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सस्कृत साहित्य का इतिहास पाठक के मन में सक्षम की भावना उत्पन्न करना या प्रयत करना बताया गया है।
कहानियों की भाषा कुछ तो सुन्दर गध-मय और कुछ कामश्रेणी की पद्यात्मक है। प्रत्येक कहानी का प्रारम्भ सरल गया-खबह से होता है और इसका उद्दश्य श्राचारपरक ए निश्चित शिक्षा देना है। दाम का माहात्म्य दिखलाने के लिए बोधिसव के उस जन्म की कहानी दी गई है जिसमें वह शिविराजकुल में उत्पन्न हुआ था। उसने इतना हान दिया था कि भिक्षुओं को मांगने के लिए वस्तु शेष नहीं रही थी । एक बार किसी अन्धे वृद्ध ब्राह्मण ने श्राकर उसले एक माह मांगी तो अखने आह्मण को अपनी दोनों आँखें दे दी । मंत्रियों ने बहुतेरा कहा कि
आप इस अन्धे ब्राह्मण को कोई और चीन दान में दे दीजिये, परन्तु हाजा ने एक न मानी । राजा का उत्तर बड़ा ही महावशाली है । वह कहता है
यदेव यायेत तदेव दद्यान्नानीप्सितं श्रीण्यतीह दत्तम् । किमुह्यमानस्य जोन तोयै स्याम्यत: भार्थितमर्थमस्मै २ ॥
जब मन्त्रियों ने पुनः आग्रह किया तक राजा ने बड़ा जर्जस्वी विचार प्रकट करते हुए कहा-~नायं गरमः सार्वभौमत्वमा नैव स्वर्ग नापवर्ग न कीर्तिम् । बानु लोकानित्ययं स्वादरो मे, याचाक्लेशो म च भूदस्य मोघ : ॥
१ वस्तुतः यह इन्द्र था जो उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने श्राया था।
२ याचित ही वस्तु देनी चाहिये । याचित से भिन्न वस्तु दी जाए तो वह याचक को प्रसन्न नहीं करती। जलधारा में बहते हुए को जल से क्या लाम । इसलिए मैं तो इसे प्रार्थिव ही पदार्थ दूंगा । ३ मेरा यह प्रयत्न साम्राज्य प्राप्त करने के लिए है, न स्वर्ग , न मुक्ति और न कीर्ति । मेरी कामना तो लोक की रक्षा करना है । इसका मांगने का क्लेश निमाल न रहे।