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सस्कृत साहित्य का इतिहास
पहले ये सब उपाहान-तत्व पृथक् पृथक पडू कर ही अपना काम करते रहे। इनका सांयोगिक व्यापार तथा रूपक को भारमाभूत कथा-वस्तु का विकास बाद में बल का हुधा । पढ़कर सुनाने की प्रथा (जो संस्कृत नाटकों में संगोत से भी अधिक महत्व रखती है) और भी आगे चलकर रामायण और महाभारत की कथानों से की गई।
(ख) रामायण-महाभारत का प्रभाव ! नट' और नर्तक दोनों शब्द रामयण एवं महाभारत में पाये जाते हैं। रामायण के सूक्ष्म अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि
१ (ई० पू० की चौथी श० से भी पूर्व होने वाले ) पाणिनि ने भी नट शब्द का प्रयोग किया है; परन्तु आजकल उस नट शब्द का पाणिनि विवक्षित अर्थ बतलाना कठिन है । (ई० पू० दूसरी श० में होने वाले ) पतञ्जलि का साक्ष्य अधिक निश्चित है। यदि कोई बात भूतकाल में हुई हो और उसे वक्ता ने न देखा हो, तब उसे अपूर्ण भूतकाल से प्रकट करने के लिए कौनसे लकारादि का प्रयोग करना चाहिए ? इसको समझाते हुए पतञ्जलि ने 'कंसवध' और 'बलिबंध' का उल्लेख किया है। अधिक सम्भावना यही है कि ये नाटक हैं, जो पतञ्जलि के देखे हुए या पढ़े हुए थे। उसने नाटकोपयोगी कम से कम तीन साधनों का उल्लेख भो किया है:--(१) शाभिक लोग, जो दर्शकगह के सम्मुख दृश्य का अभिनय करते थे; (२) रजक लोग, जो करड़े पर चित्रित करके दृश्यों को विवृत करते थे; और (३) ग्रन्थिक लोग, जो अपने भाषणों द्वारा दर्शनवृन्द के सामने उक्त दृश्यों को यथार्थ करके दिखलाते थे। उसने एक 'भ्र कुस' शब्द भी दिया है, जो ठीक तरह स्त्रीरूपधारी पुरुष के लिये प्रयुक्त होता था। इस प्रकार अकेले पतञ्जलि के लाक्ष्य अाधार पर ही कहा जा सकता है कि-ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी से पहले ही भारत में रूपक का पर्याप्त विकास हो चुका था।