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________________ aru are atta १५१ बाद में बनने वाले ऐतिहासिक काव्य-प्रन्थों के संभान यह भी काव्य-पद्धति पर लिखा गया है। इस में १८ सर्ग हैं। लेखक धारा नगरी के राजा वाळूपतिराज और सिन्धुराज के श्राश्रय में रहा करता था और उन्हीं के उत्ers दिखाने पर इसने इस ग्रन्थ का निर्वाण किया था। इसमें राजकुमारी शशिप्रभा को प्राप्त करने का वर्णन है, किन्तु साथ ही मानने के महाराज नवसाहसांक के इतिहास की ओर संकेत करना भी अभीष्ट है । (७३) बिल्ट्स' ( ईसा की ११ वीं शताब्दी ) हम इसे इसके श्रद्धतिहासिक नाटक कर्णसुन्दरी तथा (पूर्वोक्त चौरपंचाशिका के अतिरिक्त) इसके अधिक प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य विक्रमांकदेवचरित के नाते से जानते हैं । कर्णसुन्दरी नाटक में कवि किसी चालुक्य वंशीय राजा के किसी विद्याधर- पति की कन्या के साथ विवाह का न करता है। साथ ही साथ इसके द्वारा कवि को अपने आश्रयदाता नृप का, एक राजकुमारी के साथ हुआ विवाद भी विवक्षित है। इसके कई पद्य वस्ततः रमणीय हैं और कवि की प्रसादगुणपूर्ण चित्रण शक्ति का परिचय देते हैं । विक्रमांकदेव चरित के प्रारम्भ में कवि ने चाणक्य वंश का उद्गम पुराणोक्त कथाओं में दिखाया है, उसके बाद इसने अपने श्राश्रयदाता नृपति के पिता महराज श्राहवमल का ( १०४० - ६६ ) वैयक्तिक न बड़े विस्तार के साथ दिया हैं। तदनन्तर इसने स्वपाक्षक कल्याणेश्वर चाणक्यराज महाराज विक्रमादित्य पष्ट ( १०७६-११२७ ) का यशोगान किया है । यह यशोगान अपूर्ण और संक्षिप्त जीवन-परिचय-सा है । जैसे बाया की रचना में, वैसे ही इसकी रचना में भी ऐतिहासिक काल-दृष्टि का सर्वथा अभाव है । कदाचित् जो बातें राजा के पक्ष में ठीक नहीं बैठती थीं, उनके परिहारार्थं तीन बार शिव का पल्ला १ इसकी गीति-रचना चौरपंचाशिका के लिए खण्ड ६४ देखिये ।
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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