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पञ्चतन्त्र की शैली
अर्थस्योपार्जनं कृत्वा नेक भाग समश्नुते ।
रए महापाद्य मुढ़ः सोमलिको यथा ॥ (२) पञ्चतन्त्र में कथा वर्णन भरने वाले कुछ उत्तम पद भी हैं। हरिण की कथा में एक पद्य भाया है--
वात-वृक्ष-विधूत- मृगयूयस्य धावत' !
पष्टनोऽनुगमिष्यामि ऋदा तन्मे भविष्यति ॥ ऐसे पद्यों को लिकता में सन्द, नहीं हो सकता । ऐसा मालूम होगा कि ये प्रन्थ में स्वयं अपार योनिजेखक ने इस बात का बड़ा ध्यान रखा है कि वर्णन में ही दिया जाए ( पछा तो विख औगदेशिक था 'शीर्षक सूचक ही है ३)।
१६) भाषा प्राय: सरल, शुद्ध और विवाद है। यदि भाषा ऐसीन होतो, तो तरुल राजकुमारी को नोति सिस्त्राने का लेखक का प्रतिज्ञात उई कैसे पूरा होता । पञ्च प्राधः अनुष्टुप छन्द में ही हैं । रामायण, महाभारत और स्मृतियों की शैली का अनुपण करते हुए उन दीर्घ समाल और किष्टान्वयी वाक्य नहीं रखे गए। कुछ उदाहरण
श्रापकाले तु सम्प्राप्ते यन्मित्रं मित्रमेव तत् । वृद्धि काल तु सप्राप्ते दुर्जनोऽपि सुहृद् भवेत् ।। (२, ११८)
उद्यमेन हि सिद्धयान्ति कार्याणि न मनोरथः । आया। खरगोश ने वन मे मद-मन्त शेर को मार डाला था।
१ घनसग्रह करके भी मनुष्य उसका भोग नहीं कर सकता । मूर्ख सोमलिक घने जगल मे पहुच कर उपर्जित धन को खो बैठा था। २ ओह ! वह समय कब आएगा, जब मै हवा और बारिश के झकोरे से सताए हुए, इधर उधर दौड़ते हुए · हरिणों की डार में पीछे-पीछे दौड़ता रहूँगा ! ३ चम्पू मे लेखक अपने भीते के अनुसार गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग करता है। अतः चम्पूत्रों में और बातक मालाओ मे वर्णन-पूर पद्य पर्याप्त देखे जाते हैं।