरी के देखने से विदित होता है कि वह एक सच्चा संक्षेप लेखक था । उसकी बहत्कथामंजरी में कथासरित्सागर के २१३८८ पयों के मुकाबिले पर केवल ७५०० पद्य है। बहुधा संक्षेप-कला को एक सीमा तक वींच कर ले जाया गया है; इसीलिए मंजरी शुष्क, निरुदास, श्रमनोरम, प्राय: दुर्योध, और तिरोहितार्थ भी है और कथासरित्सागर को देखे बिना स्पष्टार्थ नहीं होती । कदाचित् ये मारियां पद्य-निर्माण-कला का अभ्यास करने के लिए लिखी गई थर्थो । यदि यह ठीक है तो निसर्गतः बृहस्कथा. मंजरी का जन्म कवि के यौवन काल में हुश्रा होगा। क्षेमेन्द्र केवल हक्षेप-लेखक ही नहीं है। अवसर आने पर वह अपनी वर्णन-शक्ति दिखलाने में प्रसन्न होता है और घटनाओं को वस्तुतः आकर्षक और उत्कृष्ट शैली में वर्णन करता है। यह ग्रन्थ १०६३-६ में लिखा गया था। __ प्रतिपाद्य अर्थ की दृष्टि से बृहत्कथामंजरी कथासरित्सागर से अत्यन्त मिलती-जुलती है। दोनों प्रन्थ एक ही काल में एक ही देश १ यह एक तथ्य है कि कवि का विश्वास था कि नवशिक्षित कवि को ऐसी रचना कर के काव्य-कला का अभ्यास करना चाहिए । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकप्रिय कथाग्रन्थ २२३ मैं और एक ही धार पर लिखे गए थे । ग्रन्थ के प्रकार खड जिन्हें लम्भक, (संभवतया वीर्य-कर्मों के अथवा विजय के बोसक ) कहा गया है । कथापीठ नामक प्रथम खम्भक में गुणाढ्य की बृहत्कथा की उत्पत्ति की कथा है; द्वितीय और तृतीय जम्भक में उदयन का और इसके द्वारा पद्मावती की प्राप्ति का इतिहास है। चतुर्थ जम्भक में मरवाह दत्त के जन्म का वर्णन है । श्रवशिष्ट जम्भकों में नरवाहनदत्त की अनेक प्रेम कहानियों का सदन मंजुका के साथ संयोग होने का और विद्यारों के देश का राज्य प्राप्त करने का वर्णन है । प्रन्थ में उपाख्यानों का जाल फैला हुआ है, जिसमें मुख्य कथा का धागा प्रायः उलझ जाता है। हाँ, कुछ उपाख्यान वस्तुतः रोचक और आकर्षक हैं । बुठे कम्भक में सूर्य-प्रभा का उपाख्यान है । इसमें कवि ने वैदिक उपाख्यानों को बौद्ध राख्यानों और लोक प्रचक्षित. विश्वासों के साथ मिलने का कौशल्य दिखलाया है । पन्द्रहवें लम्भक में महाभारत के एक उपाख्यान से मिलता-जुलता एक उपाख्यान आया है। इसमें नायक श्वेतद्वीप की विजय के लिए निकलता है । इस स्थल पर अलंकृत काव्य की शैली में नारायण से एक मर्म स्पर्शिनी प्रार्थना की गई है । - (८५) सोमदेव का कथासरित्सागर ( १०८१-८३ ) कथाfरसागर का अर्थ हैं— कथा रूप नदियों का समुद्र | लैको दे ने (बृहत् ) कथा की (कहानी रूप) नदियों का समुद्र माना 1 लैकोटे के अर्थ से यह अर्थ अधिक स्वाभाविक है। हमे काश्मीर के एक ब्राह्मण सोमदेव ने, क्षेमेद्र से शायद थोड़े ही वर्ष पश्चात्, लिखा था । यह आकार में क्षेमेंद्र के ग्रन्थ से तिगुना एवं ईलियर और श्रोडिसी के संयुक्त श्राकार से लगभग दुगुना है । यह ग्रन्थ काश्मीर के श्रमन्त नामक प्रान्त की दुःखित रानी सूर्यमती के मनोविनोदार्थं faखा गय था । राजा ने १०८१ ई० में आया कर ली थी और रानी उसकी चिता पर सती दो गई थी । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ संस्कृत साहित्य का इतिहास सोमदेव का अन्य अठारह खण्डों में विभक्त है, जिन्हें क्षेमेन्द्र के प्रन्थ के वएडों के समान, लम्भक का नाम दिया गया है । इस अठारह खण्डों के चौबीस उपखण्ड हैं। इकका नाम है तरंग' | यह इस अन्य में एक नवीनता है। बाद में इसी को कल्हण ने भी अपना लियर है । पाँच खण्ड तक इस ग्रन्थ की रूपरेखा वही है, जो अहस्कथामजरी की, किन्तु भागे जाकर इसके प्रतिपाद्य अर्थ के प्रयास में कवि ने जो परिवन कर दिया है, उससे पढ़ते समय पाठक की अभिरुचि प्रक्षोयमाण रहती है और दो वएडो की संधि स्वाभाविक दिखाई देने लगी है। सोमदेव की कहानियाँ निस्सन्देह रोचक भार आकर्षक है। उनमें जीवन है और नवोमता है, तथा उसके स्वरूप में अनेक-विधता है। इसके अतिरिक्त वे हमें लार, स्पष्ट और विच्छिति शालिनी शैली में भेंट की गई हैं। सारे २१३८८ पद्यों में से केवन ७६१ पचों का ही छंद अनुष्टुप नहीं है । इसमें लम्बे लम्बे समाम, किष्ट वाक्य-श्वना और अलंकारों का प्रयोग विडकुल नई पाया जाता। लेखक का उद्देश्य साधी-सादी कथा के द्रुत-वेश को निर्वाध चलने देना है । वह इस कार्य में सफल भी खूब हुआ है। ये कहानियाँ बड़ा हो रोचक हैं। इनमें से कई एम्चतन्त्र के संस्क१ वृहत्कथामंजरी के उपखंडो का नाम है गुच्छ,। २ परोपकार के महत्व का वर्णन करने वाला वक्ष्यमाण पद्य इसकी शैलो का उचम ननूना पेश करता है परार्थफल अन्मानो न स्युर्मार्गमा इव । लपच्छदो महान्तश्चे ज् जोरिण्यं जगद् भवेत् ॥ अर्थात्-दूसरों को फल खिलाने वाले, धूप का निवारण करने वाले मार्ग में खड़े हुए बड़े-बड़े वृक्षा के तुल्य परोपकार करने वाले दूसरो का कष्ट निवारण करने वाले महा (पुरुष) न हो, तो जगत् पुराने जंगल (के समान निवास के अयोग्य) हो जाए । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेतालपञ्चविंशतिका २२५ रण से की गई हैं और ईसा की पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल की है। इन कहानियों में मूरों,धूनों और शठों की कहानियां बड़ी रोचक हैं। कुछ कहानियां स्त्रियों के प्रेम-पाश की भी दी गई है। इनमें से कुछ वस्तुतः चारित्र्य का निर्माण करने वाली है । प्रवन्धक तापसी के 'भूतन्द्रयानभिद्रोहा धर्मो हि परमो म:" उपदेश का देवस्मिता पर कोई असर नहीं हुअा। देवस्मिता के कौशल के सामने उसके भावी प्रेमियों की एक बड़ों चली। वह उन्हें विप-चुनी शराब पिला देवी है कुत्ते के पारसी पंजे से उनके माथे को दाग देती है और उन्हें गन्द से भरी एक खाई में फेंक देती है। बाद में वह उन्हें चोर चोषित कर देती है। शठों के साथ यही व्यवहार सर्वथा उचित था । कुछ कहानियां बौद्ध-रंग में रंगी हुई देखो बाते हैं। उदाहरणार्थ हम पस हाजा की कहानी ले सकते हैं। जिसने अपनी आंखें निकलवा डाली थीं। छमके अतिरिक्त पोग-भंग और कपूर-दश इत्यादि के वर्णन तथा समुद्र और स्थन-सम्बन्धी प्राश्चर्यजनक घटनाओं को कुछ कहानियां भी हैं । प्रकृति वर्णन की मा अपेक्षा नहीं की गई है। (८६) बेतालपञ्चविंशतिका । इस अन्य में पच्चीस कहानियां हैं। इनका वक्ता एक बेवाल (राछ में बसा हश्रा भूत) और श्रोता नृप त्रिविक्रमसेन है। भाज कल यह अन्य इमे बृहत्कथामजरा और कथासरित्सागर में सम्मिलित मिक्षता है; परन्तु सम्भव है मूलरूप में यह कभी एक स्वतन्त्र प्रन्य हो। बाद के इसके कई संस्करण उपलब्ध हैं। इसमें से एक, ओ (१२वीं या और १ ये कहानियां सङ्घसेनलिखित एक अन्य में पाई जाती हैं । इसका अनुवाद लेखक के ही शिष्य गुणद्धि ने ४६२ ई० मे चीनी भाषा मे किया था। २ (पञ्च) भूतों से इन्द्रियों को सुखी करना ही सबसे बड़ा धर्म है। ३ बाद के संस्करणों में राजा का नाम विक्रमादित्य शाया है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ संस्कृत साहित्य का इतिहास मा बाद की शताब्दी) शिवदास' की रचना समझी जाती है। यह गय में है; और जिम के रचयिता का पता नहीं है वह मुख्यतया हेमेन्द्र के अन्य के आधार पर लिखा गया प्रतीत होता है। जम्मलद और बल्लभदास के संस्करण और भी बाद के हैं। अन्य को प्रात्यन्त बोकप्रियता का प्रमाण इसाले मिलवा है कि भारत की प्रायः सभी भाषाओं इसका अनुवाद हो चुका है। प्रम की रूपरेखा जदिल नहीं है। एक राजा किसी प्रकार किसी महात्मा से उपकृत हुपा महात्मा ने कहा कि जाओ उस श्मशान में पेड़ पर उलटी जटकती हुई लाश को ले पायो। राजा ने आज्ञा शिरोधार्य की ! परन्तु लाश में एक बेताल (तामा ) का निवास था, जिसने राजा से प्रतिज्ञा करानी कि यदि तू चुप रहे तो मैं तेरे साथ चजने को तैयार हूँ। मार्ग में देताले एक जटिल कहानो करने के बाद रामाले उसका उत्तर पूछा । प्रतिभाशाली राजा ने तत्काल उत्तर दे दिया। राजा का उत्तर देना या कि बेताल तरकारु मन्तर हो गया ( विचारे राजा को फिर लाश को खाने जाना पड़ा। फिर पहली जैसी ही घटना हुई। इस प्रकार माना-प्रकार की कहानियाँ कही गई हैं। उदाहरण के लिए, एक कन्या की कहानी पाती है। वह एक राक्षस के पंजे में पड़ गई। उसकी जान बचाने के लिए उसके तीन प्रणथियों में से एक ने अपने कौशल से उस कन्या के गोपनार्थ एक स्थान बताया, दूसरे ने अपनी पाश्चर्यजनक शक्ति से उसके लिए विमान का प्रबन्ध किया और सीप्लरे ने अपने पराक्रम से उस राक्षस का पराभूत किया। अब स्वयमेव १ शालिवाहन कथा और कथाण व इन दो कथा सन्दर्भो का कर्ता भी शिवदास ही प्रसिद्ध है। प्रथम सन्दर्भ में गद्य और पद्य दोनों अठारह सर्ग है और इसके उपज व्य बृहत्कथामञ्जरी और तथासरित्सागर है। द्वितीय सन्दर्भ में मूर्ख, अतव्यसनी, शठ,प्रवचक इत्यादि की पैतीस रोचक और शिक्षाप्रद कहानिया हैं। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक सप्तति २२७ प्रश्न उठता है कि तीनों में से कौन कन्या को प्राप्त करे । राजा ने सत्काल उत्तर दिया, जिसने पराक्रम किया' । पच्चीसदी कहानी को सुनकर राजा उचर सोचने के लिए चुप हो गया । नत्र बेत्ताल के महामा रूप धारी साधु के कपट का भागडा फोड़ते हुए राजा को बह सारा उपाय कह सुनाया, जिसके द्वारा साधु राजा को मारना चाहता था। इसके बाद वेताल ने राजा को बच निकलने का मार्ग मी बतला दिया। शिवदास के लिखने की शैली सरल, स्वच्छ और भाकर्षक है। भाषा सुगम और लावण्यमय है। श्लेष बहुत कम है। अनुप्रास का एक उदाहरण देखिए--- स धूर्जटिजटाजूटो जायतां विजयाय वः। यत्रैकलितमान्ति करोत्यद्यापि जाहवी ॥ (८७) शुकसप्तति। शुकसप्तति में सत्तर कथा संग्रहीत हैं। इनका वक्ता एक हाताने और श्रोत्री पति को सन्देह की दृष्टि से देखने वाली मैना है। किसी वधिक का पुत्र मदनसेन परदेश जाते समय घर पर अपनी पानी की देख-रेख करने के लिए एक तोते और एक कन्वे को छोड़ गया। ये दोनों पक्षी के रूप में धस्तुत: दो गन्धर्व थे। मदनसेन की भार्या धर्म च्युक्त होने को तर पार हो गई । कन्वे नै धर्मपथ पर बढ़ रहने की शिक्षा दी, तो उसे मौत की धमकी दी गई। चतुर तोते ने अपनी स्वामिनी की हाँ में हाँ मिलाते हुए उससे पूछा कि क्या तुम इस मार्ग में माने महादेव को जटाशी का वह जाल, जिस पर गंगा अाज भी आधे भाग के पलित ( बुढ़ापे से श्वेत) हो जाने का भ्रम पैदा करती है, आपको विजयदायी हो। २ यह कोई श्राश्चर्य की बात नहीं है। पुनर्जन्म-वाद में पशु-पक्षी भी मनुष्यों के समान ही यथार्थ जीवधारी माने बावे हैं । बाण की कादम्बरी में कथा का वक्ता तोता है, यह इम पहले ही देख चुके हैं। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ संस्कृत साहित्य का इतिहास वाले विनों को दूर करने का भी उपाय जानती हो, जिन्हे अमुक अमुक व्यक्ति काम में लाए थे। न जानती हो तो मैं तुम्हें कहानी द्वारा ब्रतका सकता हूँ। वणिक् की बधू ने तोते की बात को पसन्द करते हुए कहानी सुनने की इच्छा प्रकट की। तोते ने रात को कहानी सुनाई। कहानी के अन्त में विक्ष का वर्णन पाने के बाद अमुक अमुक यक्ति द्वारा काम में लाया हुआ उसके दूर करने के उपाय का वर्णन श्राया। कहानियों को आपस में कुछ इस तरह गूंथा गया है कि तोता हर राख को नई से नई समस्या खडी कर देता है। जब तीता लत्तरवी कहानी सुना चुका, तब तत्काल ही उसका स्वामी मदनसेन परदेश से लौट पाया । लोले का उद्देश्य मदन सेन की पत्नी को पाप-पथ पर प्रवृत्त होने से रोक रखना था, वह पूरा हो गया। कहानियों में श्रसती स्त्रियों की चालाकियों का ही वर्णम अधिक पाया है। ___ सारे का विचार करके देखने से अन्ध रोचक कहा जाएगा। यह सरल गद्य में लिखा हुआ है। बीच बीच में कोई कोई श्रीपदेशिक और कथा प्रतिपादक पद्य आ गया है। कुछ पा प्राकृत भाषा में हैं। इनके आधार पर यह धारणा की गई है कि मूल-अन्ध प्राकृत भाषा में ही था, पर इस धारणा के पोषक अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं । इस मन्य के दो संस्करण मिझते हैं। एक का रचयिता कोई चिन्तामणि भट्ट और दुसरे का कोई अज्ञातनामा श्वेताम्बर जैन कहा जाता है । ग्रन्थ लोकप्रिय है और इसने आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य पर कुछ प्रभाव भी डाला है। इसके समय का पता नहीं। सम्भवतया यह किसी न किसी रूप में जैन हेमचन्द (१०८०-११७२ ई० को विदित था। (E) सिंहासनद्वात्रिंशिका । . सिंहासनद्वात्रिंशिका में पत्तीस कथाए हैं। इनकी कहने वाली विक्रमादित्य के सिंहासन में लगी हुई पुतलियां हैं। कहा जाता है कि Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवदानशतक २२६ विक्रमादित्य ने अपना सिंहासन इन्द्र से प्राप्त किया था। उसके स्वर्गवासी हो जाने पर यह सिंहासन भूमि में गाड़ दिया गया। बादमें इसका पता लगाने वाला धाराधिपति भोज (११ वीं श० में) हुआ जब वह पर बैठने लगा तब पुतलियों ने ये कहानियों उसे सुनाई । इस ग्रन्थ के उपदस्थमान अनेक संस्करण इसकी लोकप्रियता के परिचायक है । ( इनमें से कुछ संस्करण कथा-सूचक पद्यों में मिश्रित गद्य में हैं, कुछ प में हैं, जिनमें बीच-बीचमें प्रोपदेशिक पथ भी हैं, और कुछ केवल पथमें )। इसका अनुवाद आधुनिक भाषात्रों में भी हो गया है। विक्रमादित्य के 'विक्रम कर्म' संस्कृत कवियों को अपनी रचनाओं के प्रतिपाद्यार्थ के दिए कमी बढे प्रिय थे । अतः इस ग्रन्थ को रोचकता में कोई न्यूनता नहीं भाई | भाषा सरल है । ग्रन्थके रचयिता के नाम और अन्य के निर्माण के काल का ठीक ठीक कुछ पता नहीं । बहुत कुछ निश्वय के साथ हम केवल यही कह सकते हैं कि यह वेताळपंचविंशतिका के बाद की रचना है । (८६, बौद्ध साहित्य | अब तक हम लोकप्रिय कथाओं का शुद्ध ब्राह्मणिक साहित्य का ही वर्णन करते आए है। किन्तु लौकिक साहित्य की इस शाखा में बौद्ध और जैन after बड़े सम्पन्न है । इस तथा अगले खण्ड में हम इन्हीं साहित्यों पर विचार करेंगे । बौद्ध कहानियों का मुख्य उद्देश्य अपने धर्म का प्रचार करना है । उनमें मनुष्य के कर्मों के फल की व्याख्यां है । खुद्धि की भक्ति से परलोक में आनन्द मिलता है। इससे पराङ्मुख रहने चाको नरक की यातना भोगनी पडती है । यहाँ उल्लेख के योग्य प्राचीनतम ग्रन्थ अवदान हैं। इनमें वीर्य-कर्मों या गौरवशालिनी उपा श्रनार्थी (Achievments) का वर्णन है । (क) अवदानशतक प्राप्य अवदान सन्दर्भों में अवदानशतक सबसे पुराना सन्दर्भ समझा जाता है। ईसा की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में ही इसका अनुवाद दीदी Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० संस्कृत साहित्य का इतिहास उतना भाषा में हो चुका था । अतः इसका निर्माण-काल ईसाकी प्रथम या द्विती शताब्दी माना जा सकता है। इससे पुराना यह हो नहीं सकता; कारण, इसमे 'दीनार' शब्द पाया जाता है । इलका मुख्य श्राधार बौद्धों के सर्वा स्विचचादितका विनयपिटक है । ग्रन्थ दख दर्शको विभक्त है। इसको कहानियों का | जतना महत्त्व उपदिश्यमान शिक्षाओं के कारण है, साहित्यिक गुणोंके कारण नहीं । अन्थमें कुछ नय है और कुछ पथ । पद्यभाग सरळ काव्य के ढंग का है। कुछ उपाख्यान ऐतिहासिक भी है। उदाहरण के लिए बिम्बसार की रानी श्रीमती को ले सकते हैं। कहानी बताती है कि अजातशत्रु ने इसे बुद्ध के भस्मादि अवशेष की श्रद्धाजति भेंट करने से मना किया। श्राज्ञा भंग के अपराध पर राजा ने इसका बध करवा दिया तो यह सीधी स्वर्ग को चली गई । (ग) दिव्यावदान - यह उपाख्यानों का संग्रह ग्रन्थ है । इन उपाख्यानों का मुख्याधार सर्वास्तित्ववादियों का विनयपिटक ही है । इसके एक भाग में महायान सम्प्रदाय के ओर दूसरे में होनमान के सिद्धान्तों का व्याख्यान है। इसके संग्रहकर्ता को अश्वघोष के बुद्धfra और सौन्दरानन्द का परिचय अवश्य था । इसकी साहित्यिक उपार्जनाएं (Achievements) उच्च श्रेणा की नहीं है। नन्द के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए अश्वघोष कहता है--'अतीत्य मर्त्यान् अनुपेत्य देवान्' (सौन्द० ४ ) इसी बात को भी करके यह गुप्त के पुत्र के सौन्दर्य का वर्णन करता हुआ यूँ कहता है-'अतिक्रान्तो मानुषवर्णम् श्रसम्प्राप्तश्च दिव्यवर्णम्' * । दिव्यावदान में शैली की एकता का अभाव है। शायद इसका यह कारण हो कि इसके उपजोष्य ग्रन्थ भिन्न भिन्न है। कभी कभी १ मनुष्यों से ऊपर उठाकर, देवताओं तक न पहुंच कर । २ मनुके रंग से बाजी ले गया था, देवताओं के रंग तक पहुंच नहीं पाया था । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशूर कृत जावक २३१ इसमें कथाकथन पूर्ण पत्रों से मिश्रित गद्य श्रा जाता है, तो कभी कभी कष-पद्धति पर जिले हुए पद्यों से प्रसाधित गद्य । ग्रन्थ का संग्रह-काळ ईसा की दूसरी शताब्दी के आस-पास माना जा सकता है | यह उपयुक्त अवदानशतक से नवीन है और २६२ है० से अच्छा खासा करके पुराना है, क्योंकि, इसी सन् में इसके शाहूज कान नामक एक मुख्य उख्याम का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था | कहानियां रोचक हैं और विभिन्न रखों की उत्पत्ति करती हैं । अशोक के पुत्र कुणाल की कहानी वस्तुतः करुणरसपूर्ण है । कुणाल की सौतेली माता ने अपने पति के पेट में घुसकर कुणाल की श्रांखें निकलवा ली थीं। (ख) आर्यशूरकत जातक माला | जातक माला का अभिप्राय है जन्म की कथाओं का हार । श्रार्य शूर की जातक मात्रा में बांधिपत्र' के गौरवशाली कृष्यों की कथाओं का संग्रह है, अर्थात् इसमें गौरare se कार्यों का वर्णन है जो भाषी बुद्ध ने पहले जन्मों में किये थे । श्रार्यशूर की जातक माला जैसे पर्य वस्तु के लिए अश्वघोष के काव्यों की ऋणी है । यह ग्रन्थ और दोषिSearcदानमाला' दोनों एक ही माने जाते हैं। ये ईसाइयों की श्रीषदेशिक कहानियों से अधिक मिलता हैं, अतः ये ईसाइयों की उपदेश की छोटी छोटी पुस्तकों के समान बुद्ध धर्म के स्वीकृत सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए दिखी हुई मानी जाती हैं । अन्य में प्रन्थोई रय १ जो व्यक्ति पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग पर चल पड़ा है और सर्वोच्च बुद्ध की वस्था प्राप्त करने तक जिसे कुछ थोड़े से ही जन्म धारण करने पड़ गे, वह बोधिसत्व कहलाता है । २ यह विश्वास किया जाता है कि बुद्ध को अपने पूर्वजन्म की घटनाएं याद थीं। ३ दोनो नामों की एकता का विचार सबसे पहले राजेन्द्रलालमित्र ने प्रकट किया था । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सस्कृत साहित्य का इतिहास पाठक के मन में सक्षम की भावना उत्पन्न करना या प्रयत करना बताया गया है। कहानियों की भाषा कुछ तो सुन्दर गध-मय और कुछ कामश्रेणी की पद्यात्मक है। प्रत्येक कहानी का प्रारम्भ सरल गया-खबह से होता है और इसका उद्दश्य श्राचारपरक ए निश्चित शिक्षा देना है। दाम का माहात्म्य दिखलाने के लिए बोधिसव के उस जन्म की कहानी दी गई है जिसमें वह शिविराजकुल में उत्पन्न हुआ था। उसने इतना हान दिया था कि भिक्षुओं को मांगने के लिए वस्तु शेष नहीं रही थी । एक बार किसी अन्धे वृद्ध ब्राह्मण ने श्राकर उसले एक माह मांगी तो अखने आह्मण को अपनी दोनों आँखें दे दी । मंत्रियों ने बहुतेरा कहा कि आप इस अन्धे ब्राह्मण को कोई और चीन दान में दे दीजिये, परन्तु हाजा ने एक न मानी । राजा का उत्तर बड़ा ही महावशाली है । वह कहता है यदेव यायेत तदेव दद्यान्नानीप्सितं श्रीण्यतीह दत्तम् । किमुह्यमानस्य जोन तोयै स्याम्यत: भार्थितमर्थमस्मै २ ॥ जब मन्त्रियों ने पुनः आग्रह किया तक राजा ने बड़ा जर्जस्वी विचार प्रकट करते हुए कहा-~नायं गरमः सार्वभौमत्वमा नैव स्वर्ग नापवर्ग न कीर्तिम् । बानु लोकानित्ययं स्वादरो मे, याचाक्लेशो म च भूदस्य मोघ : ॥ १ वस्तुतः यह इन्द्र था जो उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने श्राया था। २ याचित ही वस्तु देनी चाहिये । याचित से भिन्न वस्तु दी जाए तो वह याचक को प्रसन्न नहीं करती। जलधारा में बहते हुए को जल से क्या लाम । इसलिए मैं तो इसे प्रार्थिव ही पदार्थ दूंगा । ३ मेरा यह प्रयत्न साम्राज्य प्राप्त करने के लिए है, न स्वर्ग , न मुक्ति और न कीर्ति । मेरी कामना तो लोक की रक्षा करना है । इसका मांगने का क्लेश निमाल न रहे। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रामशूर कृत जातक माला २३३ प्रायः हम यह पाते हैं कि अशिय इन्य और यज्ञ-हेतु में कोई प्रानुपातिक भाग नहीं है। इसीलिए एक कहानी में हमें बताया गया है कि बोधिवन ने एक भूखी सिंहनी को खाने के लिए अपना शरीर दे दिया था। | Wা প্রায় বিষ খা গাং মানান রুক্মিান জী লিয়াও योग्यता प्रदान की थी। इसकी भाषा अविदूषित और शब्दविन्यास शुभ है। इसकी शैली ईसा की दूसरी और तीसरी शताब्दी के शिलालेखों से मिलती हैं। इसके अतिरिक्त यह छन्द के प्रयोग में प्रवीण है और उपाय मान रस के अनुरूप छन्द का प्रयोग करना जानता है। इस छन्दों में से कुछेक अम्यवहृत भी है और कला की निर्मित कविता की शोभा बढ़ाने वाले हैं। पथों में हसने निम्न भिन्न अबकारों का भी प्रयोग किया है। देखिए इन पंकियों में कितना मरल और सुन्दर अनुप्रास है--- ततकम्पे लघराघरा घरा, यतीत्य वेल्ली प्रससार सागरः । (शिबिजातक, ३८) गद में इसने दोध समासों का प्रयोग किया है; किन्तु मथ में धुधलापन कहीं कहीं हो पाया है । इसके शानदार गध का एक आदर्श भूत उदाहरण देखिए-- अथ बोधिसको विस्मयपूर्ण मनोमि मन्दनिमेषप्रविकसितमय मैरमास्वैरनुयातः शामिवीरमाणों जयाशीर्वचनपुर:सरैश ब्राहाणैरमिनन्धমালঃ স্থবিৰাখি সুরা মিলাস্থ্যবিষয় যুক্তি লক্ষ্যঃ সুসলাখমালায়ালাম ব্রাঞ্চযখাঁকালিपदस्यैवमात्मोपनायि धर्म देशयामास । বাজি অন্থ ফ্লথ বালি-মী বহু ঋষ্টির বীৰ শ্ৰী ৰাম १ तब पर्वत और मैदान सभी हिल गए, समुद्र का पानी किनारों पर चढ़कर दूर तक फैल गया। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास सम्बन्धी है। अतः इसमें कहीं कहीं पाली के शब्दों का श्राजाना विस्मयजनक नहीं है। काल-तारानाथ ने मामूली-सी वजह से प्रार्यशूर और अश्वघोष को एक व्यक्ति मानने का विचार प्रस्तुत किया है। उक्त महाशय ने अश्वघोष के कुछ और प्रचलित नाम भी दिए हैं परन्तु इससे हम किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुँच सकते हैं। अश्वघोष के कान्यों और जातकमाला में शैली की इतनी विषमता है कि उक्त विचार पर गम्भीरता से विचार करने का अवसर नहीं रहता। जातकमाला १००० ई. के लगभग चीनी भाषा में अनूदित हो गई थी, और इलके रचयिता श्रार्यशूर का नाम तिब्बत में एक ख्यातनामा अध्यापक एवं कथा लेखक के तौर पर प्रसिद्ध था। ७ वी शताब्दी का चीनी यात्री इसिंग इस प्रन्य से परिचित था। कर्मफलसूत्र, जिसका रचयिता यही प्रार्यशूर माना जाता है, ४३४ ई० में चीनी में अनूदित हो गया था; अत: आर्यशूर का काल ईसा की चौथी या तीसरी शताब्दी के समीप मान सकते हैं। (१०) जैन साहित्य । बौद कहानियों की तरह जैन कहानियां भी प्रोपदेशिक ही हैं । उन का उईश्य पाठक-मनोरञ्जन नहीं, धर्म के सिद्धान्तों की शिक्षा देना है। (क) सिद्धर्षि की उपमितिभव प्रपंच कथा (१०६ ई०)। उपमिविभव प्रपंच कथा में मनुष्य की आत्मा का वर्णन अलंकार के सांचे में ढालकर एक कथा के रूप में किया गया है । संस्कृत में अपने दंग का सबसे पुराना मन्य होने के कारण यह महत्वशाली माना जाता है। इसे १०६ ई० में सिद्धर्षि ने लिखा था। प्रस्तावना के अन्त में १ इस प्रकार का दूसरा प्रन्थ प्रबोध चन्द्रोदय नाटक है जो बाद में बना था। