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सस्कृत साहित्य का इतिहास
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अस्थाचार नहीं था ! यह प्रश्न प्रायः पूछा जाता है । परन्तु राम उस समय प्रेम और कर्तव्य के 'उभयतो रज्जाश में फंस गया था। क्या लिने अपने पविन्न प्रेम और विशुद्ध उच्च नबुवंश को यू लामिछुत होने दिला होता ? क्या यह लोकापवाद के पात्र बने हुए एक व्यशिक के प्रति नेयम-शैथिल्य का उदाहरसा इसलिए उत्पन्न करता कि वह उसके पूर्ण सतीत्व काविश्वासी था, या वह उसकी रिश्तेदार थी और इस तरह प्रद्धा
को सदाचार के बन्धनों को शिथिल करने की स्वच्छन्दता दे देता या, 'वह ब्धि की वेदी पर प्रेम की बलि देकर प्राणों से भी प्यारी सीता को छोड़ देता! उसे क्या करना चाहिए था? उसे राजा बने अभी थोड़ा हो समय गुजरा था। कि कम किमकमति करयोऽप्यन्त्र भोहिताः । अन्त
प्रेम और कर्तव्य के संघर्ष में कर्तव्य बनवान् निकाला। राम ने श्रीता---- न स्वजीवन शक्ति ही-निर्वासित करदी । वह सीता के लिए कहोर तो अपने लिए और भी कठोर था । इस वियोग की पीड़ा उसे इतनी ही दुलह थी जितनी सीता की। राम का जीवन सीता के जीवन से भी क्लेशापन्न हो गया। सोता की बलि चढ़ गई, राम के अपने जगदालहार की बलि चढ़ गई, परन्त हाम-राज्य' एक लोकोक्ति बन गई । आज लोग
राम-राज्य की कामना करते हैं। क्या कभी किसी और राजा ने भी अपनी प्रजा के लिए इतना महान् प्रामा-त्याग किया है ?
उत्तर रामचरित में कवि की वस्तुतः अपने अन्य रूपकों की अपेक्षा अधिक सफलता मिली है। एक तरह से चरित्र-चित्रण बहुत ही बढ़िया है। परन्त इस नाटक में क्रिया-बेग (Action) की मन्दता खटकती है। इसीलिए भाधुनिक आलोचना की तुला पर तोलने के बाद इसे वास्तविक नाटक होने की अपेक्षा 'नाटकीय काव्य' अधिक समझा गया है। इस रूषक को एक विशेषता यह है कि इसके समापक अङ्क के अन्दर एक और रूपक है । इस अङ्क में भवभूति कालिदास से भी आगे बढ़ आया है। सीता-राम के पुनर्मिलन में जो चमकार और गम्भीर रस है वह शकुन्तला-दुष्यन्त के धन-खण्ड प्रणय में नहीं है।