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संस्कृत साहित्य का इतिहास
सम्बन्धी है। अतः इसमें कहीं कहीं पाली के शब्दों का श्राजाना विस्मयजनक नहीं है।
काल-तारानाथ ने मामूली-सी वजह से प्रार्यशूर और अश्वघोष को एक व्यक्ति मानने का विचार प्रस्तुत किया है। उक्त महाशय ने अश्वघोष के कुछ और प्रचलित नाम भी दिए हैं परन्तु इससे हम किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुँच सकते हैं। अश्वघोष के कान्यों
और जातकमाला में शैली की इतनी विषमता है कि उक्त विचार पर गम्भीरता से विचार करने का अवसर नहीं रहता।
जातकमाला १००० ई. के लगभग चीनी भाषा में अनूदित हो गई थी, और इलके रचयिता श्रार्यशूर का नाम तिब्बत में एक ख्यातनामा अध्यापक एवं कथा लेखक के तौर पर प्रसिद्ध था। ७ वी शताब्दी का चीनी यात्री इसिंग इस प्रन्य से परिचित था। कर्मफलसूत्र, जिसका रचयिता यही प्रार्यशूर माना जाता है, ४३४ ई० में चीनी में अनूदित हो गया था; अत: आर्यशूर का काल ईसा की चौथी या तीसरी शताब्दी के समीप मान सकते हैं।
(१०) जैन साहित्य । बौद कहानियों की तरह जैन कहानियां भी प्रोपदेशिक ही हैं । उन का उईश्य पाठक-मनोरञ्जन नहीं, धर्म के सिद्धान्तों की शिक्षा देना है। (क) सिद्धर्षि की उपमितिभव प्रपंच कथा (१०६ ई०)।
उपमिविभव प्रपंच कथा में मनुष्य की आत्मा का वर्णन अलंकार के सांचे में ढालकर एक कथा के रूप में किया गया है । संस्कृत में अपने दंग का सबसे पुराना मन्य होने के कारण यह महत्वशाली माना जाता है। इसे १०६ ई० में सिद्धर्षि ने लिखा था। प्रस्तावना के अन्त में
१ इस प्रकार का दूसरा प्रन्थ प्रबोध चन्द्रोदय नाटक है जो बाद में
बना था।