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्र कृत परिशिष्ट पर २३५ लेखक ने इसे स्वयं विशदार्थ कर दिया है। अतः अलंकार का समझना कठिन नहीं है। ग्रन्थ के बीच में कहीं कहीं आए हुए पचों को छोड़ कर सारा गद्य ही है । भाषा इतनी सरत्न है कि उसे बानक भी आसानी से समझ सकते हैं कम से कम जेखक का उद्देश्य यही है । शैली रोचक है; परन्तु अल कार के सांचे में ढला हुश्रा, तथा प्रौपदेशिक प्रकार का होने के कारण अन्य रोचक नहीं है। ब) हेमचन्द्र कृत परिशिष्ट पर्व (१०८८-१९७२ ई०)। ____ हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में प्राचीन काल के जैन साधुनों की कहानियां दी गई हैं। ये कहानियां सरल और लोकप्रिय हैं। लेखक के मन में अपने धर्म प्रचार का भाव इतना उन है कि ऐतिहासिक नप चन्द्रगुप्त भी जैनधर्मावलम्बी एक सच्चे भक्त के रूप में मरा बतलाया गया है। आश्चर्य है कि प्रसिद्ध इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ ने इस कहानी पर विश्वास कर लिया । यह मन्थ इसो लेखक के त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित नामक ग्रन्थ का पूरक है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १४ opment P औपदेशिक जन्तु कथा (Fable) (११) औपदेशिक जन्तु-कथा का स्वरूप भारतीय साहित्य-शास्त्री बृहत्कथा जैसे और पंचतन्त्र जैसे ग्रन्थों में पारस्परिक कोई भेद नहीं मानते हैं । परन्तु इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन दोनों का भेद विस्पष्ट कर देता है । बाह्याकार, प्रतिपाय विषय भोर अन्तरारमा एक दूसरे के समान नहीं हैं। बृहत्कथा का प्रयोजन पाठक का मनोरंजन करना और पंचतन्त्र का प्रयोजन धर्मनीलि और राजनीति की शिक्षा देना है। पूर्वोक्स को रचना सरल गद्य में या वर्णन-कृत् पद्य में या दोनों के संयोग में हुई है, परन्तु उत्तरोक्त में बीच हीच में औपदेशिक पद्यों से संयुक्त शोभाशाली गध देखा जाता है। उत्तवोक्त में कथाओं के शीर्षक तक पच-बहु दिए गए हैं । लोकप्रिय कथा-साहित्य में अन्धविश्वास, लोकप्रचलित दन्तस्यायें, प्रणय और वीर्य-कमों (Adventures) की कहानियां, स्वप्न और प्रतिस्वप्न इत्यादि हुश्रा करते हैं, परन्तु पंचतन्त्र में हम प्रायः पशु-पक्षियों की कहानियां पाते हैं। ये पशु-पक्षी मानवीय संवेदनाओं से युक्त प्रतीत होते हैं, तथा विद्वान् राजनीतिविद् एवं चतुर धर्मनीति व्याख्याता के रूप में प्रकट होते हैं। लोक-प्रिय कथा से इसका भेद दिखजाने के लिए पंचसम्न को औपदेशिक जन्तु-कथा-साहित्य में सम्मिलित किया जाता है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक जन्तु कथा का उद्भव ( २ ) औपदेशिक जन्तु कथा का उद्भव वैदिक साहित्य में विशेष करके ऋग्वेद में, औपदेशिक जन्तुकथाओं का ढूँढना व्यर्थ है । जैसा ऊपर कहा जा चुका है पञ्चतन्त्र के स्वरूप के मुख्य तत्व पशु-पक्षियों की कथाए तथा नीति- शिक्षाएँ हैं । ऋग्वेद से (८,१०३) केवल एक ऐसा सूक्त है जिससे प्रतीत होता है कि यज्ञ में मन्त्रोचारण करने वाले ब्राह्मणों की तुलना वर्षा के प्रारम्भ में टर्राते हुए मेंडकों से की गई है। इसके बाद कुछ उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद् में मिलते हैं। उदाहरण के लिए हम देखते हैं कि सत्यकाम का प्रथम शिक्षादायी एक बैल, उसके बाद एक राजहंस और फिर एक और पक्षी है। महाभारत में जन्तु-कथाएँ प्रारम्भिक अवस्था में देखने को मिलती हैं। हम एक पुण्यात्मा बिल्ली की कहानी पढ़ते है, जिसने चूहों के जी में अपना विश्वास जमा कर उन्हें खा लिया। विदुर ने धृतराष्ट्र को समझाते हुऐ करा था कि चाप पाण्डवों को परेशान न करें, उनकी परेशान करने से ऐसा न हो कि सोने का श्रएडा देने वाला पक्षी आपके हाथ से जाता रहे। एक ओर अवसर पर एक चालाक गीदड़ की कथा आई है जिसने अपने मित्र व्याघ्र, भेड़िये इत्यादि की सहायता से खाने के लिए खूब माल पाया; परन्तु अपनी धूर्तता से उन्हें इसका जरा सा भी भाग न दिया। कहानी से दुर्योधन को समझाया गया है कि उसे पाण्डयों के साथ किस तरह बरतना चाहिए । बौद्धधर्म के प्रादुर्भाव मे श्रोपदेशिक जन्तु कथा साहित्य की उन्नति में सहायता की । पुनर्जन्मवाद में यह बात मानी जाती है कि मनुष्य शरीर में वास करने वाली श्रात्मा पाप-पुण्य के अनुसार तिर्यगादि की योनी में जाती रहती है । पुनर्जन्म के इस सिद्धान्त पर भारतीय धर्मों में बड़ा बल दिया गया है | जैसा हम ऊपर देख चुके हैं कि बौद्धों और जैनों ने अपने अपने धर्म के मन्तव्यों का प्रचार करने के में के लिए पशु-पक्षियों की अभ्रान्त साधन बना लिया था। बौद्ध जातकों सन्तों के पूर्वजन्मों के चरित्र का वर्णन करने २३७ लिए कहानी को एक बोधिसत्व एवं दूसरे 4 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ संस्कृत साहित्य का इतिहास कथाएँ पाई जाती है । भहुंत के स्थान पर बौद्ध जातकों का स्मारक साक्ष्य है, as for रूप से बतलाता है कि ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में जन्तु कथाएँ गढ़ी लोकप्रिय थीं । पतञ्जलिकृत महाभाष्य में आप जोकोक्ति छ उल्लेखों से भी इसकी पुष्टि होती है । दूसरे तत्त्व के-नीति- शिक्षा तथ्य के बारे में यह विश्वास कहा जा सकता है कि पran का रचयिता नीति शास्त्र और अर्थread है । रचयिता का प्रतिज्ञात प्रयोजन राजा के निरक्षर कुमारों को अनायतया नीति की राजनीति, व्यवहारिक ज्ञान और सदाचार की -- शिक्षा देना है । यह बात असंशयित हो समझनी चाहिए कि पत्रकार को चाणक्य के ग्रन्थ का एवं राजनीति विषयक कुछ अन्य सन्दर्भों का पता था । साधारण जन्तु-कथाओं के साथ नीति शास्त्र के सिद्धान्तों का चतुरता पूर्वक मिश्रण करके श्रोपदेशिक जन्तु कथा-साहित्य की सृष्टि की गई जैसा कि हम पञ्चतन्त्र में प्रध्यक्ष देखते हैं, जो संस्कृत साहित्य के इतिहास में निरुपम है । यह अपने प्रकार का आप ही है । ૨ १ [ पञ्चतन्त्र के एक संस्करणभूत ] हितोपदेश का अधोलिखित पद्म देखिए--- कथाच्छ लेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते (भूमिका पद्म ८ ) अर्थात्-कथाओं के बहाने से बालको को नीति सिखाने वाली बातें इस ग्रन्थ में लिखी जाती हैं । भूमिका मे स्वयं पञ्चतन्त्र को नीति शास्त्र कहा गया है और कहा गया है कि जगत् के सारे अर्थ शास्त्रों का सार देख चुकने के बाद यह ग्रन्थ लिखा जाता { २. भूमिका में लेखक ने नीति शास्त्र के नाना लेखकों के प्रमाण करते हुए कहा है :--- मनवे वाचस्पतये शुकाय पराशराब ससुताय । चाणक्याय च विदुषे नमोऽस्तु नयशास्त्रकतभ्यः ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असली पम्वतन्त्र (६३) असली पञ्चतन्त्र (1) असली ग्रन्थ का नाम---असली ग्रन्थ का नाम अवश्य पञ्चतन्त्र ही होगा। दक्षिण की प्रतियों में, नेपाल को प्रतियों में, हितो. पदेश में और उन सम्पूर्ण संस्करणों में जिनमें कोई नाम दिया गया है, यही नाम श्राता है। उदाहरण के लिए हितोपदेस का कर्ता शुद्ध सन से कहता है: पवतन्त्रात् तथाऽन्यस्माद् मन्यानाकृष्य जियते' (भूमिका प ) पञ्चतन्त्र की भूमिका में लिखा है:এক যন্ত্রকে কার লবিয়া কান্নাকালী পূনল মুন। नास में आए हुए 'वन्' शब्द का अर्थ है किसी अन्य का एक স্কয়, স্ব স্ব হ{ গলা ব্যথা ই কী দুম্বা মঙ্গল होता है तन्त्रैः पञ्जभिरेतश्चकार सुमनोहरं शास्त्रम् । इस प्रकार के नाम और भी मिलते हैं। यथा, अष्टाध्यायी (प्रा6 अध्यायों की एक पुस्तक । पाणिनि के व्याकरण का नाम)। शायद 'तन्त्र' शाद का अभिप्राय उम 'प्रन्थ खडसे है जिसमें 'तन्द्र का अर्थात जनीति का और व्यवहारोपयोगी ज्ञान का निरूपण हो । प्रो. इर्ट ने 'तन्छी' का अर्थ हाव-पेच किया है; परन्तु इसे बुद्धि स्वीकार नहीं करती। (२) अन्य की जनप्रियता- इसकी जनप्रियता का प्रमाण इसी तब्ध में निहित है कि इसके दो सौ से अधिक संस्करण मिलते हैं, जो पञ्चाम से अधिक भाषाओं में हैऔर इन भाषाओं में तीन-चौथाई के लगभग भाषाएँ भारत से बाहर की है। ११०० ई० में इसका भाषान्तर हिब में हुआ और ११७० ई० से पूर्व यह यूनानी, स्पेनिश, लैटिन, जर्मन, पुरानी स्वोनिक जैक और इंग्लिश में भी अनूदित हो चुका था। आजकल इसका पाठन-पान जावा से लेकर प्राइसलएड तक होता है। १ पञ्चतन्त्र और दूसरे ग्रंथों से प्राशय लेकर यह ग्रंथ लिखा जाता है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास ___ भारत में तो यह ग्रन्थ और भी अधिक लोक प्रिय अक्षा पा रहा है। इसका उल्था मध्यकालीन तथा वर्तमान भारतीय भाषाओं में होकर उसका उल्था फिर संस्कृत में हुभा । इसे पद्य का रूप देकर फिर उसे गद्य का रूप दिया गया। इसका प्रसारण भी हुश्रा और आकुञ्चन भी। इतना ही नहीं, इसकी कुछ कहानियों ने सर्वसाधारण में সলি জুহানি ক্ষা ৎ মান্য সুৰ ক্লিম হ ছি ভুল। স্কুল मौखिक कहानियों के अाधुनिक संग्रह में हो गया। यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि इसके समाज जगत का कोई अन्य अन्य लाक का प्रीतिभाजन नहीं हो सका। (३) पञ्चतन्त्र के संस्करण---दुर्भाग्य से मालिक पञ्चतन्त्र अलभ्य है। हाँ, इसक प्राप्य संस्करणों की सहायता से किसी सीमा तक उसका पुनर्निमाण हो सकमा अपम्भव नहीं है। इसके विविध संस्करणों के तुलनात्मक अध्ययन से यह विस्पष्ट है कि-- (क) अन सब संस्करणों की अल्पत्ति प्रादर्श भूत किसी एक ही पाहित्यिक ग्रन्थ से हुई है (अन्यथा गद्य और पद्य दोनों में उपलभ्यमान अनेक शालिक अभेद का कारण बताना असम्भव है)। (ख) इन संस्करणों में घुमी हुई त्रुटियाँ मौखिक अन्य तक नहीं पहुँचती हैं। मौलिक पञ्चतन्त्र के निर्माण में वक्ष्यमाण संस्करण सहायक हो सकते हैं--- (१) क-तन्त्राख्यायिका ॥ १ लोक-प्रिय कथाओं के ग्रंथों ने (जैसे, पञ्चविंशतिका, शकसप्तति और द्वात्रिशतिकाने) पञ्चतत्र का स्वतंत्रता से उपयोग किया है और पञ्चतत्र के अनुवाद ब्रजभाषा, हिंदी, पुरानी और आधुनिक गुजराती, पुरानी और आधुनिक मराठी, तामिल इत्यादि भाषाओं में पाये जाते हैं। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्टल के मतानुसार वर्गीकरण २४१ -- (११०० ई० के प्राख-पाल) किसी जैन द्वारा रचित संस्कर जिसे आजकल 'सरल ग्रन्थ' (Textus Simplicior' का नाम दिया गया है। - ११६३ ई० के आस-पास ) पूर्णभद्र का प्रस्तुत किया हुआ संस्करण | --दक्षिणी पञ्चतन्त्र | -नेपाली पञ्चतन्त्र | Sanileo - हितोपदेश | (३) क्षेमेन्द्र की बृहत्कथा मञ्जरी में और सोमदेव के कक्षा सरित्सागर में श्राया हुधा पञ्चतन्त्र का पाठ | (४) पहलवी संस्करण, जिसके आधार पर पाश्चात्य संस्करण बने । ऐजर्टम ने ( Escrton ) पञ्चतन्त्र के ऊपर बड़ा परिश्रम किया है। उसके मत से पञ्चतंत्र परम्परा की चार स्वतन्त्र धाराएँ हैं (जिनका उसलेख ऊपर किया गया है ) । प्रो० हर्टस के विचार में दो ही स्वतन्त्र धाराए' हैं । दोनों के विचारों के भेद को नीचे दी हुई सारखी से हम अच्छी तरह समझ सकते हैं हर्टल के मतानुसार वर्गीकरण चक्र उत्तर पश्चिमक T सत्राख्यायिका पहवी दक्षिणी 'सरल' पूर्णभद्र नेपाली हितोपदेश बृहत्कaaja पंचतंत्र ग्रन्थ' लिखित संस्करण पंचतंत्र * यह चिह्न काल्पनिक संस्करण सूचित करता है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ang have IT" - ★ vid Fr what fac *उत्तर-पश्चिमी बृहत्कथा क्षेमेन्द्रवाला सोमदेववाला ऐजर्टन (Edgerton) के मतानुसार वर्गीकरण । d ॐ-पश्चतन्त्र सन्त्राख्यायिका तन्त्राख्यायिका - 'सरक्ष 'सरल' - दक्षिणी पंचतंत्र दक्षिणी पंचतंत्र * नेपाली C. नेपाली हितोपदेशपचतंत्र - indone SPOW पडवी *पहुवो पुरानी अरबी का सीरियन २४३ संस्कृत साहित्य का इतिहा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्टल के मतानुसार वर्गीकरण २४३ दोनों के मतों के भेद बड़े महत्व के हैं, क्योंकि मौखिक ग्रन्थ का पुनर्निर्माण इन्हीं पर चाश्रित है ६ (१) दटेल की धारणा है कि सम्पूर्ण उपत्स्यमान संस्करणों का भूत एक दूषित दशमूल ग्रन्थ ( Prototype ) है (जिसे सारखी में 'त' कहा गया है) ऐजर्टन के मतानुसार यह कोरी कल्पना है । (२) दर्द का अनुमान है कि तन्त्राख्यायिका को छोकर शेष सम संस्करणों का मूत्राधार 'क' नामक मध्यस्थानस्थ एक आदर्शभूत ग्रन्थ है । ऐजन कता है यह भी तो एक कल्पनामात्र ही है। दर्दन के दृष्टिकोण से कोई पद्य या गद्य खण्ड सभी असली माना जा सकता है जब कि वह तन्त्राख्यायिका में और कम से कम 'क' के शुक प्रसव में मिले। दूसरी पोर एजटेन का ख्याल है कि यदि कोई अंश दो स्वतन्त्र धाराओं में मिल जाए और चाहे तन्त्राख्यायिका में न भी मिले तो भी हम इस (श) को असला स्वीकार कर लेंगे । (३) हर्दन की एक धारणा श्रार है। वह कहता है । कि उ०प० (उत्तर-पश्चिमी) नामक, मध्यस्थानीय एक यादभूत संस्कर है जिसके आधार पर दक्षिणी, पह्नवी एवं 'सरल' पञ्चतन्त्र बने हैं । किन्तु उलकी धारणा का साधक कोई प्रमाण नहीं है । 7 हर्टल के मत को मन नहीं मानता है । हर्टल कहता है कि पल्लवी दक्षिण और 'सरल' पञ्चतन्त्र का आधार मध्यस्थानस्थ ३० १० संज्ञक कोई आदर्श ग्रन्थ है; परन्तु इन ग्रन्थों के तुलनात्मक पाह से दो बातों का पता लगता है। पहली इन में परस्पर बड़े भेद है, और दूसरी इनका प्रस्फुटन पञ्चतन्त्र-परम्परा की तीन स्वतन्त्र धाराओं से हुआ है। दर्टल का मत ठीक हो तो 'सरल' और तन्त्राख्यायिका में, या 'सरस' और पूर्णभद्रीय संस्करण में जितनी समानता हो उसकी अपेक्षा पलवी र 'स' में अधिक समानता होनी चाहिए । परन्तु अवस्था इससे बिल्कुल विपरीत है। इसी प्रकार यदि क का मत ठीक होतो, हितोपदेश और दक्षिणी पञ्चतन्त्र में जितनी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सस्कृत साहित्य का इतिहास নানা ছী বলী বা প্লিবী ক্ষী দুৰনীয় জং # अधिक समानता होनी चाहिए। किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। (४) रचयिता-उपोद्धात में आता है कि विष्णुशर्मा ने मिहिजा. रोप्य' नामक नगर के महाराज समरशक्ति के तीन पुत्रों को छ: महीने के अन्दर राजनीति पढ़ाने का मार अपने ऊपर लिया। उपोद्घात के खीसरे पक्ष से शुद्ध रूप से प्रकट ही है कि यह इसका रचयिता विष्णुशर्मा ही था। यह मानने के लिए कोई कारण नही है कि यह नाम काल्पनिक है। हाँ, रचयिता के जीवन के विषय में कुछ मालूम नहीं है। इलने उपोद्धात के एक पत्र में माना देवताओं को नमस्कार किया है। इससे प्रतीत होता है कि यह कोई बौद्ध या जैन नहीं बल्कि एक उदार स्वभाव का ब्राह्मण था। (५) उत्पत्ति-स्थान-प्रसखी पञ्चतन्त्र के उत्पत्ति-स्थान के बारे में निश्चित कुछ भी मालूम नहीं है । इटल का प्रस्तत किया हुश्रा विचार यह है कि पतन्त्र का निर्माण काश्मीर में हुआ होगा, कारण असली पञ्चतन्त्र में शेर और हाथी का नाम नहीं पाता है, ऊँट का नाम बहुत पाता है। किन्तु यह युक्ति भी ठीक नहीं है। कुछ यात्राओं के नाम पाते हैं, परन्त उनसे भी कोई परिणाम निकालना कठिन है। क्योंकि, ऐसे नाम सारे के सारे भारतवर्ष में प्रसिद्ध चले आ रहे है। यदि मिहिजारोप्य' नगर का राजा अमरशक्ति कोई वस्तुतः राजा हुमा है तो अन्धकार कोई दक्षिणाय होगा। उन्ध में शून्यमूक पर्वता १ पाठान्तर महिलारोप्य है । २ वह पद्य यह है-- बहा रुद्रः कुमारो इरिवरुणायमा वहिरिन्द्रः कुबेरश. चन्द्रादिल्यौ सरस्वयुद्धी युगनगा वायुरूर्वी भुजङ्गाः । सिद्धा नद्योऽश्विनौ श्रीदितिरदितिसुता मातरश्चण्डिकाद्या, वेदास्तीर्थानि यज्ञा मारणपसुमुनयः सन्तु नित्यं ग्रहाश्च । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चतन्त्र की वयवस्तु २४५ का नाम श्राया है। यह पर्वत दक्षिण भारत में ही है। प्रन्थकार को दाहिखास्य मान लेने पर इसका उल्लेख यथार्थ हो जाता है । (६) काल - दीवार एक रोमन सिक्का है जिस का प्रचार कभी यूरोप से भारत तक हो गया था । एक पद्य में इसका नाम आया है। समझा जाता है कि यह पद्य असली पञ्चतन्त्र का है । श्रतः सखी अन्थ ईसा के बाद का हुए बिना नहीं रह सकता । असली ग्रन्थ ५५० ई० से बहुत पहले लिखा जा चुका होगा; क्योंकि, ५५० ई० में बजई द्वारा (Barzoe) इसका अनुवाद पह्नवी में हो चुका था। वह संस्करण पह्नवी, में अब अप्राप्य है, किन्तु इसका अनुवाद सन् ५७० ई० में बूर ने (Bud) पुरानी सीरियन भाषा में कर दिया था । अव असली पञ्चतन्त्र का रचना काल ईसा की दूसरी या तीसरी शताब्दी में माना जा लकता है । (७) भाषा -- पुराविदों को इसमें प्राय: कोई विप्रतिपति नहीं कि असली ग्रन्थ संस्कृत में ही लिखा गया था । यदि ऐसा न मानें तो नाना संस्करणों में जो एक-सी भाषा पाई जाती है, उसका क्या कारण बताया जा सकता है। इसके अतिरिक्त हम यह भी निश्चित रूप से जानते हैं कि ग्रन्थ क्षत्रिय कुमारों के लिए लिखा गया था और इसका लेखक ब्राह्मण था । यह समकना कठिन है कि ऐसा ग्रन्य कभी प्राकृत में क्यों बिखा जाता। (६४) पञ्चतन्त्र की वयवस्तु । पञ्चतन्त्र में तन्त्र नामक पाँच अध्याय हैं। प्रत्येक की वयवस्तु १ मालूम होता है डाक्टर हर्टल इस पद्य को कोई महत्व नाई देते हैं । इर्टल का विश्वास है कि असली पञ्चतन्त्र ईसा से कोई २०० बर्ष पूर्व लिखा गया था । सच तो यह है कि अनेक कहानियां ईसा से २०० वर्ष पूर्व जैसे प्राचीन काल में भी बहुत पुराने काल से प्रचलि चली श्रा रही थीं। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास स्वतन्ज है। प्रथम तन्त्र में उपोद्धात और सुहट्-भेद वर्णित है। चीनी जाल के ढंज पर एक में एक बुस कर कतिपय कहानियों की सहायता से दिया गया है कि कटंक और दमा इन दो चाया गीदड़ों ने স্বাঞ্ছা স্বল্প ক্ষ ও মই যি স্ব স্ব স্ব লীলঙল दो बच्चे और सुख भित्रों में दूर डलवा दो। पिजक को संजारक को मृत्यु से शोज मरतोटलमात हम उसे सान्त्वना दे दी और शाने. शने आपसका प्रधानामात्य अन बैठा। दूसरे वन्त्र का नाम है मित्र-लप्राप्ति । इसकी कहानी की स्थूल -ই। সু চি রুহল সিম, নূহহ ছিহহ, জ্ঞাষ মুহুল, জুড়ী জাঙ্ক স্ত্রী ক্ষুনৰুৱনিকা সংকগুচ্ছ যুক্ষ দক अापल मित्र बन गए और फिर पारस्परिक सहयोग के बल से उन्होंने ঘন তিলায় বদলিখা ই ই না । ক্ষাধিক অন্তু অঙ্গ অম্ব স্ব অলি বীজ , গাছ রূয়া সুনা হিমাল यानि कानि च मित्राणि कर्तव्यानि शतान्यपि--- मनुष्य की यथा सम्भव अधिक से अधिक मित्र बनाने वाहिर। तीसरे तन्त्र में कौए और उल्लू के बैर के दृष्टान्त ले सन्धि-विग्रह का पाठ पढ़ाया गया है। कौनों का नेता तल्लू को पक्षिराज बनाने पर एतराज करता है। वह उल्लू को घृणास्पद कहता है। और किमी नीच प्राणी को राजा बना लेने पर पाने वाली विपत्तियों को दिल्ली और हरगंश की कहानी द्वारा विस्पष्ट करता है। नए उल्लू काओं से दुश्मनो निकालने का निश्चय करता है। कौनो का चतुर मन्नी उल्लुओं में जाकर कहता है कि --- मेरे छठी काकराज ने मुझे निकाल दिया है, मुझे शरण दीजिए । उल्लू उस्ले शीघ अपनी शरण में रख लेते हैं। यहां पर ए७, कहानी, द्वारा शत्रु-वर्ग में भेद डालने के लाभ बतलाए गए हैं। अन्त में एक सुअवसर प्राने पर बल्लुओं के दुर्भ में भाग जागा दी जाती है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचतन्त्र की वयवस्तु चौथे सन्या में लब्ध-प्रणाश झा वर्शन है। एक अन्दा और एक नाक में बड़ी धनिष्ठ मित्रता थी न की पत्नी ने नह बात सही न गई। उसने बीमारी का दिखावा किया और कहा कि सुखे अगर भारत हो सकता है ती केवख बन्दर का कलेजा खाने ले ही हो सकता है। विचारे नक को पानी की बात मानना पड़ी। उन एक दिन गन्दर को अपने घर श्राने का निमन्त्रण दिया । जब ना बन्दर को जल के अन्दर अपने मकान को ले जा रहा था तो सन्दर को उसकी बनाको का पता लग गया : उसने कहा----सिन्न ! तुमने पहले कभी नहीं कहा ? मैं श्रान हृदय तो वृक्ष पर ही छोड़ पाया हूँ। मूर्ख न के बन्दर की बात पर तत्क्षण विश्वास कर लिया और हृदय बिवा लाने के लिए बह बन्दर को पीठ पर बढ़ाए किनारे की तरफ मुड पहा । इन्दर में वृक्ष पर चढ़ कर अपनी जान बचा ली। नक ने बन्दर से पुनः मित्रता जोहने और घने घर बुद्धाने का प्रयत्न किया, पर बन्दर कब उसके चकमे में श्राने वाला था। बन्दर ने कहा-मैं गधा नहीं हूँ जो नौट पह । बस अब गधे की कहानी प्रारम्भ हो जाती है। इसी तरह सिलसिला जारी रहता है। ___ पाँचवे तन्त्र में अविमृश्यकारिता की कहानियों का दिग्दर्शन है । कहानी में बताया गया है कि एक ब्राह्मण अपने शिशु की चौकसी करने के लिए एक नेवले को छोड़ गया और फिर किस तरह करने अपने प्यारे उसी नेवजे की हत्या कर डाली । नेवले का मह रुधिर से सना हुभा देख कर नाह्मण ने सोचा इसने मेरे बच्चे को खा लिया है। वस्तुतः नेवले ने साँप को टुकड़े-टुकड़े करके शिशु की जान बचाई थी। तब ब्राह्मण की पत्नी को मा बडापश्चात्ताप हुश्रा और उसने एक नाई की कहानी सुनाई, जिसने सहकारी होकर अपनी स्त्री ही मार डाली थी। अन्त के दो तन्त्र बहुत ही छोटे हैं। पुराने कविषय संस्करणों में उनका श्राकार घटाकर नहीं के बराबर-सा कर दिया गया है, जिससे वे पिछले Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास तीन बड़े-बड़े तन्त्रों के परिशिष्ट से दिखाई देने लगे हैं। (६५) पञ्चतन्त्र की शैली । (१) ऊपर जो कुछ कहा जा चुका है, उससे यह मालूम होगा कि पहासन्न निश्चय ही प्रोपदेशिक जन्तु-कथा की पुस्तक है, जिसका प्रतिज्ञान प्रयोजन मनोहर और आकर्षक रीति से राजनीति और व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा देना है। इसकी कहानियों में पाकिस्य ओर हास्य रस दोनों हैं। तथा इनमें से अधिक में पात्र पशु है। कहानी और राजनीतिक उद्देश्य को ऐसे कौशलले एक जगह मिलाया गया है कि प्रत्येक कहानी स्वयं कहानी के रूप में भी रमणीय है और किसीन-किसी धर्मनीतिक या राजनीतिक यातका सुन्दर दृष्टान्त भी है। उदाहरण के लिए प्रथम तन्त्र की प्रथम कथा ही बीजिए । इसमें एक बन्दर की मूर्खता का वर्णन है, जिसने आधे चिरे हुए दो तस्तों के उपर बैठकर उनमें फँसाए हुए खटे को बाहर खींचा, तो उसकी पूर्वी तख्तों के बीच आ गई। इससे यही शिक्षा दी गई है कि किसी को दूसरे के काम में दख्खन नहीं देना चाहिए । प्रथम ही तन्त्र की इक्कीसवीं कहानी १ अघोऽक्षित तालिका से प्रत्येकतंत्र की काया का कुछ अनुमान हो सकता है नाम पृष्ठ संख्या श्लोक संख्या कथा संख्या प्रस्तावना १मतंत्र मित्रभेद २य तंत्र मित्रसंप्राप्ति श्य तंत्र काकोलूकीय ४६ २५४ ४र्थ तंत्र लब्धप्रणाश २६ ८० ५मतंत्र अपरीचितकारिता ३७ ये अंक १६०२ में निर्णय-सागर प्रेस में मुद्रित संस्करण के अनुसार है। १६६. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतन्त्र को शैली २४१ में महाभारत का प्रसिद्ध वाक्य ' शप्रति शाध्यमाचरेत् विस्पष्ट किया गया है। कोई भादमी परदेश जाते समय अपनी बोहे की वस्तुएँ अपने मिन एक बनिये के पास धरोहर रख गया । परदेश से लौटने पर अब उसने उन्हें माँगा, तो उन . मला कि लोहे की चीज़ों को चूहे खा गए । श्रादमी होशियार था । वह बनिये के लड़के को साथ ले जाकर कहीं छुपा पाया और श्राकर कहने लगा-मित्र ! दुःख है, तुम्हारे लड़के को श्येन ले कर उड़ गया। बनिये को बड़का वापिस लेने के लिए विवश हो उसकी सब चीजें देनी पडी। पहले तन्त्र की अन्तिम कहानी बताती है कि र्ख मित्र से बुद्धिमान् शत्रु अच्छा है-एक स्वामी का सच्चा मह किन्तु मूर्ख सेवक था। एक दिन स्वामी सो रहा था। उसके मह पर बार-बार उड़ती हुई मक्खी को मारने के लिए सेवक ने तलवार बलाई, जिसने बेचारे स्वामी की जान ले ली। दूसरी ओर, कुत्रों ने ब्राह्मणों की जान बचा दी। (२) लेखक केवल मधुर कथावाचक और चतुर राजनीतिज्ञ ही नहीं, प्रत्युत वर्णन-कला का गुरु भी है ! हम देखते हैं, प्रायश: वह मनोहारिणी सुन्दर कथा के कहने के श्रानन्द में मग्न हो जाता है। 