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संस्कृत साहित्य का इतिहास
वीर-वरित, मालतीमाधव और उत्तररामचरित में मुख्य रस यथाकम वीर, शृङ्गार, करुण हैं । एक एक नाटक तक में कई कई रसों का समावेश पाया जाता है । उदाहरणार्थ माजतीमाधव के तीसरे और सातवें में शीर, तीसरे में रौद्र, पाँचवें में बीभत्स और अयानक, नौवें में करुण और नौवें तथा दसवें में अद्भुत रस है ।
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(घ) महावीरचरित और मालतीमाधव दोनों की ही शैली में कच्चा पक्कापन nिear हुआ देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि महाकवि अभी प्रौढ़ि के मार्ग में था । इसके कुछ पद्य परमप्रसाद गुण पूर्ण हैं और जय, भाव या रस के सर्वथा अनुरूप हैं। उत्तररामचरित की शैली उदास और उत्कृष्ट । उस में ाण है तथा कान्ति है और छावण्य है । उसे हम उत्तररामचरित में कहे हुए कवि के अपने शब्दों में कक्ष सकते हैं - ' धोरोद्धता नमयतीत्र गतिधरित्रीम्' ।
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(ङ) इसकी शैली की एक और बड़ी विशेषता इसकी विचार-द्योतन की पूर्ण योग्यता है । यह योग्यता तीनों रूपकों में समान रूप से देखने में आती है ।
(च) कालिदास के विपरीत यह गौडीवृत्ति का श्रादर्श लेखक है । 'भोजः समास भूयस्त्वमेतद् गद्यस्य जीवितम्' इस वचन के अनुसार वृत्ति में गधावस्था में लम्बे लम्बे समास होते हैं। कभी कभी अर्थ की अपेक्षा शब्द की अधिक चिन्ता करता हुआ यह जानकर अप्रसिद्ध पदों और जटिलान्वयी वाक्यों का प्रयोग करता है ।
(छ) इसकी वचन -रचना में वास्तविक प्रौढता और उदारता 1 (ज) इसकी सरक्ष और स्वाभाविक रचनाएँ बहुत ही प्रभावशा
१ इस गुण की दुर्लभता के बारे में भारवि का निम्नलिखित पद्य प्रसिद्ध ही है ।
भवन्ति ते सभ्यतमा विभिश्चितां मनोगतं वाचि निवेशयन्त ये । नयन्ति तेष्वप्युपपत्रनैपुणा गभीरमर्थं कतिचित् प्रकाशताम् ॥