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संस्कृत साहित्य का इतिहास
न हि सिंहस्य सुतस्य प्रविशन्ति मुखे मृषा: (३, ३५८) किं तया कियते धेन्वा या न सूते न दुन्धदो।
कोऽर्थः पुत्रेश जातेन यो न विद्वान् न भकिमान् ॥ (उपोशात ७ ये पच इतने सुगमार्थ है कि ये प्रायः प्रारम्भिक श्रेणी की पाठ्य पुस्तकों में दिए जा सकते हैं।
कहीं-कहीं लेखक ने प्रथामापेक्षी पद्यो का भी प्रयोग किया है और इनमें दोर्ष समाल भी रखे हैं। उदाहरणार्थ
सिद्धि प्रार्थयता जनेन विदुषा तेजो निगृह्य स्वक, सत्रोत्साहवताऽपि दैवविधिषु स्थैर्य प्रकार्य क्रमात् ! देवेन्द्र द्रविणेश्वरान्तकसमैरप्यन्वितो भ्रातृभिः, किं विष्टः मुचिरं त्रिदण्डमवहच्छीमा नधर्मात्मजः ॥ (३, २२३) परन्तु पन्चतन्त्र के बाद के काव्य की शैली से इन की शैली की तुलना करके देखा जाए तो ये पच बिककुल ही सरल प्रतीत होंगे। अधोलिखित पर, जो हाजा और मन्त्री के परस्पर सम्बन्ध का वर्णन करता है. मुद्रा-राक्षस नाटक में भी पाया जाता है ---
अत्युच्छ्रिते मन्त्रिणि पार्थिवे च विष्टस्य पादावतिष्ठते श्रीः । सा स्त्रीस्वभावादसहा भरस्य तयोर्द्वयोरेकतरं जहातिः ॥
गद्य की सरलता के बारे में क्या कहना। यह तो मानी हुई बात है कि इसमें दण्डी और बाण के गद्य की कठिनता का लेश मात्र भी नहीं है। सच तो यह है कि यह जातकमालाओं और धम्पुओं के गद्य से मी
विधाता की गति प्रबल होने पर सिद्धि चाहने वाले समझदार आदमी को चाहे उसमें शक्ति और उत्साह भी हो, चाहिए कि धीरे-धोरे स्थिरता सम्पादित करे । क्या श्रीमान् धर्मनन्दन (युधिष्ठिर) इन्द्र, कुबेर और यम के तुल्य भाइयो वाला होकर भी देर तक त्रिदण्डधारी होकर कष्ट नहीं भोगता रहा १२ राजलक्ष्मी अत्युन्नत राजा और मन्त्री दोनों पर 'पैरों को जमाकर उनकी सेवार्थ उपस्थित होती है, परन्तु