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संस्कृत साहित्य का इतिहास
को दृष्टि से यह नाटक सारे संस्कृत-साहित्य में द्वितीय हैं। बड़े से लेकर छोटे तक सभी पात्रों का एक लक्ष्य है. सारी की सारी प्रायोजनाथों का एक ध्येय है और वह है राक्षस को अपनी ओर करना । राजनीतिक उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए सच-मूल या न्याय-अन्याय का विश्वर उठाकर ताक में रख दिया गया है । राजनीतिक आवश्यकता के अनुसार मित्रता उत्पन्न की जाती और तोड़ दी जाती है । चन्दनदास जैसे उदात्त चरित व्यक्ति तक को प्राणा-दण्ड की धमकी दी जाती है, जिसका प्रयोजन केवल यही है कि राक्षस झुक जाए । प्रत्येक पात्र का व्यक्तित्व विस्पष्ट झलकाया गया है । इस नाटक की एक विशेषता यह है कि लेखक ने दो दो पात्रों का एक एक वर्ग बनाया है। चाणक्य और राक्षस दीर्घदर्शी राष्ट्रनीति- विशारद और कुशल प्रायोजना-योजक हैं । चन्द्रगुप्त और मलयकेतु प्रतिपक्षी राजा है। उनकी योग्यताओं और frames में आकाश पाताल का अन्तर हैं। भागुरायण और सिद्धार्थक इत्यादि लोग निम्नश्च णी के वर्गों के पात्र हैं और उनके वैयक्तिक गुणों का तारतम्य बहुत अच्छी तरह दिखलाया गया है। भाषा में जान और शान है । पद्य में मधुरता और मंदिरता का प्रवाह है। कुछेक यूरोपियन आलोचकों के विश्वार से संस्कृत भाषा में बस यही एक यथार्थ नाटक है ।
रचयिता - प्रस्तावना में रचयिता ने स्वयं बताया है कि मैं इस नामक उच्चकुल का वंशवर हूँ । यह कुल प्रान्त के शासन में उच्चपदारूद रहा है । रचयिता एक सामन्त का पौत्र और एक महाराज का पुत्र था। वह व्याकरण, नाट्य, राष्ट्र-नय, ज्योतिष और तर्क का महान् पति था। वह स्वयं शैव होते हुए बौद्धधर्म में भी थोड़ी-सी श्रद्धा रखता था, परन्तु जैनधर्म को पसन्द नहीं करता था। उसके कुछ फुटकर पद्म सूक्ति-संग्रहों में सङ्कलित मिलते हैं ।
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काल - इस प्रसिद्ध नाटक के । रचना काल के सम्बन्ध में अलग
विचार हैं। (1) भरत वाक्य में पाठभेद से तात्कालिक शासक