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________________ २७६ संस्कृत साहित्य का इतिहास साथ अधिक अच्छी तरह की जा सकती है कारण, इनके लिए, जैसा कि श्लैजल (Schlegel) कहता है, “दु:खमय (Tragedy ) तथा सुखमय (Comedy ) शब्दों का प्रयोग उस अभिप्राय के साथ हो ही नहीं सकता, जिसके साथ प्राचीन विद्वान् इनका प्रयोग किया करते थे" संस्कृत रूपकों की रचना सदा मकड़ी के जाल के सहश होती है और उनमें " गम्भीरता के साथ छछोरापन एवं शोक के साथ दास्य" मिला रहता है। उनमें भय, शोक, करुणा इत्यादि मानवीय सभी हार्दिक भावों को जागरित करने का प्रयत्न किया जाता है सही, परन्तु उनमें कथा का श्रन्त दुःख में नहीं दिखाया जाता। यह दुःखपूर्ण अन्त, जैसा कि जोनसन (Johnson) कहता है, शेक्सपियर के दिनों में दुःखमय (Tragedy) रूपक का पर्याप्त लक्षण समझा जाता था । (३) यूनानी काव्य का प्रधान सिद्धान्त जीवन को वर्षरूप और गर्वरूप देखना था; परन्तु संस्कृत के रूपक-लेखक जीवन में शान्ति और अनुद्धतता देखते थे । यही कारण है कि भारतीय दुःखमय रूपकों में अत्यधिक विपत्ति का चित्र नहीं और सुखमय रूपकों में अतिसीम हर्ष का उद्रेक नहीं । ( ४ ) संस्कृत रूपकों में यूनानी रूपकों की भान्ति मिलकर गाया जाने वाला गीत (Chorus) नहीं होता है । (च) रूपक की क्रिया को बढ़ाने के लिए एक जैसे उपाय, यथा--- पत्रों का लिखना, मृतकों को जीवित करना और कहानी में कहानी भरना । मैकडानल ने कहा है: --" उस अवस्था में, जिसमें प्रभाव डालने या उधार लेने का बिल्कुल प्रश्न ही नहीं उठता है, समान घटनाओ की इतनी परम्परा का होना शिक्षा देता है कि दो वस्तुओं का एक जैसा विकास परस्पर निरपेक्ष रूप से भी हो सकता है " । १ जैसे - जिस समय नायक-नायिका शोक में मग्न हैं उस समय भी विदूषक अपना काम खूब करके दिखलाता है ।
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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