'ग्रेट शार्ट FEITE a f ost (Great Short Stories of the World ) नामक प्राधुनिक कहानी-संग्रह में इन कहानियों को एक प्रधान स्थान दिया गया है। (३) पात्रों द्वारा अत्यानुप्रास के पच बुलवाना इसकी रचना की एक और विशेषता है। देखिए, सिंह गीदव से कहता है १ इन कहानियों का उद्देश्य व्यवहारिक राजनीति की शिक्षा देना है, श्राचार की नहीं । अतः कुछ कहानियों में कूट-विद्या की शिक्षा भीभरी है। प्रथम तन्त्र में कूट-विद्या -विशारद दो गीदड़ों की कथा आती है, जिन्होंने छल-कपट द्वारा सिंह और वृषभ दो घनिष्ट मित्रो में फूट डलवा दी थी। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास न गोप्रदानं न सहीप्रदानं च चानरानं हि तथा प्रधानम् । यथा वदन्ती बुधाः प्रदानं सर्वप्रदाने व भयमानम् ॥ (१,३१३) इन पथ की इम्समता, मधुरता और श्री के कारण ही पञ्चतन्त्र स्वरून कथा-पुस्तकों की श्रेणी से बहुत ऊपर उठा हुआ है । यह कहना कठिन है कि इन सब पद्यो का रवता भो अन्धकार ही है । कदाचित् उसने इनमें से बहुत से पद्य पुरा धार्मिक ग्रन्थों में से या अन्य प्रामाणिक पुस्तकों में लिए होने परिचायक हुन पत्रांका उचित निर्वाचन है की मत का ! २५० का शीर्षक (४) पत्र की एक और विशेषता यह है कि प्रत्येक एक श्लोक में दिया गया है। इसी रखो मे कथा से निकलने वाली शिक्षा भी है दीगर है और इसमें मुख्य-मुख्य कथा-पात्रों के नाम भी आ गए हैं। प्रथम सत्र की श्रावी कथt or atfset mळा पद्य देखिए- बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निबेोस्तु बुतो बलम् । बने सिंहो मोन्मत्तः शशकेन निपाति ॥ पात्रों के नामों से युक्त पत्रों का एक उदाहरण नीजिए 3 १ विद्वानों के विचार से विपद्यमान की रक्षा करना ही सब से बड़ा धर्म है । इस धर्म की बराबरी न गौ का दान कर सकता है, न पृथ्वी का और न अन्न का । २ मालूम होता है कि लेखक को तीसरे तन्त्र की रूपरेखा के लिए और व्याघ का जाल लेकर उड़ जाने वाले कबूतरो को कथा के लिए संकेत महाभारस से ( देखिए, १०, १ और ५, ६४ ) मिला होगा | महाभारत में पराजित कोरवो को समझाया गया है कि जैसे कौवा ने उल्लू पर रात में आक्रमण करके विजय प्राप्त की थी, वैसे ही तुम भी रात में पाण्डवों के डेरों पर छापा मार कर विजय प्राप्त कर लो | इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया मालूम होता है कि सूरज की रोशनी में न देख सकने के कारण उल्लू बेवश होते हैं । ३ जिस में बुद्धि है, उसमें बल भी समझो। मूर्ख के अन्दर बल कहाँ से Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चतन्त्र की शैली अर्थस्योपार्जनं कृत्वा नेक भाग समश्नुते । रए महापाद्य मुढ़ः सोमलिको यथा ॥ (२) पञ्चतन्त्र में कथा वर्णन भरने वाले कुछ उत्तम पद भी हैं। हरिण की कथा में एक पद्य भाया है-- वात-वृक्ष-विधूत- मृगयूयस्य धावत' ! पष्टनोऽनुगमिष्यामि ऋदा तन्मे भविष्यति ॥ ऐसे पद्यों को लिकता में सन्द, नहीं हो सकता । ऐसा मालूम होगा कि ये प्रन्थ में स्वयं अपार योनिजेखक ने इस बात का बड़ा ध्यान रखा है कि वर्णन में ही दिया जाए ( पछा तो विख औगदेशिक था 'शीर्षक सूचक ही है ३)। १६) भाषा प्राय: सरल, शुद्ध और विवाद है। यदि भाषा ऐसीन होतो, तो तरुल राजकुमारी को नोति सिस्त्राने का लेखक का प्रतिज्ञात उई कैसे पूरा होता । पञ्च प्राधः अनुष्टुप छन्द में ही हैं । रामायण, महाभारत और स्मृतियों की शैली का अनुपण करते हुए उन दीर्घ समाल और किष्टान्वयी वाक्य नहीं रखे गए। कुछ उदाहरण श्रापकाले तु सम्प्राप्ते यन्मित्रं मित्रमेव तत् । वृद्धि काल तु सप्राप्ते दुर्जनोऽपि सुहृद् भवेत् ।। (२, ११८) उद्यमेन हि सिद्धयान्ति कार्याणि न मनोरथः । आया। खरगोश ने वन मे मद-मन्त शेर को मार डाला था। १ घनसग्रह करके भी मनुष्य उसका भोग नहीं कर सकता । मूर्ख सोमलिक घने जगल मे पहुच कर उपर्जित धन को खो बैठा था। २ ओह ! वह समय कब आएगा, जब मै हवा और बारिश के झकोरे से सताए हुए, इधर उधर दौड़ते हुए · हरिणों की डार में पीछे-पीछे दौड़ता रहूँगा ! ३ चम्पू मे लेखक अपने भीते के अनुसार गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग करता है। अतः चम्पूत्रों में और बातक मालाओ मे वर्णन-पूर पद्य पर्याप्त देखे जाते हैं। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास न हि सिंहस्य सुतस्य प्रविशन्ति मुखे मृषा: (३, ३५८) किं तया कियते धेन्वा या न सूते न दुन्धदो। कोऽर्थः पुत्रेश जातेन यो न विद्वान् न भकिमान् ॥ (उपोशात ७ ये पच इतने सुगमार्थ है कि ये प्रायः प्रारम्भिक श्रेणी की पाठ्य पुस्तकों में दिए जा सकते हैं। कहीं-कहीं लेखक ने प्रथामापेक्षी पद्यो का भी प्रयोग किया है और इनमें दोर्ष समाल भी रखे हैं। उदाहरणार्थ सिद्धि प्रार्थयता जनेन विदुषा तेजो निगृह्य स्वक, सत्रोत्साहवताऽपि दैवविधिषु स्थैर्य प्रकार्य क्रमात् ! देवेन्द्र द्रविणेश्वरान्तकसमैरप्यन्वितो भ्रातृभिः, किं विष्टः मुचिरं त्रिदण्डमवहच्छीमा नधर्मात्मजः ॥ (३, २२३) परन्तु पन्चतन्त्र के बाद के काव्य की शैली से इन की शैली की तुलना करके देखा जाए तो ये पच बिककुल ही सरल प्रतीत होंगे। अधोलिखित पर, जो हाजा और मन्त्री के परस्पर सम्बन्ध का वर्णन करता है. मुद्रा-राक्षस नाटक में भी पाया जाता है --- अत्युच्छ्रिते मन्त्रिणि पार्थिवे च विष्टस्य पादावतिष्ठते श्रीः । सा स्त्रीस्वभावादसहा भरस्य तयोर्द्वयोरेकतरं जहातिः ॥ गद्य की सरलता के बारे में क्या कहना। यह तो मानी हुई बात है कि इसमें दण्डी और बाण के गद्य की कठिनता का लेश मात्र भी नहीं है। सच तो यह है कि यह जातकमालाओं और धम्पुओं के गद्य से मी विधाता की गति प्रबल होने पर सिद्धि चाहने वाले समझदार आदमी को चाहे उसमें शक्ति और उत्साह भी हो, चाहिए कि धीरे-धोरे स्थिरता सम्पादित करे । क्या श्रीमान् धर्मनन्दन (युधिष्ठिर) इन्द्र, कुबेर और यम के तुल्य भाइयो वाला होकर भी देर तक त्रिदण्डधारी होकर कष्ट नहीं भोगता रहा १२ राजलक्ष्मी अत्युन्नत राजा और मन्त्री दोनों पर 'पैरों को जमाकर उनकी सेवार्थ उपस्थित होती है, परन्तु Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्त्राख्यायिका २५३ सुगम है । इसमें कृदन्त के प्रयोग प्रचुरता से पाए जाते हैं। भूतकाल लिए प्रायः 'क' प्रत्ययान्त अथवा ऐतिहासिक बट वाले पद का प्रयोग किया गया है। कर्तरि प्रयोग की अपेक्षा कर्मणि प्रयोग अधिक हुश्रा है।' कृदन्त अध्ययों और कृदन्त विशेषणों की बहुलता है। तिङन्ता क्रियापदों के स्थान में कृदन्त क्रियापद व्यवहार में खाए (६६) तन्त्राख्यायिका। तन्त्राख्यायिका पञ्चतन्त्र का ही एक विकृत रूप है। इसको केवल एक ही हस्ताङ्कित प्रति काश्मीर से शारदा-लिपि में लिखी मिली है। इसका पता वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ में प्रो. हर्ट ने लगाया था। इसके दो उपरूप मिलते हैं । इटल ने उनके नाम अ (A) और ब (B) रक्खे हैं । इटल के मत से 'अ' अधिक मौलिक है, और ऐजर्टन के मत हटल ने तन्त्राख्याख्यायिका के महत्व पर इद से ज्यादा जोर दिया है । हाँ, इससे इनकार नहीं हो सकता कि किसी और संस्करण की अपेक्षा तन्त्राख्यायिका में मूलांश अधिक है। इसमें मूब से जो जो भेद है वह मुख्यतया वृद्धि भोर विस्तार करने का अधिक है परित्याग और परिवर्तन का कम । इसमें बढ़ाई हुई कुछ कहानियाँ है ---नील स्त्री है, स्वभावतः बोझ बर्दाश्त नहीं कर सकती । अतः उनमें से किसी एक को छोड़ देती है। १ ऐसी शैली का अनुकरण करना सुगम है और इसीलिए विद्यार्थियो को सलाह दी जाती है कि वे ऐसी शैली को अपनाएँ । २ हर्टल का विश्वास है कि तन्त्राख्यायिका ही एक ऐसा संस्करण में मूला पञ्चतन्त्र की भाषा असली रूप में विदयमान है; यदि उसमें कहीं कोई परिवर्तन है भी, तो वह विचार से नहीं किर गया है। परन्तु इस मत के विरुद्ध जाने वाले और भी संस्करण जिनके बारे में भी बिलकुल यही राय प्रकट की जा सकती है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सस्कृत साहित्य का इतिहास भुगाल (२,४) चतुर ऋगाल (१,१३), तानुवाच सोमिखक (२,१), कुटिल कुटनी (३.५), महाराज शिधि (३, ७), वृद्धवारल (३,३१), अशुन-चोर (२,१), और बनावटी सिपाही (४,३), इनमें से कुछ कहानियों में लुक लकार का पुनरुक प्रयोग पाया जाता है। इसी से इनका प्रक्षित होना सिद्ध होता है । इस प्रक्ष के काल का निर्णय करना कठिन है। (६७) 'सरल' ग्रन्थ (The Textus Sinxplicior)। इस संस्करण के अन्य का पाठ रूप-रेखा और कार्य-वस्तु दोनों की दृष्टि से बहुत कुछ पश्चिर्तित पाया जाता है। पांचों तन्त्रों का आकार प्रायः एक-जितना कर दिया गया है। असली पञ्चतन्त्र क तीसरे तन्त्र की कई कहानियां इसमें चौधे तन्त्र में रख दो गई हैं, और सभी तन्त्रों में कुछ नई बातें बढ़ा दी गई हैं। तीसरे, चौथे और पांचवें तन्न के ढांचे परिवर्तन कर दिए गए है। उदाहरणार्थ, पाँचवें तन्त्र में मुख्यता नाई की कहानी को प्राप्त है, और इसी में एक दूपरी कथा डाल दी गई है। हम नई कहानियों में से कई वस्तुतः शोधक हैं। पहले तन्त्र की पांचवी कथा में एक जुलाहा विष्णु बन बैठता है । परन्तु अपने आप को दिव्यांश का अवतार मानने वाले एक राजा की मूर्खता से उसकी कलई खुल जाती है । जब इस राजा ने अपने पड़ोसी राजाओं से लड़ाई प्रारम्भ कर दी और स्वयं पराजित होने के समीप ा गया, तब विष्णु को उसके यश की रक्षार्थ अवतार लेना पड़ा। इसी संस्करण का पाठ तन्त्राख्यायिका के पाठ से बहुत मिलता है। इसमें असली पतन्त्र के लगभग एक तिहाई श्लोक पा गए हैं। इस संस्करण में ब्राह्मण, ऋषि-मुनियों के स्थान पर जैन साधुओं के उल्लेख है, तया दिगम्बर, नग्नक, आपणक, धर्म देशना जैसे शब्दों का अधिक प्रयोग पाया जाता है। इससे अनुमान होता है कि इसका Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिणीय पञ्चतन्त्र २५५ "नष्पादक कोई जैन था। सारे अन्य पर विचार करने से इसका निष्पाइक अच्छी शैली का सिद्धहस्त लेखक प्रतीत होता है। 'सर' प्रन्थ में (The Textus Simplicior) माव और रुम के पय उद्धन है। परन्तु यह पूर्णमा से (१११ ई.) तो लिम्सन्देश प्राचीन है। अत: इसका काल स्थूल रूप से ५१०० ई. के आस-पास माना जा सकता है। (६८) पूर्णभद्र निष्पादित पञ्चतन्त्र । पूर्णभद्र का अन्य साधारणत: पचाख्यानक' के नाम से प्रथित्त है। इसका निर्माण कुछ वन्त्रख्यायिका के और कुछ 'परल' प्रन्थ के प्रापार पर हुआ है। कुछ अंश किसी अप्राप्य अन्ध से भी लिया प्रतीत होता है। इसमें कम से कम इक्कीस नई कहानियां हैं। इनमें से कुछ निस्सन्देह मनोहारिणी है । पहले तन्त्र को नोवो कहानी में पशु की कृतज्ञता और मनुष्य की अकृतज्ञता का व्यतिरेक दिखलाया गया है। मालूम होता है लेखक नीति-शास्त्र में पूर्ण निष्णात था। इसकी शैली सुगम, सरल और शोमाशानी है। ग्रन्थ का निर्माण सास नामक किसी मन्त्री को प्रसन्न करने के लिए सन् 91 ई० में किया माया था । (88) दक्षिणीय पञ्चतन्त्र। दक्षिण में प्रचलित पञ्चतन्त्र पांच विविध रूपों में उपलब्ध होता है। इसका मुख्य प्राधार वह असली प्रन्थ है, जो हितोपदेश का और नेपाली पन्चतन्त्र का है। जनों द्वारा निष्पादित उक्त दोनों संस्करणों की अपेक्षा इसमें मालिक अंश वस्तुतः अधिक है। एजर्टन के मत से इसमें श्राध पचतन्त्र का तीन चौथाई गोश और दो तिहाई पद्याश सुरक्षित है । इसके पाँचों विविध रूपों में एक समुपवृहित है १ कभी कभ। यही नाम उक्त 'सरल' ग्रन्थ के लिए भी प्राता है Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ संस्कृत साहित्य का इतिहास और उसमें लियाम कथाएं है; शेष चारों न्यूनाधिक संक्षेपास्मक है और उनमें असली अन्य के महत्वशून्य भाग का बहुल-सा भाग सन्निविष्ट नहीं किया गया है । जैसे नेपाली में वैसे ही इसी दक्षिणीय में भी कालिदास का एक पद्य पाया जाता है और निस्संदेह यह कालिदास से बाद का है। इसमें भी अनेक प्रक्षिप्स कथाएँ हैं। उदाहरण के लिए गोपिका वाली कथा का नाम लिया जा सकता। (१००) नेपाली संस्करण । नेपाली संस्करण की कई इस्तातित प्रतियां मिलती हैं। एक प्रति में केवल पय-भाग', ही है परन्तु अन्य प्रतियों में पद्य के साथ साथ संस्कृत या नेवारी भाषा में गद्य मो है ! नेपालो संस्करण में दूसरे और वीसरे तन्त्र का क्रम-परिवर्तन हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है के लेखक ने असली पञ्चतन्त्र का, जो हितोपदेश का आधार है, उपयोग अवश्य किया था। इस संस्करण का कोई निश्चित निर्माणकाल नहीं बतलाया जा सकता। इसमें कालिदास का एक पद्य उद्धता है; अतः इतना ही निःश कहा जा सकता है कि यह कालिदास के बाद तैयार हुभा होगा। (१०१) हितोपदेश । हितोपदेश पन्चतन्त्र का वह विकृत रूप है, जिसका सम्बन्ध बङ्गाल से है। सच तो यह है कि इसने बङ्गाल में अन्य सब संस्करणों का प्रचार सन्मानित कर दिया है। इसके लेखक का नाम नारायण १ इसमें एक गब-खंट भी है। वह अचानक अनवधानता से लिखा गया प्रतीत होता है। २ देखिए, यावत् स्वोचलोऽयं दवदहनसमों यस्य स्फुलिङ्गः । तावनरायणेन प्रचरतु रचितः संग्रहोऽयंकथानाम् ।। (५,१३८) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितोपदेश या । वह किन्हीं धवचन्द्र' का कृपाभाजन था । लेखक ने भूमिका के प्रथम पद्य में धूर्जटि एवं १, १०२ में चन्द्रार्धचूहामणि और ४, १३= में चन्द्रमौलि को नमस्कार किया है । अतः अनुमान होता है कि यह शैव था | भूमिका के दूसरे और आठवें पद्म से जान पड़ता है कि इस ग्रन्थ के लिखने में लेखक का उद्दश्य बच्चों के समझाने योग्य सरत कथाओं का एक ऐसा सन्दर्भ तैयार करना था, जो संस्कृत भाषा की शिक्षा देने, वाक्चातुर्य सिखाने और राजीनीतिक पाडित्य प्राप्त कराने में उपयोगी सिद्ध हो सके । लेखक ने कहा है:--- श्रुतो हितोपदेशोऽयं पाटवं संस्कृतोक्तिषु । वाचां सर्वत्र वैचित्र्यं नीतिविद्यां ददाति च ॥ (पद्म २) यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत् । कथान्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते । २५५ हितोपदेश का उपजीव्य पन्चतन्त्र तथा एक कोई और प्रन्थ है । लेखक ने भूमिका के नौंवे पद्य में इस बात को स्वयं भी स्वीकार किया है। अनुसन्धान अभी इस दूसरे ग्रन्थ का पता नहीं लगा सका है । कदाचित् यह कोई कथा-ग्रन्थ होगा, क्योंकि हितोपदेशकार कम से कम सतरह नई कथाए' देता है । इम सतरह में से केवल दो ही ऐसी हैं, जिनमे श्राचार की शिक्षा मिलती है। इससे एक तो यह सिद्ध होवा है कि लेखक का उद्देश्य आचार की शिक्षा देना नहीं था; दूसरे ग्रह कि उसने पञ्चतन्त्र की मूल रूप-रेखा का ही पूर्णतया अनुसरण किया | शेष पन्द्रह कहानियों में से सात जन्त-कथाएँ हैं पांच प्रेमपाश की और तीन वीर्थ-कर्म की। चूछे की कहानी, जो क्रमशः बिल्ली, कुत्ता और चीता बन गया परन्तु ऋषि को मारने के कारण जिसे फिर चूहा बनना पड़ा, लेखक ने कदाचित् महाभारत से की है । चतर स्त्री 2 १ देखिए, श्रीमान् घवलचत्रोऽसौ जीयान् माण्डलिको रिपून् । येनायं सग्रहो यत्नाले खयित्वा प्रचारितः ॥ (४,१३६) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सस्कृत साहित्य का इतिहास की (२,१) कहानी शुक-साहलि में और बीरबल की बेताल पचत्रिशतिका में आई है। नीति-शास्त्र के ग्रन्थों में से उसका मुख्य उपजीय झामन्ड कोय नीतिसार था। काल-(१) हितोपदेश का नेपाली संस्करण १३७३ ई. का है। अतः यह इससे पूर्व ही बना होगा। (२) इसने माध और कामन्द की से बहुत कुछ जिया है; अत: इसे इनके बाद का ही होना चाहिए। (३) इसने 'महारकवार' शब्द का प्रयोग किया है। अतः यह ११९ ई. के बाद का प्रतीत होता है। (१) यह शुक्ल-सप्रति और बेताज पन्चविंशतिका का ऋणी है! किंतु इसमे काम का निश्चय करने में विशेष सहायता नहीं मिलती। रूप-रेखा-हितोपदेश चार भागों में विभक्त है, जिनके नाम हैं-मित्रलाभ, सुहृभेद, विप्रह और सन्धि । इसमें असली पञ्चतन्त्र के पहले और दूसरे तन्त्र का कस बदल दिया गया है, और तीसरे तथा पाँचवें सन्त्र को सन्धि और विग्रह नाम के दो भागों में कुछ नया रूप दे दिया गया है, चौथा वन बिल्कुल छोड दिया गया है। सन्धि अर्थात् चतुर्थ अध्याय में एक नई कहानी दी गई है और इसी अध्याय में असली पञ्चतन्त्र के पहले और तीसरे सन्त्र में से कई कहानियाँ सम्मिलित कर दी गई हैं। इस प्रकार बने हुए हितोपदेश में असती पञ्चतन्त्र के पद्य-भाग का जगभग एक तिहाई और गध-भाग का बगभग दो बड़ा पाँच भग भा गया है। शैली, लेखक का दृश्य है-अच्चों को संस्कृत भाषा और नीति सिखाना । इस उधेश्य के अनुसार इसकी भाषा सरब, सुगम और रोचक है। कुछ उन त पद्यों को छोड़ कर शेषांश में न तो दीर्घ समास हैं और न किसी वाक्य । भूल पातन्त्र का पके- पदे अनुसरण करने का प्रयत्न किसा समा है, इसी लिए विन्त क्रियापदों Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कथा संस्करण, अर्थात् उत्तरपश्चिमीय संस्करण २५६ Hyper-HTM के स्थान पर कृदन्तीय क्रियापद और कर्तरि प्रयोग की जगह कर्मणि प्रयोग अधिक है। कुछ पद्य, लेखक के अपने बनाए प्रतीत होने हैं। इलले लेखक को महती कवि-प्रतिमा का प्रमाण माल होता है। हितोपदेश का प्रचार केबल बकाल में ही सही, सारे भारतवर्ष में है। यही कारण है कि इसका अनुवाद बैंगला, हिन्दी और कई अन्य भाधुनिक भारतीय भाषाओं में हो गया है। इसके पद्यों की सरसता का दिग्दर्शन करने के लिए देखिए माता शत्रः पिता वेरी येन बालोन पाठितः । १ शोभते सभामध्ये हंसमध्ये चको यथा ॥ (भूमिका २५) यथा र केन चकण न रथस्य मतिर्भवेत् । एवं पुरुषकारेण विना देवं न सिध्यति ॥ ( भूमिका २०) गध क्षा भी उदाहरण लीजिए---- सद् भवता विनोदाम कार्मादीनां विचित्रां कथां कथयामि।। राजपुत्रैरुक्तम् --कथ्यताम् । विष्णुशर्मोवाच---श्रयका सम्प्रति मित्रज्ञाभाः; यस्वायमाछ, श्लोकः। (१०२) बृहत्कथा संस्करण अर्थात् · उत्तरपश्चिमीय संस्करण । बृहत्कथामञ्जरी में और कथासरित्सागर में पाए हुए पञ्चतन्त्र के संस्करण सम्भवत: असली बृहत्कथा में नहीं होंगे, बक्षिक वे कश्मीरियों द्वारा कभी बाद में बढ़ा दिए गए होंगे। पञ्चतन्त्र के इस संस्करण में अन्य संस्करणों से इतना भेद है कि इसमें न तो स्पोद्धात है और म प्रथम तन्त्र की तीसरी कथा । ऐसा प्रतीत होता है कि इस संस्करण में प्रत्येक दो तन्त्रों के बीच में वाह्य तत्वों का समावेश करके उनका पार्थक्य प्रमद किया गया है। इस सस्करण के पाद का डीक ठीक दिश्चय करना बड़ा कठिन है । क्षेमेन्द्र अत्यन्त संप कर नावा है, और सोमदेव तो असली कहानियाँ तक छोड़ जाता है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सस्कृत साहित्य का इतिहास (१०३) पह्नवी संस्करण और कथा की पश्चिमी यात्रा । पञ्चतन्त्र का यहलवी संस्करण हकीम बाज़ाई के प्रयत्न से ग्वुसारी अनोशेषों के शासन काल में (५६१-७६ ई.) प्रस्तुत हुआ। इसके इस जन्म का नाम कर्टक और दमन' था। यह संस्करण सन्त्राख्यायिका से बहुत मिलता होगा । दुर्भाग्य से यह संस्करण लुप्त हो गया था, परन्तु इसका अनुवाद ५७० ई. में बूद नामक किलो विद्वान् से पुरानी सीरियन भाषा में ७१० ई. के लगभग अब्दुल्लाः इन्नुला मोकपका ने अरबी में कर दिया था। सीरियन संस्करमा की केवल एक अपूर्ण इस्तांकित प्रति प्राप्य है। अरबी संस्करण का नाम था कलील दिन्न: । यह अरवौ संस्करण महत्व का संस्करण है, क्योंकि यही सब पाश्चात्य संस्करणों का उपजीच्य है। दसवीं या ग्यारवीं शताब्दी के पास पास इसका अनुवाद पुरानी सीरियन से बाद की सीरियन भाषा में और १२५१ ई० में पुरानी स्पैनिश भाषा में हुअा। ये अनुवाद पर्याप्त उर नहीं निकले। १००० ई. के समीप अरबी अनुवाद का अनुवाद यूनानी भाषा में हुा । यह यूनानी अनुवाद इटैलियन, एक जर्मन, हो लैटिन और कई स्लैबोनिक अनवादों का उपजीव्य इना । अरबी अनुवाद का हिंब अनुवाद १६०० ई. के निकट हुआ। इसका कर्ता की जोईल था। इसका महत्व अरबी अनवाद से भी अधिक है, क्योंकि फिर इसका लैटिन अनुवाद १२६६ और १२७८ ई. के बीच जौन भाव कैपुश्रा ने ( John of Capua) किया। यह १४८० ई० में दो बार मुद्रित हुना। इसका फिर जर्मन अनुवाद ऐन्थानियस वॉन फर ने ( Anthonius Von १ ये दोनों नाम प्रथम तन्त्र में दो चतुर श्रृगालों के हैं । २ ये दोनों नाम कटंक और दमनक के रूपान्तर हैं । ३ इसका कर्ता गियुलिअोनुति (Gtulio-Nuti) है और रचना काल १५८३ ई० । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पह्नवी संस्करण और कथा की पश्चिमी यात्रा २६१ AL Prore) ४८६ ई० में किया। तब से यह कई बार मदित हो चुका है। इस अनुवाद का महत्त्व इसलिए है कि इसने जमनसाहित्य पर बड़ा प्रभाव डाला और वह डैनिश, प्राइसलैपिडक, डच और स्पैनिश अनुवादों का (१६४३ ई.) मूड बना । स्पेनिश का अगवाद इटैलियन में १९४६ ई. में हुना, और इसका अनुवाद च में ५५५६ ई० में हुश्रा। ए० ऐक. डोनी ने बैंटिन का सोधा अनवाद इटैलियन में किया। यह दो भागों में सन् १५५२ ई. में वीनिस में प्रकाशित हुआ। इसके प्रथम भाग को ११७० ई० में सर टामस नॉर्थ ने इग्लिश में धनूदित किया। अरबी संस्करण का फारसी अनुवाद ईसा की बारहवीं शताब्दी के प्रथमाद्ध में अबुल-मनाली नबल्ला ने किया । यह अनुवाद मूल बना अन्यारे सुहेली का, जो १४६४ ई. के इधर उधर हुसैन ने तैयार की। श्रागे चलकर इसका अनुवाद ईसा की सोलहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में अली ने तुर्की भाषा में किया। फिर इस तुर्की का अनुवाद च में हुआ और उसका अनुवाद डच, हंगारियन, जर्मन और मलए तक में हुआ । इन औपदेशिक जन्तु-ऋथाओं का सबारे अधिक महत्वपूर्ण उपयोग करने वाला ला फ्रॉनटेन ( La Fontaine) हुश्रा । श्रीपदेशिक जन्तु कथाश्रा की पुस्तक के अपने दूसरे संस्करण में (१६७८ ई.) वह साफ तौर पर मानवा है कि अपनी नई सामग्री के लिए (७-४) मैं भारतीय विद्वान् पिल्प का ' ( Pilpay ) ऋणी हूँ। नीचे दी हुई सारणी से यह बात श्रासानी से समझ में आ जाएगी कि भारतीय ओपदेशिक जन्तुकथा ने पाश्चात्य देशों में किस किस द्वार से प्रवेश किया । १ विद्यापति का अपभ्रंश । