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भवभूति
२६E संस्कृत का कोई नाटककार इससे भागे नहीं बढ़ सका है। भवभूति के काम विलाप से पाषाण भी रोते थे और चन-हृदय भी फटते थे। प्रतीत होता है कवि ने अपने इस गुख से पूर्ण अभिज्ञ होकर ही कहा हे.--'एकोरसः करुण एव निमित भेदात् ......."। इसके बारे में भवभूति और कानिक्षस में विशाल वैषम्य है । शेक्सपियर के तुल्य कालिदास बात व्यङ्गना से कहता है, किन्तु मिल्टन के समान भवभूति अभिधा से । जब हृदय शोक से अभिभूत हो जाता है तब मुंह से बहुत कम शब्द निकलते हैं । हम शेक्सपियर में देखते हैं कि कालिया (Cordelia) के शव पर इकट्ट होने वाले शोक का एक शब्द तक नही बोल सकते। उसी प्रकार जब कालिदास के राम ने सोसा-विषयक भूठे लोकापवाद को सुना, उसका हृदय प्रेम और कर्तव्य की चक्की के दो पाटों के बीच में आकर पिसने लगा-वह टुकड़े टुकड़े हो गया, ठीक उसी तरह जिस तरह श्राग में तपाया हुअा लोहा धन की चोट से हो जाता है--परन्तु न वह भूच्छित हुश्रा और में उसकी आँखों से आँसुओं की नदी बह चली । एक धोर-हृदय राजा की भाँति उसने बदमण को श्राज्ञा दी कि सीता को ले जाकर वन में छोड़ पाश्रो । यदि राम अपने मानवीय हृदय की दुर्बलता को प्रकट होने से महीं रोक सका तो केवल तब जब उसने सीता को बन में छोड़ लौट आए हुए लक्ष्मण के मुंह से सीता का विदा-काल का सन्देश सुना। अब पलकों के अन्दर रुके हुऐ ऑपुत्रों के कारण उसकी आँखों के आगे अंधेरा- सा श्रा गया, उसने दोचार शब्द कहे; परन्तु न तो रोया और न उसने हाय-तो बा मचाई । दूसरी ओर, भवभूति श्राख्यायिका-काच्यकारों का अनुकरण करके करुण रस का कोई अवसर तब तक जाने देने को तैयार नहीं जब वक उसके पात्र मूच्छित न हो लें और आँसुओं की भदी न बहालें तथा दर्शक सचमुच उसके साथ रोना प्रारम्भ न करदें।
क्या राम ने सीता को निर्वासित काके धर्म का काम किया था? क्या निरपराध और निरुयाय सीता के साथ उसका यह व्यवहार अन्याय और