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________________ करूपक का धर्मनिरपेक्ष उद्भव नहीं है। कोनों ने स्वागों का परामर्श करने वाले जितने उल्लेख उपस्थित किए हैं वे लब के-सब महाभाष्य के अथवा उसके भी बाद काल के हैं। अतः उनसे कोनो का मत पुष्ट नहीं होता है 1 सच तो यह है कि पा. कीथ के मतानुसार प्रारम्भिक स्वाँग-कान के विषय में हमारा सारा ज्ञान अल्पनाश्रित है। प्रो० हिलनड (Hillebrandt) की युक्तियों में कुछ अधिक बल है। उसने उदृङ्कित किया है:--(१) नाटकों में संस्कृत के साथ साथ प्राकृत का प्रयोग है । (२) गद्य-पद्य का मिश्रण है। (३) रंगशालाओं में सादगी हैं। (४) विदूषक जेमा सर्वसाधारण का प्रीतिपास पात्र है। इन सब बातो से ज्ञात होता है कि भारतीय रूपक सर्वसाधारण के मनोविनोद की बस्तु थी। परन्तु इन बातों का इससे भी अच्छा समाधान हो सकता है। कृष्णोपासना बाद के अनुसार उक्त चारों बातों में से पहली तीन का समाधान बहुत अच्छी तरह से हो जाता है और रूपक के उद्भव का सम्बन्ध धर्म की धारणा से जुड़ जाता है। रूपकों मे विदूषक पात्र की सत्ता का प्रादुर्भाव महाबत सरकार में शुद्ध पात्र की श्रावश्यकता से हुआ माना जा सकता है, और महालत धार्मिक संस्कार है। दूसरे पक्ष में तो ऐमा कोई प्रमाण ही नहीं मिलता जो माटकों में विदधक रखने की प्रथा का सम्बन्ध किसी जौकिक लीला से जोड़ सके। (२) कठपुतलियों के नाच का वादार पिशल का विचार है कि रूपक की उत्पत्ति कटपुतलियों के नाच से हुई। इनका वल्लेख पुत्तलिका, पुत्रिका, दारूमयी इत्यादि के नाम से महाभारत, कथासरि-- रसागर और राजशेखर की बालरामायण में बहुश: पाया जाता है। और वादों की अपेक्षा इस बाद में 'स्थापक संज्ञा भी अधिक अन्वर्थ सिद्ध होती है। परन्त, जैसा कि प्रो. हिलबैड ने निर्देश किया है, इस बाद में बड़ी त्रुटि यह है कि कठपुतलियों के नाच का इतिहास दृष्टि में रख +- - - - १ वह पुरुष, जो किसी वस्तु को ठीक स्थान पर रक्खे ।
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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