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दक्षिणीय पञ्चतन्त्र
२५५ "नष्पादक कोई जैन था। सारे अन्य पर विचार करने से इसका निष्पाइक अच्छी शैली का सिद्धहस्त लेखक प्रतीत होता है।
'सर' प्रन्थ में (The Textus Simplicior) माव और रुम के पय उद्धन है। परन्तु यह पूर्णमा से (१११ ई.) तो लिम्सन्देश प्राचीन है। अत: इसका काल स्थूल रूप से ५१०० ई. के आस-पास माना जा सकता है।
(६८) पूर्णभद्र निष्पादित पञ्चतन्त्र । पूर्णभद्र का अन्य साधारणत: पचाख्यानक' के नाम से प्रथित्त है। इसका निर्माण कुछ वन्त्रख्यायिका के और कुछ 'परल' प्रन्थ के प्रापार पर हुआ है। कुछ अंश किसी अप्राप्य अन्ध से भी लिया प्रतीत होता है। इसमें कम से कम इक्कीस नई कहानियां हैं। इनमें से कुछ निस्सन्देह मनोहारिणी है । पहले तन्त्र को नोवो कहानी में पशु की कृतज्ञता और मनुष्य की अकृतज्ञता का व्यतिरेक दिखलाया गया है। मालूम होता है लेखक नीति-शास्त्र में पूर्ण निष्णात था। इसकी शैली सुगम, सरल और शोमाशानी है। ग्रन्थ का निर्माण सास नामक किसी मन्त्री को प्रसन्न करने के लिए सन् 91 ई० में किया माया था ।
(88) दक्षिणीय पञ्चतन्त्र। दक्षिण में प्रचलित पञ्चतन्त्र पांच विविध रूपों में उपलब्ध होता है। इसका मुख्य प्राधार वह असली प्रन्थ है, जो हितोपदेश का और नेपाली पन्चतन्त्र का है। जनों द्वारा निष्पादित उक्त दोनों संस्करणों की अपेक्षा इसमें मालिक अंश वस्तुतः अधिक है। एजर्टन के मत से इसमें श्राध पचतन्त्र का तीन चौथाई गोश और दो तिहाई पद्याश सुरक्षित है । इसके पाँचों विविध रूपों में एक समुपवृहित है
१ कभी कभ। यही नाम उक्त 'सरल' ग्रन्थ के लिए भी प्राता है