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________________ २८० सस्कृत साहित्य का इतिहास की चोटें झेलनी पड़ती हैं। बीच-बीच में राजा के मनोविनोदकासी विद. षक द्वारा या नायिका की विश्वस्त सखी द्वारा छिड़काई हुई हास्यरस की यूँ दों से सामाजिकों का मन प्रफुल्ल रक्खा जाता है । (१) संस्कृत रूपक का उपक्रम भाशीर्वाद के श्लोक से, जिसे नान्दी कहते हैं, होता है । इसके बाद प्रस्तावना पाती है। इसमें पत्नी के साथ या किसी परिचारक के साथ आकर सूत्रधार अभिनेष्यमाण रूपक से दर्शकों को सूचित करता है, और किसी अभिनेता का प्रवेश कराकर रंगमञ्च से हट जाता है। उपभेद के अनुसार प्रत्येक रूपक में अंकों की संख्या भिन्न-भिन्न होती हैं। किसी में एक तो किसी में दस तक अङ्ग होते हैं (उदाहरणार्थ, नाटिका में चार और प्रहसन में एक अंक होता है)। किसी अङ्क के समाप्त होने के बाद अन्य अङ्क के प्रारम्भ में प्रवेशक या विष्कम्भक नाम से एक तरह की भूमिका होती है, जिसमें सामाजिकों के सामने उन घटनाओं का वर्णन किया जाता है, जो उनके सामने रंगमञ्च पर घटित न होकर नेपथ्य में घटित हुई है। यह इसलिए कि वे अगली घटनाओं को अच्छी तरह समझने के योग्य हो जाएँ । पात्रो की संख्या का कोई बन्धन नहीं है। साथ ही पात्र दिव्य, अदिव्य या दिव्यादिव्य तीनों प्रकार के हो सकते हैं । रूपक के अन्त में भरतोक्ति ( राष्ट्रीय प्रार्थना ) पाती है। इसका पाठ करने वाला कोई प्रधान पात्र होता है। प्रायः यह स्वयं नायक छारा ही पड़ी जाती है। . (६) अब रङ्गशाला के विषय में लोजिए । नाट्य-शास्त्र के विधान के अनुसार यह वर्गाकार, आयताकार या त्रिभुजाकार होनी चाहिए। नाट्य-शान में नाटक खेलने के समयों का भी विधान मौजूद है। वे समय हैं:-वान्द्रिक भनध्याय, राजतिलक, जनता के उत्सव, धार्मिक पर्व, विवाह, पुम्रजन्म, भिन्न मिजन, गह-प्रवेश या नगर-विजय । थे खेल प्रायशः सङ्गीत-शालाओं में होते थे। रंगमंच के पृष्ठ की ओर एक पर्दा टंगा रहता था। अभिनेत-वर्ग उसी पर्दे के पीछे वेष धारण करके
SR No.010839
Book TitleSanskrit Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Agrawal, Lakshman Swarup
PublisherRajhans Prakashan
Publication Year1950
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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