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अश्वघोष की शैली १३३ * শীলু । যা লক্ষ গীং সাৰ
সন্ধান শু
स्वेन व रूपेण विभूषिता हि विभूषणानामपि भूषणं ला ||
(मौन्द० ४, २) अश्वघोष अकृत्रिम और सुबोध यमकों का रसिक है। सुने --- प्रणष्टबस्लामिव वलद्धा नाम् ।
अथवा उदारसंख्यैः सचिरसंख्यः । अश्वघोष आच्छा वैयाकरण है और कभी कभी वह व्याकरण के अप्रसिद्ध प्रयोगों का भी प्रदर्शन भरता है । निदर्शनार्थ; उसने उपमा के द्योतक के तौर पर 'अ४ि मिपात का प्रयोग किया है। सौन्दरानन्द के दूसरे हाँ में उसने लुङ के प्रयोगों में पाथिहत्य दिखाते हुए "मामि
और मी तीनों धातुओं से कर्मणि प्रयोग में सिद्ध होने वाले 'मीयते पद का प्रयोग किया है। रामायण-महाभारत तथा बौद्ध लेखकों के प्रभाव से कहीं-कहीं व्याकरमा-विरुद्ध प्रयोग भी देखे जाते हैं । उदाहरण के लिए देखिए, कदन्न गा' और 'विवयित्वा' किस् उत में स्थान पर किम क्त चेद् के स्थान पर सचे । हो इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह छन्दों के प्रयोग में बड़ा सिद्ध इस्त है और उद्गाता जैसे का प्रयोग में में अाले वाले छन्दों का भी प्रयोग सफलता से कर सकता है।
सूचना--अश्वघोष के कुछ पा मार के पचों से बहुत कुछ सिलते जुलते हैं इसिरह ----
१ वह अपने लावण्य से हो अलंकत थो, कयोकि अलकारों को तो वह अलंकार थी । २ जिसका बछड़ा मर गया है, प्यार करने वाली, उस गाय के तुल्य । ३ उत्तम परामर्श देने वाले असंख्य मन्त्रियो के साथ ४ सौन्दरानन्द १२, १० ।