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३१८ संस्कृत साहित्य का इतिहास उल्लेख जहाँ जहाँ उचित समझा गया हैं इस पुस्तक में किया नाय है। डेढ़ सौ वर्ष के अन्दर अन्दर सम्पूर्ण वैदिक और लौकिक संस्कृतसाहित्य की. जो परिणाम में ग्रीक और लैटिन के संयुक्त साहित्य से बहुत अधिक है, छानबीन कर डाली गई है । यद्यपि इतना घना काम हो चुका है तथापि अभी अनुसन्धान कार्य के लिए बहुत विस्तृत क्षेत्र बाकी पड़ा है। भारतीय और यूरोपियन सरस्वती-सदनों में अभी अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण प्रन्थोंकी हजारों हस्तलिखित प्रतियाँ रक्खी हैं जिन पर बहुत सा मौलिक कार्य हो सकता है।
(२) भारतीय वर्ण-माला का उद्भव । कई यूरोपियन विद्वान् मानते है कि प्रारम्भ में आर्य लोग लिखने की कला नही जानते थे, यह कला उन्होंने विदेशियों से सीखी थी। यूरोप में संस्कृताध्ययन के प्रारम्भिक युगों में यह धारणा जैसा कि बुलर ने कहा भी है, “अननुकूल परिस्थिति के दबाव से उपेक्षित भारतीय शिलालेखादि के विशेष अध्ययन पर इतनी अवलम्बित नहीं थी, जितनी एक तो इस सामान्य विचार पर कि भारतीय लिपि के कुछ वर्ण सैमाइट-वर्ग को लिपियों के वर्गों से अत्यन्त मिलने जुलते हैं, दूसरे इस विश्वास पर, क्सिी किसी दशा में जिसका समर्थन स्पष्टतम साक्ष्यों से होता है, कि भारतीय आर्यों की सभ्यता का निर्माण अनेक और विविध-विध उपादानों से हुया है जो सैमाइटवर्गीय, ईरानी और यूनानी इन तीन पश्चिमीय जातियों में से लिए गए हैं। यह लेना किस प्रकार हुया इस बात को स्पष्ट करने के लिए कई युक्तियाँ कल्पित की गई हैं। इनमें सब से अधिक प्रसिद्ध युक्ति बुलर की है।
१ कुछ युक्तियाँ नीचे दी जाती हैं :
(१) प्रो० वैवर (Weber) के मत से भारतीय वर्णमाला सीधी प्राचीनतम फीनिशिया की वर्णमाला से ली गई है।
(२) डा. डीक (Deecke) का विचार है कि इसका जन्म