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परिशिष्ट (२)
सिद्ध करती हैं और न अन्योन्य अभेद (Mutual identity) वा स्वयं भी अपने ही माने हुए सिद्धान्तों पर सब अवस्थाओं में हड़ नई है, इससे समानता रखने वाले ब्राह्मी अक्षर के साथ इसकी तुलना की है और तब यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि किस प्रकार असली अक्षर में हेर-फेर करके नकली अक्षरों का रूप रंग चमकाया गया है । कुछ उदाहरण लीजिए:--
(१) समिटिक 'त्सदे' (Tsade) को पहले उलटा कर दिया, दाहनी ओर की छोटी रेखा को सीधी खड़ी रेखा की ओर मुंह करके घुमा दिया। बाद में, इस सीधी खड़ी रेखा को बाई ओर घुमा दिया और दिशा भी वदल दी । बस 'व' बन गया, यहो 'व' भट्टिनाल के लेख में 'च' पढ़ा जाता है अर्थात् भट्टियोलु मे 'च' का यही रूप है।
(२) सैमिटिक 'नन्' (nun) को पहले उलटो किया । बाद मे, अक्षर को जल्दी से लिखने के प्रयोजन से सीधी खड़ी रेखा के पैर के नीचे दोनो ओर को जाती हुई पतित रेखा खींच दी । इस प्रकार । (ब्राह्मी 'न) बन गया।
इस रीति से डा. बुलर ने पहले तो सब बाईस समिटिक अक्षरो के प्रतिनिधिभत बाईस ब्राह्मी अक्षर खोज निकाले हैं, फिर इन बाईस में से किसी को स्थानान्तरित करके, किसी को छेत-पीटकर, या किसी में वक्र, किसी में अपूर्ण बृत्ताकार रेखाएं जोड़कर, बनाए हुए 'व्युत्पादित' अक्षरों के विकास को समझाया है। तात्पर्य यह है कि उसने ब्राह्मी के चवालीस के चबालीस अक्षरो का सम्बन्ध सैमिटिक के श्रादशंभत वाईस अक्षरों से यथा कथंचित् जोड़ दिया है।
अव रही बात कि भारतीयों ने यह काम किया कब ? सेमिटिक उत्कीर्ण लेखा, मैसा (Messa) के पत्थर तथा असीरियन (Assyrian) बाटो (weights) के समय को देखते हैं तो भारतीयों के इस काम