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हितोपदेश
या । वह किन्हीं धवचन्द्र' का कृपाभाजन था । लेखक ने भूमिका के प्रथम पद्य में धूर्जटि एवं १, १०२ में चन्द्रार्धचूहामणि और ४, १३= में चन्द्रमौलि को नमस्कार किया है । अतः अनुमान होता है कि यह शैव था | भूमिका के दूसरे और आठवें पद्म से जान पड़ता है कि इस ग्रन्थ के लिखने में लेखक का उद्दश्य बच्चों के समझाने योग्य सरत कथाओं का एक ऐसा सन्दर्भ तैयार करना था, जो संस्कृत भाषा की शिक्षा देने, वाक्चातुर्य सिखाने और राजीनीतिक पाडित्य प्राप्त कराने में उपयोगी सिद्ध हो सके । लेखक ने कहा है:---
श्रुतो हितोपदेशोऽयं पाटवं संस्कृतोक्तिषु ।
वाचां सर्वत्र वैचित्र्यं नीतिविद्यां ददाति च ॥ (पद्म २) यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत् । कथान्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते ।
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हितोपदेश का उपजीव्य पन्चतन्त्र तथा एक कोई और प्रन्थ है । लेखक ने भूमिका के नौंवे पद्य में इस बात को स्वयं भी स्वीकार किया है। अनुसन्धान अभी इस दूसरे ग्रन्थ का पता नहीं लगा सका है । कदाचित् यह कोई कथा-ग्रन्थ होगा, क्योंकि हितोपदेशकार कम से कम सतरह नई कथाए' देता है । इम सतरह में से केवल दो ही ऐसी हैं, जिनमे श्राचार की शिक्षा मिलती है। इससे एक तो यह सिद्ध होवा है कि लेखक का उद्देश्य आचार की शिक्षा देना नहीं था; दूसरे ग्रह कि उसने पञ्चतन्त्र की मूल रूप-रेखा का ही पूर्णतया अनुसरण किया
| शेष पन्द्रह कहानियों में से सात जन्त-कथाएँ हैं पांच प्रेमपाश की और तीन वीर्थ-कर्म की। चूछे की कहानी, जो क्रमशः बिल्ली, कुत्ता और चीता बन गया परन्तु ऋषि को मारने के कारण जिसे फिर चूहा बनना पड़ा, लेखक ने कदाचित् महाभारत से की है । चतर स्त्री
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१ देखिए, श्रीमान् घवलचत्रोऽसौ जीयान् माण्डलिको रिपून् । येनायं सग्रहो यत्नाले खयित्वा प्रचारितः ॥ (४,१३६)