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मुद्राराक्षस के दो महत्त्वपूर्ण नाम मिलते है-अवन्तिवर्मा और चन्द्रगुप्त । मारसीय इतिहास में दो अन्तिवर्मा प्रसिद्ध हैं-एक काश्मीर का शासक (८५५-८८३ ई.) और दूसरा प्रभाकरवर्धन का चचेरा भाई, मौखरिवंशीय कन्नौजाधिपति (ईसा की छठी शताब्दी का उत्तराद)। कुछ विद्वानों ने मुद्राराक्षस के रचयिता का जीवनकाल काश्मीर शासक अव. तिधर्मा के शासन काल में माना है। प्रो. ऐच. कोबि ने मुद्राराक्षस में वर्णित चन्द्रोपराग का समय दो दिसम्बर सन् ८६०ई० निर्धारित किया है। परन्तु इस विचार का समर्थक कोई हेतु विद्यमान प्रतीत महीं होता। दूसरी ओर, भर वाक्य में इम स्पष्ट पढ़ते हैं कि वर्तमान शासक ने म्लेच्छों से उज्यमान राष्ट्र का त्राह किया । काश्मीर के भवन्तिवर्मा ने न तो किसी विदेशी राजा को परास्त किया और न आधीन बनाया, अतः जब इम कन्नौज के अवन्तिवर्मा की ओर मुखकर देखते हैं तो उसे हूणों के उन्मूलन में प्रभाकरवर्धन का मुख्य सहायक पाते हैं। स्टेन कोनो (Sten konow)ने चन्द्रगुप्त द्वितीय दूसरे पाठ को ग्राहय मानकर इसका अभिप्राय चन्द्रगुप्त द्वितीय (३७५- ४१३ ई०) लिया है। परन्तु इस चन्द्रगुप्त के पक्ष में हूणविजय की समस्या का ठीक सामाधान नहीं होता; क्योंकि हूणों ने उक्त चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल तक उसके राज्यान्तर्गत प्रदेश को उद्विग्न नहीं किया था । मुद्राराक्षस का नीचे अवतार्यमाए पछ मत हरि ने अपने शतक में अद्भुत किया है, प्रतः अनुमान है कि विशाखदत्त भत हरि से पूर्व होगा---
१ प्रो. ए. बी. कीथ (Keith) का भी यही मत है, क्योंकि वह कहता है कि यह ग्रन्थ नौवीं शताब्दी से भी प्राचीन हो सकता है, परन्तु इसके नौवीं शताब्दी मे होने का कोई बाधक प्रमाण है ही नही । यह मृच्छकटिक, रघुवंश, और शिशुपालवध के बाद का प्रतीत होता है (जर्नल आवरायल एशियाटिक सोसायटी, १६०६, पृष्ठ १४५)।