Book Title: Sanskrit Sahitya ka Itihas
Author(s): Hansraj Agrawal, Lakshman Swarup
Publisher: Rajhans Prakashan

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Page 302
________________ संस्कृतरूपक की विशेषताएं मजच पर श्राता और अपना अभिनय समाप्त करके फिर ससी के पीछे चला जाता था । इस पर्दे के पीछे के स्थान को 'नेपथ्य' कहते हैं। जब किलो पान को शीघ्रता से प्रवेश करना होता था, तब वह 'पदे को उठाकर' प्रदेश करता था। मञ्च के प्राकृतिक दृश्य तथा सजावट के समान बहुत साधारण होते थे। खेल में की अनेक बातें दर्शकों को बर्सन-पूर्ण पद्यों के अनुकरणात्मक क्रिया के या नाट्य ( सपरिश्रम सीखे हुए और दर्शकों के समझ लेने योग्य अङ्ग-सम्ब न)के द्वारा समझा दी जाती थी। (७) ऐसा प्रतीत होता है कि संस्कृत रूपककार रूपक का प्रधान प्रयोजन बोकरन्जन समझते थे, न कि एकमात्र अनुभूयमान जीवन का सजीव चित्र खोचना । वदि किसी रूपक का अवसान सावसाद हो, तो लामाजिक लोग दूयमान और शोकाकुल होकर रङ्गशाला से बाहर निकले । ऐसी अवस्था में खेल का यथार्थ अर्थ ही व्यर्थ हो जाए। इसके सिवा, मारतीय लोग पुनर्जन्म के पिछ।न्त को मानते है, अतः इनके लिए मत्यु इतनी दुखद घटना नहीं है, जितनी पाश्चात्य लोगों के लिए इस नियम के अपवादों को ओर भी विद्वानों का ध्यान गया है। उन्होंने उदाहरण भी हूँ जिर है, नाम के लिए 'अरुभङ्ग' रूपक की समाप्ति शोकोत्पादक है। परन्तु ऐसे उदाहरणों में हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि दुःशासन जैसे पात्रों की समवेदना बिलकुल नहीं हो सकती; उल्टा, वे तो उसकी मृत्यु से प्रसन्न होते है। सिद्धान्तकारों का सिद्धान्त है कि वास्तविक दुःखमय रूपक का रूप भीषण और रोमाञ्चकर मृत्यु-घटना में सन्निहित नहीं है, प्रत्युत उस घटना के पहले या पीछे इस्पायमान करुणरस में । अत: भारतीय रूपकों में साक्षात् मत्यु का अभिनय नहीं किया जाता । (5) इतना ही नहीं । हास्य अथवा गम्भीरता की कोई भी बात, जो अशिष्ट समझी जाती है, अमिनीत नहीं की जाती । यही कारण

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