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परिशिष्ट (१) पाश्चात्य जगत् में संस्कृत का प्रचार कैसे हुआ ?
(१) यद्यपि पञ्चतन्त्र की कथाएँ तथा श्रार्यों को विद्वत्ता के विषय में प्रसिद्ध कहानियाँ यूरोप में 'मध्यकाल में ही पहुंच चुकी थी, तथापि इसे आर्यों की भाषा या संस्कृत के विशाल साहित्य का कुछ पता नहीं था । कुछ यूरोपियन प्रचारकों ने संस्कृत सीखी और प्रबाहम रोजर ( Abraham Roger) ने १६९१ ई० में भतृहरि के शतकों का डच भाषा में अनुवाद किया, परन्तु यूरोपियन लोग कृत से तब भी पूर्ण अपरिचित रहे । कितो यहूदो प्रचारक ने १७ वीं शताब्दी में यजुर्वेद की एक बनावटी प्रति तैयार की। १८ वीं शताब्दी के मध्य में मिस्टर वाल्टेयर ने इसे ही असन्जी यजुर्वेद समझ कर इसका बड़ा स्वागत किया। जब इस जाललाजी का पता लगा तब यूरोपियन विद्वान् लोग समझने लगे कि संस्कृत साहित्य ही नहीं, संस्कृत भाषा भी केवल एक बनावटो भाषा है जिसे सिकन्दर के श्राक्रमण के बाद ग्रीक भाषा की नकल पर ब्राह्मणों ने धड़ लिया था। इस धारणा का समर्थन 16 वीं शताब्दी को चौथी दशाब्दी में डब्लिन के एक प्रोफसर ने बड़ी योग्यता के साथ किया था।
(२) संस्कृत साहित्य के महत्त्व को अनुभव करने वाला और
१ १०३० से १४०० ई० तक, या अधिक विस्तृत अर्थ में ६०० से १५०० तक।