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १५ रूपक (१०४) रूपक का उद्भव । रूपक का उद्भव अंधेरी गुहा में निहित है । साहित्य-क्षेत्र में बच निकले हुए रूपक के प्राचीनतम नमूने कालिदास के या उसके पूर्वसामियों के प्रौढ़ रूपक हैं, जो हमारी आँखों के सामने बिजली की तरह चमकते हुए पाते हैं। संस्कृत रूप के अप्रवयं उभव को समझाने के लिए भिन्न-भिन्न वाद धड़े गए हैं। उनमें से कुछ का सम्बन्ध धर्म की धारणा से और कुछ का लौकिक लीलाओं से है। (क) परंपरागत वाद । साम्प्रदायिक बाद के अनुसार नाट्य-विज्ञान के प्राविर्भाव का स्थान द्य तोक है। रजत-काल के प्रारम्भ में देव और मयं मिल कर ब्रह्मा के पास गए, और उन्होंने उससे प्रार्थना की कि हमें मनोविनोद की कोई वस्तु प्रदान की जाए । ब्रह्मा ने ध्यानावस्थित होकर नाट्य-वेद प्रकट किया। इसके लिए उले चारों वेदों का सार निकालना पड़ा--ग्वेद से नस्य, सामवेद से सङ्गीत, यजुर्वेद से अमिनय और अथर्ववेद से रस । शिव ने इसमें ताण्डवनृत्य का, पावती ने नास्यनत्य का, और विष्णु मे नाटक की चार वृत्तियों का सामवेश किया। स्वर्गलोक के चीफ इंजिनियर विश्वकर्मा ने रंगशाला का निर्माण किया। सबसे प्राचीन रूपक,जो Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपक का धर्मसापेक्ष उद्भव २६५ इन्द्रध्वज पर्व पर खेले गए त्रिपुर- दाह और समुद्र मन्थन थे । इस बला को मत्यलोक में पहुंचाने का काम भरत के सुपुर्द किया गया । यह सारे का सारा उपाख्यान महत्त्व से शून्य नही है; क्योंकि इससे इन arat पर प्रकाश पड़ता है | (१) नाव्य वेद की रचना में चारों वेदों का सहयोग है । (२) प्राचीनतम रूपक धार्मिक थे और वे धार्मिक पर्वो पर खेले गए थे। (३) इनमें नर और नारी दोनों ने ही भाग लिया । (४) वैदिक काल में वास्तविक रूपक विद्यमान नहीं था । यही कारण था कि देवताओं को ब्रह्मा से उनके लिए एक नये प्रकार के साहित्य को (अर्थात् रूपक को ) पैदा करने की प्रार्थना करनी पड़ी। (ख) रूपक का धर्मसापेक्ष उद्भव | (१) प्रो० रिजवे का विचार है कि भारत में वस्तुतः सारे जगत् में ही रूपक का जन्म मृतात्माओं के प्रति प्रकट की हुई लोगों की श्रद्धा से हुआ है; यही श्रद्धा, फिर सारे धर्म का श्रादि-मूल है- इस श्रद्धा की अर्थापन चीजों में से जीव बलि के सिद्धान्त का एक पुनरुच्छु वसन भी है । इस विश्वार के अनुसार नाटकों का अभिनय मृतात्मा की प्रीति के लिए होता था । परन्तु इसका साधक प्रमाण नहीं rिaat | पृथिवी की अन्य जातियों के बारे में यह विचार साधारणतया कुछ मूल्य रेल सकता हो, परन्त भारतीयों के बारे में यह ठीक नहीं माना जा सकता | (२) पर्व बाद इस वाद का बीज इन्द्र पत्र पर नाटकों के खेले जाने के उल्लेख में सन्निहित है। इस बाद में माना जाता है कि एक तो इन्द्रध्वज पर्व यूरोप के मे - पोल (May- Pole) स्वौद्दार के सा है। दूसरे, रूपक का उद्भव कदाचित् वसन्त में आने वाले स्योहारों से हुआ होगा; क्योंकि भीषण शरद के बाद वसन्त में जगत् की सभी सभ्य जातियाँ कोई न कोई त्यौहार मनाती हैं। यह बाद वस्तुतः बुद्धि C Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ संस्कृत साहित्य का इतिहास मत्ता पूर्ण है। परन्तु इस वाद का दुर्भाग्य कि इन्द्रध्वज का त्यौहार, जो इन्द्र की वृन्न (मेघ-) विजय का सूचक है, वर्षा के अन्त में पड़ता है। (३) कृष्णोपासना वाद-इस वाद मे भारतीय रूपक के उद्भव और उपचय का सम्बन्ध कष्ण की उपासना के अदर और प्रसार से जोड़ा जाता है। निस्सन्देह कष्णोपासना के कई अङ्ग इस प्रसङ्ग में बड़े महत्त्व के कहे जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, स्थि-यात्राएँ, नृत्य, वाद्य और गीत,तथा लीलाए ऐसी वस्तु है, जिन्होंने संस्कृत्त-नाटक के निर्माण में बड़ा योग दिया है । संस्कृत नाटक का विकास कृष्णोपासना के घर शूरसेन देश में हुआ। नाटकों में शौरसेनी प्राकत का प्राबल्य इस बात का घोतक है कि नाटक का प्रादुर्भाव ही वहाँ हुना। कृष्णोपासना के कारण ब्रजभाषा का हाल ही में जो पुनःप्रचार हुआ है, वह भी यही सूचित करता है कि ब्रजभाषा ने भारतीय नाटक के विकास पर कमी बड़ा प्रभाव डाला होगा। परन्तु इस बाद में कुछ त्रुटियाँ भी हैं। पहली तो यह कि कृष्ण सम्बंधी नाटक ही सबसे प्राचीन हैं, इसका पोषक प्रमाण अप्राप्य है। दूसरी यह कि राम-शिव प्रभृति अन्य देवताओं की प्रसिद्ध उपासनाओं ने भारतीय नाटक के विकास में जो बड़ा भाग लिया, उसकी उपेक्षा की गई है। (ग) रूपक का धर्मनिरपेक्ष उद्भव । (१) लोकप्रिय-स्वाँग-वाद-प्रो० हिल (Hiliebrandt) और स्टेन कोनो (Sten Konow) का विचार है कि भारतीय रूपक के प्रादुर्भाव से भी पहले भारत में नोक-प्रिय स्वाँगों का प्रचार था । बाद में रामायण और महाभारत को कथानों ने स्वागों के साथ मिलकर रूपक को जन्म दे दिया। डा. कीथ ने इस वाद का विरोध किया है। रूपक के प्रचार से पूर्व स्वाँगों के प्रचलित होने का साधक कोई समुचित साचा मुलम Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करूपक का धर्मनिरपेक्ष उद्भव नहीं है। कोनों ने स्वागों का परामर्श करने वाले जितने उल्लेख उपस्थित किए हैं वे लब के-सब महाभाष्य के अथवा उसके भी बाद काल के हैं। अतः उनसे कोनो का मत पुष्ट नहीं होता है 1 सच तो यह है कि पा. कीथ के मतानुसार प्रारम्भिक स्वाँग-कान के विषय में हमारा सारा ज्ञान अल्पनाश्रित है। प्रो० हिलनड (Hillebrandt) की युक्तियों में कुछ अधिक बल है। उसने उदृङ्कित किया है:--(१) नाटकों में संस्कृत के साथ साथ प्राकृत का प्रयोग है । (२) गद्य-पद्य का मिश्रण है। (३) रंगशालाओं में सादगी हैं। (४) विदूषक जेमा सर्वसाधारण का प्रीतिपास पात्र है। इन सब बातो से ज्ञात होता है कि भारतीय रूपक सर्वसाधारण के मनोविनोद की बस्तु थी। परन्तु इन बातों का इससे भी अच्छा समाधान हो सकता है। कृष्णोपासना बाद के अनुसार उक्त चारों बातों में से पहली तीन का समाधान बहुत अच्छी तरह से हो जाता है और रूपक के उद्भव का सम्बन्ध धर्म की धारणा से जुड़ जाता है। रूपकों मे विदूषक पात्र की सत्ता का प्रादुर्भाव महाबत सरकार में शुद्ध पात्र की श्रावश्यकता से हुआ माना जा सकता है, और महालत धार्मिक संस्कार है। दूसरे पक्ष में तो ऐमा कोई प्रमाण ही नहीं मिलता जो माटकों में विदधक रखने की प्रथा का सम्बन्ध किसी जौकिक लीला से जोड़ सके। (२) कठपुतलियों के नाच का वादार पिशल का विचार है कि रूपक की उत्पत्ति कटपुतलियों के नाच से हुई। इनका वल्लेख पुत्तलिका, पुत्रिका, दारूमयी इत्यादि के नाम से महाभारत, कथासरि-- रसागर और राजशेखर की बालरामायण में बहुश: पाया जाता है। और वादों की अपेक्षा इस बाद में 'स्थापक संज्ञा भी अधिक अन्वर्थ सिद्ध होती है। परन्त, जैसा कि प्रो. हिलबैड ने निर्देश किया है, इस बाद में बड़ी त्रुटि यह है कि कठपुतलियों के नाच का इतिहास दृष्टि में रख +- - - - १ वह पुरुष, जो किसी वस्तु को ठीक स्थान पर रक्खे । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास कर यह मानना पड़ता है कि सरक इससे पहले हो विद्यमान था, जो इस माचका अाधार था। (३) छायानाटक वाद-प्रो० लूडर्स (Ludels) कहते हैं कि संस्कृत-रूपक के विकास में मुख्य भाग - छाया द्वारा खेल दिखाने की प्रथा का है। यह बात स्मरणीय है कि 'रूपक' शब्द जितना अन्वर्थ इस सिद्धान्त के अनुसार सिद्ध होता है उतना किसी और के नहीं। परन्तु जैसा कि डा. कीथ ने बताया है, यह बाद महामाष्य के एक स्थल के अयथार्थ प्रावधारण पर अवलम्बित है। अनन्तरोक्त सिद्धान्त के पक्षपाती के समान इस सिद्धान्त के अनुयायी को भी रूपक की सत्ता छाया-नाटक के जन्म से पहले स्वीकार करनी पड़ती है । इसके अतिरिक्त इस मत से गद्य-पद्य के मिश्रण का तथा संस्कृत-प्राकृत के प्रयोग का कोई कारण नहीं बताया जा सकता। (४) संवादसूक्त बाद ... ऋग्वेद में पन्द्रह से अधिक संवादयुक मुक्त हैं । ये सूक्त निश्चय ही धर्मनिरक्षेप-- लोकव्यवहार-परक (Secular) हैं । १८६६ ई. में प्रो० मैक्समूलर ने प्रस्ताव रखते हुए और कुछ काल पश्चात् प्रो. लैवि ने (Levi) उसका अनुमोदन करते हुए कहा कि इन सूलों में धर्म की भावना से भरे हुए नाटकों के दृश्यों के दर्शन होते हैं। वॉन ऑडर (Von Schroeder) ने इस प्रस्ताव पर सपरिश्रम विचार करके यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया कि इन सूक्तों से रहस्यपूर्ण नाटकों (Mystery.Plays) की सूचना मिलती है। गर्भरूप में ये नाटक भारत को भारोपोय (Indo European) काल से प्राप्त हुए थे । डा0 हर्टन ने एक कदम और आगे बढ़कर घोषणा की कि वैदिक नाटक के विकास काण्ड का मूल सुपर्णाध्याय के अन्दर देखने को मिल सकता है । परन्तु इस घोषणा को गोड़ हरी नहीं हुई । दूसरे अध्येताओं ने भी अपने २ राग अलापे हैं। अर्थ 'चाहे कुछ भी लिया जाए, हतना तो निश्चित ही है कि ऋग्वेद में कतिपय सूक्त चार्वाखापयुक्त मी हैं और उनमें से थोड़े की (यथा, 'सरमा और पणिलोग' की) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपक का धर्मनिरपेक्ष उद्भव डयाख्या नाटकीय दृश्य बाद के सहारे बहुत अच्छी तरह की जा सकती है। तज अप का उद्भव कैसे हुआ? इस के प्राचीनतम चिह हमें कहाँ प्र हो सकते हैं? (क) वैदिकानुष्ठानों का साक्ष्य---उपत्भ्यमान पर्याप्त प्रमाणों से यह प्रदर्शित किया जा सकता है कि रूपक के प्रायः सारे उपादानतस्व वैदिक अनुष्ठानों में विद्यमान हैं। (अ) रूपक के आवश्यक घटक हैं-नृत्य, गीत और संवाद । नृत्य का उल्लेख ऋग्वेद में मौजूद है। उदाहरणार्थ, विवाह-सूक्त में पुरनिधयाँ नव-दम्पती के आयुष्यार्थ नृत्य करती है। गीत को तो शामवेद में सभी मानते हैं। ऋग्वेद के संवाद-सूक्तों का उल्लेख ऊपर हो ही चुका है। (श्रा) वैदिक अनुष्ठान छोटी-छोटी अनेक किया त्रों के सूत्रों से प्रगुम्फित जाल थे। उसमें से कुछ में नाटकीय सत्त्व भी विद्यमान थे। यह ठोक है कि यह कोई वास्तविक नाटक नहीं था, क्योंकि नाटक का अभिनय करना ही मुख्य उद्दश्य नहीं था। अभिनेता लोग उसके द्वारा सीधा धार्मिक फल चाहते थे। (इ) महाव्रत-अनुष्ठान वस्तुतः एक प्रकार से नाटक था। इस अनुष्ठान में कुमारियाँ अग्नि के चारों ओर नाचती थीं । शूद और वैश्य का प्रकाशार्थ कलह करना वस्तुतः नाटकीय अभिनय है। (ई) यज्ञ-प्सत्रों (Sacrificial sessions) के अन्तरादों यज्ञमण्डप में बैठे हुए यजमानों और याजकों के मनोविनोदार्थ वार्तालापमय सूरू पढ़े जाते थे। इस धारणा की पुष्टि हरिवंश पुराण से होती है। (3) कई विद्वान् कहते हैं कि----नाटकों में मधमय संवाद महानत अनुष्ठान में प्रयुक्त संवाद को देखकर बढ़ाया गया है। यदि इस विचार को ठीक मान लें, तो रूपक के सब उपादान तत्व हमें वैदिक अनुष्ठान में मिल जाते हैं। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य का इतिहास पहले ये सब उपाहान-तत्व पृथक् पृथक पडू कर ही अपना काम करते रहे। इनका सांयोगिक व्यापार तथा रूपक को भारमाभूत कथा-वस्तु का विकास बाद में बल का हुधा । पढ़कर सुनाने की प्रथा (जो संस्कृत नाटकों में संगोत से भी अधिक महत्व रखती है) और भी आगे चलकर रामायण और महाभारत की कथानों से की गई। (ख) रामायण-महाभारत का प्रभाव ! नट' और नर्तक दोनों शब्द रामयण एवं महाभारत में पाये जाते हैं। रामायण के सूक्ष्म अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि १ (ई० पू० की चौथी श० से भी पूर्व होने वाले ) पाणिनि ने भी नट शब्द का प्रयोग किया है; परन्तु आजकल उस नट शब्द का पाणिनि विवक्षित अर्थ बतलाना कठिन है । (ई० पू० दूसरी श० में होने वाले ) पतञ्जलि का साक्ष्य अधिक निश्चित है। यदि कोई बात भूतकाल में हुई हो और उसे वक्ता ने न देखा हो, तब उसे अपूर्ण भूतकाल से प्रकट करने के लिए कौनसे लकारादि का प्रयोग करना चाहिए ? इसको समझाते हुए पतञ्जलि ने 'कंसवध' और 'बलिबंध' का उल्लेख किया है। अधिक सम्भावना यही है कि ये नाटक हैं, जो पतञ्जलि के देखे हुए या पढ़े हुए थे। उसने नाटकोपयोगी कम से कम तीन साधनों का उल्लेख भो किया है:--(१) शाभिक लोग, जो दर्शकगह के सम्मुख दृश्य का अभिनय करते थे; (२) रजक लोग, जो करड़े पर चित्रित करके दृश्यों को विवृत करते थे; और (३) ग्रन्थिक लोग, जो अपने भाषणों द्वारा दर्शनवृन्द के सामने उक्त दृश्यों को यथार्थ करके दिखलाते थे। उसने एक 'भ्र कुस' शब्द भी दिया है, जो ठीक तरह स्त्रीरूपधारी पुरुष के लिये प्रयुक्त होता था। इस प्रकार अकेले पतञ्जलि के लाक्ष्य अाधार पर ही कहा जा सकता है कि-ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी से पहले ही भारत में रूपक का पर्याप्त विकास हो चुका था। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण-महाभारत का प्रभाव २७१ सके उस भाग में, जो असली समा जाता है, नाटक शब्द सो वादयन्ति तथा शान्ति लास्यन्त्यपि चापरे । नाटकान्यपरे प्राहुहास्यानि विविधानि च ॥ (३, ६६, ४) रामायण के बाज-काण्ड में भिन्न-भिन्न रसों का उल्लेख पाय। जाता है। यथा-- रसैश्शृङ्गारकरुणहास्य भयानकैः। वीरादिभी रसैयु के काव्यमेतद्गायताम् ॥ (१, ४, ६) अधोऽबतायमाण पंक्ति में शैलूष शब्द पाया है-- शैलूषाश्च तथा स्त्रीमिर्यान्ति ॥ (२, ८३, १५) इसी प्रकार सधरा, नाटक तथा इसी वर्ग के अन्य शब्द महाभारत में भी पाने हैं। उदाहरणार्थ देखिये--- इत्यववीत् सूत्रधारस्सूतः पौराणिकस्तथा । नाटका विविधाः काव्याः कथाख्यायिककारकाः ।। (२, १२, ३६) पानश्च तथा सर्वे नटनतंकगायका. ।। (३, १५, १३) नाटक का पता हरिवंश से भी जगवा है। इसके अतिरिक्त, रामायण महाभारत की कथाओं का, नाटकान्तर्गत कार्तालाप को उच्चस्वा से पढ़कर सुनाने की प्रथा पर जो प्रभाव पड़ा, हम उससे भी इनकारी नहीं हो सकते हैं। सामाजिक और धार्मिक सभा-सम्मेलनों में जातीय कविता को अक्ष स्वर से पढकर सुनाने का काम मन्दिरो और सैद्वानो में महीनों अलवा था। धीरे-धीरे सर्वसाधारण को संस्कृत का समझना कठिन होता चला गया। इस लिए भारतों और मागधों ने बोल-चाल की भाषा के बालय सम्मिलित करने प्रारम्भ कर दिए, और शायद Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास किताबी संस्कृत की सर्वथा अवहेलना कर दी ! बार में जा बोलचाल की भाषा में ही कथा करने की परिपाटी प्रचलित हो चली और अर्थ करने वाले की आवश्यकता न रही, तब सङ्गीत और नाटकोपयुक्त श्रङ्ग भङ्गि को भी सम्मिलित कर लिया गया। इससे सारी वस्तु अत्यन्त रोचक और नाटकीय हो गई । इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रमाण मूल्यवान्द है। (१) साँची से प्रास होने वाले उत्कीर्ण लेख से ( जो निःसन्देह ईसवी सन् से पूर्व का है, अनेक कथकों (कथा कहने वालों) का पता चलता है, जो अङ्ग-मङ्गि के साथ नाच रहे हैं, कथा कह रहे हैं और गा रहे हैं। ये सब बाते वस्तुतःनाटकीय है। (२) रामायण के अत्तरकाण्ड में कुश और बध दो गायकों का वर्णन श्राता है। वे जिस राम के अनभिज्ञात पुत्र हैं, उसी के चरित की कथा कर रहे हैं! (३) भरत (वर्तमान भाटकथा कारक) शब्द बतलाता है कि उच्च स्वर ले बोल-सुनाने का नाटक के साथ कितना गहरा सम्बन्ध है। (४) उस तीसरे प्रमाण का समर्थन कुशलव शब्द से भी होता है। (११) उत्तर रामचरित में भवभूति कहता है, नाटकों पर रामायणमहाभारत का महान् ऋण है। (६) भास के नाटक भी अपने आपको रामायण-महाभारत का ऋणी सूचित करते हैं। (ग) धर्म का प्रभाव-रूपों की उत्पत्ति को सञ्ची प्रेरणा धर्म से ही प्रास हुई है। स्वर्ग में पहला रूपक एक धार्मिक उत्सव पर ही खेला गया था। ताण्डव और लास्य ये दोनों महादेव और पार्ववती ने दिए थे । कृष्ण, राम, शिव एवं अन्य देवताओं की भक्ति ने रूपक के विकास में बड़ी सहायता की है। यह बात ध्यान देने योग्य है किजैन और बौद्धधर्म नाटकों के विरुद्ध हैं, परन्तु इन धर्मों के अनुयायियों Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण-महाभारत का प्रभाव २७३ को भी अपने धर्म का प्रचार करने के लिए नाटकों का प्राश्रय लेना पड़ा । (घ) लौकिक वस्तुओं का प्रभाव-साथ ही साथ भारत में अभी ग्रामोत्सव और छाया नाटकों का तथा कठपुतलियों के नाच का प्रचार भी अवश्य रहा होगा। बढ़ती हुई अभिरुचि के कारण केवल इसी काम को करने वाले लोगों की श्रेणो भी उत्पन्न हो गई होगी । ऐसे लोग सामाजिक और नैतिक दृष्टि से भिन्नस्थानीय समझे जाते थे । हमारे इस विचार का समर्थन पतञ्जलि करता है। गाँवों के अकृत्रिम वातावरण में हुए रूपकों के इस विकास को देख लेने के बाद हम उनमें प्राकृत भाषाओं के प्रयोग के, गद्य-पद्य के मिश्रण के, नाच-गान की प्रधानता के और रंगशाला की सादगी के कारण को भी भक्षी मॉति समझ सकते हैं। अब प्रश्न रहा रूपकाविशयोकि अलवार की जाति के (Allegorical) रूपकों का 1 कदाचिन् ऐसे रूपकों का जन्म जैन और बौद्धधर्म की आचारविषयक और साधारण उपदेश सम्बन्धी शिक्षाओं से हुआ है। राजा लोग रूपक-कला के निरन्तर संरक्षक रहे; बहुत सम्भावमा यही है कि इसीलिए लोगों को राजाओं के या रनिवास की प्रणयनीलाओं के रूपक लिखने का ख्याज पैदा हो गया। यही रूपक आगे चलकर सब रूपकों के लिए मानदण्ड बन गये। भारतीय और यूनानी रूपक साहित्य के इतिहास के पारस्परिक सम्बन्ध का विचार उपस्थित होने पर हम कहेंगे कि यूनानी रूपक ने संस्कृत रूपक की उत्पत्ति में कुछ योग दिया हो, इस बात की बहुत ही कम सम्भावना है। इस प्रकरण को समाल करते हुए हम कह सकते हैं कि भारतीय रूपक का विकार एक दो नहीं, अनेक शताब्दियों में हो पाया होगा। यह १ विस्तृत विवरण के लिए प्रवटक १०५ देखिए । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास रूपक का विकास-मानो एक सजीव शरीर था, जिसके रूप में बारबार परिवर्तन हुए, जिसने जो मिला उसी को हड़प कर लिया और फिर भी अपना स्वरूप प्रक्ष एण रक्खा । डा० बेलवलकर का कथन है:"इसके सर के सब जटिल उपादानों को ज्याद्या करने के लिए किसी एक सिद्धान्त से काम नहीं चल सकत।। रूपक के विविध-विध रूप और रंग हैं। उनमें से कभी एक को और कभी दूसरे को लेकर प्रति. भात्रों का जो संग्राम हुआ है, उसने हमारे प्रश्न को और भी कठिन बना दिया है। हमें श्राशा भी यही थी, क्योंकि, रूपक का तात्पर्य कोकानुकृति से है; और, जीवन के समान ही, यदि यह दुर्विश्लेषणीय रहे, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। (१०५) रूपक का यनानी उद्भव । कुछ विद्वान् समझते हैं कि शायद संस्कृत रूपक का जन्म यूनानी रूपक से हुआ होगा। उनकी धारणा है कि यूनानी रूपक का इतिहास भारतीय रूपक के इतिहास से बहुत अधिक पुराना है; और महान् सिकन्दर के अाक्रमण के पश्चात् भारतीय समुद्रतट पर कुछ यूनानी सोग बस गये थे. जो फुर्सत के वक्त जी बहलाने के लिए अपने देश के नाटक खेला करते होंगे। उनके इन नाटकों से भारतीय नाटकों की उत्पत्ति और बुद्धि पर उसी प्रकार बड़ा प्रभाव पड़ा होगा, जिस प्रकार उनकी ज्योतिष और गणित विद्या का बड़ा प्रभाव भारतीय ज्योतिष और गणित विद्या पर पड़ा है। वैचर ( Weber ) और विडिश (Windisch) ने दोनों देशों के रूपकों में सादृश्य दिखाते हुए इस सिद्धान्त की बेल को मद चढ़ाने का पुष्कल प्रयास किया है। उन्हों ने यवन और यवनिका शब्दों पर बड़ा जोर दिया है । संस्कृत रूपकों में यवनियों को राजाओं की अङ्गरविकाओं के रूप में पेश किया गया है। परन्तु यूनानी रूपकों में यह बात नहीं पाई जाती है। यवनिका शब्द सूचित करता है कि भारतीय रंगशालाओं के पर्ने विदेशी वस्त्र या रंग Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपक का यूनानी उद्भव। २७५ इत्यादि से कदाचित् ईरानी बेल-बूटेदार कालीन की जाति के किसी वस्त्र से तैयार किए जाते थे। यही बात लैंवि ने कही भी है। यूनानी रूपकों में पढ़े का प्रयोग नहीं है। इससे उक्त सिद्धान्त की स्वयं हस्या हो जाती है। दूसरी ओर ऐसे प्रबल प्रमाण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि संस्कृत रूपक यूनानी रूपक का ऋणी नहीं रहा होगा। अन्तरात्मा, कथावस्तु क्रम तया निर्माण सिद्धान्त की दृष्टि से यूनानी और संस्कृत नाटक एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत दिशा में चलते हैं। (२) यूनानी नाटक मे देश और काल की एकता का नियम है, संस्कृत नाटक में नहीं । कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल तक में हम देखते हैं कि एक अङ्ग का स्थान वन है, तो दूसरे का राजप्रासाद या इससे भी बढ़कर; एक अङ्ग का स्थान भूबोक है, तो दूसरे का स्वर्गलोक । इतना ही नहीं, श्य ही अङ्ग तक में स्थान-भेद हो सकता है। अमिज्ञान शाकुन्तल के अन्तिम अङ्ग में हम यही बात पाते हैं। काल को देख, तो अभिज्ञानशाकुन्तल के अन्तिम दो और उत्तररामचरित के आदिम दो प्रकों की कथाओं के कारों में कई वर्षों का अन्तर पाते हैं । (२) संस्कृत रूप में सुख-दुःख की घटनाओं का सुन्दर सम्मिश्रण रहता है। यह बात यूनानी रूपकों के नियमों के सर्वथा विरुद्ध है। इस दृष्टि से संस्कृत रूपकों की तुलना स्पैनिश और इङ्गलिश' रूपकों के १ शेक्सपियर के रूपकों के साथ सादृश्य की कुछ और बातें ये हैं(क) विदूषक जो शेक्सपियर के मूर्ख से बिल्कुल मिलता है। (ख) गद्य-पद्य का सम्मिश्रिण ।। (ग) पात्रो के नाना नमूनो की निस्बत एक एक व्यक्ति का ही चरित्र-चित्रण अधिक करना । (घ) काल्पनिक और भयंकर अशो का समावेश । (ङ) श्लेषालङ्कार का प्रयोग तथा शब्दों का हास्योत्पादक तोड़मरोड़। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ संस्कृत साहित्य का इतिहास साथ अधिक अच्छी तरह की जा सकती है कारण, इनके लिए, जैसा कि श्लैजल (Schlegel) कहता है, “दु:खमय (Tragedy ) तथा सुखमय (Comedy ) शब्दों का प्रयोग उस अभिप्राय के साथ हो ही नहीं सकता, जिसके साथ प्राचीन विद्वान् इनका प्रयोग किया करते थे" संस्कृत रूपकों की रचना सदा मकड़ी के जाल के सहश होती है और उनमें " गम्भीरता के साथ छछोरापन एवं शोक के साथ दास्य" मिला रहता है। उनमें भय, शोक, करुणा इत्यादि मानवीय सभी हार्दिक भावों को जागरित करने का प्रयत्न किया जाता है सही, परन्तु उनमें कथा का श्रन्त दुःख में नहीं दिखाया जाता। यह दुःखपूर्ण अन्त, जैसा कि जोनसन (Johnson) कहता है, शेक्सपियर के दिनों में दुःखमय (Tragedy) रूपक का पर्याप्त लक्षण समझा जाता था । (३) यूनानी काव्य का प्रधान सिद्धान्त जीवन को वर्षरूप और गर्वरूप देखना था; परन्तु संस्कृत के रूपक-लेखक जीवन में शान्ति और अनुद्धतता देखते थे । यही कारण है कि भारतीय दुःखमय रूपकों में अत्यधिक विपत्ति का चित्र नहीं और सुखमय रूपकों में अतिसीम हर्ष का उद्रेक नहीं । ( ४ ) संस्कृत रूपकों में यूनानी रूपकों की भान्ति मिलकर गाया जाने वाला गीत (Chorus) नहीं होता है । (च) रूपक की क्रिया को बढ़ाने के लिए एक जैसे उपाय, यथा--- पत्रों का लिखना, मृतकों को जीवित करना और कहानी में कहानी भरना । मैकडानल ने कहा है: --" उस अवस्था में, जिसमें प्रभाव डालने या उधार लेने का बिल्कुल प्रश्न ही नहीं उठता है, समान घटनाओ की इतनी परम्परा का होना शिक्षा देता है कि दो वस्तुओं का एक जैसा विकास परस्पर निरपेक्ष रूप से भी हो सकता है " । १ जैसे - जिस समय नायक-नायिका शोक में मग्न हैं उस समय भी विदूषक अपना काम खूब करके दिखलाता है । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत रूपक की विशेषताए (२) संस्कृत रूपक आकार की दृष्टि से भी यूनानी रूपकों से मेल नहीं खाते हैं। मृच्छकटिक का आकार ऐस्काईलस (Aeschy lus ) के प्रत्येक रूपक के आकार से तिगुना है। दूसरी ओर, जितने समय में यूनामी लोग एक ही बैठक में तीन दुःखमय (Tragedies ) और एक प्रहसन (Farce) का खेल कर लेते थे, भारतीय यदि रूपक बम्बा हुआ तो केवल एक ही रूपक का अभिनय करते थे । 