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भवभूति बेणीसंहार हास्य और करुण रस से शून्य नहीं है। अन्तिम अङ्क भावों की गरिमा और भावद्योतन की मधुरिमा के लिए प्रसिद्ध है। इसका निशा वर्णन इतमा हृदयङ्गम है कि इसी के आधार पर कवि निशानारायण की उपाधि से अलंकृत किया गया है।
काल-(1) म नारायण के उद्धरण वामन, आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त के ग्रंथों में मिलते हैं; अत: यह अवश्य ईसा की पाठवीं शताब्दी से पहले हुआ होगा।
(२) लोक-प्रसिद्धि है कि यह बङ्गाल के राजा मादिशूर के (७ वीं १० का पूर्वार्ध) निमन्त्रण से कन्नौज से बङ्गाल चला गया था।
(३) धर्मकीति के रूपावतार की एक टीका की हस्तलिखित प्रति में लिखा है कि बाण की प्रार्थना स्वीकार करके भट्ट नारायण किसी बोद्ध महन्त का शिष्य हो गया था तथा रूपावतार को भट्ट नारायण और धर्मकीर्ति ने मिलकर लिखा था।
इससे यही परिणाम निकलता है कि भह नारायण मह बाण का सम-सामयिक था।
(११२) भवभूति (१) भवभूति का भासन भारत के मूर्धन्य रूपककारों की श्रेणी में है। इसका असली नाम श्रीकण्ठ या । सूक्ति-संग्रहों में इसके नाम से कई ऐसे भी पत्र मिलते हैं जो इसके उपलभ्यमान रूपकों में नहीं है (इससे अनुमान होता है कि इसने इन रूपकों के अतिरिक्त कुछ और
भी लिखा होगा)। इसका जन्म विदर्भ देश में वेद के विद्वानों के विख्यात वंश में हुआ था। यह स्वयं बड़ा प्रकारात पण्डित था।
१ अपने पहले दो रूपको में इसने कुछ ऐसे उद्धरण दिए हैं जो (वेद, उपनिषद् ब्राह्मण और सूत्र इत्यादि ) वैदिक साहित्य के ही नहीं, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, रामायण-महाभारत, कालिदास के ग्रन्थ इत्यादि का भी स्मरण कराते हैं ।