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संस्कृत साहित्य का इतिहास
केवल दो अङ्क प्राप्य हैं जिनमें द्रौपदी के विवाह, घस-दृश्य तथा पाण्डवों के बन-गमन तक का वर्णन है।
विद्धशालभजिका-यह नियमानुस्त नाटिका है। इसमें चार श्रङ्क हैं। इसका नायक बाट-भूपति चन्द्रवर्मा है। कथावस्तु न अधिक रोचक है, न अधिक महत्वपूर्ण।
(घ) कपूर मञ्जरी-यह भी एक नाटिका ही है और इसमें श्रङ्क भी चार ही हैं। इसमें प्रणय-पथ की समता-विषमताओं का तथा नप चन्द्रपान का कुन्तल की राजकुमारी के साथ विवाह हो जाने का वर्णन है। यह नाटिका प्रवन्तिसुन्दरी की प्रार्थना से लिखी गई थी। इसकी भाषा प्रादि से अन्त तक प्राकृत है। राजशेखर को गर्व है कि सकनभाषा-प्रवीण मैं प्राकृत को, जो लजनाओं की भाषा है, सुन्दर शैली युक्त साहिस्यिक रचना के लिए प्रयोग में ला सकता हूं।
(३) नाटकीय कला' -राजशेखर के ग्रन्थों का विशेष लक्षण यह है कि इसने वस्तु वर्णन में बड़ा परिश्रम किया है। मौलिक कथानक लिखने या निपुण चरित्र-चित्रण करने मे इसने कष्ट नहीं उठाया। इसका सारा ध्यान विचारों को प्रभावोत्पादक रीति से अभिव्यक्त करने की तथा समानश्चतिक ध्वनियों का प्रचुर प्रयोग करने की ओर देखा जाता है। डा. ए. बी० कीथ की सम्मति है कि यदि काव्य का लक्षण केवल एक-सी ध्वनियां ही हैं तो राजशेखर उच्चतम श्रेणी का एक कवि माना जाएगा। यह संस्कृत और प्राकृत के छन्दों का प्रयोग करने में
१ राजशेखर की स्तुति का बक्ष्यमाण पद्य सुभाषित संग्रहो में पाया जाता है
पात' श्रोत्ररसायनं रचयितु वाचः सतां सम्मता, व्युत्पत्ति परमामवाप्तुमवधिं लब्धु रससोतसः। भोक्तु स्वादु फल च जीविततरोर्यप्रयस्ति ते कौतुकं, तद्भ्रातः शणु राजशेखरकवेः सूक्तीः सुधात्यन्दिनीः ।।