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संस्कृत साहित्य का इतिहास
स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि । धाराधनाय लोकस्य सन्चतो नास्ति मे व्यथा ॥ (उ. रा. च...१२)
इसके अतिरिक्त, हम देखते हैं कि राजशेखर कुन्दमाखा के बारे में कुछ नहीं कहता है। इस नाटक में से उद्धरण देने वाला सबसे पहला पुरुष भोजदेव (लगभग १०१८-१०६० ई.) है। महानाटक (११वीं से १३वीं श०) शारदातनयकृता भावप्रकाश (लगभग १२ श.
और साहित्यदर्पण ( १४वीं श.) में भी इसके उल्लेख या उद्धरण पाए जाते हैं। अत: हम कुन्दमाला का निर्माण-काल ईसा की १०वों शताब्दी के प्रास-पास मान सकते हैं।
(११५) मुरारि (१) मुरारि के श्रमोत्पादित अनर्घरावव में सात अङ्क है जिनमें रामायण की कहानी दी गई है। कथावस्तु के निर्माण की दृष्टि से यह अधिकतर भवभूति के महावीर-चरित से मिलता जुलता है।
(२) शैली और नाटकीय कला--मुरारि की गणना संस्कृत के महाकवियों में की जाती है । कभी कभी य६ महाकवि तथा बालवाल्मीकि की उपाधि से विभूषित किया जाता है। गम्भीरता की दृष्टि से इसकी बड़ी प्रशंसा सुनी जाती है। उदाहरण के लिए उसकी स्तुति में एक पद्य देखिए
देवी बाचमुपासते हि बहवः सारं तु सारस्वतं, जानीते नितरामसौ गुरुकुल क्लिष्टो मुरारिः कविः। अधिरलक्षित एव वानरभटः किन्त्वस्य गम्भीरता
मापातालनिमग्नपीवरतनु नाति मन्थाचलः ॥ विचार-द्योतन को इसकी शक्ति वस्तुतः असाधारण और भाषा एवं ज्याकरण पर इसका प्रभुत्व प्रशंसनीय है। इसे अत्युक्तियों का बा शौक है। इसकी किसी सुन्दरी की मुखच्छवि की बराबरी चन्द्रमा भी नहीं कर सकता, इसीलिए चन्द्रमा की छवि को न्यूनता को पूर्ण