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शूद्रक
२८५ दत्तविषयक उसकी प्रीतिवृत्ति अचत रहती है और उसके होठों पर अन्तिम शब्द हैं-नमो चारूदत्तस्स (चारुदत्त को प्रणाम)।
मृच्छकटिक के पात्रों में समाज की सभी श्रेणियों के लोग सम्मिलित हैं। इनके कारण रूपक में पूर्ण यथार्थता प्रतिफलित होने लगी है। यह इस रूपक की प्रधान विशेषता है। इसमें गति या क्रिया-वेग (Action) की बहुलता है; अत: रूपक के लक्षण के सारे अगों की दृष्टि से यह एक सच्चा रूपक है । इसकी एक और विशेषता यह है कि सत्ताईस के सत्ताईस लधु पात्रों का व्यक्तित्व विस्पष्ट दिखाई देता है। पात्रों में राजदरबाशी, पुलिस के सिपाही लुटेरे, चोर, राजनीतिक नर और श्री १०८ संन्यासी भी हैं। तीसरे अङ्क में दम संघ मारने का एक वर्णन पढ़ते है। इसमें स्तेय-कर्म एक नियमित कक्षा कही गई है। मृच्छकटिक (मृत्+ शकटिका) नाम छटे अङ्क की एक घटना पर आश्रित है । वसन्तसेना चारुदत्त के पुत्र की मिट्टी की गाड़ी अपने रत्नजटित स्वर्णालंकारों से भर देती है। यह बात न्यायालय में चारूदत्त पर लगाए हुए अभियोग का पारिस्थितिक साक्ष्य (Circumstantial evidence) बन गई और इसने अमियोग को और भी जटिल बना दिया। दो प्रेमियों की निजी प्रेम कथा में राजनीतिक क्रान्ति मिला देने से रूपक की रममीयता बढ़ गई है।
काल-दुर्भाग्य से शूद्रक के काल का अनान्त शोधन शक्य नहीं है। दण्डी, बाण और वेतालपञ्चविंशतिकाकृत ने इसके नाम का उल्लेख किया है, अत: यह इनसे पूर्वभावी अवश्य सिद्ध होता है । करण के मत से इसी के बाद विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा । परन्तु यह विक्रमादित्य ही विक्रम सम्वत् का प्रवर्तक था, इस बात को सिद्ध करना कठिन है। निश्चित तो यही मालूम होता हैं कि चूकि 'चारुदत्त' रूपक का ही समुपंक्षित' रूप मृच्छकटिक है, अतः शूद्रक मास का उत्तरभावी है। कई विद्वानों ने इसे अवन्ति-मुन्दरी कथा में वर्णित नृप शिव१ इस विषय में विस्तत विवरण महाकवि भास के अध्याय में देखिए ।