________________
२०१
गद्य-काव्य और चम्पू बा के भी मिलते है । चाकपतिराज ने अपने गउद्धवह में सुबन्धु का माम भास और रघुवंश के कर्ता के साथ किया है। रावबपाएलवीय के रचयिता कविराज के अनुसार सुबन्धु, बाणभट्ट, और कविराज ( वह स्वयं ) वक्रोक्ति में निरूपम हैं । मडर ने प्रशंसा करते हुए सुबन्धु को मेष्ठ और भारवि की श्रेणी में रखा है। सुभाषित संग्रहों में इसका जाम और भी कई स्थलों पर पाया है। बल्लाजकृत मोजप्रबन्ध में (१६दी श०) इसकी गणना धारा के शासक भोज के तेरह रत्नों में को गई है। ११६८ ई. के कनारी भाषा के एक शिलालेख में इसका नाम काव्य-जगत् के एक गययमान्य व्यक्ति के रूप में प्राया है। इसका अर्थ हुश्रा कि बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसका यश दक्षिण में फैल्ब चुका था।
सुबन्धु के जीवन-काल के विषय में अभी तक निश्चितरूप से कुछ पता नहीं है। यद्यपि इसके प्रन्थ में रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद्, मीमांसा, न्याय, बृहटकथा और कामसूत्र से सम्बद्ध अनेक उल्लेखों के साथ साथ बौद्धों और जैनों के साथ विरोध को सूचित करने वाले भी कई उल्लेख पाए है, किन्तु इन सब ले. कवि के कान पर बहुत ही मन्द प्रकाश पड़ता है। वासवदत्ता में छन्दोविचिति का
१दण्डी के दशकुमार चरित में वासवदत्ता विषयक वक्ष्यमा उल्लेख मिलता है.-"अनुरूपमर्तृगामिनीनां च वासवदत्तादीना वर्णनेन ग्राहयाऽनुशयम ( अपने योग्य पति को प्राप्त होने वाली वासवदत्ता इत्यादि स्त्रियों के वर्णन से उसके मन में पश्चाशाप का उदय कीजिये) अधिक संभावना यह है कि इस उल्लेख में वासवदत्ता शब्द भासरचित स्वप्नवासवदत्ता का परामर्श करता है सुबन्धु के ग्रन्थ की बासवदत्ता का नहीं। पाणिनि-अष्टाध्यायी के चौथे अध्याय के तीसरी पाद के सतासीवें सूत्र पर पठित वार्तिक में (लगभग ई० पू० तीसरा श०) “कासवदत्तार अधिकृत्य चलो ग्रन्या इस प्रकार श्राने बाला शब्द विस्परूप से भास के अन्य का परामर्श करता है।