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रूपक का यूनानी उद्भव।
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इत्यादि से कदाचित् ईरानी बेल-बूटेदार कालीन की जाति के किसी वस्त्र से तैयार किए जाते थे। यही बात लैंवि ने कही भी है। यूनानी रूपकों में पढ़े का प्रयोग नहीं है। इससे उक्त सिद्धान्त की स्वयं हस्या हो जाती है। दूसरी ओर ऐसे प्रबल प्रमाण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि संस्कृत रूपक यूनानी रूपक का ऋणी नहीं रहा होगा। अन्तरात्मा, कथावस्तु क्रम तया निर्माण सिद्धान्त की दृष्टि से यूनानी और संस्कृत नाटक एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत दिशा में चलते हैं।
(२) यूनानी नाटक मे देश और काल की एकता का नियम है, संस्कृत नाटक में नहीं । कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल तक में हम देखते हैं कि एक अङ्ग का स्थान वन है, तो दूसरे का राजप्रासाद या इससे भी बढ़कर; एक अङ्ग का स्थान भूबोक है, तो दूसरे का स्वर्गलोक । इतना ही नहीं, श्य ही अङ्ग तक में स्थान-भेद हो सकता है। अमिज्ञान शाकुन्तल के अन्तिम अङ्ग में हम यही बात पाते हैं। काल को देख, तो अभिज्ञानशाकुन्तल के अन्तिम दो और उत्तररामचरित के आदिम दो प्रकों की कथाओं के कारों में कई वर्षों का अन्तर पाते हैं ।
(२) संस्कृत रूप में सुख-दुःख की घटनाओं का सुन्दर सम्मिश्रण रहता है। यह बात यूनानी रूपकों के नियमों के सर्वथा विरुद्ध है। इस दृष्टि से संस्कृत रूपकों की तुलना स्पैनिश और इङ्गलिश' रूपकों के
१ शेक्सपियर के रूपकों के साथ सादृश्य की कुछ और बातें ये हैं(क) विदूषक जो शेक्सपियर के मूर्ख से बिल्कुल मिलता है। (ख) गद्य-पद्य का सम्मिश्रिण ।।
(ग) पात्रो के नाना नमूनो की निस्बत एक एक व्यक्ति का ही चरित्र-चित्रण अधिक करना ।
(घ) काल्पनिक और भयंकर अशो का समावेश ।
(ङ) श्लेषालङ्कार का प्रयोग तथा शब्दों का हास्योत्पादक तोड़मरोड़।