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संस्कृत-साहित्य का इतिहास अपेक्षाकृत कम देखा जाता है, श्रीएय संस्कृत में तो गध प्रायः सत-समा ही दिखाई देता है। राजनियम और आयुर्वेद जैसे विषयों का प्रतिपादन भी पद्य में ही मिलता है। गध का प्रयोग केवल व्याकरण और दर्शनों में ही किया गया है; पर वह भी दुर्दोष और चक्करदार शैली के साथ । साहित्यिक गद्य करपनाय आख्यायिकाओं, सर्वप्रिय कहानियों, औषदेशिक कथानों तथा नाटकों में अवश्य पाया जाता है, किन्तु यह गद्य लम्बे-लम्बे समासा से भरा हुश्रा है और ब्राह्मणों के गद्य से मेल नहीं खाता।
पद्य में भी श्रेण्य संस्कृत के छन्द, जिनका आधार यद्यपि वैदिक छन्द ही है तथापि, वैदिक छन्दों से भिन्न हैं। मुख्य छन्द श्लोक (अनुष्टुप) है। श्रेएन संस्कृत के छन्द जितने भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं, उतने वैदिक नहीं । इसके अतिरिक्त, श्रेण्य व्यंस्कृत के छन्द वैदिक छन्दों की अपेक्षा अधिक श्रम से रचे गये हैं, क्योंकि इन छन्दों में प्रत्येक चरण के वर्णों या मात्राओं की संख्या दृढ़ता के साथ अटल रहती है।
(ख) अन्तरात्मा-वेदों में वीण रूपमें पाया जाने वाला पुनर्जन्म का सिद्धान्त' उपनिषदों में प्रबल रूप धारण कर लेता है । श्रेय संस्कृत में इस सिद्धान्त का पोषण बहुत ही श्रमपूर्वक किया गया है। उदा. हरणार्थ, धर्म की स्थापना और अधर्म के उच्छेद के लिए विष्णु भगवान् को कभी किसी पशु के और कभी किसी असाधारण गुणशाली पुरुष के रूप में अनेक बार पृथिवी पर जन्म धारण करवाया गया है।
एक और विशेषता यह है कि मानव-जगत् की साधारण घटनाओ के वर्णन में भी अपार्थिव अंश को सम्मिलित करने की और अधिक
१ इस सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि आत्मा अमर है । जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नये धारण कर लेता है, वैसे ही आत्मा एक जरा-जीर्ण शरीर को छोड़कर दूसरा नया धारण कर लेता है। (देखो गीता २२)। यह सिद्धान्त हिन्दू-सभ्यता का हृदय है। .