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हर्टल के मतानुसार वर्गीकरण
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दोनों के मतों के भेद बड़े महत्व के हैं, क्योंकि मौखिक ग्रन्थ का पुनर्निर्माण इन्हीं पर चाश्रित है
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(१) दटेल की धारणा है कि सम्पूर्ण उपत्स्यमान संस्करणों का भूत एक दूषित दशमूल ग्रन्थ ( Prototype ) है (जिसे सारखी में 'त' कहा गया है) ऐजर्टन के मतानुसार यह कोरी कल्पना है ।
(२) दर्द का अनुमान है कि तन्त्राख्यायिका को छोकर शेष सम संस्करणों का मूत्राधार 'क' नामक मध्यस्थानस्थ एक आदर्शभूत ग्रन्थ है । ऐजन कता है यह भी तो एक कल्पनामात्र ही है। दर्दन के दृष्टिकोण से कोई पद्य या गद्य खण्ड सभी असली माना जा सकता है जब कि वह तन्त्राख्यायिका में और कम से कम 'क' के शुक प्रसव में मिले। दूसरी पोर एजटेन का ख्याल है कि यदि कोई अंश दो स्वतन्त्र धाराओं में मिल जाए और चाहे तन्त्राख्यायिका में न भी मिले तो भी हम इस (श) को असला स्वीकार कर लेंगे ।
(३) हर्दन की एक धारणा श्रार है। वह कहता है । कि उ०प० (उत्तर-पश्चिमी) नामक, मध्यस्थानीय एक यादभूत संस्कर है जिसके आधार पर दक्षिणी, पह्नवी एवं 'सरल' पञ्चतन्त्र बने हैं । किन्तु उलकी धारणा का साधक कोई प्रमाण नहीं है ।
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हर्टल के मत को मन नहीं मानता है । हर्टल कहता है कि पल्लवी दक्षिण और 'सरल' पञ्चतन्त्र का आधार मध्यस्थानस्थ ३० १० संज्ञक कोई आदर्श ग्रन्थ है; परन्तु इन ग्रन्थों के तुलनात्मक पाह से दो बातों का पता लगता है। पहली इन में परस्पर बड़े भेद है, और दूसरी इनका प्रस्फुटन पञ्चतन्त्र-परम्परा की तीन स्वतन्त्र धाराओं से हुआ है। दर्टल का मत ठीक हो तो 'सरल' और तन्त्राख्यायिका में, या 'सरस' और पूर्णभद्रीय संस्करण में जितनी समानता हो उसकी अपेक्षा पलवी र 'स' में अधिक समानता होनी चाहिए । परन्तु अवस्था इससे बिल्कुल विपरीत है। इसी प्रकार यदि क का मत ठीक होतो, हितोपदेश और दक्षिणी पञ्चतन्त्र में जितनी