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________________ पंचम शताब्दी वाला वाद विध स्वन्तं चलितबनिता लेन्द्र चापं सचिनाः कोसाय महतमुरजा: जिग्घासीरघोषन् ! अन्तस्तोय मणिमय भुवस्तुगम जिद्दामा प्रासादाम तुजयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषः ।। (क) दिग्विजय में पारसको और हणों का निवास भारत की उत्तर-पश्चिमीय सीमा पर बताया गया है, यह बात पंजाब तक को सम्मिलित करके हम उत्तर भारत के ऊपर शासन करने वाले गुप्त बाजाओं के समय के बाद संभव नहीं हो सकी होगी। (ज) मल्लिनाथ की टीका के आधार पर यह माना जाता है कि कालिदास ने मेघदूत में दिनाग और निचुल की ओर संकेत किया है। मल्लिनाथ का काल कालिदास से बहुत पश्चात है, अतः उसका कथन पूर्ण विश्वसनीय नहीं है। किसी प्राचीन लेखक के लेख में मल्लिनाथ की बात का बीज नहीं पाया जाता। इसके अतिरिक्त, श्लेष कालिदास की शैली के विरुद्ध है। यह भी सम्भव नहीं है कि कोई ज्याक श्रादरसूचक बहुवचन में अपने शत्र के नाम की ओर संकेत करें जैसा कि कालिदास के पन्ध में बताया जाता है । (देखिये, दिनागानां पथि परिहरन् स्थूलहस्तावलेपान्)। और यदि इस संकेत को सत्य मान मी, तो भी इसकी कालम की दृष्टि से इस वाद से मुठभेड़ नहीं होती । दिङलाग के गुरु वसुबन्धु का अन्ध ४०४ ई० में चीनी भाषा में अनूदित हो चुका था और चन्द्रगुप्त द्वितीय ४३३ ई० तक जीवित रहा। (स) कालिदास ने माना है कि पथिवी की छाया पाने के कारण चन्द्र ग्रहण होता है। इसी बात को लेकर कहा जाता है कि कालिदास ने यह विचार आर्यभट्ट ( ४६ ई.) से लिया था । चन्द्रमा के कला को छोड़कर, यह बात किसी अन्य दाद की ओर सङ्केत करती है, इसमें सन्देश है और यदि कालिदास के चन्द्र ग्रहण सम्बन्धी उक्त विचार को यथार्थ मी मान से तो भी कहा जा सकता है कि उसने यह विचार
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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