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________________ २६० संस्कृत साहित्य का इतिहास बड़ा दर्ष हुआ । मृत सर्प भी जीवित कर दिए गए और गरुड़ ने प्रतिज्ञा की कि मैं अब से हार का परित्याग करता हूं। रूपक में हिन्दू और बौद्ध विचारों का सुन्दर मिश्रण है, तथा जिस काल में यह लिखा गया है उसका प्रतिबिम्ब इसमें खूब फलक रहर है t (ग) शैली-हर्ष ने अपनी रचना द्वारा वैदर्भी रीति का बहुत उत्तम आदर्श उपस्थित किया है । यद्यपि इसमें कालिदास और साम जैसी न तो सूक्ष्मेक्षिका है और न कँधी उड़नेवाली कल्पना, तथापि इसमें सादगी और सुगमता का एक महान् गुण है । इसकी भाषा श्रयय ( Classical ) संस्कृत है और वाक्य नपे-तुले हैं। श्रलङ्कारों का विन्यास यथोचित और भव्य है । इसमें मौलिकता कम, वर्णन-शक्ति refer a faranता तो श्रादि से अन्त तक है। इसकी शैली के उत्तम नमूने का एक पद्य पढ़िए m श्रारुह्य शैलशिखरं स्वदनापहृत- कान्ति-सर्वस्वः । प्रतिकतु मिवोर्ध्वकरः स्थितः पुरस्तान्निशानाथः ॥ एक अवसर पर यह कहता है: चक्रवालम् । प्रियायाः, विरम विरम वह ! मुब्च धूमानुबन्धं, प्रकटयसि किमुच्चैरचिषां विरहहुतभुजाऽहं यो न दग्धः प्रलयदहनभासा तस्य किं स्वं करोषि || जीमूतवाहन का वच्यमाण विचार कितना चाह है.-स्वशरीरमपि परार्थे यः खलु दद्यामयाचितः कृपया । राज्यस्य कृते स कथं प्राणिवधक्रौर्यमनुमन्ये ॥ भाषा और छन्द -- श्रश्य ( Classical ) संस्कृत के अतिरिक्त श्रीष' ने विविध प्राकृतों का भी प्रयोग किया है। इनमें सबसे अधिक प्रयोग सौरसेमी का हुआ है। पथों की प्राकृत महाराष्ट्री है और नागानन्द रूपक में एक चेट मागधी बोलता है ।
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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