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भास की शैली
एक के अन्त में लिखा है :-'इति यज्ञनाटक समाप्तं विक्रमार्क सम्बत् ११२७ आश्विन कृष्ण पक्षे द्वितीयायां भौमवासरे लिखित स्वामी शुद्धानन्द तीर्थ "दूसरी प्रति के अन्त में लिखा है, "इति यज्ञफलं संपूर्ण विक्रमीय संवत्सर 2 मासानामुत्तमे पौष मासे सितै पक्षे पूरिक्षमायां गुरुवासरे लिखितं देवप्रसाद शर्मणा हस्तिनापुर निवासी ।
माटक के प्राभ्यन्तरिक साक्ष्य से प्रतीत होता है, कि इसका पूरा नाम 'यज्ञफल और सक्षिप्त नाम 'यज्ञनाटक' है। जैसा कि स्वप्नवासवदत्तम् के अन्त में भी 'इति स्वप्ननाटकम बसितम्' ही देखने को मिलता है। नाटक का प्रारंभ 'नान्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधारः' से होता है। 'प्रस्तावना के स्थान पर 'स्थापना' शब्द का प्रयोग किया गया है। मास के अन्य नाटकों की मान्द्रि इस की स्थापना भी सक्षिप्त है और उसमें कवि के तथा नाटक के नाम का अभाव है। भरत वाक्य इस प्रकार है :
रक्षन्तु वो धर्म स्वं, प्रजाः स्युरनुपप्लुताः ।
त्वं राजसिंह पृथ्वी सागरान्तां प्रशाधि च ॥ भास के अन्य नाटकों की भान्ति इस में मी पात्रों का बाहुल्य है। इस की अति प्राचीन भाषा, इस की वस्तु कल्पना, इस की शेली,
और इसके रस, भाव, अलंकार और नाटयांगों को मनोहरता निस्सन्देश इसे भास की ही कृति प्रमाणित करते हैं। सम्भव है कि भासा के अन्य ग्रन्थ भी इसी प्रकार धीरे २ प्रकाश में आजायें ।
(१६) मास की शैली भास के काव्य का विशिष्ट गुण यह है कि उसकी भाषा प्राञ्जल और सुष्टु है। इसमे भावों का उद्रेक, लय का मधुरसंगीत और ऊंची उड़ान मरने वाली निर्मल कल्पना है। कविकुलगरु कालिदास प्रकृति के कवि और रममियाना में प्रमाण माने जाते हैं, किन्तु मालवीय मनोवृत्तियों