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परिशिष्ट (२) उलट कर बाई ओर से दाई शोर को लिखने की रीति चलाई गई है, वों के सिर पर को प्राङ्ग-विस्तृति को मिटा दिया गया हैं।
पहले पहल तो बुह्नर का मत बिल्कुल सम्भव जान पड़ा और विद्वान् लोग इसकी और आकृष्ट भी होने लगे; परन्तु शीघ्र ही अर्ध्वकालीन अनुसन्धानों ने इसे अग्राह्य बना दिया।
बुह्नर के मत से विप्रतिपत्तियाँ ---(क) जिन धारणाओं पर बुलर ने अपने मत को खड़ा किया था, अब उन धारणाओं का ही विरोध किया जाने लगाहै । अब फ्लिडम पैदी ( Flinders Petrue ) ने अपने “वर्णमाला का निर्माण” नामक ग्रन्थ में दिखलाया है कि वर्णमाला की मूलोत्पत्ति चित्राकार ( Helloglyphics ) लिपि के रूप में नहीं, बल्कि प्रतीक चिहरे (Symbols) के रूप में जाननी चाहिए। हमारे लिए यह मानना कठिन है कि प्रारम्भिक मनुष्य में इतनी बुद्धि
और निपुणता थी कि वह अपने विचारों को चित्र खींच कर प्रकाशित कर सकता था ( यह बात तो उन्नत सामाजिक अवस्था में ही सम्भव है) । प्रारम्भिक मनुष्य के बारे में हम केवल इतना ही मान सकते हैं कि वह पतित, उत्थित, ऋजु, वक्र इत्यादि रेखाएँ खींचकर इन संकेतो से ही अपने मन के भाव प्रकट कर सकता होगा।
(ख) अब लीजिए दूसरी धारणा । किसी एक सिक्के का मिल जाना इस बात का पर्याप्त साधक प्रमाण नहीं है कि प्रारम्भ में यह लिपि दाई से बाई ओर को लिखी जाती थी। ऐसा ही उन्नीसवीं शताब्दी के होल्कर के तथा इसके आद के आन्ध्रवंश के शिला लेख की प्राप्ति से
१ इन्दौर के एक सिक्के पर, जिस पर विक्रम संवत् १६.४३ दिया है, "एक पाव श्राना इन्दौर " ये शब्द उल्टे खुदे हुए हैं । एक और पुरानी मुद्रा पर "श्री सपकुल' इन शब्दों में "श्री" तथा "q" उलटे खुदे हुए हैं। इसी प्रकार कुछ अन्य मुद्राओ पर भी उल्ट खुदे हुए वर्ण देखने में पाए हैं।