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संस्कृत साहित्य का इतिहास इसकी प्रथम कृति की सरकाजीन कला-कुशकों ने बड़ी कटु समीक्षा की। किन्तु अपनी कला की उत्कृष्टता से अभिज्ञ और आशा के परिपूर्ण मयभूति ने अपनी लेखनी को उठाकर न रक्खा । यह निर्भय होकर लिखता गया। इसे ऐसा प्रतोस हुश्रा, मानो शारदा देवी इसकी वशंवदा भनुनही है। इसका विचार था,कि प्रायः लोग स्त्रियों के सतीस्व और कवि कृतियों के चमत्कार को सन्देह की दृष्टि से देखा ही करते है। भावगे चल कर इसने अपने दुहरालोचकों को फटकार बताते हुए कहा भी था कि मैं यह प्रयास तुम लोगों के लिए नहीं उठा रहा हूँ मेरा विश्वास है मेरे जैमा हृदय और मेरी जैसी प्रतिभा रखने वाला कोई पुरुष कभी अवश्य पैदा होगा क्योंकि समय का कोई अन्त नहीं और बह पृथ्वी भी बड़ी विस्तृत है।
(२) अन्थ----(क) महावीरचरित । महावीरचरित कदाचित् भवभूति का सबसे पहला सन्दर्भ' है। इसमें लेखक के पूर्व पुरुषों का पूरा विवरण है और इसकी रूप-रेसा में मसणता का प्रभाव लेखक की अभ्यासास्था को द्योतित करता है । कथावस्तु का प्राधार रामायण है, परन्त इसमें और रामायणी कथा में बहुत ही अधिक भेद है। सारी कथा की मिति
१ यं ब्राह्मणमिय देवी बारवश्येवानुवर्तते ।।। २ यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः ।। ३ ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा
जानन्ति ते किमपि, तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा
कालो ह्यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वीं ॥ (मा० मा० १, ६) ४ भारतीय जनश्रुति के अनुसार भवभूति ने इस नाटक का केवल पाँच अङ्क के छयालीसवें पद्य तक का भाग ही लिखा था, शेष भाग की पूर्ति करने वाला सुव्रण्ा कवि कहा जाता है। इस अधूरेपनका कोई कारण निश्चित नहीं किया जा सकता