Book Title: Sanskrit Sahitya ka Itihas
Author(s): Hansraj Agrawal, Lakshman Swarup
Publisher: Rajhans Prakashan

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Page 300
________________ संस्कृत रूपक की विशेषताएं २४६ अवचक, य खव्यसनी हत्यादि दूसरे लोग प्राकृत के अन्यभेद-श्रामारी, पैशाची, अवन्ती प्रति बोलते हैं। अपनश का प्रयोग अत्यन्त पणित और असभ्यों के द्वारा होता है। (३) संस्कृत रूपककर्ता का मुख्य उद्देश्य दर्शकसमूह के हृदय में किसी एक विशिष्ट रस का उद्रेक उत्पन्न करना है । वह रस शृङ्गार, वीर, करुण या कोई और भी हो सकता है। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण तथा अन्य सब वस्तुएँ इसी लक्ष्य के प्राधीन होती हैं । ज्योकि संस्कृत रूपकों में गति या क्रिया-वेग ( Action ) के ऊपर बल नहीं दिया गया है, अतः आधुनिक तुला पर रखने के बाद उनमें से अधिक संख्य क यथार्थ रूपक की अपेक्षा रूपकीय काव्य ही अधिक माने गए है। (8) रूपकों की कथावस्तु कोई सुन्दर प्रसिद्ध कहानी रक्खी जाती है, ताकि सामाजिक इससे पूर्णतया आनन्दित हो सकें। यह कहानी प्रायः इतिहास या रामायणादि में से ली जाती है। कुछ अपवादों को छोड़ यही देखा जाता है कि रूपक की कथावस्तु कोई प्रेम कहानी होती है, और शृङ्गार रस ही मुख्य रस होता है। प्रथम-दर्शन होते ही नायकनायिका का परस्पर प्रेम होता है; परन्तु जीवन भर के लिए संयुक्त होने से पहले उन्हें वियोग-सुर की दुरत्यय-निशित धार पर चलना पड़ता है। इस काल में उन्हें कमी अभिलाष, कभी नैराश्य, कमी सन्देह, कभी निश्चय इत्यादि अनेक मनोवेदनाओं की तीखी अनियों १ प्रायः रिवाज यह है कि शृङ्गार रस ही मुख्य रस माना जाता है। इसके बाद वीर का नम्बर है। अपने उत्तररामचरित में भवति ने करुण का परिपाक किया है । शेष रसों में से अवसरानुसार किसी को भी रूपक में मुख्य रस बनाने का विधान तो कर दिया गया है, परन्तु उनमे से किसी को मुख्य बहुत ही कम बनाया गया है । २ उल्लेखनीय अपवाद ये है-विशाखदत्त-रचित मुद्राराक्षस, भट्टनारायण-कृत वेणीसंहार और श्रीहर्ष-प्रणीत नागानन्द ।

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