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संस्कृत साहित्य का इतिहास
में भी इसकी भाषा में एक असामान्य चमत्कार है। देखिए के चाटुकारों के सम्बन्ध में लिखता हुआ कहता है---
ये केचिन्ननु शाक्य मौग्ध्यनिघयस्ते भूभूत रंजका' ।' मी देवी के एक रमणीय वर्णन में कहा गया है:-- भास्वद्विम्बाधरा कृष्ण केशी सितकरानना । हरिमध्या शिवाकारा सर्वदेवमयीव सा ॥ (७५) छोटे-छोटे ग्रन्थ |
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(१) कुमारपाल चरित या द्वयाश्रय काव्य । इसे जैनमुनि हेमचन्द्र (१०८ - ११७२ ) ने ११६३ ई० के आस-पास दिखा था । इसमें चालुक्य नृपति कुमारपाल और उसके बिल्कुल पूर्वगामियों का इतिवृत्त वर्णित है। इसमें ( २० संस्कृत और प्राकृत में ) कुलमर्ग हैं इसका मुख्य लक्ष्य अपने व्याकरण में दिये संस्कृत और प्राकृत के कथाकरणों के नियमों के उदाहरण देना है । यह जैनधर्म का एक स्पर्धावान् प्रचारक था और इसके वचन पक्षपात से शून्य नहीं हैं । सो से बीसवें तक के लगों में कुमारपाल को जैनधर्म की feeकारिणी नीति पर चलने वाला कहा गया है ।
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(२) पृथ्वीराज विजय में पृथ्वीराज चाहमान (चौहान) की विजयों का वर्णन दिया गया है । यह कृति ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े काम की है किन्तु इसकी एक ही खण्डित और त्रुटिपूर्ण हस्तलिखित प्रति मिली
१ जो शठता और मूर्खता के निधान हैं, वही राजाश्री को खुश रखने वाले हैं ।
२ उसका निचला होट बिम्बाफल जैसा चमकदार (सूर्य-युक्त ) था, उसके बाल काले (कृष्ण- युक्त ) थे, उसका मुख चन्द्रमा जैसा (चन्द्रमा-युक्त ) था, उसकी कमर सिंह की कमर के समान (विष्णु-युक्त ) थी, उसका मुख कल्याणकारी (शिव-युक्त ) था । इस प्रकार मानो वह देवता को लेकर बनाई गई थी।
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