1 (६) यूनानी के मुकाबिले पर संस्कृत रूपक स्वरूप में वस्तुत' रमणीय- कल्पना- बहुल होता है । संस्कृत रूपक अत्यन्त जटिल जाब है । साहित्य दर्पण ने रूपक के मुख्य दो भेद किए हैं-रूपक और उपरूपक | प्रथम के पुनः दस और चरम के अठारह उपभेद किए गए हैं। संस्कृत रूपक का अपना विशिष्ट रूप है' । इन नाना श्राधारों पर हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि संस्कृत रूपक अवश्य प्रकृष्ट प्रतिभा की एक भारतीय प्रसूति है, यह किसी विदेशी साहित्य-तरु की शाखा नहीं है। हॉरविट्ज़ (Horrwitz) कहता है :--"क्या हम कभी यह कहते है कि चूँकि पीकिंग में लीपज़िग और धीमर से भी बहुत पहले से प्रक्षा भवन विद्यमान थे, अतः जर्मन-माटक चीनी से किया हुआ ऋण है ? तब फिर भारत के प्रसङ्ग में क्यों ! यदि नाटक-कला का उद्भव चीन में और यूनान में परस्पर निरक्षेप हुआ था, तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता" । (१०६ ) संस्कृतरूपक की विशेषताएँ । संस्कृत रूपक की कुछ विशेषताएँ-- देश और काल की एकता का न मानना, सुख तथा दुःख की घटनाओं का सुन्दर मिश्रण, दुःखांतता का पूर्ण अभाव े, दूसरे देशों के नाटकों की अपेक्षा अधिक प्राकार های १ विस्तृत विवरण के लिए प्रघट्टक १०६ देखिए । २ नियम यह है कि संस्कृत रूपकों में मृत्यु का दृश्य नहीं दिखाया जाता है और अन्त सुखमय रक्खा जाता है । इस नियम का कठोरता Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭; संस्कृत साहित्य का इतिहास और रमणीय कल्पना की बहुलता ऊपर वर्णित हो चुकी हैं। कुछ अन्य नीचे दी जाती हैं। (१) वर्णन पूर्ण गद्य का और मुक्तक ( Lyrical ) पथ का संयोग । साधारणतया रूपक की गति में वर्णन पूर्ण गद्य से वृद्धि हो जाती है, और ऐसा गद्य प्रायः देखने में आता भी है; परन्तु प्रभाव का अवश्य वर्धक अवसरानुसारी मुक्तक पथों का समावेश ही है। सच तो यह है कि रूपक को वास्तविक हृछता और सुन्दरता के प्रदाता ये पथ ही हैं। इनके बिना रूपक वार्तालाप का एक शुष्क प्रकरण रह जाता है । अकेले अभिज्ञानशाकुन्तल में ऐसे कोई दो सौ पद्य हैं। साधारणतथा रूपक का लगभग आधा शरीर तो इन पद्यों से ही निष्पन्न हो जाता है । ये पद्य विभिन्न छन्दों में होते हैं और कवि की काव्य-कुशयता का परिचय देते हैं । (२) संस्कृत कौर नाना प्राकृतों का मिश्रण-अपने-अपने सामा जिक पद के अनुसार भिन्न-भिन्न पात्र भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते हैं । साधारण नियम यह है कि -- नामक राजा, उच्च णी के पुरुष और तपस्विनी ये सब संस्कृत बोलते हैं। विदूषक ब्राह्मण होने पर भी प्राकृत खोलता है । कुलीन स्त्रियाँ, बालक और उत्तम वर्ग के सेवक सामान्यतः गद्य में शौरसेनी का और पद्य में महाराष्ट्री का प्रयोग करते हैं। राजHar के अन्य परिजन मागधी बोल सकते हैं। गोपाल, लुण्टक, से पालन होता है। इसी नियम के उल्लङ्घन से बचने के लिए भवभूति को अन्त में सीता और राम का पुनर्मिलन करना पड़ा है । अन्य कवियो की भी ऐसी ही दशा है । यद्यपि अन्त में दुःखमय घटना नहीं होती, तथापि करुण रस के और विप्रयुक्त प्रोमिन्युगलों के चित्र खींच खींच कर बड़े २ कवियों तक को रूपक के प्रारम्भ और मध्य में पर्याप्त दुःख का वर्णन करना पड़ता है । मृच्छकटिक और अभिज्ञानशकुन्तल में यह मध्य में है, और उत्तर - रामचरित में यह यूं तो सारे में है, किन्तु प्रारम्भ में विशेष है । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत रूपक की विशेषताएं २४६ अवचक, य खव्यसनी हत्यादि दूसरे लोग प्राकृत के अन्यभेद-श्रामारी, पैशाची, अवन्ती प्रति बोलते हैं। अपनश का प्रयोग अत्यन्त पणित और असभ्यों के द्वारा होता है। (३) संस्कृत रूपककर्ता का मुख्य उद्देश्य दर्शकसमूह के हृदय में किसी एक विशिष्ट रस का उद्रेक उत्पन्न करना है । वह रस शृङ्गार, वीर, करुण या कोई और भी हो सकता है। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण तथा अन्य सब वस्तुएँ इसी लक्ष्य के प्राधीन होती हैं । ज्योकि संस्कृत रूपकों में गति या क्रिया-वेग ( Action ) के ऊपर बल नहीं दिया गया है, अतः आधुनिक तुला पर रखने के बाद उनमें से अधिक संख्य क यथार्थ रूपक की अपेक्षा रूपकीय काव्य ही अधिक माने गए है। (8) रूपकों की कथावस्तु कोई सुन्दर प्रसिद्ध कहानी रक्खी जाती है, ताकि सामाजिक इससे पूर्णतया आनन्दित हो सकें। यह कहानी प्रायः इतिहास या रामायणादि में से ली जाती है। कुछ अपवादों को छोड़ यही देखा जाता है कि रूपक की कथावस्तु कोई प्रेम कहानी होती है, और शृङ्गार रस ही मुख्य रस होता है। प्रथम-दर्शन होते ही नायकनायिका का परस्पर प्रेम होता है; परन्तु जीवन भर के लिए संयुक्त होने से पहले उन्हें वियोग-सुर की दुरत्यय-निशित धार पर चलना पड़ता है। इस काल में उन्हें कमी अभिलाष, कभी नैराश्य, कमी सन्देह, कभी निश्चय इत्यादि अनेक मनोवेदनाओं की तीखी अनियों १ प्रायः रिवाज यह है कि शृङ्गार रस ही मुख्य रस माना जाता है। इसके बाद वीर का नम्बर है। अपने उत्तररामचरित में भवति ने करुण का परिपाक किया है । शेष रसों में से अवसरानुसार किसी को भी रूपक में मुख्य रस बनाने का विधान तो कर दिया गया है, परन्तु उनमे से किसी को मुख्य बहुत ही कम बनाया गया है । २ उल्लेखनीय अपवाद ये है-विशाखदत्त-रचित मुद्राराक्षस, भट्टनारायण-कृत वेणीसंहार और श्रीहर्ष-प्रणीत नागानन्द । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सस्कृत साहित्य का इतिहास की चोटें झेलनी पड़ती हैं। बीच-बीच में राजा के मनोविनोदकासी विद. षक द्वारा या नायिका की विश्वस्त सखी द्वारा छिड़काई हुई हास्यरस की यूँ दों से सामाजिकों का मन प्रफुल्ल रक्खा जाता है । (१) संस्कृत रूपक का उपक्रम भाशीर्वाद के श्लोक से, जिसे नान्दी कहते हैं, होता है । इसके बाद प्रस्तावना पाती है। इसमें पत्नी के साथ या किसी परिचारक के साथ आकर सूत्रधार अभिनेष्यमाण रूपक से दर्शकों को सूचित करता है, और किसी अभिनेता का प्रवेश कराकर रंगमञ्च से हट जाता है। उपभेद के अनुसार प्रत्येक रूपक में अंकों की संख्या भिन्न-भिन्न होती हैं। किसी में एक तो किसी में दस तक अङ्ग होते हैं (उदाहरणार्थ, नाटिका में चार और प्रहसन में एक अंक होता है)। किसी अङ्क के समाप्त होने के बाद अन्य अङ्क के प्रारम्भ में प्रवेशक या विष्कम्भक नाम से एक तरह की भूमिका होती है, जिसमें सामाजिकों के सामने उन घटनाओं का वर्णन किया जाता है, जो उनके सामने रंगमञ्च पर घटित न होकर नेपथ्य में घटित हुई है। यह इसलिए कि वे अगली घटनाओं को अच्छी तरह समझने के योग्य हो जाएँ । पात्रो की संख्या का कोई बन्धन नहीं है। साथ ही पात्र दिव्य, अदिव्य या दिव्यादिव्य तीनों प्रकार के हो सकते हैं । रूपक के अन्त में भरतोक्ति ( राष्ट्रीय प्रार्थना ) पाती है। इसका पाठ करने वाला कोई प्रधान पात्र होता है। प्रायः यह स्वयं नायक छारा ही पड़ी जाती है। . (६) अब रङ्गशाला के विषय में लोजिए । नाट्य-शास्त्र के विधान के अनुसार यह वर्गाकार, आयताकार या त्रिभुजाकार होनी चाहिए। नाट्य-शान में नाटक खेलने के समयों का भी विधान मौजूद है। वे समय हैं:-वान्द्रिक भनध्याय, राजतिलक, जनता के उत्सव, धार्मिक पर्व, विवाह, पुम्रजन्म, भिन्न मिजन, गह-प्रवेश या नगर-विजय । थे खेल प्रायशः सङ्गीत-शालाओं में होते थे। रंगमंच के पृष्ठ की ओर एक पर्दा टंगा रहता था। अभिनेत-वर्ग उसी पर्दे के पीछे वेष धारण करके Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतरूपक की विशेषताएं मजच पर श्राता और अपना अभिनय समाप्त करके फिर ससी के पीछे चला जाता था । इस पर्दे के पीछे के स्थान को 'नेपथ्य' कहते हैं। जब किलो पान को शीघ्रता से प्रवेश करना होता था, तब वह 'पदे को उठाकर' प्रदेश करता था। मञ्च के प्राकृतिक दृश्य तथा सजावट के समान बहुत साधारण होते थे। खेल में की अनेक बातें दर्शकों को बर्सन-पूर्ण पद्यों के अनुकरणात्मक क्रिया के या नाट्य ( सपरिश्रम सीखे हुए और दर्शकों के समझ लेने योग्य अङ्ग-सम्ब न)के द्वारा समझा दी जाती थी। (७) ऐसा प्रतीत होता है कि संस्कृत रूपककार रूपक का प्रधान प्रयोजन बोकरन्जन समझते थे, न कि एकमात्र अनुभूयमान जीवन का सजीव चित्र खोचना । वदि किसी रूपक का अवसान सावसाद हो, तो लामाजिक लोग दूयमान और शोकाकुल होकर रङ्गशाला से बाहर निकले । ऐसी अवस्था में खेल का यथार्थ अर्थ ही व्यर्थ हो जाए। इसके सिवा, मारतीय लोग पुनर्जन्म के पिछ।न्त को मानते है, अतः इनके लिए मत्यु इतनी दुखद घटना नहीं है, जितनी पाश्चात्य लोगों के लिए इस नियम के अपवादों को ओर भी विद्वानों का ध्यान गया है। उन्होंने उदाहरण भी हूँ जिर है, नाम के लिए 'अरुभङ्ग' रूपक की समाप्ति शोकोत्पादक है। परन्तु ऐसे उदाहरणों में हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि दुःशासन जैसे पात्रों की समवेदना बिलकुल नहीं हो सकती; उल्टा, वे तो उसकी मृत्यु से प्रसन्न होते है। सिद्धान्तकारों का सिद्धान्त है कि वास्तविक दुःखमय रूपक का रूप भीषण और रोमाञ्चकर मृत्यु-घटना में सन्निहित नहीं है, प्रत्युत उस घटना के पहले या पीछे इस्पायमान करुणरस में । अत: भारतीय रूपकों में साक्षात् मत्यु का अभिनय नहीं किया जाता । (5) इतना ही नहीं । हास्य अथवा गम्भीरता की कोई भी बात, जो अशिष्ट समझी जाती है, अमिनीत नहीं की जाती । यही कारण Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ संस्कृत साहित्य का इतिहास है कि शापडान, निर्वासन, राष्ट्र-विपत्ति, दशन, चुम्बन, प्रशन, शयन इत्यादि का अभिनय सर्वथा प्रतिषिद है। (१०७) कतिपय महिमशाली रूपक मुद्रित अथवा अद्यावधि अमुद्रित संस्कृत रूपकों की संख्या छः सौ से अधिक है; परन्तु उनमें से महत्वपूर्ण जिनका यहां उल्लेख सचित होगा, उँगलियों पर गिनने योग्य ही है। भास, कालिदास और अश्व. घोष के रूपकों का वर्णन तीसरे अध्याय में हो चुका है। दूसरे प्रसिद्ध रूपक ये हैं (3) शूद्रक का पृच्छकटिक, (२) रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानन्द, जो श्रीहर्ष के बनाए बतलाए जाते हैं, (३) विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, (४) भट्ट नारायण का वेणीसंहार, (५) भवभूति का मालतीमाधव, महावीरचरित और उत्तरामचरित, (६) राजशेखर का बाबमारव इत्यादि (७) दिङ्नाग की कुन्दमाता, (क) मुरारि का अनर्धराधव, और (8) कृष्णमिक्षा का प्रबोधचन्द्रोदय । (१०८) शूद्रक संस्कृत साहिस्य में नृप शूद्रक महान् लोकप्रिय नाटककार है। इसके नाम का उल्लेख वेतालपञ्चविंशति में, दण्डी के दशकुमारचरित में, बाण के हर्ष चरित्र और कादम्बरी दोनों ग्रन्थों में, तथा सोमदेव के कथासरित्सागर में पाया जाता है। कल्हन ने इसे नप विक्रमादित्य से पूर्वभावी बतलाया है। इसका जीवनचरित्र अङ्कित करने के लिए कई अन्य' बिखे गए थे। मृच्छकटिक की प्रस्तावना में भी इसके जीवन १.-इनमे से उल्लेखनीय ये हैं : (क) शूद्रकचरित-इसका उल्लेख वादिधघाल ने काव्यादर्श की अपनी टीका में किया है । (ख) शूद्रककथा- इसके रचयिता रामिल और सौमिल थे । इसका संकेत राजशेखर की कृति में मिलता है । (ग) - - - - Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कई घटनाएँ वर्णित है। यह वेदों का इस्कृष्ट विद्वान्, गणिव में गतिमान, कमनीय कलाओं का कान्त और युद्धवीरों के घर-वैभव कर स्वामी था। दुष्का अपस्या करके इसने पार्वती श्वर से का प्राप्त कर जिया था। भोपाख्यामिक वर्णनों में इसकी विविध विजयों और विक्रान्त कृतियों की गोतियाँ सुनी जाती है। मच्छकटिक की वर्थवस्तुरूपक की परिभाषा में मृच्छकटिक को प्रकरण कहते हैं। इसमें दस अंक है। इसमें चारुदत्त और वसन्तसेना की प्रणयलीला अमर की गई है। चारुदत्त वात्स्यायन के कामसूत्र के अनुसार एक आदर्श नागरिक था । बसन्त सेना अचमी की अवतार कोई वेश्या थी । गुणशाली ब्राह्मण चारुदत्त अपनी राजोचित दामशीबता के कारण दरिद हो गया। इतने पर भी इसने अपने पुण्य-कर्म का परित्याग नहीं किया। इसके गुणों के कारण वसन्तसेना, जो वेश्या के घर उत्पन्न हुई थी, मृत्यगान में अत्यन्त निपुण शो, इस पर मुग्ध थी चारुदत्त आत्म-संयमी और मनवी पुरुष था । यही कारण है कि हम रागांकुर का मुख प्रायः पहले वसन्तसेना के हृदयक्षेत्र में बाहर निकला हुआ देखते हैं । वसन्तसेना ने शकार कोलाजा के सालेकी-प्रणययाचना स्वीकार नहीं की। इससे शकार उस पर क्रुद्ध हो गया। चारुदत्तविषयक वसंतसेनाका अनुराग शुद्ध और पारमार्थिक है। विट तक को कहना पड़ा कि “पद्यपि वसन्तसेना एक वाराङ्गना है,तथापि उसका अनुराग वागअनाओं जैसा नहीं है । शकार ने उसे ताना मारते हुए कहा- तू एक भिखमंग बामण को प्यार करती है। वसन्तसेना ने इसे अपने लिए गर्व की बात समझा । ऋर और भीरु शकार के निर्दय प्रताड़न से बह मुछित हो गई। इसे भरा हुधा सममा तो धूलं शकार चारुदत्त को उसकी हत्या का दोषी ठहराने बगा। कितना करुण दृश्य है ! उस शूद्रककथा---पञ्चशिखर रचित प्राकृत-कविता । इसका नाम भोज की रचना में आया है । (ध) विक्रान्तशुद्रक-एक रूपक । इसका नाम भोज और अभिनवगुप्त ने किया। --- Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ संस्कृत साहित्य का इतिहास सुन्दरी की हरा का दोषी ठहराया जाना जिसे वह प्रायों से rfas प्यार करता था | मैजिस्ट्रेट ने सब के सामने चारुदत्त से प्रश्न कियावसन्तसेना के साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ? कुलीनता, सामाजिक प्रतिष्ठा ae area मानमर्यादा के भावों ने चारुदरा को एक मिनट के लिए प्रेरणा की कि तू इस प्रश्न को टाल जा; परन्तु शकार ने बार बार जोर दिया तो उसने उत्तर दिया "क्या मुझे कहना पड़ेगा कि वसन्तसेना मेरी प्रेयसी है ? अच्छा, यदि है ही तो इसमें क्या दोष है ? यदि दोष भी है तो यौवन का है, चरिथ्य का नहीं ।" चारुदत्त को प्राण दगड निशचित हो गया। इसी बीच में वसन्तसेना होश में आई । वह दौड़ो दौड़ी शूली-स्थान पर पहुंची और चारुदत्त की जान बच गई। इस अवसर पर राजधानी में एक क्रान्ति होगई । श्रार्यक, जिसे चारुदा ने जेल से मुक्त होने में सहायता दी थी, उस समय के शासक नृप पालक को गद्दी से उतार कर उज्जैन का राजा हो गया । चारुदत्त के भूतपूर्व ४५कार का स्मरण करते हुए उसने चारुदत्त को अपने राज्य का एक उच्च अधिकारी नियुक्त किया । ग्रालोचना-कालिदास तथा भवभूति की उत्कृष्ट कृतियों और सृष् कटिक में एक दर्शनीय भेद है। इसमें न तो नायक ही सद्गुणों का दिव्य आदर्श है और न प्रतिनायक हो पाप की प्रतिमा | चारुदस में कई असाधारण उदात्त गुण हैं, किन्तु यह दुष्यन्त की तरह श्रेष्ठंमन्य नहीं है । यह पार्थिव प्राणी है, यह धतकीड़ा को घृणित नहीं समझता, इसे नाचना और गाना भाता है और यह सङ्गीतालयों में जाना पसन्द करता है । वसन्तसेना में भी न तो कालिदास की शकुन्तला जैसी नवयुवतियों की मनोहारिता है और न भवभूति की सीता जैसी प्रौदार्थों की गौरवशालिता । विकार देतुथों के चतुर्दिक विद्यमान होने पर भी वसन्तसेना का मन स्वच्छ और चारुदत्त पर अनुराग श्रवदात रहा। पाशव कामवृत्ति का वशीभूत शकार जब वसन्तसेना को मार डालने की धमकी देता है और कदर्थित करता है, तब भी चारु Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शूद्रक २८५ दत्तविषयक उसकी प्रीतिवृत्ति अचत रहती है और उसके होठों पर अन्तिम शब्द हैं-नमो चारूदत्तस्स (चारुदत्त को प्रणाम)। मृच्छकटिक के पात्रों में समाज की सभी श्रेणियों के लोग सम्मिलित हैं। इनके कारण रूपक में पूर्ण यथार्थता प्रतिफलित होने लगी है। यह इस रूपक की प्रधान विशेषता है। इसमें गति या क्रिया-वेग (Action) की बहुलता है; अत: रूपक के लक्षण के सारे अगों की दृष्टि से यह एक सच्चा रूपक है । इसकी एक और विशेषता यह है कि सत्ताईस के सत्ताईस लधु पात्रों का व्यक्तित्व विस्पष्ट दिखाई देता है। पात्रों में राजदरबाशी, पुलिस के सिपाही लुटेरे, चोर, राजनीतिक नर और श्री १०८ संन्यासी भी हैं। तीसरे अङ्क में दम संघ मारने का एक वर्णन पढ़ते है। इसमें स्तेय-कर्म एक नियमित कक्षा कही गई है। मृच्छकटिक (मृत्+ शकटिका) नाम छटे अङ्क की एक घटना पर आश्रित है । वसन्तसेना चारुदत्त के पुत्र की मिट्टी की गाड़ी अपने रत्नजटित स्वर्णालंकारों से भर देती है। यह बात न्यायालय में चारूदत्त पर लगाए हुए अभियोग का पारिस्थितिक साक्ष्य (Circumstantial evidence) बन गई और इसने अमियोग को और भी जटिल बना दिया। दो प्रेमियों की निजी प्रेम कथा में राजनीतिक क्रान्ति मिला देने से रूपक की रममीयता बढ़ गई है। काल-दुर्भाग्य से शूद्रक के काल का अनान्त शोधन शक्य नहीं है। दण्डी, बाण और वेतालपञ्चविंशतिकाकृत ने इसके नाम का उल्लेख किया है, अत: यह इनसे पूर्वभावी अवश्य सिद्ध होता है । करण के मत से इसी के बाद विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा । परन्तु यह विक्रमादित्य ही विक्रम सम्वत् का प्रवर्तक था, इस बात को सिद्ध करना कठिन है। निश्चित तो यही मालूम होता हैं कि चूकि 'चारुदत्त' रूपक का ही समुपंक्षित' रूप मृच्छकटिक है, अतः शूद्रक मास का उत्तरभावी है। कई विद्वानों ने इसे अवन्ति-मुन्दरी कथा में वर्णित नृप शिव१ इस विषय में विस्तत विवरण महाकवि भास के अध्याय में देखिए । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ संस्कृत साहित्य का इतिहास स्वगति का समकालीन मानकर इसके काल-शोधन का श्रम उठाया है। एक गणना के अनुसार शिवस्वाति का समय ८१ ई० के आसपास है, परन्तु पुराणोक्त इतिहास-तिथियों के आधार पर लगाई हई दूसरीगणना के अनुसार वह (शिवस्वाति) ई० पू० चौथी या पाँचवीं शताब्दी में शासन करता था। (१०६) हर्ष के नाम से प्रचलित तीन रूपक (क) प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानन्द इन तीन रूपकों की प्रस्तावना में रचयिता का नाम नृप हर्ष मिलता है। हर्ष नाम के कम से कम चार राजा इतिहास में प्रसिद्ध हैं। (१) हर्ष काश्मीर का राजा । (२) हर्ष, धारा के नृप भोज का पितामह । (३) हर्ष विक्रमादित्य, उज्जैन का राजा; मातृगुप्त का शरण्य । (४) हर्षवर्धन, कन्नौज का स्वामी । ऐच० ऐच. विल्सन ने रत्नावली का रचयिता काश्मीर के अधिपति श्रीहर्ष को (१११३-२५ ई.) ठहराया है। परन्तु यह मत ग्राह्य नहीं है; कारण, रत्नावली का उद्धरण क्षेमेन्द्र के (११ वी श० का मध्य) औचित्यालक्कार में पाँच बार, और नप जयापीड के (वीं श. का चतुर्थ पाद) सचिव दामोदरगुप्त के कुट्टिनीतम में कम से कम एक बार अवश्य पाया है। रत्नावली का रचयिता ईसा की आठवीं शताब्दी से बहुत पहले ही हुआ होगा। यह विचार कि कनौज का राजा हर्षवर्धन (६०६-६४८ ई०) ही रस्नावल्ली का रचयिता होगा १ राजतरङ्गिणी में ( अनुच्छेद ५६८) कल्हण लिखता है : तत्रानेहस्युज्जयिन्यां श्रीमान् हर्षापराभिधः । एकच्छत्रश्चक्रवती विक्रमादित्य इत्यभूत् ॥ २ रत्नावली १, ८।२, २ । २, ३ । २, ४ । और २, । १२ । ३ रत्नावली १, २४। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्ष के नाम से प्रचलित तीन रूपक २८७ १ इल्लिग के यात्रा-वर्णन से भी पुष्ट होता है । हलिंग कहता है कि नृप शीलादित्य ने बोधिसत्व जीमूतवाहन की कथा को पद्यबद्ध किया था और अपने जीते जी इसका प्रचार करने के लिये नृत्य और अभिनय के साथ इसका खेल भी करवाया था इसके अतिरिक्त बाण हमें बताता कि हर्ष वर्धन में [ महती ] कवि प्रतिमा थी । * (२) धावक या बारण ?---मम्मद ने अपने काव्यप्रकाश में काव्य के चार प्रयोजनों में से एक प्रयोजन धनप्राप्रि भी बतलाया है और इस का उदाहरण देते हुए कहा है- "श्रीहर्षादेर्धाविक (बारा) आदीनामिव धनम्" । कदाचित् धावक ने श्रीहर्ष के राज दरबार में रहकर कोई उत्तम काव्य लिखा होगा और इसके लिए अपने स्वामी से कोइ बहुमूल्य पुरस्कार प्राप्त किया होगा। इस बात से भी इनकार नहीं हो सकता कि बाण को भी हर्षचरित लिखने पर अपने स्वामी [ह] से पुष्कल द्रव्य मिला होगा। इन रूपकों को हर्षचरित के साथ मिलाकर देखते हैं तो इनकी अपकृष्ट शैली से इनका बायकृत न होना बिल्कुल विस्पष्ट हो जाता है । इसके अतिरिक्त, बाण का हर्षचरित साहित्यिक गुणों में इन रूपकों से निस्सन्देह उत्कृष्ट है । अत: इन रूपकों की तथाकथित विक्री को अपेक्षा हर्ष चरित की बिक्री से बाण को अधिक धन मिल सकता था। परन्तु मम्मट के उपयुक्त वाक्य का अर्थ और तरह भी लगाया जा सकता है । इस अर्थ का समर्थन राजशेखर द्वारा भी होता है जिसने लिखा है कि धावक ने ये रूपक लिखकर इनके ऊपर श्री से पुरस्कार प्राप्त किया। हाँ, यह कहना कठिन है कि राजशेखर १ हर्ष का दूसरा नाम । २ ' भारत एवं मलय द्वीपों में बौद्धधर्म का एक इतिहास' ( इंग्लिश, पृष्ठ १६३, तकोकुसु ( Takokusu ) द्वारा अनूदित ) । ३ यह पाठ काश्मीरी प्रति के अनुसार है। ४ देखिए पहले भी महाकवि भाव के प्रसंग में । हर्ष की एक नाट्यशास्त्र टीका भी प्रसिद्ध है । यद्यपि रस्नावली नाट्यशास्त्र के नियमों के अनेक Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ संस्कृत साहित्य का इतिहास की यह बात कितनी विश्वसनीय है कितनी नहीं, क्योंकि हमें धावक के विषय में और कुछ ज्ञात नहीं है । दूसरी ओर, सुभाषितसंग्रहों में इषवर्धन के नाम से उद्धृत कई बडे ही रमणीय पद्य मिलते हैं । (३) संयुक्त कर्तृत्व नागानन्द में बौद्धधर्म का रङ्ग देखा जाता है । नान्दी में भगवान् बुद्ध की स्तुति है । नायक जीमूतवाहन बोधिसत्व है, और 'अहिंसा परमो धर्मः' के सिद्धान्त पर बल दिया गया है । डा० मैकडॉनल (Macdonell) ने कहा है कि इन रूपकों के रचयिता पृथक् पृथक् हैं; परन्तु वच्यमाण हेतुश्रों से हम इस विचार को ब्राह्म नहीं मान सकते ( १ ) इन तीनों रूपकों की प्रस्तावनाओं से इनका कर्ता एक दो व्यक्ति पाया जाता है; (२) इन में से एक के पद्य दूसरे में पाए जाते हैं; उदाहरणार्थ एक ऐसा पद्म है जो स्नावली और प्रियदर्शिका दोनों में आया है, तथा दो ऐसे हैं जो रस्नावली और नागामन्द दोनों में देखे जाते हैं, और (३) इन तीनों रूपकों की शैली तथा वचोभङ्गी इतनी अभिन्न हैं कि पाठक को इनके रचयिता की एकता में सन्देह उत्पन्न नहीं होता । (ख) कथावस्तु - ( 1 ) रश्नावली और प्रियदर्शिका दोनों की दोनों नाटिका हैं, दोनोंमें वार २ अङ्क हैं तथा दोनों की कथा वस्तु एवं रूपरेखा में भी बहुत अधिक समानता है। दोनों में नायक उदयन और महिषी वासवदसा है । रत्नावली में सागरिका ( लङ्का की राजकुमारी रत्नावली) और उदयन के प्रणय तथा अन्त में विवाह होजाने का वर्णन है । इसका आयोजक सचिव यौगन्धरायण था । जहाज के डूब जाने की विपत्ति श्राने पर रत्नावली दयनीय दशा में उदयन के दरबार में पहुँची । कुछ उदाहरण उपस्थित करती है, तथापि हम निश्चय से नहीं कह सकते कि उस टीका का और रत्नावली का लेखक एक ही व्यक्ति है । उस टीका में से अभिनन्दनगुप्त, शारदावनय और बहुरूपमिश्र ने उद्धरण दिए हैं । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्ष के नाम से प्रचलित तीन रूपक काल तक वह महाबानो की सेविका बनी रही। परन्तु अन्त में मालूम हो गाथा कि वह खट्टा की राजकुमारी है। सच्ची हिन्दू-पत्नी के समान, जो पति के सुख के लिए सदा अपने सुखों की बलि देने को तैयार रहती है, वाहवत्ता ने रजावली का विवाह उदयन के साथ हो जाना स्वीकार कर लिया। इस वस्तु का आधार इतिहास या ऐतिहासिक उपाख्यान है और कुछ बदले हुए रूप में यह कथा कथासरित्सागर में भी आई है। एक ओर रत्नावली माटिका कालिदास के माखधिकाग्निमित्र से और दूसरी ओर राजशेखर की कपूरमजरी से अत्यन्त मिलती जुलती है। प्रियदर्शिका माटिका में उदयन के प्रारपियका (प्रियदर्शिका) के साथ अनुराग-व्यवहार का और अन्त में विवाह बन्धन का वर्णन है। वह अगदेश के राजा इदवर्मा की दुहिता थी और उदयन से उसकी सगाई हुई थी। अभी प्रियदर्शिका का विवाह नहीं हुआ था कि काबिना के राजा ने अङ्ग पर आक्रमण करके दा को बन्दी बना लिया। प्रिय दक्षिका प्राषियका के नाम से उदयन के अन्तःपुर में पहुंच गई । दीर्ष कालक्रम के पश्चात् उसका रहस्य खुल गया और अन्ततो गरवा वह उदयन की परिणीता प्रिया बन गई। नागानन्द में पाँच अङ्क हैं। इसमें जीमूतवाहन के प्रात्मोत्सर्ग की कथा है। इसने सर्प के स्थान पर अपने आपको गरुड़ को खाने के जिए दे दिया था। इसके इस औदार्य कार्य से प्रसन्न होकर गौरीदेवी ने इसे पुनर्जीवित कर दिया, जिससे इसके रोते हुए माता-पिता को १ इस रूपक के अन्दर एक और रूपक है जिसमें विश्वासपात्री सनी सास्कृत्यायनी) की घी बनी हुई है। इस अवान्तर रूपक में (मनोरमावेषधारी) राजा (वासवदत्तारूपधारिणी) श्रारपियका के प्रणय-पाश में बंध जाता है। २ बीभतवाइन की ऐसी ही एक कथा कथासरित्सागर की बारहवीं तरंग में दी गई है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० संस्कृत साहित्य का इतिहास बड़ा दर्ष हुआ । मृत सर्प भी जीवित कर दिए गए और गरुड़ ने प्रतिज्ञा की कि मैं अब से हार का परित्याग करता हूं। रूपक में हिन्दू और बौद्ध विचारों का सुन्दर मिश्रण है, तथा जिस काल में यह लिखा गया है उसका प्रतिबिम्ब इसमें खूब फलक रहर है t (ग) शैली-हर्ष ने अपनी रचना द्वारा वैदर्भी रीति का बहुत उत्तम आदर्श उपस्थित किया है । यद्यपि इसमें कालिदास और साम जैसी न तो सूक्ष्मेक्षिका है और न कँधी उड़नेवाली कल्पना, तथापि इसमें सादगी और सुगमता का एक महान् गुण है । इसकी भाषा श्रयय ( Classical ) संस्कृत है और वाक्य नपे-तुले हैं। श्रलङ्कारों का विन्यास यथोचित और भव्य है । इसमें मौलिकता कम, वर्णन-शक्ति refer a faranता तो श्रादि से अन्त तक है। इसकी शैली के उत्तम नमूने का एक पद्य पढ़िए m श्रारुह्य शैलशिखरं स्वदनापहृत- कान्ति-सर्वस्वः । प्रतिकतु मिवोर्ध्वकरः स्थितः पुरस्तान्निशानाथः ॥ एक अवसर पर यह कहता है: चक्रवालम् । प्रियायाः, विरम विरम वह ! मुब्च धूमानुबन्धं, प्रकटयसि किमुच्चैरचिषां विरहहुतभुजाऽहं यो न दग्धः प्रलयदहनभासा तस्य किं स्वं करोषि || जीमूतवाहन का वच्यमाण विचार कितना चाह है.-स्वशरीरमपि परार्थे यः खलु दद्यामयाचितः कृपया । राज्यस्य कृते स कथं प्राणिवधक्रौर्यमनुमन्ये ॥ भाषा और छन्द -- श्रश्य ( Classical ) संस्कृत के अतिरिक्त श्रीष' ने विविध प्राकृतों का भी प्रयोग किया है। इनमें सबसे अधिक प्रयोग सौरसेमी का हुआ है। पथों की प्राकृत महाराष्ट्री है और नागानन्द रूपक में एक चेट मागधी बोलता है । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्राराक्षस २६१ इसका प्रिय छन्द शार्दूलविक्रीडित है। इसके रूपकों में यह ७३ मार श्राया है। इसके बाद स्नग्धरा का नम्बर प्राता है। (११०) मुद्राराक्षस विशाखदत्त के मुद्राराक्षस की गणना संस्कृत के अत्यन्त उत्कृष्ट रूपकों में की जाती है। इसमें साव अङ्क है, जिनमें मौर्य-काल की एक राजनीतिक घटना का वर्णन है। राक्षस को अपनी ओर मिलाने के चाणक्य-कृत कपटपूर्ण उपायों का, अन्तिम नन्दसम्राट के सचिव की प्रखरप्रतिमा और सच्ची स्वामिभक्ति का, मत्यकेतु को अपने साथ मिलाकर प्रथम मौर्य नरेश्वर को सिंहासनच्युत करने की उक्त सचिन द्वारा की हुई चातर्याम्चित योजनाओं का ऊर्जस्वित् वर्णन पढ़ने योग्य है। अन्त में चाणक्य ने मायकेतु और राक्षस में फूट उजवा ही दो । राक्षस को तिरस्कार सहकर विवश हो मलयकेतु की सेवा से हाथ खींचना पड़ा। अपने मित्र राक्षस के परिवार को गुप्त रूप से शरण देने के अपराध में सेठ चन्दनदास भी विपत्ति में पड़ गया। अन्त में अपने सुहृद् चन्दनदास के प्राणार्थ राक्षस को चाणक्य के लिए प्रात्म-समर्पण करना पड़ा। चाणक्य ने र.क्षस से कहा, “यदि तम चन्दनदास के प्राणों की रक्षा चाहते हो तो तुम्हें चन्द्रगुप्त मौर्य का सचिव पद स्वीकार करना होगा" इच्छा न होने पर भी राक्षस को चाणक्य की बात माननी पड़ी। यहीं नाटक की सानन्द समाप्ति हो जाती है। मुद्राराक्ष ऐतिहासिक नाटक है और इसमें अनेक राजनीतिक षडयन्त्रों का वर्णन है। शृङ्गार और करुण रस का इसमें स्पर्श भी नहीं है। समापक अंक में चन्दनदास की स्त्री के रूप में केवल एक ही स्त्रीपात्र का प्रवेश कराया गया है, वह भी किसी रागात्मक मृदुल दृश्य को दिखाने के लिए नहीं, किन्तु कठोर कर्तव्य तथा स्वार्थ-सत्याग का दृश्य दिखाने के लिए। नाटक का स्थायीभाव उत्साह और रस वीर है, परन्तु यह उतना उकवान नहीं है जितना भवभूति-रचित महावीरचरित का। हां, गति अर्थात् क्रिया-वेग (Action) की अद्भुत एकता Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ संस्कृत साहित्य का इतिहास को दृष्टि से यह नाटक सारे संस्कृत-साहित्य में द्वितीय हैं। बड़े से लेकर छोटे तक सभी पात्रों का एक लक्ष्य है. सारी की सारी प्रायोजनाथों का एक ध्येय है और वह है राक्षस को अपनी ओर करना । राजनीतिक उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए सच-मूल या न्याय-अन्याय का विश्वर उठाकर ताक में रख दिया गया है । राजनीतिक आवश्यकता के अनुसार मित्रता उत्पन्न की जाती और तोड़ दी जाती है । चन्दनदास जैसे उदात्त चरित व्यक्ति तक को प्राणा-दण्ड की धमकी दी जाती है, जिसका प्रयोजन केवल यही है कि राक्षस झुक जाए । प्रत्येक पात्र का व्यक्तित्व विस्पष्ट झलकाया गया है । इस नाटक की एक विशेषता यह है कि लेखक ने दो दो पात्रों का एक एक वर्ग बनाया है। चाणक्य और राक्षस दीर्घदर्शी राष्ट्रनीति- विशारद और कुशल प्रायोजना-योजक हैं । चन्द्रगुप्त और मलयकेतु प्रतिपक्षी राजा है। उनकी योग्यताओं और frames में आकाश पाताल का अन्तर हैं। भागुरायण और सिद्धार्थक इत्यादि लोग निम्नश्च णी के वर्गों के पात्र हैं और उनके वैयक्तिक गुणों का तारतम्य बहुत अच्छी तरह दिखलाया गया है। भाषा में जान और शान है । पद्य में मधुरता और मंदिरता का प्रवाह है। कुछेक यूरोपियन आलोचकों के विश्वार से संस्कृत भाषा में बस यही एक यथार्थ नाटक है । रचयिता - प्रस्तावना में रचयिता ने स्वयं बताया है कि मैं इस नामक उच्चकुल का वंशवर हूँ । यह कुल प्रान्त के शासन में उच्चपदारूद रहा है । रचयिता एक सामन्त का पौत्र और एक महाराज का पुत्र था। वह व्याकरण, नाट्य, राष्ट्र-नय, ज्योतिष और तर्क का महान् पति था। वह स्वयं शैव होते हुए बौद्धधर्म में भी थोड़ी-सी श्रद्धा रखता था, परन्तु जैनधर्म को पसन्द नहीं करता था। उसके कुछ फुटकर पद्म सूक्ति-संग्रहों में सङ्कलित मिलते हैं । ु काल - इस प्रसिद्ध नाटक के । रचना काल के सम्बन्ध में अलग विचार हैं। (1) भरत वाक्य में पाठभेद से तात्कालिक शासक Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्राराक्षस के दो महत्त्वपूर्ण नाम मिलते है-अवन्तिवर्मा और चन्द्रगुप्त । मारसीय इतिहास में दो अन्तिवर्मा प्रसिद्ध हैं-एक काश्मीर का शासक (८५५-८८३ ई.) और दूसरा प्रभाकरवर्धन का चचेरा भाई, मौखरिवंशीय कन्नौजाधिपति (ईसा की छठी शताब्दी का उत्तराद)। कुछ विद्वानों ने मुद्राराक्षस के रचयिता का जीवनकाल काश्मीर शासक अव. तिधर्मा के शासन काल में माना है। प्रो. ऐच. कोबि ने मुद्राराक्षस में वर्णित चन्द्रोपराग का समय दो दिसम्बर सन् ८६०ई० निर्धारित किया है। परन्तु इस विचार का समर्थक कोई हेतु विद्यमान प्रतीत महीं होता। दूसरी ओर, भर वाक्य में इम स्पष्ट पढ़ते हैं कि वर्तमान शासक ने म्लेच्छों से उज्यमान राष्ट्र का त्राह किया । काश्मीर के भवन्तिवर्मा ने न तो किसी विदेशी राजा को परास्त किया और न आधीन बनाया, अतः जब इम कन्नौज के अवन्तिवर्मा की ओर मुखकर देखते हैं तो उसे हूणों के उन्मूलन में प्रभाकरवर्धन का मुख्य सहायक पाते हैं। स्टेन कोनो (Sten konow)ने चन्द्रगुप्त द्वितीय दूसरे पाठ को ग्राहय मानकर इसका अभिप्राय चन्द्रगुप्त द्वितीय (३७५- ४१३ ई०) लिया है। परन्तु इस चन्द्रगुप्त के पक्ष में हूणविजय की समस्या का ठीक सामाधान नहीं होता; क्योंकि हूणों ने उक्त चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल तक उसके राज्यान्तर्गत प्रदेश को उद्विग्न नहीं किया था । मुद्राराक्षस का नीचे अवतार्यमाए पछ मत हरि ने अपने शतक में अद्भुत किया है, प्रतः अनुमान है कि विशाखदत्त भत हरि से पूर्व होगा--- १ प्रो. ए. बी. कीथ (Keith) का भी यही मत है, क्योंकि वह कहता है कि यह ग्रन्थ नौवीं शताब्दी से भी प्राचीन हो सकता है, परन्तु इसके नौवीं शताब्दी मे होने का कोई बाधक प्रमाण है ही नही । यह मृच्छकटिक, रघुवंश, और शिशुपालवध के बाद का प्रतीत होता है (जर्नल आवरायल एशियाटिक सोसायटी, १६०६, पृष्ठ १४५)। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः, मारभ्य विघ्न- विद्वता विरमन्ति मध्याः विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमगुणास्त्वमिवोद्वहन्ति । इस पद्य में 'मित्र' पुकार कर कह रहा है कि मैं वास्तव में मुद्राराक्षस नाटक का हूँ, भतृहरि के शासक का नहीं । (१११) वेणीसहार वीररस का दूसरा रूपक भट्ट नारायणकृत वेणीसंहार है। इसमें सात मङ्क हैं और महाभारत की एक सुप्रसिद्ध घटना इसका प्रतिपाद्य विषय है । द्रौपदी ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक दुःशासन कृत मेरे अपमान का बदला नहीं चुका लिया जायगा, तब तक मैं सिर का जूड़ा नहीं बाँधूंगी। भीम जोश में आ गया और कहने लगा यदि युधिष्ठिर ने दुर्योधन से सन्धि की तो मैं इसका साथ छोड़ दूँगा। श्रीकृष्ण ने पाडवों और धार्तराष्ट्रों के बीच सन्धि कराने का बड़ा प्रयत्न किया; परन्तु सन्धि न हो सकी । अन्त में महाभारत का जगप्रसिद् युद्ध हुआ । उसमें सब धार्तराष्ट्र मारे गए और भीम ने दुशासन के कधि में रंगे हुए अपने हाथों से द्रोपदी का जूड़ा बाँधा । ~ अभाव शैली -- भट्ट नारायण का चरित्र-चित्रण परम रमणीय है । मृच्छकटिक के पात्रों के समान इसके पार्थो का व्यक्तित्व भी विस्पष्ट है । परन्तु इसमें वनों के बाहुल्य के और महाभारतीय विवरणों की प्रचुरता के कारया पैदा हुआ। क्रिया वेग ( Action ) का खटकता है । शृङ्गार का प्रतिपादन नित्व हो गया है, शायद केवल इसलिए कि नाटककार ने दाखवत् नाट्यशास्त्र के विधि-विधानों का पालन किया हैं । मुद्राराक्षस के तुल्य इसमें भी स्फूर्ति और सजीवता है । भवभूति की भाँति भट्ट नारायण भी कभी कभी संस्कृत या प्राकृत गद्य में दीर्घ समासों का प्रयोग करने का तथा श्रर्थ की प्रतिध्वनि जसी शब्दध्वनि के द्वारा यथासम्भव प्रभाव पैदा करने का शौकीन है । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभूति बेणीसंहार हास्य और करुण रस से शून्य नहीं है। अन्तिम अङ्क भावों की गरिमा और भावद्योतन की मधुरिमा के लिए प्रसिद्ध है। इसका निशा वर्णन इतमा हृदयङ्गम है कि इसी के आधार पर कवि निशानारायण की उपाधि से अलंकृत किया गया है। काल-(1) म नारायण के उद्धरण वामन, आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त के ग्रंथों में मिलते हैं; अत: यह अवश्य ईसा की पाठवीं शताब्दी से पहले हुआ होगा। (२) लोक-प्रसिद्धि है कि यह बङ्गाल के राजा मादिशूर के (७ वीं १० का पूर्वार्ध) निमन्त्रण से कन्नौज से बङ्गाल चला गया था। (३) धर्मकीति के रूपावतार की एक टीका की हस्तलिखित प्रति में लिखा है कि बाण की प्रार्थना स्वीकार करके भट्ट नारायण किसी बोद्ध महन्त का शिष्य हो गया था तथा रूपावतार को भट्ट नारायण और धर्मकीर्ति ने मिलकर लिखा था। इससे यही परिणाम निकलता है कि भह नारायण मह बाण का सम-सामयिक था। (११२) भवभूति (१) भवभूति का भासन भारत के मूर्धन्य रूपककारों की श्रेणी में है। इसका असली नाम श्रीकण्ठ या । सूक्ति-संग्रहों में इसके नाम से कई ऐसे भी पत्र मिलते हैं जो इसके उपलभ्यमान रूपकों में नहीं है (इससे अनुमान होता है कि इसने इन रूपकों के अतिरिक्त कुछ और भी लिखा होगा)। इसका जन्म विदर्भ देश में वेद के विद्वानों के विख्यात वंश में हुआ था। यह स्वयं बड़ा प्रकारात पण्डित था। १ अपने पहले दो रूपको में इसने कुछ ऐसे उद्धरण दिए हैं जो (वेद, उपनिषद् ब्राह्मण और सूत्र इत्यादि ) वैदिक साहित्य के ही नहीं, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, रामायण-महाभारत, कालिदास के ग्रन्थ इत्यादि का भी स्मरण कराते हैं । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास इसकी प्रथम कृति की सरकाजीन कला-कुशकों ने बड़ी कटु समीक्षा की। किन्तु अपनी कला की उत्कृष्टता से अभिज्ञ और आशा के परिपूर्ण मयभूति ने अपनी लेखनी को उठाकर न रक्खा । यह निर्भय होकर लिखता गया। इसे ऐसा प्रतोस हुश्रा, मानो शारदा देवी इसकी वशंवदा भनुनही है। इसका विचार था,कि प्रायः लोग स्त्रियों के सतीस्व और कवि कृतियों के चमत्कार को सन्देह की दृष्टि से देखा ही करते है। भावगे चल कर इसने अपने दुहरालोचकों को फटकार बताते हुए कहा भी था कि मैं यह प्रयास तुम लोगों के लिए नहीं उठा रहा हूँ मेरा विश्वास है मेरे जैमा हृदय और मेरी जैसी प्रतिभा रखने वाला कोई पुरुष कभी अवश्य पैदा होगा क्योंकि समय का कोई अन्त नहीं और बह पृथ्वी भी बड़ी विस्तृत है। (२) अन्थ----(क) महावीरचरित । महावीरचरित कदाचित् भवभूति का सबसे पहला सन्दर्भ' है। इसमें लेखक के पूर्व पुरुषों का पूरा विवरण है और इसकी रूप-रेसा में मसणता का प्रभाव लेखक की अभ्यासास्था को द्योतित करता है । कथावस्तु का प्राधार रामायण है, परन्त इसमें और रामायणी कथा में बहुत ही अधिक भेद है। सारी कथा की मिति १ यं ब्राह्मणमिय देवी बारवश्येवानुवर्तते ।।। २ यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः ।। ३ ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा जानन्ति ते किमपि, तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा कालो ह्यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वीं ॥ (मा० मा० १, ६) ४ भारतीय जनश्रुति के अनुसार भवभूति ने इस नाटक का केवल पाँच अङ्क के छयालीसवें पद्य तक का भाग ही लिखा था, शेष भाग की पूर्ति करने वाला सुव्रण्ा कवि कहा जाता है। इस अधूरेपनका कोई कारण निश्चित नहीं किया जा सकता Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभूति शिश की रूपरवृति की और महावीर ( रम) के विनासायं उसके किए हुए दुरुपायों की भूमि में खड़ी की गई है। इसमें मानतीमाधव की सी विषयन्तनता नहीं है, हाँ कथावस्तु की एकता अपेक्षाकृत अधिक हैं। परन्तु कुछ इश्य अनाटकीय हो गए हैं और अनेक विवरण-वर्णनों नया लम्बी वक्तृतानों ने किया-वेग ( Action) को दुबैद्र कर दिया है। चश्वि-चित्रण में भी धुधनापन है। माल्यवन्त और शक्षण जैसे मुख्यपान भी पाठक के मन में अग्रगण्य व्यक्तियों के रूप में मासित नहीं होते हैं। (ब) मालतीमाधव-मातीमाधव एक प्रकरण है और इसमें दस अङ्क हैं। इसकी कथा का आधार कथासरित्सागर की पृथक पृथक कथाएं हैं । लेखक ने उन्हें लेकर एक सूत्र में गूंध दिया और एक बिल्कुल नई चीज पैदा करके पाठकों के सामने रख दी । इस সঞ্জয় ক্ষী বিজ্ঞান স্কা মা অনমুৰি জী মা মুক্তি স্বাক্ষৰ पैदा हुश्रा होगा। किन्तु इसमें मृच्छकटिक जैसा हास्य रस नहीं है, यहां तक कि इसमें विदूषक भी नहीं है। मृच्छकटिक के विरुद्ध इसमें प्रकृति के भयानक, भीषण और अलौकिक अंशों का समावेश बहे शौक से किया गया है। मालतीमाधव में मालती और माधव के प्रणप-बन्धन का वर्णन है। मालती एक राज-मन्त्री की दुहिता पी और माधब एक तरुण विद्यार्थी था। मावती के पिता के राजा ने मालती का विवाह अपने एक कृपा पान से करने का निश्चय कर रखा था, किन्तु मालती उसे नहीं चाहती थी । राना के सारे उपायों को माधय के सुहृद् मकरन्द ने मालती का रूप बनाकर और उसके साथ विवाह करवा के निष्फल कर दिया। यधपि भवभूति की रचना यथार्थ की प्रतिमूर्ति है तथापि पात्रों के राग और शोक का अधिक भाग बनावटी प्रतीत होने लगता है। कथावस्तु मुख्यतया एक आकस्मिक घरमा पर अवलम्बिस है। मालती दो बार मौत के मुंह में जाने से अचानक बच जाती है । नौ अङ्क पर Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ सस्कृत साहित्य का इतिहास कालिदास के मेषदूत का और विक्रमोर्वशीय के हौधे अक्क का प्रभाव परिबक्षित होता है। माधय मेष के द्वारा अपनी प्रणष्टप्रिया को सन्देश भेजना चाहता है । यद्यपि भभूति में कालिदास की-सी मनोरमता और मादकता नहीं है, तथापि इस अङ्क में यह दुःखपूर्ण करारस के वर्णन में कालिदास से बढ़ गया है। (ग) उत्तररामचरित-प्रत्तररामचरित निश्चय ही भवभूति की श्रेष्ठ कृति है । जैसा कि इसने स्वयं कहा है-"शब्दब्रह्मविदः कवेः परिपतप्रज्ञस्य वाणीमिमाम्" (उ० रा. च ७, २०) यह इसकी परिपक्क प्रतिभा की प्रसूति है। रामायण के उत्तरकाण्ड में आया है कि एक निराधार बोकापवाद को सुनकर राम ने सीता का परित्याप कर दिया था। इसी प्रसिद्ध कथा के गर्भ से उत्तररामचरित की कथा ने जन्म लिया है, किन्त दोनों के अङ्ग-संस्थान में बड़ा भेद है। अपनी नाटकीय धावश्यकतानो के अनुसार लेखक ने उल्लिखित कथा में कई हेर. फेर करके इसके कान्त कलेवर को और भी अधिक कमनीय कर दिया है। इसकी अत्पादित कुछ नवीनताए ये है-(१) चित्र-पट-दर्शन का दृश्य, (२) वासन्ती और राम की बातों को अहस्य रहकर सुनने वाली सीता, (३) वासन्ती के सामने राम का सीता के प्रति स्नेह स्वीकार करना, (४) लव और चन्द्रकेत का युद्ध, (५) वसिष्ठ और साधुओं का वाल्मीकि के श्राश्रम में शाना, और (६) राम के उत्तर चरित का उसी के सामने अभिनय । सात अकों के इस नाटक में भवभूति ने करुण रस के वर्णन को इसका परमसीमा तक पहुँचा दिया ' . सच पूछो तो इस गुण में - देखए, अपि पावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य दृदयम् । अथवा, करुणस्य मूतिरथवा शरीरिणी विरहव्यथेव ।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभूति २६E संस्कृत का कोई नाटककार इससे भागे नहीं बढ़ सका है। भवभूति के काम विलाप से पाषाण भी रोते थे और चन-हृदय भी फटते थे। प्रतीत होता है कवि ने अपने इस गुख से पूर्ण अभिज्ञ होकर ही कहा हे.--'एकोरसः करुण एव निमित भेदात् ......."। इसके बारे में भवभूति और कानिक्षस में विशाल वैषम्य है । शेक्सपियर के तुल्य कालिदास बात व्यङ्गना से कहता है, किन्तु मिल्टन के समान भवभूति अभिधा से । जब हृदय शोक से अभिभूत हो जाता है तब मुंह से बहुत कम शब्द निकलते हैं । हम शेक्सपियर में देखते हैं कि कालिया (Cordelia) के शव पर इकट्ट होने वाले शोक का एक शब्द तक नही बोल सकते। उसी प्रकार जब कालिदास के राम ने सोसा-विषयक भूठे लोकापवाद को सुना, उसका हृदय प्रेम और कर्तव्य की चक्की के दो पाटों के बीच में आकर पिसने लगा-वह टुकड़े टुकड़े हो गया, ठीक उसी तरह जिस तरह श्राग में तपाया हुअा लोहा धन की चोट से हो जाता है--परन्तु न वह भूच्छित हुश्रा और में उसकी आँखों से आँसुओं की नदी बह चली । एक धोर-हृदय राजा की भाँति उसने बदमण को श्राज्ञा दी कि सीता को ले जाकर वन में छोड़ पाश्रो । यदि राम अपने मानवीय हृदय की दुर्बलता को प्रकट होने से महीं रोक सका तो केवल तब जब उसने सीता को बन में छोड़ लौट आए हुए लक्ष्मण के मुंह से सीता का विदा-काल का सन्देश सुना। अब पलकों के अन्दर रुके हुऐ ऑपुत्रों के कारण उसकी आँखों के आगे अंधेरा- सा श्रा गया, उसने दोचार शब्द कहे; परन्तु न तो रोया और न उसने हाय-तो बा मचाई । दूसरी ओर, भवभूति श्राख्यायिका-काच्यकारों का अनुकरण करके करुण रस का कोई अवसर तब तक जाने देने को तैयार नहीं जब वक उसके पात्र मूच्छित न हो लें और आँसुओं की भदी न बहालें तथा दर्शक सचमुच उसके साथ रोना प्रारम्भ न करदें। क्या राम ने सीता को निर्वासित काके धर्म का काम किया था? क्या निरपराध और निरुयाय सीता के साथ उसका यह व्यवहार अन्याय और Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० सस्कृत साहित्य का इतिहास GANA -- - - - mam e अस्थाचार नहीं था ! यह प्रश्न प्रायः पूछा जाता है । परन्तु राम उस समय प्रेम और कर्तव्य के 'उभयतो रज्जाश में फंस गया था। क्या लिने अपने पविन्न प्रेम और विशुद्ध उच्च नबुवंश को यू लामिछुत होने दिला होता ? क्या यह लोकापवाद के पात्र बने हुए एक व्यशिक के प्रति नेयम-शैथिल्य का उदाहरसा इसलिए उत्पन्न करता कि वह उसके पूर्ण सतीत्व काविश्वासी था, या वह उसकी रिश्तेदार थी और इस तरह प्रद्धा को सदाचार के बन्धनों को शिथिल करने की स्वच्छन्दता दे देता या, 'वह ब्धि की वेदी पर प्रेम की बलि देकर प्राणों से भी प्यारी सीता को छोड़ देता! उसे क्या करना चाहिए था? उसे राजा बने अभी थोड़ा हो समय गुजरा था। कि कम किमकमति करयोऽप्यन्त्र भोहिताः । अन्त प्रेम और कर्तव्य के संघर्ष में कर्तव्य बनवान् निकाला। राम ने श्रीता---- न स्वजीवन शक्ति ही-निर्वासित करदी । वह सीता के लिए कहोर तो अपने लिए और भी कठोर था । इस वियोग की पीड़ा उसे इतनी ही दुलह थी जितनी सीता की। राम का जीवन सीता के जीवन से भी क्लेशापन्न हो गया। सोता की बलि चढ़ गई, राम के अपने जगदालहार की बलि चढ़ गई, परन्त हाम-राज्य' एक लोकोक्ति बन गई । आज लोग राम-राज्य की कामना करते हैं। क्या कभी किसी और राजा ने भी अपनी प्रजा के लिए इतना महान् प्रामा-त्याग किया है ? उत्तर रामचरित में कवि की वस्तुतः अपने अन्य रूपकों की अपेक्षा अधिक सफलता मिली है। एक तरह से चरित्र-चित्रण बहुत ही बढ़िया है। परन्त इस नाटक में क्रिया-बेग (Action) की मन्दता खटकती है। इसीलिए भाधुनिक आलोचना की तुला पर तोलने के बाद इसे वास्तविक नाटक होने की अपेक्षा 'नाटकीय काव्य' अधिक समझा गया है। इस रूषक को एक विशेषता यह है कि इसके समापक अङ्क के अन्दर एक और रूपक है । इस अङ्क में भवभूति कालिदास से भी आगे बढ़ आया है। सीता-राम के पुनर्मिलन में जो चमकार और गम्भीर रस है वह शकुन्तला-दुष्यन्त के धन-खण्ड प्रणय में नहीं है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभूति ३०१ (३) शैली--(क) भवभूति भावप्रवरह कति है। इसलिए यदि कालिदास की तुलना शेक्सपियर के साथ तो इसकी तुलना मिल्टन के साथ की जाती है । यही उचित भी है। यदि इसमें कालिदास का-सा माधुर्य, गौरव और व्यंजस्व नहीं है तो यह किसी घटना बा भाव (Emotion) की थोड़े ही शब्दों में हृदयङ्गम रूप से चित्रित करने में कालिदास से अधिक सिद्धहस्त है। उदाहरणार्थ, बूढ़ा कञ्चुकी अपनी आदत के अनुसार राम को 'रामभद्र' कह कर सम्बोधन करने लगता है, परन्तु तत्क्षण सम्मल कर कहता है "महाराज। (ख) प्रकृति में जो कुछ भी भीषण, घटाटोप और अलौकिक है वह संस्कृत के सब कवियों की अपेक्षा भवभूति को बड़ा प्रिय है। अनङ्कष पर्वतों, निबिड कान मों, मरझार करते हुए मरनों और दुष्प्रवेश अपस्यकाओं के इसके वर्णन वस्तुतः आँखों के सामने एक चित्र खड़ा कर देते हैं। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि इसने प्रकृति के मृदुल और कल्पनास्पर्शी रूप के दर्शनों का कभी प्रानन्द नहीं उठाय।। इसका उदाहरण देखभा हो तो देखिए इसने मालती माधव के आठवें अङ्क के अवसान पर निशीथ का कैसा नयनाभिराम चित्र खींचा है। (ग) भवभूति अपने रूपकों में नाना रसों का गम्भीर सम्मिश्रण करने में बड़ा कृतहस्त है (भूम्नां रसानां गहनाः प्रयोगाः) । सो महा १ सूक्तिग्रन्थों में भवभूति की प्रशंसा में पाए जाने वाले पत्रों में से कछ उदाहरण देखिए भन्या यदि विभति त्वं तात कामयसे तदा । भवभतिपदे चित्तमविलम्ब निवेशय ।। सुकवि-यितयं मन्ये निखिलेऽपि महीतले । भवभूतिः शुकश्चाय वाल्मीकिस्तु तृतीयकः।। भवभूतेः सम्बन्धाद् भूधरभूरेव भारती भाति एतत्कृतकारुपये किमन्यथा रोदिति भावा ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ संस्कृत साहित्य का इतिहास वीर-वरित, मालतीमाधव और उत्तररामचरित में मुख्य रस यथाकम वीर, शृङ्गार, करुण हैं । एक एक नाटक तक में कई कई रसों का समावेश पाया जाता है । उदाहरणार्थ माजतीमाधव के तीसरे और सातवें में शीर, तीसरे में रौद्र, पाँचवें में बीभत्स और अयानक, नौवें में करुण और नौवें तथा दसवें में अद्भुत रस है । I (घ) महावीरचरित और मालतीमाधव दोनों की ही शैली में कच्चा पक्कापन nिear हुआ देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि महाकवि अभी प्रौढ़ि के मार्ग में था । इसके कुछ पद्य परमप्रसाद गुण पूर्ण हैं और जय, भाव या रस के सर्वथा अनुरूप हैं। उत्तररामचरित की शैली उदास और उत्कृष्ट । उस में ाण है तथा कान्ति है और छावण्य है । उसे हम उत्तररामचरित में कहे हुए कवि के अपने शब्दों में कक्ष सकते हैं - ' धोरोद्धता नमयतीत्र गतिधरित्रीम्' । --- (ङ) इसकी शैली की एक और बड़ी विशेषता इसकी विचार-द्योतन की पूर्ण योग्यता है । यह योग्यता तीनों रूपकों में समान रूप से देखने में आती है । (च) कालिदास के विपरीत यह गौडीवृत्ति का श्रादर्श लेखक है । 