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संस्कृत साहित्य का इतिहास
मत्ता पूर्ण है। परन्तु इस वाद का दुर्भाग्य कि इन्द्रध्वज का त्यौहार, जो इन्द्र की वृन्न (मेघ-) विजय का सूचक है, वर्षा के अन्त में पड़ता है।
(३) कृष्णोपासना वाद-इस वाद मे भारतीय रूपक के उद्भव और उपचय का सम्बन्ध कष्ण की उपासना के अदर और प्रसार से जोड़ा जाता है। निस्सन्देह कष्णोपासना के कई अङ्ग इस प्रसङ्ग में बड़े महत्त्व के कहे जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, स्थि-यात्राएँ, नृत्य, वाद्य
और गीत,तथा लीलाए ऐसी वस्तु है, जिन्होंने संस्कृत्त-नाटक के निर्माण में बड़ा योग दिया है । संस्कृत नाटक का विकास कृष्णोपासना के घर शूरसेन देश में हुआ। नाटकों में शौरसेनी प्राकत का प्राबल्य इस बात का घोतक है कि नाटक का प्रादुर्भाव ही वहाँ हुना। कृष्णोपासना के कारण ब्रजभाषा का हाल ही में जो पुनःप्रचार हुआ है, वह भी यही सूचित करता है कि ब्रजभाषा ने भारतीय नाटक के विकास पर कमी बड़ा प्रभाव डाला होगा। परन्तु इस बाद में कुछ त्रुटियाँ भी हैं। पहली तो यह कि कृष्ण सम्बंधी नाटक ही सबसे प्राचीन हैं, इसका पोषक प्रमाण अप्राप्य है। दूसरी यह कि राम-शिव प्रभृति अन्य देवताओं की प्रसिद्ध उपासनाओं ने भारतीय नाटक के विकास में जो बड़ा भाग लिया, उसकी उपेक्षा की गई है।
(ग) रूपक का धर्मनिरपेक्ष उद्भव । (१) लोकप्रिय-स्वाँग-वाद-प्रो० हिल (Hiliebrandt) और स्टेन कोनो (Sten Konow) का विचार है कि भारतीय रूपक के प्रादुर्भाव से भी पहले भारत में नोक-प्रिय स्वाँगों का प्रचार था । बाद में रामायण और महाभारत को कथानों ने स्वागों के साथ मिलकर रूपक को जन्म दे दिया।
डा. कीथ ने इस वाद का विरोध किया है। रूपक के प्रचार से पूर्व स्वाँगों के प्रचलित होने का साधक कोई समुचित साचा मुलम