Book Title: Sanskrit Sahitya ka Itihas
Author(s): Hansraj Agrawal, Lakshman Swarup
Publisher: Rajhans Prakashan

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Page 294
________________ रामायण-महाभारत का प्रभाव २७३ को भी अपने धर्म का प्रचार करने के लिए नाटकों का प्राश्रय लेना पड़ा । (घ) लौकिक वस्तुओं का प्रभाव-साथ ही साथ भारत में अभी ग्रामोत्सव और छाया नाटकों का तथा कठपुतलियों के नाच का प्रचार भी अवश्य रहा होगा। बढ़ती हुई अभिरुचि के कारण केवल इसी काम को करने वाले लोगों की श्रेणो भी उत्पन्न हो गई होगी । ऐसे लोग सामाजिक और नैतिक दृष्टि से भिन्नस्थानीय समझे जाते थे । हमारे इस विचार का समर्थन पतञ्जलि करता है। गाँवों के अकृत्रिम वातावरण में हुए रूपकों के इस विकास को देख लेने के बाद हम उनमें प्राकृत भाषाओं के प्रयोग के, गद्य-पद्य के मिश्रण के, नाच-गान की प्रधानता के और रंगशाला की सादगी के कारण को भी भक्षी मॉति समझ सकते हैं। अब प्रश्न रहा रूपकाविशयोकि अलवार की जाति के (Allegorical) रूपकों का 1 कदाचिन् ऐसे रूपकों का जन्म जैन और बौद्धधर्म की आचारविषयक और साधारण उपदेश सम्बन्धी शिक्षाओं से हुआ है। राजा लोग रूपक-कला के निरन्तर संरक्षक रहे; बहुत सम्भावमा यही है कि इसीलिए लोगों को राजाओं के या रनिवास की प्रणयनीलाओं के रूपक लिखने का ख्याज पैदा हो गया। यही रूपक आगे चलकर सब रूपकों के लिए मानदण्ड बन गये। भारतीय और यूनानी रूपक साहित्य के इतिहास के पारस्परिक सम्बन्ध का विचार उपस्थित होने पर हम कहेंगे कि यूनानी रूपक ने संस्कृत रूपक की उत्पत्ति में कुछ योग दिया हो, इस बात की बहुत ही कम सम्भावना है। इस प्रकरण को समाल करते हुए हम कह सकते हैं कि भारतीय रूपक का विकार एक दो नहीं, अनेक शताब्दियों में हो पाया होगा। यह १ विस्तृत विवरण के लिए प्रवटक १०५ देखिए ।

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