'भोजः समास भूयस्त्वमेतद् गद्यस्य जीवितम्' इस वचन के अनुसार वृत्ति में गधावस्था में लम्बे लम्बे समास होते हैं। कभी कभी अर्थ की अपेक्षा शब्द की अधिक चिन्ता करता हुआ यह जानकर अप्रसिद्ध पदों और जटिलान्वयी वाक्यों का प्रयोग करता है । (छ) इसकी वचन -रचना में वास्तविक प्रौढता और उदारता 1 (ज) इसकी सरक्ष और स्वाभाविक रचनाएँ बहुत ही प्रभावशा १ इस गुण की दुर्लभता के बारे में भारवि का निम्नलिखित पद्य प्रसिद्ध ही है । भवन्ति ते सभ्यतमा विभिश्चितां मनोगतं वाचि निवेशयन्त ये । नयन्ति तेष्वप्युपपत्रनैपुणा गभीरमर्थं कतिचित् प्रकाशताम् ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभूति ३०३ 'लिनी हैं। एक उदाहरण देखिए । मालती की बातों को छुपकर सुनता हुआ माधव अपने वयस्क मकरन्द से कहता padd म्लानस्य जीवकुसुमस्य विकासनाभि सन्तर्पणानि सकलेन्द्रियमोहनानि । श्रानन्दनानि हृदयैकरसायनानि दिष्टया मयाप्यधिगतानि वचोमृतानि ॥ (मा. मा. ४, इस पथ के अन्त्यानुप्रास में, जो जान-बूझकर जाया गया कितना प्रभाव है । 1 वासन्ती ने राम को जो हृदयविदारक उपालम्भ दिया वह भी इसी साँचे में ढालकर faखा गया है: एवं जीवितं स्वमसि मे हृदयं द्वितीयं ... (क) व्याकरण के अप्रचलित रूपों और कोश- संग्रह- सूचक नाना शब्दों के प्रयोग का यह बड़ा रसिक है । (अ) इसके रूपकों के विशेषतः उत्तररामचरित के पात्रों में वैयक्तिक वास्तविकता देखने में लाती है । सदाहरणार्थं राम और सीता ravi शोक प्रकाशक शब्द देखिए- किमपि किमपि मन्दं मन्दमाशियोगात् ॥ (ट) इसकी प्रेम-भावना का स्वरूप अपेक्षाकृत ऊँची श्रेणी का है और संस्कृत साहित्य में उपलभ्यमान साधारण प्रेम-भावना के स्वरूप से freete set fधक उदात्त है । उदाहरणार्थं देखिए- श्रद्वैतं सुख दुःखयोः ... ( 8 ) भवभूति आत्म-स्वरूप से परिचित था और इसे अपनी कृति पर गर्व था । इसका प्रमाण इसके अपने वचनों से मिलता है अहो सरसरमणीयता संविधानस्य ( मा० मा० ६, १६, २) और, अस्ति वा कुतश्विदेवं भूर्त विचित्ररमणीयोज्ज्व तं महाप्रकरणम् (मा० मा० १०, २३, १८) । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ संस्कृत साहित्य का इतिहास (ड) यह शिखरिन्द के निपुण - निर्माण में खूब अभ्यस्त है । दूसरे बन्द जिनका अधिक बार प्रयोग हुआ है शादू जविक्रीडित] और fast हैं। काल--- सौभाग्य से भवभूति का समय प्रायः निश्चित-सा ही है । बाप ने अपने हर्षचरित की भूमिका मे इनका नाम नहीं लिया, परन्तु वामन ने (८ वीं श० ) इसकी रचना में से उद्धरण दिए हैं और राजशेखर (४०० ई० के लगभग) तो अपने आपको भवभूति का अवतार ही कहता है' । कल्हण ने लिखा है कि भवभूति और वाक्पतिराज कन्नौज-राज यशोवर्मा के आश्रय में रहा करते थे । यशोवर्मा को काश्मीर के शासक वखितादिस्य ने परास्त किया था और कहा जाता है कि ललितादित्य ने ७२६ ई० में चीन के राजा के यहाँ अपना राज-दूल भेजा । वाक पतिराज ने अपने अन्य गउडवह में भवभूति की प्रशंसा की है इसके लिए 'आज भी" का प्रयोग किया है। यह 'भान भी' बताया है कि सवभूति वा पतिराज से पहले हुआ था और चाकूपतिराज के काल में इसका यश खूब फैल चुका था । इस हिसाब से इम भवभूति का समय के आसपास मान सकते हैं। " ७०० ७ १ देखिए बभूव वल्मीकभवः पुरा कविस्तः प्रपेदे भुवि भतृ मेण्ठताम् । स्थितः पुनर्यो भवभूतिरेखया स बर्तते सम्प्रति राजशेखरः ॥ ( बा. रा. १,१६ ) २ कविवाक्पतिराजः श्रीभवभूत्यादि सेवितः । जितौ ययौ यशोवर्मा तद्गुणस्तुतिवन्दिताम् .. (४, १४४) ३ भवभूद्दजलहि निग्गयकव्यामयरसकरणा इव स्फुरन्ति । जरस विसेता अज्जवि वियडेसु कहाणिवेसेस (गउडवाइ७९६ ) Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजशेखर (११३) राजशेखर राजशेखर का जन्म एक कवि-वंश' में हुआ था। इसकी पत्नी अवन्तिसुन्दरी एक क्षत्रिय राजकन्या थी जो काव्य-कला में बड़ी कुशल यो । अधिक सम्भवत, यह विदर्भ और कुन्तल देश का निवासी था। (१)नपराजशेखर ?-माधवाचार्यरचित्त शङ्करदिग्वजय में वर्णित है कि राजशेखर केरलदेश का राजा था और उसने शङ्कराचार्य को अपने बनाए तीन नाटक भेंट किए थे। राजशेखर का एक शिलालेख भी मिलता है जिसे लिक्तित्ववेत्ता ईसा को नौवीं या दसवीं शताब्दी का बतलाते हैं। किन्तु कविराजशेखर और नृप राजशेखर को एक ही व्यक्ति मानने के लिए कोई प्रमाण दिखाई नहीं देता है। कवि राजशेखर एक उच्चश्रेणी के पुरोहित का पुत्र था, इससे यही अनुमान होता है कि शायद यह कोई राजा नहीं था । अधिक सम्भवतः कवि नपराज शेखर का समान नामक होने से लोगों की भ्रान्ति का कारण हुआ। (२) राजशेखर के अन्थ-अपनी बाजरामायण की प्रस्तावना में यह स्वयं कहता है कि मैंने छः ग्रन्थ लिखे हैं। निम्नलिखित चार नाटकों को छोडकर शायद इसके बाकी दो अन्य हैं रनमन्जरी (एक नाटिका) और भ्रष्टपत्रदलकमल (जिसका साच्य भोज देता है। (क) बालरामायण-यह दस अंकों का महानाटक है। प्रस्ताचना में कवि के कुछ असम्भव गुणों का भी उल्लेख है। इस नाटक की विशेषता यह है कि इस में रावण का प्रणय प्रधान वस्तु दिखबाई गई है। शुरू से ही सीता को प्राप्त करने के लिए रावण राम का प्रतिद्वन्दी दिखलाया गया है। (ख) बाल भारत या प्रचण्ड पाण्डव-यह रूपक अपूर्ण है। १ यह एक ऊंचे दर्जे के पुरोहित का पुत्र और अकालजलद नामक एक महाकवि का प्रपौत्र था। २ देखिए, बावनकौर प्राकियालोजिकल सिरीज़ २,८-१३ । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास केवल दो अङ्क प्राप्य हैं जिनमें द्रौपदी के विवाह, घस-दृश्य तथा पाण्डवों के बन-गमन तक का वर्णन है। विद्धशालभजिका-यह नियमानुस्त नाटिका है। इसमें चार श्रङ्क हैं। इसका नायक बाट-भूपति चन्द्रवर्मा है। कथावस्तु न अधिक रोचक है, न अधिक महत्वपूर्ण। (घ) कपूर मञ्जरी-यह भी एक नाटिका ही है और इसमें श्रङ्क भी चार ही हैं। इसमें प्रणय-पथ की समता-विषमताओं का तथा नप चन्द्रपान का कुन्तल की राजकुमारी के साथ विवाह हो जाने का वर्णन है। यह नाटिका प्रवन्तिसुन्दरी की प्रार्थना से लिखी गई थी। इसकी भाषा प्रादि से अन्त तक प्राकृत है। राजशेखर को गर्व है कि सकनभाषा-प्रवीण मैं प्राकृत को, जो लजनाओं की भाषा है, सुन्दर शैली युक्त साहिस्यिक रचना के लिए प्रयोग में ला सकता हूं। (३) नाटकीय कला' -राजशेखर के ग्रन्थों का विशेष लक्षण यह है कि इसने वस्तु वर्णन में बड़ा परिश्रम किया है। मौलिक कथानक लिखने या निपुण चरित्र-चित्रण करने मे इसने कष्ट नहीं उठाया। इसका सारा ध्यान विचारों को प्रभावोत्पादक रीति से अभिव्यक्त करने की तथा समानश्चतिक ध्वनियों का प्रचुर प्रयोग करने की ओर देखा जाता है। डा. ए. बी० कीथ की सम्मति है कि यदि काव्य का लक्षण केवल एक-सी ध्वनियां ही हैं तो राजशेखर उच्चतम श्रेणी का एक कवि माना जाएगा। यह संस्कृत और प्राकृत के छन्दों का प्रयोग करने में १ राजशेखर की स्तुति का बक्ष्यमाण पद्य सुभाषित संग्रहो में पाया जाता है पात' श्रोत्ररसायनं रचयितु वाचः सतां सम्मता, व्युत्पत्ति परमामवाप्तुमवधिं लब्धु रससोतसः। भोक्तु स्वादु फल च जीविततरोर्यप्रयस्ति ते कौतुकं, तद्भ्रातः शणु राजशेखरकवेः सूक्तीः सुधात्यन्दिनीः ।। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिङनाग की कुन्दमाला ३०७ बड़ा कृतहस्त है। इसने अकेली प्राकृत में ही कम से कम सतरह प्रकार के छन्द लिखे है। इसकी भाषा सुगम और रोचक है तथा छन्द विच्छित्तिशाली और आकर्षक हैं। बोज चाख की, विशेषतः महाराष्ट्री भाषा से शब्द बेरोक-टोक लिए गए हैं। इसकी शैली का एक और विशेष गुण यह है कि गीतगोविन्द और मोहमुद्गर के समान कमी कभी इसमें अन्स्यानुप्रास का भी प्रयोग पाया जाता है। (४) समय-सौभाग्य से राजशेखर का समय निश्चयतापूर्वक बतलाया जा सकता है। यह अपने आपको भवभूति का अवतार कहता है। इसने भालङ्कारिक उद्भट (वीं श०.) और आनन्दवर्धन (हवी श० ) का भी उद्धरण दिया है। दूसरी ओर इसका उल्लेख यशस्तिखक चम्पू (६६० ई० में समाप्त) के रचयिता सोमदेव ने और धारा के महाराज मुञ्ज (१७४-६६३ ई.) के आश्रित धनन्जय ने किया है। अपने चारों रूपकों में इसने अपने आपको कन्नौज के राजा महेन्द्र पाल का प्राध्यात्मिक गुरु लिखा है। इस राजा के शिलालेख १०३ और १०७ ई० के मिले हैं। इन सब बातों पर विचार करके वाजशेखर को १०० ई० के आस-पास मानने में कोई आपत्ति मालूम नहीं होती है। (११४) दिङ्नाग की कुन्दमाला। (1) छः अङ्कों वाली कुन्दमाता का प्रथम प्रकाशन, दक्षिण भारत में कुछ ही समय पूर्व प्राप्त हुई चार हस्तलिखित प्रतियों के प्राधार पर, सन् १९३३ ई० में दक्षिण भारती, ग्रन्थमाला में हुआ। इसने विद्वानों का ध्यान शीघ्र ही अपनी पोर श्राकष्ट कर लिया और तब से यह कई टीकाओं तथा अनुवादों के साथ प्रकाशित हो चुकी है। लेखक का नाम कहीं दिमाग मिलता है तो कहीं धीरनाग । प्रस्तावना केवल मैसूरवाली ही प्रति में मिलती है। इसमें कहा गया २ खण्ड ८२ के चौथे अंक पर पहली टिप्पणी देखिए । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास है कि कुन्दमाजा राराजपुर निवासी कवि दिड नाग को कृत्ति हैं। दूसरी ओर, वैजोर वाली प्रति के अन्त में लेखक (Scribe) ने लिखा है कि यह अनूपराध के निवासी धीरनागकी कृति है। संस्कृत साहित्या में धीरनाग को अपेक्षा निस्संदेह दिङ नाग नाम ही अधिक प्रसिद्ध है। फिर पुस्तक के अन्त में कही हुई लेखक (Copyist ) की बात की अपेक्षा प्रस्तावना में कही हुई स्वयं अन्धकार को बात ही अधिक विश्वसनीय है, इसलिए आधुनिक विद्वान् धीरनाग की अपेक्षा दिङ नाग पाठ ही युक्ततर समझते है। (२) भवभूति के उत्तररामचरित के समान कुन्दमाला का कथानक रामायण के उत्तरकाण्ड से लिया गया है और इसमें सोता के बन में निर्वासन की, राम को उसका पता लगने की, और दोनों के पुनर्मिलना की कहानी दी गई है। वाल्मीकि के आश्रम में गोमती नदी में बहती हुई कुन्द-पुष्षों की माला देखकर राम ने सोता का पता लगा लिया था, इसीलिए नाटक का नाम कुन्दमाला रक्खा गया । (३) शैली और नाटकीय कला-कविदृष्ट शक्ति की दृष्टि से दिनाग भवभूति से घट कर है, परन्तु नाटककार के रूप में इसे भवभूति से अधिक सफलता मिली है। इस नाटक में सजीवता और क्रियावेग दोनों हैं तथा चरित्र-चित्रण भी अधिक विशदे और चित्रवत् मनोहर है । इसने भवभूति की कई त्रुटियो का भी परिष्कार कर दिया है। उदाहरणार्थ, न तो यह लम्बी लम्बी वक्तृताओं को पसन्द करता है, और न श्चमोत्पादित व न (जो नाटक की अपेक्षा काग्य के अधिक उपयुक हैं), तथा न इसने दीर्घ समास और न दुर्बोध पद हो प्रयुक्त किए हैं । उत्तररामचरित में करुण के साथ वीर रस का संयोग देखा जाता है; किन्तु इस सारे नाटक में अन्य रसों के मिश्रण से रहित शुद्ध १ कीलहान:-ऐपिन फिया इडीका १, १७१। २ देखिए, तत्रभवतोऽरारालपुरवास्तव्यस्य कैबेर्दिडं नागस्य कृति कुन्दमाला । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनाग की कुन्दमाला ३०६ करुण रस की ही प्रधानता है। भाषा सुगम और हृदय ग्राहिणी तथा संवाद कौतुहतवर्धक और नाटक गुणशाली हैं । यदि उत्तररामचरित नाटकीय काव्य है तो कुन्दमाना सच्चा नाटक - श्रभिनय के नितान्त उपयुक्त | दिङ्नाग के पात्र वैसे कल्पनाप्रसूत नहीं हैं जैसे कालिदास के हैं, ये वस्तुतः भवभूति के पात्रों से भी अधिक पार्थिव हैं। इसे यद्यपि अनुप्रास और यमक अलङ्कार बड़े प्रिय हैं, तथापि इसने विशदअर्थ यय करके कभी इनका प्रयोग नहीं किया है। इसकी शैली की एक और विशेषता यह है कि यह कभी कभी लय-पूर्ण गद्य व्यवहार में जाता है। 1 (४) समय - कुन्दमाला की कथा बिल्कुल बद्दी है जो उत्तररामचरित की है। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से विस्पष्ट होजाता है कि कुन्दमाना लिखते समय इसके लेखक के सामने उत्तररामचरित रक्खा हुआ था। कई बाबों में कुन्दमाला उत्तररामचरित का ही बहुत कुछ विस्तृत रूप है । भवभूति के नाटक में हो राम को स्वीता की पहचान केवल स्पर्श से ही होती है, परन्तु इसमें स्पर्श के अतिरिक्त पहचान के और भी पाँच साधन हैं, वे हैं. सीता शरीररूपशौं वायु, कुन्द-माला, सीता का जलगत प्रतिबिम्ब, पदचिन्ह, और दुकूल । उत्तरामचरित में राम और सीता का मिलन केवल एक बार दोता है, परन्तु कुन्दमाला में दो बार। ऐसे और भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, कुन्दमात्रा में कई ऐसे प्रसङ्ग भी हैं जो उत्तररामचरित को देखे बिना असमाधेय ही रहते हैं। उदाहरणार्थ, यह जान कर कि राम मेरे प्रति निरनुक्रोश हैं, सीता गर्व का अनु भव करती है ( देखिए, निरनुक्रोश इत्याभिमानः, अङ्क है, पथ १२ के पूर्व ) । कुन्दमाला में ढूंढने से ऐसा कोई भी अवसर नहीं मिलता जिससे सीता के इस अभिमान करने का कारण ज्ञात हो सके ! परन्तु उत्तमचरित में जब हम राम को वच्यमाणा पद्म बोलता हुआ सुनते हैं सब बात विस्पष्ट हो जाती है: Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि । धाराधनाय लोकस्य सन्चतो नास्ति मे व्यथा ॥ (उ. रा. च...१२) इसके अतिरिक्त, हम देखते हैं कि राजशेखर कुन्दमाखा के बारे में कुछ नहीं कहता है। इस नाटक में से उद्धरण देने वाला सबसे पहला पुरुष भोजदेव (लगभग १०१८-१०६० ई.) है। महानाटक (११वीं से १३वीं श०) शारदातनयकृता भावप्रकाश (लगभग १२ श. और साहित्यदर्पण ( १४वीं श.) में भी इसके उल्लेख या उद्धरण पाए जाते हैं। अत: हम कुन्दमाला का निर्माण-काल ईसा की १०वों शताब्दी के प्रास-पास मान सकते हैं। (११५) मुरारि (१) मुरारि के श्रमोत्पादित अनर्घरावव में सात अङ्क है जिनमें रामायण की कहानी दी गई है। कथावस्तु के निर्माण की दृष्टि से यह अधिकतर भवभूति के महावीर-चरित से मिलता जुलता है। (२) शैली और नाटकीय कला--मुरारि की गणना संस्कृत के महाकवियों में की जाती है । कभी कभी य६ महाकवि तथा बालवाल्मीकि की उपाधि से विभूषित किया जाता है। गम्भीरता की दृष्टि से इसकी बड़ी प्रशंसा सुनी जाती है। उदाहरण के लिए उसकी स्तुति में एक पद्य देखिए देवी बाचमुपासते हि बहवः सारं तु सारस्वतं, जानीते नितरामसौ गुरुकुल क्लिष्टो मुरारिः कविः। अधिरलक्षित एव वानरभटः किन्त्वस्य गम्भीरता मापातालनिमग्नपीवरतनु नाति मन्थाचलः ॥ विचार-द्योतन को इसकी शक्ति वस्तुतः असाधारण और भाषा एवं ज्याकरण पर इसका प्रभुत्व प्रशंसनीय है। इसे अत्युक्तियों का बा शौक है। इसकी किसी सुन्दरी की मुखच्छवि की बराबरी चन्द्रमा भी नहीं कर सकता, इसीलिए चन्द्रमा की छवि को न्यूनता को पूर्ण Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारि करने के लिए रात्रि में नक्षत्रमण्डल चमकता है । इसका वचनोपन्यास अक्लिष्ट परन्तु पाण्डित्यपूर्ण है। कभी कभी जब यह अपनी परिडताई दिखलाने लगता है तब किसी टीका की सहायता के बिना इसे लममना कठिन हो जाता है। इसकी उपमानों में कुछ कुछ मौलिकता और पद्योक्तियों में सङ्गीत जैसो लयश्रुति है। इसके कुछ श्लोक वास्तव में शानदार और जाद का-सा असर रखने वाले हैं। खेद है कि कुछ पाश्चात्य विद्वान् इसके ग्रन्थ के जौहर की महत्ता को नहीं जान सके हैं। विल्सन का मत है कि हिन्दू पण्डितों ने मुरारि का प्रन्यायपूर्ण पक्षपात किया है। कारण, "आजकल के हिन्दू विचार की विशुद्धता, अनुभूति की कोमलता और कल्पना की प्रामा का अनुमान लगाने की बहुत कम योग्यता रखते हैं"। परन्तु अमराव का सर्वाङ्गपूर्ण मध्येता जानता है कि इन्हीं गुणों के कारण की जाने वाली मुरारि की प्रशंसा सर्वथा यथार्थ है। (२) समय--(क) मुरारि ने मनभूति के दो पद्य उद्धत किए हैं, अतः यह निश्चय ही भवमूति के बाद हुआ। (ख) काश्मीर के अवन्तिवमा के (८५५-८८४ ई.) आश्रय में रहने वाले रस्नाकर ने अपने हरविजय महाकाव्य में श्लेष के द्वारा मुरारि की ओर जो संकेत किया है वह नीचे के पद्य में देखिए--- अंकोस्थनाटक इवोत्तमनायकस्य, नाशं कवियंधित यस्य मुरारिरिस्थम् । ( ३७, ३६७) (ग) मल के (११३५ ई.) श्रीकण्ठचरित से प्रतीत होता है कि यह मुरारि को राजशेखर से पहले उत्पन्न हुआ समझता था। शास: मुरारि का स्फुरण-काल मोटे रूप में ईसा को नौवीं शताब्दी के पूर्वा में माना जा सकता है। १ अनेन रम्भोरु ! भवन्मुखेन तुषारभानोस्तुलया धृतस्य । ऊनस्य नूनं प्रतिपूरणाय ताराः स्फुरन्ति प्रतिमानखण्डाः ।। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ संस्कृत साहित्य का इतिहास (११६) कृष्णमिश्र कष्ण मिश्र का प्रबोधचन्द्रोदय एक महत्त्वपूर्ण भप्रस्तुत प्रशंसात्मक ( Allegorical)रूपक है। इसकी रचना किसी मन्दुमति शिष्य को प्रत वेदान्त के सिद्धान्त समझाने के लिए की गई थी। इस रूपक में बड़ी सुगम और विशद रीति से अहत वेदान्त की उत्कृष्टता का प्रतिपादन किया गया है। भाव-वाचक संज्ञाओं को व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ मान कर पात्रों की कल्पना की गई है। ____कपूयचरित 'महामोह' काशी का राजा है। काम, क्रोध, लोभ, दम्भ और अहङ्कार उसके सचिव हैं। इसके विपक्षी हैं-पुण्यचरित प विवेक, जिनके सहायक हैं सन्तोष, प्रशोधोदय, श्रद्धा, शान्ति और क्षमा इत्यादि सब सद्गुण । महामोह इन सबको इनके घर से मार भगाता है । तब एक आकाशवाणी होती है कि एक दिन विवेक ईश्वरीयज्ञान के क्षेत्र में नौट कर या जाएगा और यथार्थज्ञान की प्राप्ति महामोह के राज्य का नाश कर देगी। अन्त में विवेक पक्ष की गौरवशाली विजय और महामोह की पूर्ण पराजय होती है। समय इस रूपक को प्रस्तावना में प्रसंगवश न प कीर्तिवर्मा से प्राप्त राजा कर्णदेव की पराजय का उल्लेख या गया है। कहा जाता है कि राजा कीर्तिवर्मा ने १०४६ से ११०. ई० तक राज्य किया था और १०६५ ई० के श्रासपास राजा कर देव को हराया था। अतः कृष्ण मिश्च का समय निस्संदेह ११ वीं शताब्दी के अत्तराद्ध में मानना चाहिए। (११७) रूपककला का हरास मुरारि और राजशेखर के थोड़े ही दिन पीछे रूपककला का हास प्रारम्भ हो गया। इस समय संस्कृत साहित्य के अन्य क्षेत्रों में भी अवनति के निश्चिात बाण दिखाई देने लगे थे--अगम (Classical) संस्कृत की प्राति का काब११००ई के आसपास समाप्त हो जाता Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपककला का ह्रास ३१३ है -- परन्तु रूपक के क्षेत्र में तो प्रगति का बाघ और भी अधिक विस्पष्ट है। इस समय संस्कृत और भात भाषाओं के बीच भेद की खाड़ी धीरे धीरे बहुत चौड़ी हो चुकी थी। रूपकों की प्राकृत भाषाएँ as पुरानी होती गई और उनका स्थान पहले अपभ्रंश ने और वाद में बोलचाल की भाषाओं ने ने लिया । राजशेखर ने tags बोलचाल की भाषाओं से, विशेषतः महाराष्ट्री से, शब्द ले लिए थे । बाद के कृतिकारों की कृतियों में थोड़ा थोड़ा अन्स्यानुप्रास का प्रयोग भी बोलचाल की भाषा प्रभाव के कारण ही हुआ है । शनै: शन: बोलचाल की भाषाओं ने ही साहित्यिक भाषाओं का रूप धारण कर नया और संस्कृत या साहित्यिक प्राकृत में लिखे हुए रूपकों का प्रचार घटने लगा । कीर्ति के लिए लिखने वाले कवियों ने काव्य या साहित्य के किसी अन्य अंग का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया; कारण, संस्कृत के नाटक न तो साधारण जनता के ही अनुराग की वस्तु रह गए थे और न उनके लेखकों को धन से पुरस्कृत करने वाले बहुत राजा या जागीरदार ही थे। अतः कीर्ति प्राप्त करने की आशा व्यर्थ थी । हाँ, नाटक लिखने की प्रथा वर्तमान शताब्दी तक चली आई | संस्कृत नाटक लिखकर स्वान्तः सुखाय संस्कृत Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (१) पाश्चात्य जगत् में संस्कृत का प्रचार कैसे हुआ ? (१) यद्यपि पञ्चतन्त्र की कथाएँ तथा श्रार्यों को विद्वत्ता के विषय में प्रसिद्ध कहानियाँ यूरोप में 'मध्यकाल में ही पहुंच चुकी थी, तथापि इसे आर्यों की भाषा या संस्कृत के विशाल साहित्य का कुछ पता नहीं था । कुछ यूरोपियन प्रचारकों ने संस्कृत सीखी और प्रबाहम रोजर ( Abraham Roger) ने १६९१ ई० में भतृहरि के शतकों का डच भाषा में अनुवाद किया, परन्तु यूरोपियन लोग कृत से तब भी पूर्ण अपरिचित रहे । कितो यहूदो प्रचारक ने १७ वीं शताब्दी में यजुर्वेद की एक बनावटी प्रति तैयार की। १८ वीं शताब्दी के मध्य में मिस्टर वाल्टेयर ने इसे ही असन्जी यजुर्वेद समझ कर इसका बड़ा स्वागत किया। जब इस जाललाजी का पता लगा तब यूरोपियन विद्वान् लोग समझने लगे कि संस्कृत साहित्य ही नहीं, संस्कृत भाषा भी केवल एक बनावटो भाषा है जिसे सिकन्दर के श्राक्रमण के बाद ग्रीक भाषा की नकल पर ब्राह्मणों ने धड़ लिया था। इस धारणा का समर्थन 16 वीं शताब्दी को चौथी दशाब्दी में डब्लिन के एक प्रोफसर ने बड़ी योग्यता के साथ किया था। (२) संस्कृत साहित्य के महत्त्व को अनुभव करने वाला और १ १०३० से १४०० ई० तक, या अधिक विस्तृत अर्थ में ६०० से १५०० तक। