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परिशिष्ट (२)
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(७) इन बर्तनों पर रचयिता के नाम के प्रारम्भिकवर्ण को प्रकट करने वाले एक एक अत्तर भी देखे जाते हैं । इस प्रकार लिखने की रीति मिस्र और यूरोप में भी प्रचलित थी और यह भारतीयों को भी अविदिस नहीं थी । इस बात से भी ब्राह्मी लिपि इतिहास में पूर्व समय में विद्यमान सिद्ध हो जाती है।
( 5 ) भारतीय अजायबघर ( Indian Museum ) के प्रागैति हासिक प्राचीन पदार्थों के संग्रह में उत्तरपाषाण युग के दो पाषाणखण्ड पडे हैं। उनका उत्तरपाषाणयुगीय होना निर्विवाद है । उन पर एक नहीं अनेक अक्षर श्रङ्गित हैं । उनमें से एक पाषाणखण्ड पर मू श्रा, तू ये तीन अक्षर मिलाकर अति हैं । दूसरे पाषाणखण्ड पर चार अक्षर हैं । ये अक्षर ब्रह्मी वर्णमाला के वर्णों से पूर्णतया मिलते हैं ।
( 8 ) साहित्य के साय से भी हमारे सिद्धान्त का समर्थन होता है:
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(क) इकार उकार इत्यादि का वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् में पाया जाता है । यथा; निरिकारः । ( ख ) ऐतरेय श्रारrयक में शब्द
सन्धि की विधि वर्णित है ।
(ग) शतपथ ब्राह्मण में भिन्न भिन्न वेदों के पदों की सहूलिल संख्या और काल का लघुतम भाग ( एक सेकrs are भाग ) निरूपित है । यह कार्य लिपिकला के ज्ञान के बिना सम्भव नहीं था ।
(घ) वेद में अटक गौ ( वह गौ जिसके कानों पर आठ का अंक अकित हो ) इत्यादि का वर्णन है ।
(ङ) धार. रॉथ ( R Roth) ने ठीक ही कहा है कि वेदों की लिखित प्रतियों के बिना कोई भी व्यक्ति प्रातिशाख्यग्रन्थों का निर्माण नहीं कर सकता था ।
(a) वैदिक काल में अत्यन्त ऊँची संख्याएँ व्यवहार में लाई ज्ञाती थीं, व्याकरणशास्त्र का विकास बहुत प्राचीन काल में ही काफ