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सस्कृत साहित्य का इतिहास
कर यह मानना पड़ता है कि सरक इससे पहले हो विद्यमान था, जो इस माचका अाधार था।
(३) छायानाटक वाद-प्रो० लूडर्स (Ludels) कहते हैं कि संस्कृत-रूपक के विकास में मुख्य भाग - छाया द्वारा खेल दिखाने की प्रथा का है। यह बात स्मरणीय है कि 'रूपक' शब्द जितना अन्वर्थ इस सिद्धान्त के अनुसार सिद्ध होता है उतना किसी और के नहीं। परन्तु जैसा कि डा. कीथ ने बताया है, यह बाद महामाष्य के एक स्थल के अयथार्थ प्रावधारण पर अवलम्बित है। अनन्तरोक्त सिद्धान्त के पक्षपाती के समान इस सिद्धान्त के अनुयायी को भी रूपक की सत्ता छाया-नाटक के जन्म से पहले स्वीकार करनी पड़ती है । इसके अतिरिक्त इस मत से गद्य-पद्य के मिश्रण का तथा संस्कृत-प्राकृत के प्रयोग का कोई कारण नहीं बताया जा सकता।
(४) संवादसूक्त बाद ... ऋग्वेद में पन्द्रह से अधिक संवादयुक मुक्त हैं । ये सूक्त निश्चय ही धर्मनिरक्षेप-- लोकव्यवहार-परक (Secular) हैं । १८६६ ई. में प्रो० मैक्समूलर ने प्रस्ताव रखते हुए और कुछ काल पश्चात् प्रो. लैवि ने (Levi) उसका अनुमोदन करते हुए कहा कि इन सूलों में धर्म की भावना से भरे हुए नाटकों के दृश्यों के दर्शन होते हैं। वॉन ऑडर (Von Schroeder) ने इस प्रस्ताव पर सपरिश्रम विचार करके यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया कि इन सूक्तों से रहस्यपूर्ण नाटकों (Mystery.Plays) की सूचना मिलती है। गर्भरूप में ये नाटक भारत को भारोपोय (Indo European) काल से प्राप्त हुए थे । डा0 हर्टन ने एक कदम और आगे बढ़कर घोषणा की कि वैदिक नाटक के विकास काण्ड का मूल सुपर्णाध्याय के अन्दर देखने को मिल सकता है । परन्तु इस घोषणा को गोड़ हरी नहीं हुई । दूसरे अध्येताओं ने भी अपने २ राग अलापे हैं। अर्थ 'चाहे कुछ भी लिया जाए, हतना तो निश्चित ही है कि ऋग्वेद में कतिपय सूक्त चार्वाखापयुक्त मी हैं और उनमें से थोड़े की (यथा, 'सरमा और पणिलोग' की)