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ः परिशिष्ट (१) भारतीयों के ऊपर उनके दो रोति-रिवाजों के सार शासन करने की श्रावश्यकता को समझने वाला पहजा अंग्रेज रन हेस्टिग्ज था। अपने विचारों को कार्य रूप में परिणत करने के जिए उसने प्रयत्न भी किया, जिला परिणाम यह हुआ कि १७७६ ई. में फारसी अनुवाद के माध्यम द्वारा संस्कृत की कानूनी किताबों का एक पार-सग्रह अंग्रेजी भाषा में तैयार किया गया। (३) वारन हेस्टिग्ज़ की प्रेरणा से चार्लस चिम्किस ने संस्कृत पढकर १७८९ ई० में भगवद्गीता का और १७८७ ई० में हितोपदेश का इंग्लिश अनुवाद किया। (४) विल्किम के अनन्तर संस्कृत के अध्ययन में भारी अभिरुचि दिखाने वाला सर विलियम जोन्स (१७४६-१४ ई०) था। इसने १७८४ ई० में एशियाटिक सोसायटो श्राद बंगाल को नींव डाली, १७८९ ई० में शकुन्तला नाटक का और थोडे ही दिन बाद मनुस्मृति का इंग्लिश अनुवाद प्रकाशित किया। १७६२ ई० में इसने ऋतुसंहार का मूल संस्कृत पाठ प्रकाशित किया। (५) इसके अनन्तर संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान् हेनरी टॉमम कोल्छुक ( १७६१-१८३७ ई० ) हुा । इसी ने सब से पहले संस्कृत भाषा और संस्कृत साहित्य के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग प्रारम्भ किया। इसने कतिपय महत्त्वशाली ग्रंथों का मूलपाठ और अनुवाद प्रकाशित किया तथा संस्कृत साहित्य के विविध विषयों पर कुछ निबन्ध भी लिखे। बाद के विद्वानों के लिए इसकी प्रस्तुत की हुई सामग्री बड़ी उपकारिणी सिद्ध हुई। यगेप में संस्कृत के प्रदेश की कहानी बड़ी कौतूहलजनक है। अलैग्ज़ांडर हैमिल्टन ने ( १७६५-१८२४ ई.) भारत में संस्कृत पढ़ी । सन् १८०२ ई० में जब वह अपने घर जाता हुआ क्रॉस से गुजर रहा था इंग्लैण्ड और फ्रांस में फिर नए सिरे से बढ़ाई छिड़ गई और Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास वह बन्दी बना लिया गया । इस प्रकार बन्दी की दशा में पेरिस में रहते हुए उसने कुछ म चविद्यार्थियों को तथा प्रसिद्ध जर्मन कवि ररक श्लैगन ( Friedrich Schlegel ) को संस्कृत पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। यह कार्य युग-प्रवर्तक सिद्ध हुधा । १८०८ ई०३ श्लैगल ने "ऑन दि लैंग्वेज ऐंड विडज़म वि इंडियन्ज' (भारतीयों की भाषा और विद्वत्ता) नामक अपना एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित किया जिससे यरोप में : 'स्कृत-विद्या के अध्ययन में एक क्रान्ति पैदा हो गई । इसी से धीरे-धीरे भाषा की विद्या के अध्ययन में तुलनात्मक रीति का प्रवेश हो गया। श्लगल के ग्रन्थ से उत्साहित होकर जर्मन जिज्ञासुओं ने संस्कृत भाषा और इसके साहित्य के अध्ययनमें बडो अभिरुचि दिखलानी शुरू कर दी । इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं कि यगोप में संस्कृत सम्बन्धी जितना कार्य हुश्रा है उसका अधिक हेतु अर्मनों की विद्या-प्रियता है। (७) १८५६ ई० में ऐफ बॉप (F. Bopp) ने ग्रीक, लैंडिन, जर्मन और फारसी सन्धिप्रकरण के साथ तुलना करते हुए संस्कृत के सन्धिप्रकरण पर एक पुस्तक लिखी । इससे वहाँ तुलनात्मक भाषाविज्ञान की नींव पड़ गई। (6) अब तक यूरोपियनों का संस्कृताध्ययन श्रेण्य (Classical) संस्कृत तक ही सीमित था। १८०५ ई० में कोल्शु क का 'वेद' नामक निबन्ध प्रकाशित हो चुका था, अन जर्मन अधिक गम्भीरता से वैदिक अन्थों का अध्ययन करने में लग गए। ईस्ट इण्डिया हाऊस में वैदिक अन्य पर्याप्त संख्या में विद्यमान थे ही, बस ऐफ रोजन ( F. Rosen ) नाम विद्वान् ने १८३० ई० के लगभग उन पर काम करना प्रारम्भ कर दिया । इसकी अकाल मत्यु के थोड़ेही समय पश्चात् १८३८ ई. में उसका सम्पादित 'शग्वेद का प्रथम अष्टक प्रकाशित किया गया। (१) ६ ई० में प्रकाशित भार, रॉथ (R. Roth ) के "वैद्रिक साहित्य और विकास" मासक प्रभ ने यूरोप में वैदिक Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (१) ३१७ साहित्य के अनुशीलन को तेज करने में और अधिक सहायता प्रदान की। और रॉथ (१८२१ - १३) स्वयं वदिक भाषा-विज्ञान ( Philalogy ) की नींव डालने वाला था। उसका उदाहरण अन्य अनेक सरस्वती-सेवियों के मन में उत्साह को उमंगें पैदा करने वाला सिद्ध हुआ। वोऐना ( Vienna ) के प्रो० वूहूलर ( Buhler ) ने माना देशों के लगभग तीस विद्याविशारदों की सहायता के बल पर समग्र वैदिक और श्रेय संस्कृत-साहित्य का एक विशाल विश्वकोष प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया | १८८ ई० में उसका परलोकवास हो जाने पर गोटिंजन ( Gottingen ) के प्रोफैसर कीलहान ( Kielhorn) ने इस परम बृहदाकार अन्य को पूर्ण करने का निश्चय किया । (१०) ए. कुन ( A, Kuhn ) और मैक्समूलर ( Max Muller ) ने बड़े उत्लाद और श्रम के साथ अपने अध्ययन का विषय वैदिक धर्म को बनाया। उनके अनुसन्धानों से तुलनात्मक पुराणविद्या ( Mythology ) के अनुशीलन की श्राधार- शिक्षा का आरोपण हुआ । (११) वर्तमान शताब्दी का प्रारम्भ होने तक यूरोपियन पण्डितों ने प्रायः सभी वैदिक और संस्कृत प्रन्थों का सम्पादन तथा भकिं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुवाद कर डाला था । श्रम अगले अनुसंन्धान के लिए क्षेत्र तैयार हो चुका था। तब से बहुत बड़ी संख्या में यूरोपियन विद्वान बड़े परिश्रम के साथ भारतीय आायों के प्राचीन साहित्य आदि के अनुसन्धान में लगे हुए हैं। इन ख्यातनामा लेखक' के लेखों को १ इनमे से कुछ प्रसिद्ध के नाम हैं मैक्डॉनल (Macdonell), हॉपकिंस ( Hopkins), हारविंट्ज ( Horrwitz), विंटर्निट्ज (Winternitz), पाजिटर (Pargiter), श्रील्डनबर्ग ( Oldenbutg), पीर्टसन ( Peterson ). इटल (Hertel), ऐजन ( Edgerton) रिजवे (Ridgeway), कीथं (Keith ) | Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ संस्कृत साहित्य का इतिहास उल्लेख जहाँ जहाँ उचित समझा गया हैं इस पुस्तक में किया नाय है। डेढ़ सौ वर्ष के अन्दर अन्दर सम्पूर्ण वैदिक और लौकिक संस्कृतसाहित्य की. जो परिणाम में ग्रीक और लैटिन के संयुक्त साहित्य से बहुत अधिक है, छानबीन कर डाली गई है । यद्यपि इतना घना काम हो चुका है तथापि अभी अनुसन्धान कार्य के लिए बहुत विस्तृत क्षेत्र बाकी पड़ा है। भारतीय और यूरोपियन सरस्वती-सदनों में अभी अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण प्रन्थोंकी हजारों हस्तलिखित प्रतियाँ रक्खी हैं जिन पर बहुत सा मौलिक कार्य हो सकता है। (२) भारतीय वर्ण-माला का उद्भव । कई यूरोपियन विद्वान् मानते है कि प्रारम्भ में आर्य लोग लिखने की कला नही जानते थे, यह कला उन्होंने विदेशियों से सीखी थी। यूरोप में संस्कृताध्ययन के प्रारम्भिक युगों में यह धारणा जैसा कि बुलर ने कहा भी है, “अननुकूल परिस्थिति के दबाव से उपेक्षित भारतीय शिलालेखादि के विशेष अध्ययन पर इतनी अवलम्बित नहीं थी, जितनी एक तो इस सामान्य विचार पर कि भारतीय लिपि के कुछ वर्ण सैमाइट-वर्ग को लिपियों के वर्गों से अत्यन्त मिलने जुलते हैं, दूसरे इस विश्वास पर, क्सिी किसी दशा में जिसका समर्थन स्पष्टतम साक्ष्यों से होता है, कि भारतीय आर्यों की सभ्यता का निर्माण अनेक और विविध-विध उपादानों से हुया है जो सैमाइटवर्गीय, ईरानी और यूनानी इन तीन पश्चिमीय जातियों में से लिए गए हैं। यह लेना किस प्रकार हुया इस बात को स्पष्ट करने के लिए कई युक्तियाँ कल्पित की गई हैं। इनमें सब से अधिक प्रसिद्ध युक्ति बुलर की है। १ कुछ युक्तियाँ नीचे दी जाती हैं : (१) प्रो० वैवर (Weber) के मत से भारतीय वर्णमाला सीधी प्राचीनतम फीनिशिया की वर्णमाला से ली गई है। (२) डा. डीक (Deecke) का विचार है कि इसका जन्म Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (२) ३१६ बुहर ( Bubler) की युक्ति- बुहर की नजर से भारतीय वर्णमाला का जन्म उत्तरी सैमाइट वर्णमाला से अर्थात् कीनिशियन वर्णमाला से हुआ था और इसका व्युत्पादन हुआ था उत्तर पूर्वी सैमाइट वर्णमाला के उर्ध्वकालीन नमूनों में से किसी एक नमूने में से । बुहर के अनुमान का श्राधार वच्यमाण धाराएँ हैं: ( १ ) एक वर्णमाला की उत्पत्ति मिस्व देश को चित्राकार लिपि ( Heiroglyphics ) से हुई थी, और (२) ब्राह्मी लिपि प्रारम्भ में दाहनी ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी । एरन ( Eran ) के सिक्के से सिद्ध होती है । इन धारणाओं के समर्थन के लिये उसने निम्नलिखित साच्य इ.दे हैं: --- makakapantay असीरिया के फणाकार (Cuneiform ) वणों से निकले हुए प्राचीन दक्षिणी सेमाइट वर्णं ही हिम्यैराइट (Himyarite) वर्णों के जन्म दाता हैं । (३) डा० श्राइजक टेलर (Isaac Taylor ) की सम्मति में इसकी जननी दक्षिणी अरब देश की एक वर्णमाला है जो हिम्यैराइट वर्णमाला की भी जननी है । (४) ऐम० जे० हैलेवि (M. J. Halevy) का कथन है कि यह वर्णमाला वर्णसङ्कर है अर्थात् कुछ वर्ण ई० पू० चौथी शताब्दी की उत्तरी सैमाइटवर्ग की वर्णमाला के है, कुछ खरोष्ठी के और कुछ यूनानी के । कहा जाता है कि यह खिचड़ी ५२५ ई० पू० के आसपास पक कर तैयार हुई थी। दूसरी ओर सर ए० कनधिम ( Sir A Cunningham) कहते हैं कि भारतीय ( जिसे पाली और ब्राह्मी भी कहते हैं ) वर्णमाला भारतीयो की उपज्ञा है और इसका आधार स्वदेशीय चित्राकार लिपि विज्ञान ( Heiroglyphics ) है | Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास 1) जातकों और महानग्ग इत्यादि में आए हुए लिखने के उल्लेख (३) अशोक के शासनों में श्राए हुए प्राचीन लेख सम्बन्धी तथ्य (३) ईरानी मुद्राओं पर भारतीय वर्ण; (४) पुरन ( Eran) सिक्के के बारे में प्रचलित उपाख्यान और (१) भट्टिमोलु (Bhattiprolu ) का शिलालेख । इन सब बातों से डा० बुह्नर ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि भारतीय वर्णमाला का मूल-जन्म होना ई० पू० चौथा शताब्दी से पूर्व ही प्रारम्भ हुआ (यही अनुमान इससे पूर्व मैक्समूलर द्वारा प्रकट किया जा चुका था); सम्भवतया ई० पू० का यह काल छठी शताब्दी (ई० पू०)था और भारतोय वर्णमाला का अभिप्राय ब्राह्मो वर्णमाला है। फोनिशिया की वर्णमाला =५० ई० पू० से पहले भी विद्यामान थी यह बात सिंजिरली ( Sinjirli ) के शिलालेख से और असीरिया के बाटों ( weights) पर खुदे हुए अक्षरों से अच्छी तरह प्रमाणित होती है। उक्त महोदय ने फीनिशियन और ब्राह्मो दोनों वर्णमालाओं की तुलना करके मालूम किया है कि ब्राह्मो वर्णमाला फ्रोनिशियन (Phoenician) वर्णमाला से निकाली गई है। वाणों का रूप बदलने में जिन विधियों से काम लिया गया है बुलर ने उन्हें भी निश्चित करने का प्रयत्न किया है, उदाहरणार्थ, वर्णों के सिर पैरों की ओर कर दिये गये हैं, दाई ओर से बाई ओर को लिखने की रीति को १ बुह्नर का प्रयत्न यह सिद्ध करने के लिए नहीं है कि ब्राह्मी वर्ण माला अवश्य विदेशी चीज़ है या भारतीय विद्वानों की प्रतिभा से इसकी उत्पत्ति होने की सम्भावना ही नहीं हो सकती है। यह अंगीकार करके कि इस वर्णमाला का जन्म विदेशी तत्त्वों से भी होना सम्भव है, उसने केवल उस विधि को समझाने की चेष्टा की है जिसके द्वाग इसका जन्म शायद हुआ हो। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ परिशिष्ट (२) उलट कर बाई ओर से दाई शोर को लिखने की रीति चलाई गई है, वों के सिर पर को प्राङ्ग-विस्तृति को मिटा दिया गया हैं। पहले पहल तो बुह्नर का मत बिल्कुल सम्भव जान पड़ा और विद्वान् लोग इसकी और आकृष्ट भी होने लगे; परन्तु शीघ्र ही अर्ध्वकालीन अनुसन्धानों ने इसे अग्राह्य बना दिया। बुह्नर के मत से विप्रतिपत्तियाँ ---(क) जिन धारणाओं पर बुलर ने अपने मत को खड़ा किया था, अब उन धारणाओं का ही विरोध किया जाने लगाहै । अब फ्लिडम पैदी ( Flinders Petrue ) ने अपने “वर्णमाला का निर्माण” नामक ग्रन्थ में दिखलाया है कि वर्णमाला की मूलोत्पत्ति चित्राकार ( Helloglyphics ) लिपि के रूप में नहीं, बल्कि प्रतीक चिहरे (Symbols) के रूप में जाननी चाहिए। हमारे लिए यह मानना कठिन है कि प्रारम्भिक मनुष्य में इतनी बुद्धि और निपुणता थी कि वह अपने विचारों को चित्र खींच कर प्रकाशित कर सकता था ( यह बात तो उन्नत सामाजिक अवस्था में ही सम्भव है) । प्रारम्भिक मनुष्य के बारे में हम केवल इतना ही मान सकते हैं कि वह पतित, उत्थित, ऋजु, वक्र इत्यादि रेखाएँ खींचकर इन संकेतो से ही अपने मन के भाव प्रकट कर सकता होगा। (ख) अब लीजिए दूसरी धारणा । किसी एक सिक्के का मिल जाना इस बात का पर्याप्त साधक प्रमाण नहीं है कि प्रारम्भ में यह लिपि दाई से बाई ओर को लिखी जाती थी। ऐसा ही उन्नीसवीं शताब्दी के होल्कर के तथा इसके आद के आन्ध्रवंश के शिला लेख की प्राप्ति से १ इन्दौर के एक सिक्के पर, जिस पर विक्रम संवत् १६.४३ दिया है, "एक पाव श्राना इन्दौर " ये शब्द उल्टे खुदे हुए हैं । एक और पुरानी मुद्रा पर "श्री सपकुल' इन शब्दों में "श्री" तथा "q" उलटे खुदे हुए हैं। इसी प्रकार कुछ अन्य मुद्राओ पर भी उल्ट खुदे हुए वर्ण देखने में पाए हैं। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास अब पना लगना है कि वे सिक्के जिन पर ब्राह्मी लिपि दाई से आई गोर को लिखी हुई हैं. सिक्के नहीं, शिला लेखों को अक्षित करने के लिए वस्तुतः मुद्रा (Stamps) हैं, अत: उनके उपर वों का विपर्यस्त दिशा में खुदा होना स्वाभाविक ही है। (ग) यह बात भी याद रखने योग्य है कि एरण ( Eran ) वाले सिक्के से भी प्राचीनतर भट्टिनोल के लेखों में लिपि की दिशा बाई से दाई ओर को है। (ध डा. बुलर की पूर्वोक्त धारणाओं को जैसे चाहे पैसे लगा सकते हैं। ये धारणाएँ पूर्वोक्त वर्णमालाओं में न तो अत्यन्त साम्य ही १ डा. बुङ्कुर ने भट्टिमोलु के लेख मे एरण (Eran) के सिक्के पर और अशोक के शासनों में पाए जाने वाले प्राचीनतम - भारतीय लिपि के अक्षरों की तुलना प्राचीनतम सैमिटिक उत्कीर्ण लेखो में तथा असीरियन बाटो (Weights) मे उपलब्ध चिह्नो के साथ की है। इस तुलना के बाद उसने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि प्राचीन ब्राही लिपि के चवालीस अक्षर सेमिटिक चिन्हो के अन्दर मिल सकते हैं और सैमिटिक के सम्पूर्ण बाइस अक्षरो के प्रतिनिधि या अशज इस लिपि में मौजूद हैं। इस लिपि के निकालने वालों ने अपने निर्माण का एक नियम निश्चित करके, सीधी चलने वाली रेखा के अनुकूल चिन्ह कल्पित करने की इच्छा से विवश होकर और सब महाशिरस्क अक्षरों से कुछ ग्लानि होने के कारण कुछ सैमिटिक अक्षरी को उल्टा कर दिया था उन्हें करवट के बल लिटा दिया और सिर के त्रिकोणो या द्विकोणों को बिल्कुल हटा दिया । ब्राह्मी लिपि की असली दिशा दाई से बाई और को थी, जैसा कि डा० बुह्वर ने एरण ( Eran ) के सिक्के की सहायता से सिद्ध करना चाहा है, बाद में जब दिशा बदली गई तब अक्षर भी दाई से बाई ओर को बदल दिए गए । व्युत्पादन के ये नियम निश्चित करके उक्त डाक्टर महोदय ने एक एक सेमिटिक अक्षर लिया Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (२) सिद्ध करती हैं और न अन्योन्य अभेद (Mutual identity) वा स्वयं भी अपने ही माने हुए सिद्धान्तों पर सब अवस्थाओं में हड़ नई है, इससे समानता रखने वाले ब्राह्मी अक्षर के साथ इसकी तुलना की है और तब यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि किस प्रकार असली अक्षर में हेर-फेर करके नकली अक्षरों का रूप रंग चमकाया गया है । कुछ उदाहरण लीजिए:-- (१) समिटिक 'त्सदे' (Tsade) को पहले उलटा कर दिया, दाहनी ओर की छोटी रेखा को सीधी खड़ी रेखा की ओर मुंह करके घुमा दिया। बाद में, इस सीधी खड़ी रेखा को बाई ओर घुमा दिया और दिशा भी वदल दी । बस 'व' बन गया, यहो 'व' भट्टिनाल के लेख में 'च' पढ़ा जाता है अर्थात् भट्टियोलु मे 'च' का यही रूप है। (२) सैमिटिक 'नन्' (nun) को पहले उलटो किया । बाद मे, अक्षर को जल्दी से लिखने के प्रयोजन से सीधी खड़ी रेखा के पैर के नीचे दोनो ओर को जाती हुई पतित रेखा खींच दी । इस प्रकार । (ब्राह्मी 'न) बन गया। इस रीति से डा. बुलर ने पहले तो सब बाईस समिटिक अक्षरो के प्रतिनिधिभत बाईस ब्राह्मी अक्षर खोज निकाले हैं, फिर इन बाईस में से किसी को स्थानान्तरित करके, किसी को छेत-पीटकर, या किसी में वक्र, किसी में अपूर्ण बृत्ताकार रेखाएं जोड़कर, बनाए हुए 'व्युत्पादित' अक्षरों के विकास को समझाया है। तात्पर्य यह है कि उसने ब्राह्मी के चवालीस के चबालीस अक्षरो का सम्बन्ध सैमिटिक के श्रादशंभत वाईस अक्षरों से यथा कथंचित् जोड़ दिया है। अव रही बात कि भारतीयों ने यह काम किया कब ? सेमिटिक उत्कीर्ण लेखा, मैसा (Messa) के पत्थर तथा असीरियन (Assyrian) बाटो (weights) के समय को देखते हैं तो भारतीयों के इस काम Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ संस्कृत साहित्य का इतिहास रहता । जैसा कि एक बहुअन लेखक ने इंग्लिश विश्वकोष में लिख है, उसके सिद्धान्तों के अनुसार तो किसी भी वर्णमाला से किसी में वर्णमाला का ध्युत्पादन किया जा सकता है। फिर डा० बुहर के व्युत्पा दन की रीति में कई बातें असमाहित रह जाती हैं। उनमें से कुछ एक यहाँ दी जाती है : (१) ग 'n', ज' और क के सिर पर की विशालता। (२) ब्राह्मी के क ' का सैमिटिक ता ( Taw) के साथ अभेद । यदि सैमिटिक वर्णमाला का यह अक्षर भारतीय लोग 'क' के रूप में ले सकते थे तो उन्होंने सैमिटिक ता (Taw ) को अपनी (ब्राह्मी) लिपि में ' इस रूप में विकृत क्यों किया ? ब्राह्मी के " इस अक्षर को ही सैमिटिक ता ( Taw ) " का स्थानापन्न का काल ८६० ई० पू० और ७१० ई.पू के बीच मालूम होता है, सम्भवतया "७५० ई. पू की अोर हो अधिक हो” । -इसके बाद उक्तः डाक्टर महोदय ने उस पुराने काल का निश्चय करने का यत्न किया है जिसमे भारतीय लोग व्यापार करने के लिए समुद्र के मार्ग से फारिस की खाड़ी तक जाया करते थे; क्योकि डाक्टर महोदय का विचार है कि सैमिटिक लिपि भारत मे ( Messopotamna ) के मार्ग से पहुंची होगी। आगे चलकर वे कहते हैं कि महत्त्वपूर्ण अक्षर असली या बहुत कम परिवर्तित रूप में व्यापारियों ने अपने हाथ में ही गुप्त रक्खे । बाद में वे ब्राह्मणों को सिखा दिए गए और ब्राह्मयों ने उनको विकसित करके ब्राह्मी लिपि का आविष्कार कर डाला । परन्तु अक्षरों को विकसित रूप देने मे कुछ समय लगा होगा। भट्टिमोलु के लेख से अनुमान होता है कि कई अक्षरो के रूप में कई बार परिवर्तन हुआ है। सारा विकास अवश्य एक क्रम से हुअा होगा जिसके लिए हम काफी समय मान लेते हैं। इस तरह इस लिपि के विकास की समाप्ति ५०० ई. पू. मे हो चुकी होगी। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (२) ३२५ क्यों न रहने दिया और सैमिटिक के एक और '' इस अक्षर को ब्राह्मी का 'क' क्यों न बनाया गया, इत्यादि । (३) इस सिद्धान्त में यह बात भी स्पष्ट नहीं की गई कि प्रारम्भ में नहीं, तो बाद में लिखने की दिशा क्यों बदली गई। वर्णमाला के स्वभाव में यह बात देखी जाती है कि यह जिधर से जिधर को श्राषिsare के काल में लिखी जाती थी बाद में भी उधर से हो उधर को लिखी जाती रही। दिशा बदलना नए आविष्कार से कम कठिन काम नहीं है । उदाहरणार्थ दशम- लव लगाने की रीति भारतमें आविष्कृत हुई थी । प्रारम्भ में यह बाई से दाई ओर को लगाया जाता था। जब इसे सैमाइट वर्ग के देशों ने ग्रहण कर लिया तब भी इसके लगाने की रीति बाई से दाई ओर को हो रही । इसी प्रकार खरोष्ठी के लिखने की रोति भी आज तक नहीं बदली है, [ यह दाई' से बाईं ओर को लिखी जाती है ] । ( ४ ) बहर ने सन्दिग्ध साध्य को सिद्ध पक्ष मान कर प्रयत्न किया । उसने यह मान लिया था कि ग्रीक लिपि फ़ोनिशियन ( Phoenic:an ) लिपि से निकली है । परन्तु श्राज तो इस सिद्धान्त पर भी संदेह हो रहा है । (५) यदि यह मानें कि एक जाति ने अपनी वर्णमाला दूसरी जाति की वर्णमाला से निकाली है तो यह मानना पहले पड़ेगा कि उन दोनों १ ब्राह्मी की उत्पत्ति सैमिटिक वर्णमाला से नहीं हुई, इस विचार की पोषक कुछ और युक्तिया ये हैं: (क) एक ही ध्वनि के व्यंजक वर्ण दोनों वर्ण लिपियों में परस्पर नहीं मिलते हैं । (ख) भिन्न भिन्न वर्णों की प्रतिनिधिभूत ध्वनियों मे परस्पर भेद हैं । जैसे ब्राह्मी ग किन्तु सैमिटिक गिमेल (gimel ) । (ग) सैमिटिक वर्णमाला में मध्यवर्ती (medial ) स्वरों के लिए कोई चिन्ह नहीं है और न उसमें इस्व-दीर्घ का ही भेद न गीकृत है I Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सस्कृत साहित्य का इतिहास जातियों का परस्पर मिलना-जुलना, एक दूसरे के यहां आना-जाना हुआ करता था । परन्तु अभी तक इसका प्रमाण भी नहीं मिल सका है। सम्भवतः इस प्रकार का मेल-जोल कभी हुआ भी होगा तो समुद्र तटवास्तव्य जातियों का हुना होगा । अतः यदि भारतीय लिपि कभी किसी दूसरी जाति को लिपि से निकाली हुई हो सकती है, तो दक्षिणी समिटिक जातियों की लिपि से निकाली हुई हो सकती है, परन्तु डा. बुलर ने इसका प्रत्याख्यान किया है। (६) हैदराबाद राज्य के अन्दर प्रागैतिहासिक टोलों की खुदाई ने वर्णमाला को इतिहास के आश्रय से निकाल कर प्रागैतिहासिक काल में पहुंचा दिया है । वस्तुतः ऐसा ही होना भी चाहिये । कुछ युक्तियों के बल पर विश्वास करना पडता है कि वर्णमाला का जन्म प्रारम्भिक मनुष्य के जीवन काल में और अंगोपचय बाद में हुआ होगा इस संबंध में नीचे लिखी कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं : (क) हैदराबाद राज्य के टोलों में से निकले हुए मिट्टी के बर्तनों की बनावट ऐसी है जो १५०० ई० पू० से पहली ही होनी चाहिये। (ख) मद्रास के अजायबघर में रखे हुए मिट्टी के कुछ बर्तन उत्तर पाषाणयुग के हैं जो ३००० ई० पू० से पहले ही होनी चाहिए। (ग) अनन्तरोक्त बर्तनों पर कुछ चिल मध्यवर्ती स्वरों के भी, कम से कम पांच चिह्न, प्राचीनतम ब्राह्मी लिपि के वर्णो से बिलकुल मिलते है। (घ) ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें कुछ चिन्ह मध्यवर्ती स्वरों को भी प्रगट करने के लिए मौजूद है। उदाहरणार्थ प्रो-कार तथा इ-कार के लिए भी चिन्ह मिलते हैं। अतः अदि हम भारत के प्रागैतिहासिक मृण्मय पात्रों पर वित पंकेतों को ब्रह्मी लिपि के अक्षरों का पूर्वरूप मानें तो यह बिल्कुल युक्किसंगत होगा। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (२) ३२७ (७) इन बर्तनों पर रचयिता के नाम के प्रारम्भिकवर्ण को प्रकट करने वाले एक एक अत्तर भी देखे जाते हैं । इस प्रकार लिखने की रीति मिस्र और यूरोप में भी प्रचलित थी और यह भारतीयों को भी अविदिस नहीं थी । इस बात से भी ब्राह्मी लिपि इतिहास में पूर्व समय में विद्यमान सिद्ध हो जाती है। ( 5 ) भारतीय अजायबघर ( Indian Museum ) के प्रागैति हासिक प्राचीन पदार्थों के संग्रह में उत्तरपाषाण युग के दो पाषाणखण्ड पडे हैं। उनका उत्तरपाषाणयुगीय होना निर्विवाद है । उन पर एक नहीं अनेक अक्षर श्रङ्गित हैं । उनमें से एक पाषाणखण्ड पर मू श्रा, तू ये तीन अक्षर मिलाकर अति हैं । दूसरे पाषाणखण्ड पर चार अक्षर हैं । ये अक्षर ब्रह्मी वर्णमाला के वर्णों से पूर्णतया मिलते हैं । ( 8 ) साहित्य के साय से भी हमारे सिद्धान्त का समर्थन होता है: - (क) इकार उकार इत्यादि का वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् में पाया जाता है । यथा; निरिकारः । ( ख ) ऐतरेय श्रारrयक में शब्द सन्धि की विधि वर्णित है । (ग) शतपथ ब्राह्मण में भिन्न भिन्न वेदों के पदों की सहूलिल संख्या और काल का लघुतम भाग ( एक सेकrs are भाग ) निरूपित है । यह कार्य लिपिकला के ज्ञान के बिना सम्भव नहीं था । (घ) वेद में अटक गौ ( वह गौ जिसके कानों पर आठ का अंक अकित हो ) इत्यादि का वर्णन है । (ङ) धार. रॉथ ( R Roth) ने ठीक ही कहा है कि वेदों की लिखित प्रतियों के बिना कोई भी व्यक्ति प्रातिशाख्यग्रन्थों का निर्माण नहीं कर सकता था । (a) वैदिक काल में अत्यन्त ऊँची संख्याएँ व्यवहार में लाई ज्ञाती थीं, व्याकरणशास्त्र का विकास बहुत प्राचीन काल में ही काफ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास ज्यादा हो चुका था, (यह बात लिपिकला के आविष्कार के बाद ही हुई थी पहले नहीं), जुए के पासो तथा पशुओं के ऊपर संख्या के अंग डालने के उल्लेख मिलते हैं। इन सब बातों से प्रमाणित होता है कि भारतीयों को लिपिकला का अभ्यास बहुत प्राचीन समय से था। मौखिक अध्यापन की रीति से हमारे मत का प्रत्याख्यान नहीं हो सकता, कारण, वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण को शिक्षा के लिए ऐसा होना अपरिहार्य था। (३) ब्राह्मी के अथ-ज्ञान का इतिहास ।, फीरोजशाह तुग़लक की आज्ञा से अशोक का तोपरा वाले शिलालेख का स्तम्भ देहली ले जाया गया था। फीरोजशाह ने इस लेख का अर्थ जानने के लिए जितने प्रयत्न हो सकते थे किए; किन्तु उसे निराश ही रहना पड़ा ! सब से पहले १७८५ ई. चार्लस विल्किस ने दो शिला. लेख पढे --एक बंगालो राजा नारायणपाल (१२०० ई.) का और दूसरा राधाकान्त शर्मा द्वारा लिखित ५३०० ई० का चौहान काला । इसी सन् में जे० ऐच है रिङ्गटन (J. H. Herrington) ने गुप्तवंश तक की पुरानी नागार्जुन की और बराबर की गुफानों का मौखरि नृप अवन्तिवर्मा का एक शिलालेख पढा। इससे गुप्त राजवंश द्वारा प्रयुक्त वर्णमाला का श्राधे के करीब पता लग गया । अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ राजस्थान के लिए सामग्री सञ्चय करते हुए कर्नल टॉड (Col. Todd.) ने १८१८ से १८२३ ई० तक कई शिलालेखों का पत लगाया । ये शिलालेख ५ वी से १२ वीं शताब्दी तक के हैं और इनके अर्थ का ज्ञान एक विद्वान् पण्डित ज्ञानचन्द्र की सहायता से हुआ था। १८३४ ई० में कप्तान ऐ० ट्रायर (Captain A. Trayer) ने प्रयाम बाले शिलालेख का कुछ भाग पढ़ा और डा. मिल (Dr Mill) ने इस के बाकी हिस्से को भी पद डाला। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- _