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________________ १३२ संस्कृत साहित्य का इतिहास (तरंगों में तैरते हुए राजहंस के समान वह अनिश्चय के कारण न गया न ठहरा ) । दूसरे विद्वान् कहते हैं कि रंगों में तैरते हुए इस का निश्चत कहनः सन्देहपूर्ण है, अतः निःसन्देह होकर यह भी नहीं कहा जा सकता कि अश्वघोष की उपमा कालिदास की उस उपमा से उत्कृष्ट है । दिलीप का वर्णन करते हुए कालिदास कहता है - ढोरको हृषस्कन्धः शातर्महाभुजः । ( रघुवंश १, १२ ) नन्द का वर्णन करता हुआ अश्वघोष भी कहता हैदीर्घबाहुर्महाचताः सिंहांसो वृषभेचणः । ( सोन्द्र० २,५८ ) उक्ति में बहुत कुछ साम्य होते हुए भी कोष की उपमा कालिदास की उपमा के समान हृदयग्राहिणा नहीं है | aadiष ने ख की जो उपसा बैल की आंखों से दी है वह पाठक पर अधिक प्रभाव नहीं डाल सकषी । "कालिदास ने यहां दिलीप की प्रांखों की ओर sita aoret देखा ही नहीं, वह तो उसके कधों को सांड की ठाट के तुल्य देख रहा है । बेचारे अश्वघोष ने कुछ भेद रखना चाहा और अपना भरडा स्वयं फोड़ लिया" ( चट्टोपाध्याय ) | अश्वदोष प्रदर्श-अनुराग का चित्र सरल शब्दो में खींच सकता है । देखिए - 9 सां सुन्दरों चेन्न बभेत नन्दः, सा वा निषेव न संनतन्त्रः । इन्द्र' ध्रुवं तद् विकलं न शोभतान्योन्यहीनाविव रात्रिचन्द्र' || ( सौन्द० ४, ७ ) १ यदि नन्द उस सुन्दरी को न प्राप्त करे या वह विनम्र अ -वती उसको प्राप्त न कर सके, तो भम्र उस जोड़े की कुछ शोभा नहीं, जैसे एक दूसरे के बिना रात्रि और चन्द्रमा की [कुछ शोभा नहीं ] |
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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