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________________ संगीत-काव्य के कर्ता १६० " की सौ रानियों के साथ प्रेस-केलि करते हुए जो कुछ अनुभव किया था वही इन जोकों में वर्णित है; परन्तु यह किंवदन्ती निरी किंवदन्ती हो है । इसके एक टोकाकार रविचन्द्र ने इन पर्थो की वेदान्तपरक व्याख्या की है । प्रेमपाल ने (१४वीं श० ) इन में नायिका वर्णन पाया है । किन्हीं - किन्हों की दृष्टि में ये विविध श्रजङ्कारों के उदाहरण हैं । सारे को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह शतक प्रेम के विभिन्न वण -चित्रों का एक ऐल्बम है। श्रम का दृष्टिकोण भतृहरि के दृष्टिकोह से बिल्कुल भिन्न है । भर्तृहरि ने तो प्रेम और स्त्री को मनुष्य जीवन के निर्माण में अपेक्षित उपादान सत्व मानकर उनके सामान्य रूपों का वर्णन किया है; परन्तु अमरु ने प्राबियों के अन्योन्य सम्बन्धका विश्लेषण करना अपना लक्ष्य रखा है 1 शैली --- प्रमह वैदर्भी रीतिका पक्षपाती है । सो इमने दीर्घ या क्लिष्ट समास अपनी रचना में नहीं आने दिये हैं। इसी भाषा विशुद्ध और शैखी शोभाशालिनी है। इसके श्लोकों में वीर्य और चमत्कार है जो पाठक पर अपना प्रभाव अवश्य डालते हैं। प्रेम के स्वरूप के विषय मैं इसका क्या मत है ? इस प्रश्न का उत्तर है कि मोद-प्रमोद ही प्रेम हे । छोटी सी कजह के पश्चात् मुस्कराते हुए प्रथियों को देखकर यह बड़ा प्रसन्न होता है | देखिए प्राणों को गुदगुदा देने वाली एक कथा को कवि ने किस कौशक से संक्षेप में एक ही श्लोक में व्यक्त कर दिया है --- बाजे ! नाथ ! विमुख मानिनि ! रुप, रोषान्मया किं कृतम् ? खेदोऽस्मासु, न मेऽपराध्यति भवान् सर्वेऽवसधा मयि ! तत् कि रोदिषि गद्गदेन वचसा ? कस्याप्रती रुद्यते ? नन्दम्मम, का तवास्मि ? दयिता, नास्मीत्यतो रुपते !! १ १ 'प्रिये !', 'स्वामिन् !' 'मानिनि ! मान छोड दे ।', मान करके मैने आपकी क्या हानि की है' ? 'हमारे हृदय में खेद पैदा कर दिया है' 1 'हॉ, आप तो कभी मेरा कोई अपराध करते ही नहीं ! सारे अप TE
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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